भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित विश्वविख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर की आत्मकथा ‘राग माला’ से एक अंश.
वह सारा संसार जहाँ बनारस में मैं पैदा हुआ था एक ऐसे भारत की तरह था जो दो हज़ार वर्ष पूर्व का था। कुछ मोटरगाडिय़ों, साइकिलों और आधुनिकता के छोटे-बड़े चिह्नïों को छोड़, जो मेरी चारों तरफ थे, हर वस्तु पुरानी थी। जीवन की शैली, नगर के मन्दिर और घाट। घाट (अक्षरश: ढालुवीं जगहें) नदी के तीर एक के ऊपर एक सीढिय़ों की शृंखलाएँ हैं, और बनारस अपने घाटों के लिए प्रसिद्ध है, क्योंकि यही वह जगह है जहाँ आप पूरे जीवन को देख सकते हैं, शिशु-जन्म से लेकर मृत्यु तक। वहाँ हर चीज घटित होती है। नाटक चलते रहते हैं, कृष्ण और राधा के कथा-वर्णन के गीत नर्तकों के द्वारा रूपायित होते रहते हैं या बंगला में गाये जाते भक्ति-कीर्तन और हिन्दी में गाये जाते भजन। बनारस इतना सार्वभौम है; इस तीर्थ-नगर में भारत के सभी भागों से लोग आते हैं। इसके पास ऐसी शक्ति है क्योंकि लोगों की आस्था इससे एकाकार हो जाती है; पुराने हिन्दू विधानों के अनुसार ये लोग यहाँ मरने और अपनी अन्त्येष्टि के लिए आते हैं, क्योंकि उनका विश्वास है कि वह उन्हें तत्काल निर्वाण प्रदान करेगा और इस प्रकार उन्हें पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति देगा।
बनारस का सबसे पुराना नाम काशी है। इस नगर को एक दूसरा पुराना नाम है वाराणसी जो फिर से चालू हो गया है। अँग्रेज भारत की बहुत जगहों के नाम का उच्चारण नहीं कर पाते थे इसलिए उन्हें विकृत कर दिया और कुछ शताब्दियों तक वाराणसी बनारस के नाम से जानी जाती रही।
एक बालक के रूप में मेरी सबसे बड़ी खुशी और उत्सुकता थी अपनी माँ, अपने भाइयों और भाइयों के मित्रों के साथ घाटों पर जाना। वहाँ इतनी अधिक क्रियाशीलता थी, इतना अधिक सहज मनोरंजन, संगीत के इतने विभिन्न प्रकार थे, बनारस में ध्वनि सब जगह है। मन्दिरों और महलों में बजती शहनाई को सुनना…नदी के किनारे महाराजाओं की अटारियाँ और महल थे, उनमें बहुतों के अपने शहनाई-वादक थे। इन संगीतकारों के प्रतिदिन पाँच या छ: समय बजाने के कार्य थे—खूब सुबह, मध्य प्रात:, दोपहर, शुरूशाम, शाम और रात को। निरन्तर कोई भी खास समय बजाये जानेवाले सुन्दर रागों को सुना करता था और कुल मिलाकर यह एक अपने संगीत की रचना करता था। वे सभी राग सचमुच बड़े सुन्दर ढंग से एक लयात्मकता में घुलमिल जाते थे। बनारस में घाटों का यह विशेष स्वर अद्वितीय था। यह आज भी वहाँ है, लेकिन अब पहले जैसा नहीं। अब यह एक कर्कश ध्वनिसमूह हो गया है और हिन्दी फिल्म-संगीत के पॉप, रॉक और रैप तत्त्वों से मिलकर बाजारू हो गया है।
एक युवा भारतीय के लिए जिसके भाग्य में राष्ट्र के शास्त्रीय संगीत के चरम शिखर की उपलब्धि लिखी थी ऐसे उच्चतम आध्यात्मिक वातावरण में पलना-बढऩा एक शुभ आरम्भ था। किन्तु अपनी उपलब्धियों की ओर रविशंकर के विकास का मार्ग परम्परागत नहीं हो सकता था। उनके आरम्भिक वर्ष एक मिश्रण थे, उदात्त और पार्थिव, अभाव और अति, समर्पण और सतहीपन, पूर्व पश्चिम के—एक विशिष्ट हिन्दुस्तानी संगीतकार के लिए एक अपारम्परिक पृष्ठभूमि, तथापि तत्वों की यह विविधता उनमें घुलकर अन्तत: एक सार्वभौमिक कलात्मक रसायन में उभर गयी।
रवि के जन्म के कुछ ही पहले वे कलकत्ता और लन्दन में वकालत करने चले गये। जब रवि अभी कुछ ही महीने के हुए थे, श्याम के सबसे बड़े पुत्र उदय राजकीय कला विद्यालय लन्दन में ललित कला का अध्ययन करने चले गये।
शुरू से ही शुरू करें तो रविशंकर का जन्म बनारस नगर के तिलभंडेश्वर नाम की गली में अपने परिवार के किराये के मकान में 7 अप्रैल, 1920 में हुआ था। हजारों वर्ष पुराना, बनारस एक हिन्दू के लिए पृथ्वी पर सबसे पवित्र स्थान है, महती माँ गंगा के किनारों पर स्थित दो हज़ार मन्दिरों और शिव के निवासधाम का प्रसिद्ध नगर।
रवि के पिता श्यामशंकर चौधुरी पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) के जेसोर के एक ब्राह्मïïण थे। एक उच्चशिक्षा प्राप्त, संस्कारवान बंगाली के रूप में उन्होंने एक राजनयिक, वकील, दार्शनिक, लेखक, शौकिया संगीतकार के रूप में विशेषता अर्जित की अब जो राजस्थान है उसकी एक देशी रियासत झालावाड़ के महाराजा के यहाँ करीब 1905 से उन्होंने दीवान (मुख्यमन्त्री) के रूप में सेवा की थी। इस अवधि में रवि की माँ हेमांगिनी से श्याम का सम्बन्ध-विच्छेद हो गया था और उन्हें बिना तलाक दिए उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया था (तब के भारत में यह कोई गैरकानूनी बात नहीं थी, यद्यपि ऐसी घटना बहुत कम होती थी और इसे अच्छा नहीं माना जाता था। दो विवाहों को अवैध माननेवाला हिन्दू-विवाह-कानून केवल आजादी के बाद ही लागू किया गया था)। रवि के जन्म के कुछ ही पहले वे कलकत्ता और लन्दन में वकालत करने चले गये। जब रवि अभी कुछ ही महीने के हुए थे, श्याम के सबसे बड़े पुत्र उदय राजकीय कला विद्यालय लन्दन में ललित कला का अध्ययन करने चले गये।
हेमांगिनी बनारस से करीब सत्तर मील दूर नसरथपुर नामक एक छोटे से गाँव की थीं। उनके पिता अभयचरण चक्रवर्ती एक समृद्ध जमींदार रहे थे—जैसे श्याम के पिता—और अपने यौवन-काल में वे एक निकट के शहर गाज़ीपुर में पत्थर के एक सुन्दर भवन में रही थीं। किन्तु उनके परिवार के पुरुषों की फिजूलखर्ची के फलस्वरूप वह दौलत चली गयी थी और जब श्याम चले गये, झालवाड़ महाराजा द्वारा पेन्शन पर गुज़ारा करती हुई हेमांगिनी ने अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा किया। रवि अथवा रवीन्द्र जैसा कि जन्म पर उनका नामकरण हुआ था, उनकी अन्तिम सन्तान थे, जीवित अन्य चार भाइयों में सबसे छोटे भाई से इनकी उम्र का अन्तर करीब दस वर्ष का था।
बंगला में जैसा उच्चारण किया जाता है मेरा पूरा नाम है ‘रोवीन्द्रो शौंकोर चौधुरी’। यह नाम ‘रवि’ अर्थात् ‘सूर्य’ संस्कृत से निकला है जो प्राय: सभी आधुनिक भारतीय भाषाओं का उद्गम है। संस्कृत से बंगला में उच्चारण बहुत बदल गया है और इसलिए संस्कृत के ‘रवीन्द्र’ और ‘रवि’ बंगला में ‘रोवीन्द्रो’ और ‘रोवि’ हो गये, अत: बंगला में शुरू में मुझे रोवीन्द्रो पुकारा जाता था (यद्यपि अजीब बात थी अँग्रेज़ी ढंग से यह लिखा जाता था ‘रोवीन्द्रा’) यह तो बाद में हुआ कि जब मैं बीस या इक्कीस वर्ष का था तो मैंने बदलकर अपना नाम रवि कर लिया जिस प्रकार भारत के अधिकतर भागों में प्रचलित है। बचपन से मेरा घर का नाम ‘रोबू’ था। मेरे परिवार के कुछ लोग और मित्र इसी नाम से पुकारते हैं, इसी तरह मेरे भाई राजेन्द्र को राजू पुकारा जाता था और देवेन्द्र को देबू। मैं राजू को मेजदा भी (अर्थात् मंझले भाई) कहता था और देबू को सेजता (अर्थात् सँझले भाई)।
मेरे परिवार की आरम्भिक उपाधि थी चट्टोपाध्याय (अँग्रेज इस शब्द का भी उच्चारण नहीं कर पाते थे, अत: जब वे आए तो इसे उन्होंने चटर्जी में बदल दिया, यही कारण है कि अब बहुत से चटर्जी मिलते हैं जैसे बनर्जी और मुखर्जी (मूलत: बन्दोपाध्याय और मुखोपाध्याय)। बाद में मुसलमान शासकों ने मेरे पूर्वजों को ज़ागीर दी और उन्हें जमींदार बना दिया। उसके साथ ही उन्हें चौधुरी की पदवी भी प्रदान की गयी जिसने उसके बाद आगे चलकर हमारे नाम की उपाधि चट्टोपाध्याय को हटा दिया। कुछ पीढिय़ों तक वास्तव में हम लोगों को हरचौधुरी कहा जाता था क्योंकि हम लोग एक शिवमन्दिर में पूजा किया करते थे (शिव का एक दूसरा नाम हर है)। उदयपुर में जहाँ मेरे भाई उदय सन् 1900 में पैदा हुए थे (जिस पर उनका नाम रखा गया था) मेरे पिता ने चौधुरी उपाधि छोड़ दी थी और उसके बाद केवल शंकर का प्रयोग करने लगे—जिसे तब से आज तक हम लोगों ने कायम रखा है।
मेरी माँ को सात बेटे थे किन्तु, आप मानें या न मानें, बेटियाँ थीं ही नहीं। वे बहुत चाहती थीं कि उन्हें एक बेटी हो—और मैं एक बहन पाने से वंचित रह गया। उदय सबसे जेठे पुत्र थे (और इसलिए हम सभी भाई उन्हें दादा कहते थे), बादवाला बच्चा मृत पैदा हुआ और तब आए राजेन्द्र (1905 में जन्मे), देवेन्द्र (1908) और भूपेन्द्र (1912)।
इसके बादवाला एक असाधारण बच्चा था, जिसका घर का नाम पुचुनिया था जो केवल दस महीने का होकर मर गया, जबकि हर आदमी समझता था कि वह दो वर्ष का था। वह तगड़ा और स्वस्थ था और पाँच या छ: महीने की उम्र में वह अजीब चीजें किया करता था जिस पर कोई विश्वास नहीं कर सकता था। वह बहुत जल्दी चलने और बोलने लगा था, और बड़ा बुद्धिमान था; ऐसी चीजें वह कर सकता था जिनके बारे में दिमाग चकरा देनेवाली कहानियाँ हैं। कभी-कभी महाराजा आते थे क्योंकि इस बालक को वे बहुत चाहते थे। पुचुनिया चाहता था कि महाराजा अपना सिगार पियें और सिगार पीने और धुआँ फेंकने की नकल करता था।
भूपेन्द्र जिन्हें मैं छोटदा कहता था हम सबसे लम्बे थे, लगभग पाँच फीट आठ इंच। वे बहुत सुन्दर थे, घुँघराले बालोंवाले, वे कविता और गीत लिखा करते थे जिनके विषय में मेरे भाई लोग उन्हें तंग किया करते थे। वे फुटबॉल खेलने या किसी दूसरे खेल में रुचि नहीं रखते थे, यद्यपि वे काफी तगड़े थे। कभी-कभी वे लोग उन्हें डोड्डा कहा करते थे, वे घर ही पर रहते थे और एक लडक़ी की तरह रोने लगते थे। मैं उनसे निकटतम था। हम दोनों मित्रों की तरह थे। कभी-कभी हम लोग छत पर साथ बैठा करते थे; वे हारमोनियम बजाते और हम दोनों गाते।
1917 या 1918 में जिन दिनों मेरे पिता झालवाड़ में थे, उन्होंने मिस मॉरेल नाम की एक अँगे्रजी महिला से विवाह कर लिया था। यहीं मेरे माता-पिता के बीच खाई चौड़ी हो गयी थी; वे लोग अलग-अलग रहते रहे थे, और तब मेरी माँ को झालवाड़ में एक भवन दिया गया था। मिस मॉरेल 1925 या 1926 के आसपास ऐसे समय मर गयीं जब मेरे पिता कलकत्ता में वकालत कर रहे थे; उन दोनों को बच्चे नहीं थे। अपने जीवन के शेष भाग को बिताने मेरे पिता पश्चिमी देशों को लौट गये—समय-समय लन्दन, जेनेवा और न्यूयॉर्क में रहते हुए।
1920 में उनके कलकत्ता के लिए झालवाड़ को छोडऩे के बाद मेरी माँ बनारस चली आईं और मेरे तथा मेरे भाइयों के साथ रहने लगीं (दादा पहले ही घर छोड़ चुके थे)। हमारे सभी सरो-सामान के साथ वह झालवाड़ से दो या तीन सन्दूकें भी ले आईं जो उन उपहारों से भरी थीं जो उन्हें दस-बारह सालों में मिले थे। वह महारानी की बड़ी अन्तरंग सखी थीं और जैसा उन दिनों का रिवाज़ था, राज-परिवार में किसी त्यौहार पर या किसी के जन्मदिन पर वे लोग उपहार देते थे—नाक की सोने या हीरे की कीलें, कान की हीरे की बालियाँ, सोने का ब्रैसेलेट, लॉकेट या चेन और सोने की ज़री के काम की कीमती साडिय़ाँ।
यह तय था कि हर महीने झालवाड़ से भेजी गयी पेन्शन हमें मिलेगी। दो सौ रुपये की राशि निश्चित थी, जो उन दिनों के हिसाब से काफी मोटी रकम थी—किन्तु वे रजवाड़ों के दिन भी थे जब कुलीनों के नौकरों में बहुत चोर और लुटेरे भी थे, उनमें से कुछ तो प्रत्येक पाँच या दस रुपये ले लेते थे। एक या दो सालों के भीतर जिस समय तक यह हम लोगों के पास पहुँचता था, सिकुडक़र साठ रुपये हो जाता था—हालाँकि सरकारी तौर पर उन लोगों की बही में यह दो सौ रुपये ही रहता था, एक माँ के लिए उसके बच्चों को देने को, और उनके कॉलेज और स्कूल की शिक्षा, घर-किराया और घरेलू खर्चों और चारों में सबसे छोटे मेरे लिए तो साठ रुपये कुछ नहीं थे (आज की दर से करीब दो अमरीकी डालर)।
मेरे पिता हमें कभी कुछ नहीं भेजते थे, क्योंकि उनके अनुमान से हम लोगों का इन्तज़ाम हो गया था। मैं नहीं जानता कि क्या मेरी माँ इतनी स्वाभिमानिनी थीं कि उन्होंने मेरे पिता को यह जानने न दिया कि वे लोग हमें पूरी रकम नहीं भेजते थे। माँ ने उन्हें कुछ नहीं बताया मैं समझता हूँ मेरे भाइयों ने इसके बारे में उनसे जरूर सम्पर्क करने का प्रयत्न किया था। मेरे लिए यह एक रहस्य था, मेरे पिता का यह पहलू; क्योंकि चाहे जो कुछ भी वे कर रहे थे, पैसा तो हमेशा कमा रहे थे—हो सकता है बहुत ज्यादा नहीं, किन्तु कानूनी सलाह के काम और अध्यापन से उन्हें आमदनी थी। कलकत्ते में कुछ छात्रों की उनकी पढ़ाई में प्रत्येक को एक पाउंड भेजकर वे सहायता किया करते थे (और उन दिनों एक पाउंड अच्छी रकम थी) और मेरी बुआओं (उनकी बहनें) को भी पैसे भेजते थे, जिनमें से कुछ विधवा हो गयी थीं। इन सभी लोगों के प्रति वे बड़े उदार थे, किन्तु जहाँ तक हम लोगों का सम्बन्ध था उन्होंने कोई मदद नहीं भेजी। उस समय यह अजीब लगता था, यद्यपि बहुत बाद में इसे ज्यादा अच्छी तरह मैं जरूर समझ सका।
मैंने अपनी माँ को दुख भोगते देखा। पैसे की उस छोटी राशि से वह घर की व्यवस्था करतीं, हमारी शिक्षा का खर्च उठातीं और हमें कभी भूखा नहीं रहने देतीं—लेकिन हम लोग बड़ी मितव्ययिता से रहते थे। वह एक निपुण रसोइया थीं, जो कुछ भी वह पकातीं हमारे लिए वह अमृत-तुल्य था; अगर वह सादा पालक भी बनातीं तो यह भात के साथ बड़ा सुरचादु लगता। मेरे भाई लोग अपने कुछ मित्रों को घर लाते और वे सभी कहते, ‘ओह, काकी, हम लोग खाना चाहते हैं, हम लोग सुनते हैं कि आप बड़ा अच्छा खाना पाकती हैं।’ मेरी माँ कभी इनकार नहीं करतीं थीं चाहे वे इसके लिए तैयार हों या न हों। वे लोग और माँग-माँगकर खाते, और हम सभी भी। लेकिन जब वे लोग चले जाते थे तो कुछ खाना बचा नहीं रहता था और वे कुछ गुड़ खा लेतीं और नल से भर-बर्तन पानी पी लेतीं। मैं उन्हें ऐसा करते बहुत बार देखता था और उनके लिए दुखी होता था। मैं माँ से बहुत आत्मीय था। मैंने उनकी सारी व्यथा और एकाकीपन देखा, लेकिन तब भी उन्होंने अपनी कटुता नहीं दिखाई; वे पूर्णत: प्रेममयी थीं।
जिन दिनों हम अधिक गरीबी झेल रहे थे, वे सन्दूकों में एक को खोलतीं और सोने की एक चूड़ी या कान की बाली निकालतीं या कोई कीमती साड़ी और शाम को जब सडक़ें अधिक सूनी होतीं, वे एक शाल ओढ़ लेतीं जिससे लोग उन्हें नहीं पहचानें, और मुझे साथ गली के आखिर में मेन रोड की एक दूकान में ले जातीं। यह ऐसी दुकान थी जहाँ तरह-तरह के तेल बिकते थे। दुकान का मालिक हमारा मकान-मालिक भी था और बहुत धनी था, और ‘माताजी’ कहकर मेरी माँ का बड़ा आदर करता था (यह एक भारतीय परम्परा है कि बड़ी उम्र की औरतों को कम उम्र वाले ‘माताजी’ सम्बोधित करते हैं जैसे समवयस्क औरतों को ‘बहनजी’ और बहुत कम उम्रवाली को ‘बेटी’) उन चीजों में से वे किसी को गिरवी रखतीं और सम्भवत: बीस-पच्चीस रुपये पातीं, उन थोड़े दिनों में उन्होंने हमें इसी तरह पोसकर बड़ा किया।
उन्होंने एक सिंगर सिलाई-मशीन भी खरीदी थी और कुछ अतिरिक्त कमाई के लिए वे औरतों के ब्लाउज़ सींतीं जिन्हें कोई आदमी आकर ले जाता। इसमें उनकी मदद के लिए उनके भतीजे बृजबिहारी आकर हम लोगों के साथ रहने लगे। मेरी माँ ने सचमुच बहुत संघर्ष किया।
अब तक हम लोग उसी गली में, जहाँ मैं पैदा हुआ था, एक दूसरे मकान में रहने लगे थे, लेकिन दूसरी तरफ। हमारे सामने बंगाली जमींदारों का एक बड़ा धनी परिवार था जो महाराजाओं की तरह रहता था। उनके पास एक कोठी थी, टेनिस-कोर्ट थे, फूलों से भरी काफी जमीन थी, वृक्ष, फल, सब्जियाँ थीं और थी एक मोटर गाड़ी जो उन दिनों एक बहुत बड़ी चीज होती थी। वे विशेष उत्सव करते थे जिसमें बहुत से प्रसिद्ध संगीतज्ञ उनके घर आते थे, दो भाइयों, उनके बच्चों और पोते-पोतियों का यह एक संयुक्त परिवार था, पोते-पोतियों में बुलू नाम का एक लडक़ा था जो उसी स्कूल में पढ़ता था जिसमें मैं, और हम लोग अच्छे दोस्त हो गये थे। मैं उनके घर खेलने जाया करता था, और मेरे भाई मेजदा भी टेनिस खेलने जाया करते थे।
मेजदा एक खिलाड़ी थे, बनारस में कुछ समय तक बैडमिंटन में वे चैम्पियन रहे, और वे क्रिकेट भी खेला करते थे। संगीत-समिति नामक एक सामाजिक सांस्कृतिक संस्था के वे सदस्य भी थे जहाँ वे वाद्य यन्त्रों को बजाया करते थे—कॉर्नेट, हारमोनियम, दिलरुबा, इसराज़ और एक छोटा सितार भी, जो मेरे घर के कमरे के एक कोने में रखा जाता था। हमारे घर में उनके कुछ वाद्ययन्त्र थे और मेरे लिए वे सबसे महत्वपूर्ण खिलौने थे। जब कभी मेरे भाई लोग बाहर रहते और मेरी माँ रसोईघर में व्यस्त होतीं, मुझसे जितना बढिय़ा हो सकता था मैं सितार झनझनाया करता था। हारमोनियम उससे आसान था, क्योंकि इसमें मुझे कुल मिलाकर करना यही था कि पियानों की पटरियों की तरह इसकी पटरियों को दबाना भर था और बायें हाथ से माँथी दबानी थी। जो कुछ भी गीत मैं जानता था—और मैं रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित कुछ गीत (हम उसे रवीन्द्र-संगीत कहते हैं) अपने मेजदा के एक मित्र बेचूदा से सीख रहा था—जितना ठीक मुझसे बन पड़ता था बजाता-गाता था।
सामनेवाले उसके बड़े मकान में दोपहरों में अपने मित्र बुलू के साथ खेलते समय बिताता था, और यही जगह थी जहाँ पहली बार मैंने वैभव देखा ऊपर तल्ले में रहती स्त्रियाँ—माताएँ, बहनें और चचेरी बहनें—मुझे बहुत मानती थीं। वे ऐसी स्वादिष्ट चीजें जैसे पूड़ी, हलवा और तरह-तरह की मिठाइयाँ और फल संगमरमर की तश्तरियों में परोसकर खिलाती थीं, संगमरमर की टेबुल पर रखे संगमरमर के प्यालों में रस पिलाती थीं, आप कल्पना कर सकते हैं कि कितना बड़ा प्रभाव इसका मुझ पर पड़ा था, चूँकि मेरा परिवार उस समय बड़े कठिन आर्थिक समय से गुज़र रहा था।
ये मेरे आरम्भिक वर्ष थे, चारों तरफ हर चीज देखते हुए, गरीबी और ऐश्वर्य, और बनारस के दृश्यों, ध्वनियों और आध्यात्मिक सुरभि से सिक्त होते हुए।
पढऩा बचपन से मेरा नशा था जिस क्षण से मैंने वर्णमाला पहचाननी शुरू की, मुख्यत: बंगला में और तब अँग्रेजी में। करीब पाँच वर्ष की उम्र में मैंने बंगला में पढऩा शुरू किया, ज्यादातर बच्चों की पुस्तकें, और मैं इसे इतनी जल्दी सीख गया कि करीब एक साल के भीतर मेरे हाथ जो कुछ भी लगा पढऩे लगा। घर में भाइयों की बहुत सी किताबें थीं, जासूसी पुस्तकें, रूमानी कथाएँ और दूसरी कहानियाँ। रवीन्द्रनाथ टैगोर और द्विजेन्द्र लाल राय में रुचि हो गयी थी—जिन्होंने बहुत सुन्दर गीत, पुस्तकें, कहानियाँ और नाटक लिखे थे—और अपने चहेते लेखक शरतचन्द्र चटर्जी की कृतियों में। उसके बाद मैं बार-बार पौराणिक ग्रन्थों की ओर आकृष्ट होता गया। महाभारत और रामायण के महाकाव्य शीघ्र ही मेरे पसन्दीदा हो गये, ठीक जैसे अब मेरी बेटी उनके प्रति आकृष्ट है।
जो कुछ भी मैं पढ़ता मेरी कल्पना को स्फुरित करता था और चूँकि मैं एकाकी था, आईने के सामने खड़ा होना और उन कथाओं को अभिनीत करता। मैं ही नायक था, नायिका था, प्रेमी था या प्रतिनायक। मुश्किल से कोई मेरा साथ देनेवाला था क्योंकि मेरे भाई स्कूल या कॉलेज में होते थे; इस तरह मैं अपना मनोरंजन करता था जब तक मेरा प्रवेश स्कूल में न हुआ और वहाँ मैंने मित्र नहीं बनाए। 1927 और 1929 के बीच मैंने केवल दो वर्षों तक बंगाली-टोला हाईस्कूल में पढ़ाई की। मुझे एक घटना याद है जो आठ साल की उम्र के आस-पास घटी, मेरे वर्ग का एक साथी जो बड़ा नटखट था बहुत दिनों तक मुझे कहता रहा कि उसका परिवार एक घर बनवा रहा था और उसमें बिजली लगायी जा रही थी जो बहुत कम घरों में थी, आखिरकार उसने कहा, ‘मेरे साथ चलो और मैं तुम्हें एक ऐसी आश्चर्यजनक चीज दिखाऊँगा जो तुम्हें बहुत अच्छी लगेगी। तुम इसमें विश्वास नहीं करोगे। हम लोगों के पास मिठाइयाँ और फल हैं और तुम उन्हें ले सकते हो।’’
इस तरह एक दिन क्लास के बाद वह मुझे उस अधबने मकान के पास ले गया जो स्कूल से दूर नहीं था। किसी नये बन रहे मकान की तरह वहाँ चारों ओर चीजें बिखरी पड़ी थीं। वह मुझे एक दीवार के पास ले गया और मुझसे बिजली का एक जिन्दा तार छूने को कहा—और मुझे बिजली लग गयी। कैसा आघातपूर्ण अनुभव था। आप वहाँ मेरे रूप की कल्पना कर सकते हैं। क्रोधित, चिल्लाता और साथ ही रोता हुआ और उसे पीटना चाहता हुआ। यह उसकी कितनी निर्दयता थी और मेरी कैसी मूर्खता—आज भी मैं इसके बारे में सोचता हूँ और अपनी मूर्खता समझ नहीं पाता। उसके बाद मैंने फिर उसे नहीं देखा—मैंने देखना चाहा भी नहीं।
(यह मुझे बिजली-झटके के एक दूसरे अनुभव की याद दिलाता है। 1995 की जनवरी में मेरी सुकन्या और मैं कलकत्ते में एक मित्र के घर ठहरे हुए थे, जहाँ शावर के नीचे नहाते मुझे बिजली लगी थी। लगता है, पानी गर्म करनेवाले गीजर से रिसकर बिजली दीवार में आ गयी थी, और जैसे मैंने दीवार को छुआ मेरा पूरा शरीर लाखों तरंगों और कम्पनों के झटके में आया! पानी और बिजली एक साथ मिल जाने से, यह एक आश्चर्य ही था—मेरे जीवन के अनेक आश्चर्यों में एक—कि मैं जीवित बच गया।)
एक दिन मेरे एक दूसरे दोस्त ने बताया कि हमारे त्रिदेवों (ब्रह्मïा, विष्णु और शिव) में एक भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती (देवी माँ) मनुष्य रूप धारण कर एक घर में आए हैं। स्वभावत: मैं बड़ा उत्कंठित हुआ, और हम लोग क्लास से भाग गये और करीब एक बजे एक धनी आदमी के घर पहुँचे। वहाँ एक कमरे में बैठे बहुत से लोग भजन गा रहे थे और मैंने शिवजी की तरह दाढ़ी और बालों के जटाजूट में एक भद्रपुरुष को देखा। अपने गले में वे रुद्राक्ष की एक माला धारण किये हुए थे जो लाल रंग के सूखे पल के बीजों से बना होता है और माना जाता है कि उससे आध्यात्मिक शक्ति विकीर्ण होती है (यह शिव के अधिकांश भक्तों के द्वारा धारण किया जाता है)। महिला बहुत सुन्दर थीं, गोरे रंग की, लाल किनारी की उज्ज्वल साड़ी पहनी हुई। उनके बाल की भी जटायें हो गयी थीं और ललाट पर एक गोल लाल टीका थीं। वे दोनों इतने प्रभायुक्त थे, विशेषत: वह महिला, कि मैंने अनुभव किया कि वे सचमुच शिव और पार्वती थे।
बहुत वर्षों बाद मुझे पता चला कि वे एक बड़ी प्रसिद्ध महिला योगी थीं, माता आनन्दमयी, उनके आश्रम हर जगह थे, लाखों शिष्यों वाले, लेकिन वे अपनी सफलता के प्रति अनासक्त थीं; वे पूर्ववत् अद्भुत आत्मा बनी रहीं। विवाह के कुछ वर्ष बाद उनके पति उनके शिष्य हो गये थे और जब तक जीवित रहे वैसे ही बने रहे। साठ के दशक के आरम्भ में मैं उनसे फिर मिला और जब मैंने बचपन के दिनों की उस घटना को उन्हें बताया, वे हँसने लगीं। अस्सी के दशक के आरम्भ तक, जब वे मरीं, मैं उनका भक्त बना रहा। वे उन महानतम आत्माओं में एक थीं जिनसे मैं मिला। एक सच्ची सतत प्रेममयी माँ! मैं उनसे बड़ा प्रेम करता था और उनका स्नेह और आशीर्वाद प्राप्त करने में मैं बड़ा सौभाग्यशाली था।
जब तक मेरा परिवार झालवाड़ में रहा संगीत सुनने के बहुत अवसर होते थे। झालवाड़ के अपने संगीतकार नहीं थे लेकिन प्रसिद्ध संगीतकार और नर्तक प्राय: प्रदर्शन के लिए दरबार में आते थे, अत: मेरी माँ ने उनमें से कुछ को, विशेषकर महिला संगीतज्ञों और गायिकाओं को सुना था—प्रसिद्ध नाम थे, जैसे गौहर जान, मलका जान, ज़ोहरा बाई और कज्जनबाई। महाराजा के दरबार में अपने नियमित कार्यक्रम के बाद ये महिला गायिकाएँ महारानी के समक्ष जनाना-दरबार में उपस्थित होती थीं, जो (महारानी) अपने निकट सम्बन्धियों, सखियों और वरिष्ठ अधिकारियों की पत्नियों के साथ होती थीं। कभी-कभी पुरुष संगीकार भी कार्यक्रम देते थे, किन्तु उन अवसरों पर महिलाओं को कुश के महीन बुने चिक के पर्दों के पीछे अँधेरे में बैठना होता था जिसके बीच से वे तो देख सकती थीं मगर जो उन्हें मर्दों की गिगाहों की ओट रखता था। आज तक भारत में एक परम्परा चलती आई है जिसके द्वारा सभी पीढिय़ों की औरतें ढोलक पर एक साथ गाती हैं। विभिन्न उत्सवों जैसे शिशु-जन्म, विवाह, फसल-कटनी का त्यौहार, होली या दीवाली पर औरतें बहुत सुन्दर गाती थीं। मेरी माँ को संगीत की अच्छी-खासी प्रतिभा थी, और उन्हें कोमल मगर बहुत मधुर आवाज का वरदान मिला था; वे कई प्रकार के लोक-संगीत और ठुमरी, कजरी और दादरा जैसे अर्ध-शास्त्रीय संगीत भी जानती थीं।
बनारस में तीसरी मंजिल की समतल छत पर शाम को अपनी माँ की गोद में सर रखकर लेटना मुझे बड़ा सुखप्रद लगता था। वे मुझे थपकी देती थीं और रात्रि के निर्मल (उन दिनों प्रदूषणमुक्त) आकाश को निहारता मैं उनकी सुन्दर आवाज में उनका गाना सुनता था। बिना चन्द्रमा का आकाश मुझे अच्छा लगता था; नक्षत्रों की ज्योति इतनी प्रखर होती थी कि वे अपना ही प्रकाश फेंकते थे। वे मुझे सभी तारों के नाम बताती थीं और हमारे देवी-देवताओं की पौराणिक कथाएँ सुनाया करती थीं। कभी-कभी, चूँकि बात करने को कोई दूसरा नहीं होता, वे अपने झालवाड़ के दिनों के बारे में बोलतीं कि कैसे मेरे भाई राजकुमारों की तरह रहा करते थे; वे सबसे अच्छे स्कूलों में पढ़ा करते थे और खेलने के लिए उनके पास बाघ का एक बच्चा भी था। नौकरों, नौकरानियों और मालियों के विशाल दल और संतरियों, जो उन्हें और मेरे भाइयों को हर बार गुज़रने पर सलामी ठोंकते थे, के साथ वे अपनी कोठी का वर्णन करती थीं। मुझे ये सारी कहानियाँ एक परी-कथा की तरह लगती थीं और मुझे कुछ-कुछ ईष्र्या भी होती थी।
वे अपने बचपन के बारे में भी कहानियाँ कहती थीं, विशेषकर अपने दादा के मनमौजीपन के बारे में जो क्रोधी मगर साथ ही बड़े उदार-हृदय थे, जिन्हें जीवन को भोगने की उद्दाम बुभुक्षा थी और सबसे अच्छे पहलवानों, घोड़ों और—जैसी कि आप उम्मीद करेंगे—रखैलों पर पैसा बहाने का शौक। वे बड़े धनी जमींदार रहे थे। असल में उन्होंने ही गाजीपुर की कोठी बनवाई थी और नसरथपुर में उनके बंगले और मकान भी थे। दोनों जगहों के बीच यात्रा के लिए वे दो घोड़ों की एक तेज गाड़ी का उपयोग करते थे, यद्यपि उन्हें गाजीपुर में जो उन दिनों अपने सचमुच उत्कर्ष पर था, रहने में ज्यादा मज़ा आता था। वह कोठी पूरी की पूरी पत्थर की बनी और परम्परागत शैली में जालीदार नक्काशी से सजी एक भव्य भवन थी, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद सबकुछ बेमरम्मत हालत में छोड़ दिया गया। उनके बेटों ने पारिवारिक परम्परा के अनुसार नसरथपुर में फिर रहना शुरू किया, जिससे, मेरे बचपन में, जब कभी हम बनारस से बाहर जाते थे, जैसे हम गर्मी में (मेरे भाइयों के स्कूल या कॉलेज की छुट्टियों में) तो गाजीपुर नहीं, नसरथपुर ही जाते थे। मैं उस कोठी में गया जरूर था और वहाँ एक-दो रात टिका भी था, लेकिन मेरी पहली यात्रा तक वहाँ रहने लायक केवल थोड़े से कमरे बचे थे।
हर साल नसरथपुर में वे दो महीने जो मैं बिताता था, अविस्मरणीय होते थे। ज्यादातर हम लोग छोटो दादामोशाय के घर ठहरते थे जो मेरी माँ के चाचा थे। बारामदेवाले एक चौकोर आँगन की चारों ओर उनका एकतल्ला मकान अवस्थित था। एक बहुत बड़ा बागीचा था—उसके कुछ भाग में इतने पेड़ थे कि यह एक जंगल की तरह लगता था—जो करीब बीसों प्रकार के उष्णकटिबंधीय रसदार फलों वाला था, सीताफल, जामुन, आम, लीची, अमरूद, कटहल। उस घर में मेरी करीब दर्जन भर जवान मामियाँ, मामा और ममेरे भाई थे जिनकी उम्र चार से चौदह वर्षों के बीच थी, और सारा दिन हम लोग लुका-छिपी खेलते बागीचे में घूमते रहते थे, पेड़ों पर चढ़ते और उन अद्भुत फलों को खाने को टूट पड़ते। 114 डिग्री फाहरेनहाइट वाले उस उमस भरे मौसम में, बाग के उस गहरे कुएँ के लिए हम बड़े कृतज्ञ थे। उसका पानी बर्फ की तरह ठंडा रहता था, भीषण गर्मी में भी। हम सभी एक कतार में बैठ जाते थे और अपनी बारी की प्रतीक्षा करते थे जब नौकर कुएँ से बाल्टी में पानी खींचते और एक-एक कर हम लोगों पर उँड़ेलते थे। हम लोग आनन्द में चिल्लाते थे। हममें जो शहरी थे उन्हें दोपहर में देशी ढंग से ठंडा किये अँधेरे कमरों में झपकी लेनी पड़ती थी। छत के बीच एक विशेष प्रकार का पंखा था जिसे एक नौकर लडक़ा बाहर दीवार के पास बैठकर एक रस्सी के द्वारा खींचा करता था। खिड़कियाँ और दरवाजे खसखस की टट्टी से बन्द रहते थे, सुगन्धित कुश की पट्टियाँ जिन्हें थोड़ी-थोड़ी देर पर पानी छिडक़कर रखा जाता था। बाहर के गर्म झोंके इन टट्टियों से होकर ठंडी हवा हो जाते थे। एक सुगन्ध-युक्त एयरकंडिशनिंग का असर होता था। यह आनन्ददायक रूप से शीतल होता था। आज हम जिस बिजली पर आश्रित हैं उसके बिना भी जीने में पुराने जमाने के लोग कितने चतुरबुद्धि थे।
नसरथपुर के बड़े भोजों के विषय में आपको अवश्य बताना चाहूँगा (भोजन सदा मेरा प्रिय विषय होने के कारण)। मेरे सभी बड़े मामा शिकारी थे और बहुत से शिकार मारकर लौटते थे: बत्तखें और तीतर, कभी-कभी जंगली हरिण और एक बार तो एक जंगली सुअर भी। वे दूर की झीलों और अपने बड़े पोखरों से झींगा, केंकड़े और दूसरी मछलियाँ पकड़ते थे। पकाने का भार मेरी माँ की चाची पर था। वे एक लम्बी, तगड़ी और आकर्षक महिला थीं और एक बेजोड़ रसोइया। हम लोग उन्हें नानी के बदले ‘बोउदी’ कहते थे, क्योंकि नानी पद के हिसाब से वे बहुत कम उम्र की थीं। मेरी माँ और सभी छोटी मामियों की सहायता से वे दर्जनों स्वादिष्ट भोजन तैयार करती थीं—मुर्गी और खस्सी का मांस, शिकारियों की पकड़ी मछलियाँ और मांस, बाग की सब्जियाँ, सलाद, चरपरे और खट्टे मसाले और चटनियाँ, खास तरह की रोटियाँ और चावल, सारा पकाना शुद्ध घी या तेल में होता था। घर की बनी पुष्टिकर मक्खनदार छाछ, घर की गायों और भैंसों के दूध से बनायी जाती थी और हर खाने का अन्त हम लोग मलाई, रबड़ी, खीर या दूसरी मिठाइयों से करते थे। वे अद्भुत खाने होते थे। ध्यान रखिये, यह भर दिन में दो बार होता था। हम लोग दोपहर का खाना करीब दो बजे खाते और तब जब हम उछल-कूद करते लडक़े दिन भर धमाचौकड़ी करके थककर चूर हो जाते, तो रात दस या ग्यारह बजे हमें खाने के लिए फिर जगाया जाता, इस सबके ऊपर जीभर कर भोर का नाश्ता था और सुस्वादु नमकीन के साथ दोपहर की चाय। ऐसी कुशलता और स्नेहपूर्ण ढंग से बनाये भोजन और अनजान मसालों की सुगन्ध मुझे आज भी याद है।
बनारस में घर पर, हर पूर्णिमा को, भगवान विष्णु की आराधना का विशेष आयोजन सत्यनारायण पूजा हम लोग करते थे। उन अवसरों पर भोग की जो चीजें बनती थीं मुझे बहुत प्रिय थीं: कतरे गये फल और मिठाइयाँ खासकर सिन्नी, एक विशेष मिष्टान्न जो दूध, आटा, कतरे केलों, किशमिश, काजू, पिश्ता और दूसरे फलों से बनता था। यह बड़ा अच्छा लगता था खासकर चूँकि हम लोगों ने कभी इतने प्रकार के भोजन नहीं पाये थे। अपने झालवाड़ के शुरू के दिनों में भाइयों ने तो इसे अनुभव किया था, लेकिन मेरे लिये तो इन साधारण चीजों का भी बहुत महत्त्व था।
अपने बाल्यकाल की उस अवधि में मैं अपनी माँ के बहुत निकट अनुभव करता था। नाटकों से वे बहुत से बंगाली गीतों को जान गयी थीं। उन दिनों केवल मूक फिल्मों का ज़माना था, इसलिए ज्यादातर लोकप्रिय गीत तो प्रसिद्ध रंगमंचीय गीतिनाट्यों से आते थे। दशहरे में हर रात इनमें से कोई नाटक होता था (दशहरा जिसे दुर्गापूजा भी कहते हैं रामायण-वर्णित राम द्वारा रावण की पराजय का वार्षिक पर्व है जो सितम्बर-अक्टूबर के आसपास मनाया जाता है। इसकी चार-पाँच दिनों की अवधि में अपने भाइयों और दूसरे व्रतियों की भीड़ के साथ हम खूब सबेरे दुर्गामन्दिर जाते थे)। नाटकों के बहुत से क्लब थे जिनमें मेजदा का क्लब संगीत-समिति भी था और कुछ कलकत्ते के, जिनमें से प्रत्येक एक नाटक की तैयारी के लिए तीन-चार महीनों तक रिहर्सल करता था। ये दशहरापर्व के मुख्य आकर्षण थे, और मेरी माँ उनसे बहुत से गीत जान गयी थीं।
इनमें से कुछ नाटकों को मैं देखने जाता और उन्हें बड़ा भावोत्तेजक पाता था, यद्यपि कुछ देर के बाद मैं अकसर सो जाता था—जैसा सभी बच्चे करते हैं। एक अवसर पर जब मैं सात या आठ साल का रहा होऊँगा, संगीत-समिति के द्वारा अभिनीत नाटक बिल्वमंगल जिसे विभिन्न प्रकार से पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी के कई महान सन्तों के जीवन से जोड़ा जाता है, के खेल के दौरान एक विचित्र घटना हुई। यह कथा एक धनी और भले आदमी के बारे में थी जिसे सुन्दर पत्नी थी मगर वह एक वेश्या के प्रति आसक्त हो गया था। वह उसे चाहती थी लेकिन हमेशा उसे समझाती थी, ‘तुम्हारे घर में तुम्हारी ऐसी सुन्दर पत्नी है। उसे छोडक़र तुम कैसे मेरे पास आ पाते हो?’ उसकी बुद्धि मारी गयी थी, और वह बार-बार उसके साथ रहने और उसके गीत सुनने उसके यहाँ जाया करता था।
एक दिन गयी रात बड़ा पानी बरस रहा था और उस वेश्या के घर के आगे का दरवाज़ा बन्द था। वह अधीर उसे भीतर बुलाने के लिए पुकार रहा था, लेकिन वेश्या ने अस्वीकार कर दिया। तब उसने बारामदे से लटके एक रस्से को देखा और उसके सहारे चढक़र उसके कमरे में आ गया। उसे देख हक्की-बक्की वेश्या ने पूछा, ‘तुम घर में कैसे आए?’ जब उसने सारी बात बतायी तो वह घबरा गयी, क्योंकि बाहर कोई रस्सा लटक तो नहीं रहा था। वे दोनों देखने गये—और देखा कि यह एक साँप था। अब वेश्या ने साफ जवाब दे दिया—‘तुम यह क्यों कर रहे हो? मात्र मेरे इस शरीर के लिए? तुम इतने दीवाने हो कि तुमने एक रस्से और एक साँप में फर्क नहीं समझा। यह प्रेम जो तुम कहते हो कि मुझसे करते हो; यदि तुम उसका एक चौथाई भी परमात्मा को समर्पित करते तो तुम्हें उनके दर्शन हो जाते और तुम मुक्त हो जाते।’ इन शब्दों से उसे एक धक्का लगा, वह पलटा और घर चला आया। उसके बाद वह महान सन्तों में एक हुआ और उसने बड़े सुन्दर भजन लिखे।
उस शाम नाटक के दौरान मैं न सो सका, मैं बड़ी विह्वïलता से इसे देख रहा था। मध्यान्तर में मेजदा के मित्रों में एक मुझे चिढ़ा रहा था; ‘वह लडक़ी तुम्हें कैसी लगती है जो नायिका है?’ नाटक के वस्त्रों और विस्मयकारी मेकअप में वह सचमुच मुझे बड़ी सुन्दर दिखती थी। मुझे उस पात्र से प्रेम हो गया था। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उससे मिलना चाहता था। मैंने सोचा ऐसी चीजें करना उचित नहीं और मैं शरमाता था—लेकिन फिर भी भावोद्दीप्त वह मुझे रंचमंच के पीछे ले गये जहाँ सभी पात्र आराम कर रहे थे।
फिर भी, उन दिनों इन नाटकों में औरत की भूमिका केवल मर्द ही करते थे। रंगमंच के पीछे उस पात्र ने अपना नकली केश, ब्लाउज़ और बनावटी स्तन उतार दिए थे। आराम के लिए तह की गयी साड़ी के साथ वहाँ बैठा वह बिलकुल काला-कलूटा था और पी रहा था, उसमें भी बीड़ी, जो ज्यादातर मजदूर और गरीब तबके के लोग पीते हैं। मैं इसे समझ नहीं पाया क्योंकि मुझे बताया गया था कि वह तो एक ‘औरत’ था। मेजदा के मित्र अब लोट-पोट हो रहे थे, बार-बार कहते हुए—‘रोबू को तुमसे प्रेम हो गया है,’ बालों से भरी काली छाती और टाँगों वाला वह पात्र एक हिजड़े की तरह लगता था। हर आदमी हँस रहा था, किन्तु मैं रोने लगा और घर जाना चाहने लगा, अत: आखिरकार मैं पूरा नाटक न देख सका, कैसी आघातपूर्ण अवमानना!