मज़दूरों जीवन की पीड़ा का आख्यान : धर्मपुर लॉज

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राजनारायण बोहरे

“धर्मपुर लॉज” उस पीरियड उपन्यास का नाम है जो कथाकार प्रज्ञा ने  दिल्ली की सब्जी मंडी, मुकीम पुरा, बिरला मिल, घंटा घर और आसपास के जनजीवन पर लिखा है । इस उपन्यास का कालखंड सन 1980 से 1998 के बीच का है।  धर्मपुर लॉज उस भवन का नाम है, जो कि बिरला मिल की मजदूर यूनियन के कार्यालय के रूप में काम करती थी।यह भवन इन सत्रह– अठारह सालों में यह कार्यालय इस इलाके के हर सुख-दुख से जुड़ा रहा है और यह सब मुमकिन हुआ है एक व्यक्ति के कारण जिनका नाम है गुरु राधा कृष्ण!

 एक कालखंड विशेष का होने के बाद भी प्रज्ञा की भाषा की रवानगी, विशिष्ट शैली का कमाल है कि पाठक इस उपन्यास में रमा रहता है । नंदन, त्रिपाठी और संजय नाम के तीन चरित्रों की किशोरावस्था से आरंभ हुआ यह कथानक इन तीनों के प्रौढ़  हो चुकने तक घटित होता है । दसवीं कक्षा में पढ़ते ये तीनों दोस्त स्कूल से घंटा पार करना सीखते हैं, तो  सिगरेट पीने की ललक तक पहुंचते हैं। एक झगड़े में त्रिपाठी को चाकू लग जाता है तो यजी सीधे लड़के झगड़ते नह ब्लिक तीनों ही अपनी कक्षा के नियमित छात्र के रूप में लौट आते हैं। यह तीनों दिल्ली के निम्न मध्यवर्गीय इलाजे में रहते हैं जिसके पास मजदूर वर्ग का इलाका है। दिल्ली नगर निगम में इस इलाके का प्रतिनिधित्व करते हैं हर दिल अजीज राधा कृष्ण गुरु। जी ट्रेड यूनियन लीडर भी हैं। वे बच्चों को पुस्तकालय खुलवाते हैं ,तो इलाके के लोगों के घरों को बेदखल होने से भी जी जान लगाकर बचाते हैं और 1984 के सिख विरोधी दंगे के लोमहर्षक वातावरण में सिखों को सुरक्षित स्थानों पर न केवल रखते हैं , ऐसे में ही एक सिख युवती का ब्याह भी कराते हैं। तीनों किशोर अपने स्कूल में आयोजित होने वाली यूथ पार्लियामेंट के सिलसिले में गुरु राधा कृष्ण से मिलते हैं तो उनसे दिल से जुड़ जाते हैं  बाद में कम्युनिस्टों की छात्र यूनियन  से जुड़ते हैं और कम्युनिस्ट आंदोलन के मुताबिक गुरु से खूब गरमा गरम सवाल-जवाब भी करते हैं। 

 संजय सोनकर के मीट विक्रेता पिता सुभाष सोनकर और उनके परिवेश  की अपनी कथा इस उपन्यास में हैं ,तो त्रिपाठी द्विजेंद्रनाथ के पिता बृजेन्द्र नाथ त्रिपाठी के परिवार की कथा भी, उनके पड़ोसियों की भी और बृजेंद्र नाथ के एक प्रेम या देह प्रसंग की भी कथा इस उपन्यास में र्प्सप्रसंगानुकूल  है । यहीं नंदन के ताऊ भाई जी , चचेरी  बहन कांता की अपनी कथा है।  कांता के प्रति संजय का आकर्षण है पर ब्याही जाती है सूर्य प्रकाश नामक बदतमीज और बदसूरत दिखते प्यून के साथ जो  साथ  जो कांता का जीवन हराम कर देता है ,अंत में उसे घर से ही निकाल देता है जिसे नंदन ही संभालता है । उधर कॉलेज पहुंचकर त्रिपाठी का नाम डी एन रखा जाता है,  इसका प्रेम विवाह मीरा से होता है।

एक चुनावी साजिश में गुरु  को पराजित किया जाता है तो वे टूट जाते हैं कि तभी एक जनहित याचिका के सिलसिले में दिल्ली की बस्ती में चल रही सैकड़ों फैक्ट्री के बाहर स्थानांतरित कर देने का निर्णय सन  1994 में सर्वोच्च न्यायालय जारी करता है । मजदूरों में हाहाकार मच जाता है, क्योंकि एन केन प्रकारेण  उत्पादन में लगे पुराने मिल न तो यहां से हटके नए स्थान पर जमीन लेकर नए कारखाने बना सकने की स्थिति में है ना मजदूर अपने पढ़ते लिखते बच्चों को लेकर दिल्ली से बाहर जाने की स्थिति में है। यह पक्ष न्यायालय के समक्ष कोई नही रखता है , न स्व प्रेरणा से न्यायालय मानव जीवन की त्रासदी से जुड़े इस विषय में कोई नई व्यवस्था बनाता है। विरला मिल का हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले के बददी में  स्थापित करने का निर्णय होता है और मिल प्रबंधन की  बदमाशी के चलते सारे मजदूर एबजी बता कर हटा दिए जाते है और  नई जगह मजदूरों के 20 फीसदी मजदूर ही जगह बुलाए जाते हैं। जिन्हें भी जॉइन करने में दांतो पसीना आ जाता है। ईस बीच राजस्थान में पी आर ओ हो चुका नन्दन बद्दी  पहुंचकर स्थिति से रूबरू होता है।उपन्यास का  अंत बहुत निराशाजनक स्थितियों में होता है।

इस उपन्यास की कथा योजना बहुत शानदार है। उप कथाएं बड़ी सघन रूप से बुनी गयी हैं ठीक  इसकी भाषा की तरह। दिल्ली की गलियों में बसें विभिन्न प्रांतों के लोगों की भाषा को प्रज्ञा ने बड़ी कुशलता से जस का तस उपयोग में लिया है ।

अपने समकालीन राजनीतिक घटनाक्रम यानि सन 1980 व 85 के चुनाव, सफदर हाशमी की हत्या, सिखों की त्रासदी इत्यादि प्रसङ्ग इसी अवधि में घटते हैं तो उपन्यास की कहानी में पाठक पता लगता है , पात्रों की हलचल से जानकारी मिलती है, यानी समकालीन घटनाएं अपनी पूरी अर्थवत्ता के साथ उपन्यास में आती हैं।

 उपन्यास के संवाद रचते वक्त प्रज्ञा ने अपने पूरे भाषा कौशल को उपयोग में लिया है, संवाद कथा को आगे बढ़ाने वाले है।एक संवाद देखिए- “हम भला मिल मजदूरों के बीच क्या काम करेंगे हम तो कॉलेज के स्टूडेंट हैं” त्रिपाठी से रहा ना गया  “देखो जितेंद्र तोड़ने वाली ताकतें भी इसी सोच से हमला करती हैं ! यह तो औरतों का मुद्दा ठहरा ,यह मजदूर का है ,यह किसान का है ,यह सरकारी नौकरी वाले का! इससे बड़ी आसानी से टुकड़े कर दिए जाते हैं। हम अलग , वो अलग । कोई जात से अलग ,कोई पैसे से, कोई काम से अलग। जबकिं समाज में तो सब लोग आते हैं। जाति ,धर्म ,भाषा, लिंग, संप्रदाय के आधार पर  सत्ताएँ  हमेशा से बांटने का काम करती आई हैं। पर साझी  लड़ाई दूर तक जाकर  असर दिखाती है ।यही वास्तविक  मुक्ति है।”  गुरु राधा कृष्ण कथा उपन्यास का सबसे अच्छा, ऊंचा और गहरा  बौद्धिक स्थल है।

उपन्यास में मजदूरों की  घरेलू स्थिति, यूनियन के लाभ और मिल प्रबंधन के अपने जोड़-तोड़, पुरानी मशीनों से अधिक उत्पादन की आवास्त्विक आकांक्षा की झांकी  बड़ी गहराई  दिखती है। दिल्ली के भीतरी इलाकों की गलि, कटरे और नाले किनारे सुविधा हीन आवासों में जीवन जीते कमजोर वर्ग व उन्ही के बीच में आते छोटे महाजन नए धंधे   तलाशते भाई जी, खोमचे ओर  चाय दुकान के सहारे जीवन बिता देते टिल्लू , प्रेमी और ननकू जैसे चरित्र हैँ। पंडित बृजेंद्र नाथ त्रिपाठी का चारित्रिक स्खलन भी इस उपन्यास में हैतो दिल्ली में हफ्ता वसूलते गैंग और उनके संघर्ष तथा उनके बीच फंसकर थाने में जा पहुंचा छात्र संजय औऱ उक्त पिता सुभाष सोनकर का दर्द भी इस उपन्यास में बड़े  प्रभावपूर्ण तरीके से आया है।

संपूर्ण उपन्यास में अपनी परेशानी से टूटते दुखी होते आरिफ जैसे तमाम लोग हैं , जो निराश नहीं हैं, सबको बेहतरी की आशा है । मुझे लगता है यही आशा भारतीय संस्कृति की देन है , जिसे प्रज्ञा ने पूरी ताकत से रेखांकित किया है। उपन्यास के पुरुष पात्र अपने अक्खड़ व दबंग रूप में हैँ तो गुरु राधा कृष्ण एक संपूर्ण आदर्श चरित्र के रूप में हैं । ऐसे ही लोगों के बीच नन्दन, त्रिपाठी व संजय का विकास हुआ है, उनका चरित्र विकसित हुआ है।  धर्मपुर लॉज के प्रमुख स्त्री पात्र हैं मीरा, कांता, सुशीला, कामरेड प्रकाश, अमरजीत ,प्रेमा और सरोज ।इन सब मे प्रकाश व अमरजीत तो ट्रेड यूनियन  में सक्रिय होने की वजह से बहुत जागरूक और सक्रिय हैं तथा स्त्री विमर्श की जानकार है , लेकिन कांता और सुशीला ग्रहणी है ,खासतौर पर कांता तो दमित और पीड़ित स्त्रियों की साक्षात प्रतीक है। पिता के घर में ज्यादा पढ़ने से रोक दी जाती है तो पति के घर मारपीट का शिकार होती है व भूखी प्यासी तक रखी जाती है । मीरा अपनी किशोरावस्था से ही कामरेड प्रकाश के संपर्क में रहने की वजह से खुद मुख्तार है, अपने प्रेम विवाह का निर्णय खुद ही लेती है, वह द्वजेंद्र नाथ त्रिपाठी से ब्याह करती है लेकिन बीमारी की वजह से जल्दी संसार से रुखसत हो जाती है। इस तरह  उपन्यास में सन 80 से 98 के बीच में शोषित व पीड़ित स्त्रियों का यथा सिथति चित्रण  किया गया है।

लेखिका चाहती तो उपन्यास की मूल कथा गुरु राधा कृष्ण की जीवनी की तरह भी लिखी जा सकती थी। इसकी बजाय प्रज्ञा ने बड़ी चतुराई से कुछ  किशोर चरित्र खड़े किए, जिनके विकास के बहाने एक कालखंड को इस कथानक में सम्मिलित किया। दिल्ली के कालेज में पढ़ते युवा चरित्रों   के बहाने वे चाहती तो इसमें जेएनयू को भी जोड़ा जाने की संभावना थी। तो राधा कृष्ण गुरु के मार्फत तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं  , उस पार्टी की राजनीति को भी लेखिका आसानी से दिखा सकती थी। लेकिन शायद यह सब दिखाना यानी कम्युनिस्ट पार्टी की राजनीति व कार्यप्रणाली की समीक्षा तथा जेएनयू के अद्भुत कैंपस की गाथा कहना प्रज्ञा का अभीष्ट नहीं था । उनका जो अभीष्ट  था, उसमें पूरी तरह से वे सफल हुई हैं । 

छोटे छोटे लोगों की दिल्ली की एक काल विशेष की कथा कहता यह उपन्यास वर्णन, चरित्रों ,बड़ी घटना के सामाजिक प्रभावों और  सूक्ष्म विवरणों को एक शानदार सधी भाषा में पाठक के सामने प्रस्तुत करता है । इसे पढ़कर पाठक खूब समृद्ध और संतुष्ट होता है। अपने पहले उपन्यास ‘गूदड़ बस्ती ‘की तुलना में यह प्रज्ञा का  ज्यादा शानदार, उत्कृष्ट और अद्भुत उपन्यास है। धर्मपुर लॉज, प्रज्ञा, लोकभारती प्रकाशन, राजकमल समूह, पृष्ठ 232


धर्मपुर लॉज : प्रज्ञा, मू. 500 रूपये [उपन्यास], लोकभारती प्रकाशन, दिल्ली. अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.


 

राजनारायण बोहरे : १९७४ से रंगमंच से  जुड़ाव  अनेक नाटकों का  निर्देशन, कई नाटकों के लिए संवाद लेखन, टेली–फिल्म का निर्माण,लेखन व निर्देशन, मूलतः कहानी लेखन. लगभग पचपन कहानियाँ अब तक लिखी. इन दिनों  स्वतन्त्रता संग्राम के समय के दतिया आंदोलन पर केंद्रित एक उपन्यास पर काम जारी है। प्रकाशित कृतियाँ—इज्जत आबरू एवं गोष्टा  तथा अन्य कहानियाँ, हादसा तथा मेरी प्रिय कथाएं, नामक चार कहानी संग्रह तथा  उपन्यास “मुखबिर” के  अलावा किशोरों के लिए  दो उपन्यास दिल्ली प्रकाशन समूह से तथा एक उपन्यास नेशनल पब्लिशिंग हाउस से प्रकाशित. सम्मान पुरस्कार—मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन, भोपाल से वागीश्वरी पुरस्कार, २००३ एवं  मध्य प्रदेश  साहित्य अकादमी  का  सुभद्राकुमारी  चौहान  पुरस्कार  से सम्मानित. आप समीक्षक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— raj.bohare@gmail.com


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