ठहरना भी किस तरह : अंतिम अरण्य

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पूनम अरोड़ा

कोई भी कृति नितांत रूप से एक व्यक्तिगत यात्रा होती है. एक ऐसी यात्रा जिसकी राह पर चलते-चलते हम अनजाने में ही कुछ छोटे कंकड़ (स्मृतियाँ) अपने सामान के साथ रख लेते हैं या कभी किसी ध्वनि के साथ अपने अतीत में खो जाते हैं. लेकिन प्रश्न यह है कि आखिर वे स्मृतियाँ समय के किस काल-खंड से अचानक सामने आ जाती हैं और न जाने कब तक वहीं ठहरी रहती हैं ? फिर एक दिन समय दो हिस्सों में बंट जाता है और स्मृतियाँ भी अपना-अपना हिस्सा चुन लेती हैं. क्या ऐसा नहीं लगता कि यह स्मृतियाँ भी कोई अबूझ पहेली हैं जिसके अतीत की राख अभी भी गर्म है.

‘अंतिम अरण्य’ का काल-खंड भी उसी अबूझ पहेली की तरह एक संसार रचता है. ऐसा संसार जिसमें पात्रों की मनोदशा स्थिर होने का जितना अहसास कराती है दरअसल वह उतनी ही बेचैन है, उद्वेलित है. निर्मल वर्मा की अन्य कृतियों की तरह ‘अंतिम अरण्य’ भी भाषिक सौंदर्य में एक ‘निजता’ को साथ लेकर चलती है. इन पात्रों को समझना कठिन नहीं, न ही वे कठिन दौर से गुज़र रहे हैं बल्कि यह कहना सायास होगा कि इन पात्रों के आंतरिक वेदना पर हल्की सी भी उंगली नहीं रखी जा सकती, न ही हस्तक्षेप की और न ही सांत्वना की. जैसे जल की ऊपरी शांत सतह को (उसकी आंतरिक हलचलों के बावजूद) हल्का सा छुआ भी जाये तो उसमें दूर तक लहर बनती है. और यह एक अनावश्यक दखल होता है. इन्हें केवल उस दृष्टि से देखा जा सकता है जिसमें उनके प्रति कोई तुच्छ दोष या इच्छा न हो. निर्मल अपने इस उपन्यास में कथानक से कहीं अधिक घटनाओं के बोध में पात्रों के जीवन को तरबतर कर देते हैं लेकिन थोड़ा और पास जाने पर इस बात पर हैरानी होगी कि दरअसल वे घटनाओं में भी ‘अंतिम अरण्य’ को नहीं बांध रहे बल्कि घटना के बाद बचे तंतुओं को खामोशी से सींच रहे हैं, उसे स्वर दे रहे हैं या उनकी चुप्पी को शब्द दे रहे हैं. कुछ भी मान लिया जाए तो भी किसी एक धुरी पर खड़ा होकर यह नहीं कहा जा सकता कि कोई भी पात्र फिर चाहे वो मेहरा साहब हो, तिया हो या अन्ना जी हो या दीवा हो वे एक दूसरे की उपस्थिति को कभी आहत मन से देखते हैं. और यह वाकई एक बड़ी बात है कि जीवन की वे तमाम कोशिशें खर्च कर दी गई थीं जिन्हें बड़ी आसानी से अपने सुविधा क्षेत्र में रखते हुए वे सभी पात्र अपने-अपने रास्ते जा सकते थे लेकिन निर्मल अपने पात्रों के लिए ऐसा नहीं सोच पाते.

मैं यहाँ किसी भी पात्र का नाम नहीं लेना चाहती कि ये पात्र इस मोड़ पर उस पात्र से अधिक हताश था या उस पात्र की उपस्थिति/अनुपस्थिति दूसरे पात्र के लिए एक दंश थी   क्योंकि ऐसा करना निर्मल के पात्रों के साथ निर्मम अपराध होगा. जिस नैराश्य को वे अपनी श्रद्धा देते हैं उस श्रद्धा को सरलता से किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता. जिस भीतरी संसार की गिरहों में इस उपन्यास का मूल मर्म है वह पूरी तरह से एकांत का बना है और एकांत में ही खुलने की सुविधा पाकर खुद को सामने लाता है. 

इस उपन्यास को पढ़ते हुए बहुत सारे प्रश्न मन में उठने लगते हैं लेकिन उनका उत्तर शायद ही पाया जा सके. इसके भी कई कारण हैं. जैसा जीवन जीने का प्रयास मनुष्य करता है उसे हर बार वैसा संसार मिल जाये यह ज़रूरी भी नहीं. लेकिन इस मिमांसा में वह अपने जीवन के अर्थों को समझने का प्रयास अवश्य करता रह सकता है. ऐसा ही कुछ ‘अंतिम अरण्य’ के पात्रों के साथ होता है. मेहरा साहब अंत तक यह कभी नहीं जान पाते कि आखिर वे अपने मन के भेद या बातें क्यों लिखवाते हैं? हालांकि उनकी पत्नी दीवा की पहल पर ऐसा होता है लेकिन यह बात विचार करने योग्य है कि एक इंसान जो लगातार बीत रहा है वह अपने बीतने को और बीते हुए को कैसे शब्द दे सकता है? क्या यह एक किस्म का डर नहीं? डर, कि यह अनदेखे और अनभोगे सत्य भी हो सकते हैं जिनकी वास्तविकता को यथार्थ में कहीं छुपा दिया गया हो. 

जीवन की सत्ता के सूक्ष्म अवलोकन में साधारण दैनिक क्रियाओं का होना इस बात की तरफ इशारा करता है कि मनुष्य एक साथ कई जीवन जीता है और पूरा समाज(जितना भी उसके आस-पास है) कई बार उसका गवाह होता है और कई बार नहीं. यह बात भी सच है कि इस दूसरी बात की संभावना कम होती है क्योंकि समाज मनुष्यता के भीतरी आवेगों और  द्वन्दों से मुँह भी मोड़ लेता है और मोह भी छोड़ देता है. ऐसे में क्या किया जा सकता है? ‘अंतिम अरण्य’ इस भाव दशा को सूक्ष्मता से अपने पात्रों और उनके मनोभावों के द्वारा दिखाता है. चाहे वह घटना सुबह जंगल में पतली पगडंडी से नीचे उतर कर पानी भर कर लाने की हो और काली का पूछ हिलाते हुए साथ चलना हो या मेहरा साहब के अंतिम संस्कार के समय आई बारिश की हो. यह घटनाएं वैसे ही बीतती हैं जैसे हमारे अपने जीवन में बीतती हैं लेकिन यह उपन्यास इस तरह की मोहलत देता है कि हम वे मनोभाव भी देख पायें जिन्हें शायद अपने आस-पास न देख पाते. यह एक तरह की मॉक ड्रिल(तकनीकी भाव में) होती है जिसकी सहायता से जीवन के बारे में कितनी सहृदयता रखनी चाहिए, मनुष्य सीख पाता है. यह गुण निर्मल की इस औपन्यासिक कृति की मुख्य विशेषता है.

साहित्य जिस तरह से अन्तर्जगत में प्रवेश करता है उसी तरह से सार्वभौमिक प्रेरणाओं या अवगुणों का भी एक मानदंड तैयार करता है. यह विकसित चेतनाओं के लिए नवीन चुनौतियों का रास्ता आसान करता है, साथ ही उन व्यक्तियों पर भी कार्य करता है जो वास्तविक आपदाओं से, सत्य के मूल्यों से दूर भागते हैं. सौभाग्य से निर्मल भी अपने उपन्यास में यह तत्व दोहराने में सफल हुए हैं. अतीत को देखना कोई बहुत सरल बात नहीं न ही उस समय से गुज़र जाना आसान है जिसकी राह में कुछ अधूरे काम छूट गए हों लेकिन यही जीवन की विडंबना है कि मनुष्य को एक जगह आकर हर वो कार्य अधूरा छोड़ देना पड़ता है जिसके लिए पूरी उम्र तक वह अनेक उपक्रम करता आ रहा होता है. 

अंतिम समय में मेहरा साहब की अस्थियों का एक पोटली में बंधा हुआ होना और उन्हें नदी में बहाना, यह घटना जीवन के अंतिम सत्य में ले जाती है और यहीं से प्रारंभ होता है उन आंतरिक यात्राओं का फिर से नींद से जागना जिन्हें मनुष्य कभी अपनी मर्ज़ी से तो कभी दूसरों के इच्छाओं का गुलाम बना देता है.

‘अंतिम अरण्य’ के किसी एक पक्ष को देखना भी उतना ही अधूरा है जितना किसी का अपने प्रिय से आखिरी(और अंतिम) बार न मिल पाना और उससे उपजा विषाद. वे आवाज़ें (पात्रों के अस्तित्व की छटपटाहट)जो अपनी पूरी क्षमता के साथ बिना किसी खिलवाड़ और दखल के बहुत सी जगहों पर ठहर भी सकती थीं लेकिन अपने होने की ही बेचैनी के कारण वे कभी नहीं जान पाई कि आखिर ठहरना भी है तो किस तरह?

जीवन का अधूरापन और अस्तित्व(वाद) का सैद्धांतिक पहलू उपन्यास के लगभग हर पात्र में दिखाई देता है. एक खोज जिसके इर्द-गिर्द तिया भी भटक रही है, अन्ना जी भी, मेहरा साहब भी और उनका स्टेनो भी, वह कैसी और किसकी खोज है? यह एक अनसुलझी व्यथा की तरह रह जाती है. उसी तरह जिस तरह किसी भौतिक वस्तु से लगाव या चाह के कोई कारण नहीं बतायें जा सकते लेकिन वही वस्तु एक दिन व्यर्थ भी हो जाती है. 

सुख की कारुणिक कातरता, अवसाद का उजाला या किसी अस्तित्वगत खोज से इतर ‘अंतिम अरण्य’ को यदि पढ़ा जाए तो यह एक ऐसी कृति में बदल जाएगी जिसका अंतिम छोर कोई भी कभी नहीं छूना चाहेगा.


पूनम अरोड़ा : इतिहास, मास कम्युनिकेशन और हिंदी में स्नातकोत्तर उपाधियाँ. इनकी दो कहानियों ‘आदि संगीत’ और ‘एक नूर से सब जग उपजे’ को हरियाणा साहित्य अकादमी का युवा लेखन पुरस्कार मिल चुका है. 2016 में एक अन्य कहानी ‘नवम्बर की नीली रातें’ भी पुरस्कृत है. पूनम ने कहानी, कविता को संगीत के साथ मिलाकर अपनी आवाज़ में कई रेडियो शो भी किये हैं. कविताओं, कहानियों और आलेखों का प्रकाशन समास, अकार, हंस, नया ज्ञानोदय, पूर्वग्रह, कथादेश, पाखी, कथाक्रम, अहा ज़िंदगी, परिकथा आदि पत्रिकाओं में हो चुका है. ‘कामनाहीन पत्ता’ नाम से काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुका है. फरीदाबाद हरियाणा में निवास. पूनम से आप इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं—shreekaya@gmail.com


अंतिम अरण्य : निर्मल वर्मा [उपन्यास], मू. 195, वाणी प्रकाशन, दिल्ली। आप इसे  अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.



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