…क्योंकि ‘कथा’ से आगे जहाँ और भी हैं

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असीम अग्रवाल

स्वयं प्रकाश प्रतिष्ठित कथाकार हैं, यह सबको पता है, लेकिन उन्होंने ‘कथा-साहित्य’ से भी अलग लिखा है। उनकी नयी पुस्तक ‘धूप में नंगे पाँव’ इसी तरह की कथेतर रचना है, तथा कथेतर साहित्य की दृष्टि से एक ज़रूरी प्रयास है। यह नहीं कहा जा रहा कि ‘कथा-साहित्य’ की ज़रूरत नहीं, बल्कि साहित्य में हर प्रकार का रचना-रूप ज़रूरी है और किसी भी पक्ष की उपेक्षा कर, साहित्य व भाषा की समृद्ध नहीं किया जा सकता। ऐसे में, एक कथाकार द्वारा कथेतर गद्य लिखना और भी महत्त्वपूर्ण बन जाता है।

आगे बात शुरू हो, उससे पहले यह बता देना ज़रूरी समझता हूँ कि इस लेख में किताब का सारांश खोजने पर निराशा ही हाथ लगेगी। आलोचनात्मक लेखों का काम सारांश बताना नहीं, बल्कि रचना का विभिन्न दृष्टिकोणों के माध्यम से विश्लेषण करना है। इस लेख में ‘धूप में नंगे पाँव’ पर बात करते हुए कथेतर गद्य की सम्भावनाओं को देखने का प्रयास किया है।

किताब में एक अंश है—“ये दुनिया मेरे जैसे सामान्य प्रतिभाशाली लोगों से पटी पड़ी है, जिन्होंने सिर्फ़ मिसफ़िट होने की वजह से अपनी ज़िंदगी को मिट्टी कर लिया या कर रहे हैं। अगर उन्हें सही जगह मिल जाती तो सम्भव था कि वे भी कुछ कर दिखाते। कम-से-कम मरते-मरते तो नहीं जीते। हमारा देश एक ऐसी विशाल मशीन की तरह है जिसमें पुर्ज़े तो बहुत शानदार हैं, पर सब ग़लत जगह फ़िट किए हुए हैं।…बहुत कम लोग होते हैं जो इस बाड़ेबंदी को तोड़कर बाहर निकल पाते हैं या इसमें रहते हुए भी कुछ अश्रुतपूर्व और चमत्कारपूर्ण कर दिखाते हैं।”

यह लेखक का कोई भावुक एकालाप नहीं है और जीवन के प्रति कटुता-बोध तो बिल्कुल नहीं। हालाँकि इसमें एकालाप और कटुता के तत्त्व अवश्य हैं, लेकिन विशुद्ध रूप से किसी एक श्रेणी में इसे रखना ग़लत होगा। दरअसल यह अंश, इस किताब की धुरी है, जिसके चारों ओर लेखक का जीवन गतिमान है। इस किताब में लेखक ने अपनी नौकरीपेशा ज़िंदगी का वर्णन किया है। लेकिन यह वह ज़िंदगी थी, जो लेखक नहीं चाहता था, पर वह ज़िंदगी उसे जीनी पड़ी। युवा से वृद्ध होने के बीच के तक़रीबन तीस-चालीस वर्ष ‘मिसफ़िट’ होकर रहना त्रासदी से कम नहीं; पर जीवन की जद्दोजहद में मनुष्य न जाने कितनी त्रासदियों से गुज़रता है। लेखक ने अपने इस दुःख का इतना सीधा ज़िक्र किताब में सिर्फ़ एक बार किया है, लेकिन उसकी छाया सम्पूर्ण वितान में देखी जा सकती है। हालाँकि लेखक ने अपनी नौकरी के बीच में अपने जुनून और शौक़ को जीने की भरपूर कोशिश की, लेकिन एक विवशता-बोध को इन सबके बीच बार-बार लक्षित करना कठिन नहीं। यहाँ लेखक केवल अपने दुःख की बात नहीं कर रहा, बल्कि एक सामूहिक-चैतन्य-पीड़ा-बोध उसे दिखलाई पड़ रहा है, जिसमें उस जैसे न जाने कितने ही लोगों की विवशता शामिल है। तथा, बात केवल लोगों के समूहों की नहीं, बल्कि, देश की उन सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की है, जिनके कारण ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं।

यह अंश उनके जीवन की ही त्रासदी नहीं, बल्कि हमारे समाज का बड़ा वर्ग इससे गुज़र रहा है। ताज्जुब की बात यह है कि इतने लम्बे समय के बाद भी स्थितियों में बहुत बदलाव नहीं आया है। देश ने सामाजिक-आर्थिक नीतियों को लेकर लम्बा सफ़र तय कर लिया है, लेकिन जीवन-बोध की मुकम्मल पहचान होने के बाद भी उसको मूर्त रूप देना बेहद मुश्किल है। ‘बोध’ और ‘मूर्त’ के बीच का यह विरोधाभास, इस किताब की रचना-प्रक्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदु है। रचना प्रक्रिया का यह रिश्ता व्यष्टिगत से समष्टिगत होता हुआ एक देश की कश्मकश को उधेड़ता जाता है। लेकिन इस उधड़न में बनते रहने की वह प्रक्रिया भी साथ-साथ है, जिसे मनुष्य की आदिम जिजीविषा कहा गया है। इन्हीं सबके बीच यह किताब विकसित होती है। बात इस लिहाज़ से भी महत्त्वपूर्ण है कि यह कथेतर गद्य है। सम्भावनाओं का यह विकास कथेतर गद्य को और भी अधिक ज़रूरी बनाता है। 

किताब पर आगे बात कर लेने से पहले संक्षेप में इसकी विधा पर बात कर लेना ज़रूरी लगता है, इससे कथेतर गद्य की दशा-दिशा समझने के कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदु प्राप्त हो सकते हैं।

इसे पढ़ते हुए यात्रा-वृत्त, डायरी, संस्मरण व आत्मकथा का आभास होता है। लेकिन यह यात्रा-वृत्त  नहीं है, क्योंकि यात्रा-वृत्त, तयशुदा सीमा में किसी जगह की यात्रा के दौरान उसे देखकर वहाँ के अपने अनुभवों का चित्रण है; लेकिन इस किताब में जिन-जिन जगहों के प्रवास का चित्रण लेखक ने किया है, वह कुछ दिनों या महीनों की यात्रा के पड़ाव नहीं थे, बल्कि नौकरी के सिलसिले में कई वर्षों का स्थायी जीवन था। उस स्थान में यात्रा का अस्थायित्व नहीं, बल्कि मुकम्मल जीवन का स्थायी भाव था। इसलिए, विभिन्न स्थानों का सुंदर चित्रण होने के बाद भी यह किताब यात्रा-वृत्त की श्रेणी में नहीं आ सकती।

डायरी अनुभवों को अपने तत्काल में दर्ज करती है। वहाँ एक अनगढ़ता होती है। भले ही किताब में अपनी नौकरी के अनुभवों को लेखक ने कई बार इस तरह दर्ज किया हो, जैसे डायरी में दर्ज किया जाता है, लेकिन उसमें डायरी की उस तात्कालिकता का अभाव है, जहाँ लेखक बीतते दिन की बात साथ-साथ नोट करता जाता है। ज़ाहिर है, यह किताब उस नौकरीपेशा ज़िंदगी के कई वर्षों बाद लिखी गयी है।

‘संस्मरण’ के क़रीब होने के बाद भी यह संस्मरण नहीं है। संस्मरण ख़ुद से जुड़े व्यक्ति या स्वयं के विषय में अथवा जीवन के किसी विशिष्ट, परंतु लघु काल-खण्ड की स्मृतियों को रचने का नाम है; लेकिन इस किताब में यह स्थितियाँ पूरी तरह नहीं है। प्रथमत: भले ही किताब को आठ अध्याय में बाँटकर लिखा गया है, लेकिन हर अध्याय अपने पिछले अध्याय की अगली कड़ी है; साथ ही, हर अध्याय स्वयं में कई वर्षों की सीमा को समेटता है। इस तरह, इस किताब में काल की विशिष्टता ( नौकरीपेशा जीवन ) अवश्य हो, पर उसकी लघुता नहीं है। दरअसल किताब में आद्यांत एक प्रबंधात्मकता है, जोकि कालगत व विधागत, दोनों स्तरों पर दिखाई पड़ती है। साथ ही, स्मृतियों का निस्सन्देह सृजनात्मक प्रयोग लेखक ने किया है, कुछ व्यक्तियों से अपने महत्त्वपूर्ण सम्बन्धों का आत्मीय उल्लेख भी किया है, पर उन व्यक्तियों को अपनी स्मृति के आलोक में रखकर जीवंत करने का प्रयास किताब में कम ही है, जैसा कि संस्मरण में अपेक्षित होता है; कदाचित, अपनी संरचना व प्रबंधात्मकता के कारण न ही वह सम्भव था तथा ऐसा करना न ही लेखक का अभिप्रेत था।

तब क्या ऐसे में यह आत्मकथा है? आत्मकथा जिए हुए जीवन को, उसकी स्मृतियों को दर्ज करती है, जो अपनी संरचना में प्रबंधात्मक होती है। और यह सभी चीज़ें इस किताब में है। पर यह आत्मकथा भी नहीं है। आत्मकथा जीवन के किसी विशिष्ट हिस्से को लेकर नहीं होती, बल्कि वह दर्ज किए जा रहे काल-खण्ड अथवा स्मृति-खण्ड को उसकी समग्रता में देखने वाली विधा है। इस किताब में एक लम्बे काल-खण्ड व स्मृति-खण्ड की कथा अवश्य है, पर समग्रता का अभाव है। किताब मुख्यत: नौकरीपेशा ज़िंदगी के विषय में है। इस वजह से इसमें लेखक के व्यक्तिगत जीवन का हिस्सा बहुत कम आ पाया है, जोकि आत्मकथा के लिए ज़रूरी है। वितान में विस्तृत होने के बाद भी वस्तुगत समग्रता का अभाव इसे आत्मकथा होने से रोक देता है।

इस तरह इस किताब को किसी एक विधा में बाँध पाना सम्भव नहीं है। यों, इसकी ज़रूरत भी नहीं। विधाएँ अंततः हैं तो शास्त्र ही। शास्त्र एक सीमा के बाद अप्रासंगिक होने लगते हैं। साथ ही, नया समय और जटिल होता जा रहा है, जिसका सीधा प्रभाव न केवल ‘वस्तु’ पर पड़ता है, बल्कि वह ‘रूप’ पर भी बराबर दबाव बनाता है। नयी वस्तु— पुराने रूप में बदलाव, या फिर नए ही रूप की माँग करती है। यों, विधाएँ एक दूसरे में अधिव्यापन करती हैं; पर कथेतर विधाओं में इसकी सम्भावना अधिक हो जाती है। वहीं, बदलते समय में अधिव्यापन के साथ-साथ नूतन की माँग भी नद्ध हो जाती है। ऐसे में, कई बार विधाओं के सवाल पीछे छूट जाते हैं; और यह सही भी है। ज़बरन किसी विधा में रचना को बाँधना रचना-प्रक्रिया व रचना, दोनों की ही सहजता को बाधित भी करता है। आख़िरकार, रचना के लिए विधा है, विधा के लिए रचना नहीं। विधाओं की सीमा से बाहर जाती रचनाएँ यदि वस्तु के स्तर पर मूल्यवान हों, तब वह अपने प्रयोग के कारण रूप को भी नयी दिशाएँ देती हैं। साथ ही, आज जब कथेतर विधाएँ साहित्य में फल-फूल रही हैं, तब यह नयापन उन्हें दीर्घजीवी बनाएगा।

यह पुस्तक एक कथाकार के जीवन का वो हिस्सा है, जोकि उसके कथा-साहित्य में आ नहीं पाया, या फिर बहुत आंशिक रूप से आया। अर्थात, इस पुस्तक के माध्यम से लेखक दुनिया से सीधे-सीधे रु-ब-रु है। इस प्रकार की रचना में किसी लेखक के जीवन-चिन्तन को बख़ूबी समझा जा सकता है। जीवन-चिन्तन की इस परिधि में उसकी रचना-प्रक्रिया, विचार-बोध व विचारधारा आदि बसे होते हैं; यह अलग बात है कि ये सभी तत्त्व आपस में जुड़े हुए हैं, लेकिन उनकी अलग-अलग प्रतीति इस प्रकार की रचनाओं में की जा सकती है।

लेख की शुरुआत में किताब के जिस अंश को उद्धृत किया गया है, वह उनकी रचना प्रक्रिया का केंद्र है। लेखक ने अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा उन नौकरियों के बीच गुज़ारा, जोकि उसकी अभिवृत्ति से असंगत थीं। मनुष्य कुछ समय तो इस असंगति को साध सकता है; पर एक समय के बाद या तो वह यंत्र की तरह अपना जीवन बिताएगा, या फिर उसके विरुद्ध संघर्ष करेगा। यंत्र की तरह जीवन जीना लेखक के लिए सम्भव न था, इसलिए उसने संघर्ष का रास्ता चुना। पर यह संघर्ष भी कोई सरल प्रक्रिया नहीं। लेखक ने अपनी नौकरी के साथ-साथ साहित्यिक गतिविधियों से स्वयं को जोड़े रखा। कहानी-उपन्यास लिखे, ग़रीब बच्चों को पढ़ाया, पत्र-पत्रिकाएँ निकलीं, हिंदी साहित्य में पीएच.डी. की। वह इसी तरह का जीवन चाहते थे, इसकी कसक किताब में कई जगह दीख जाती है। सरकारी नौकरी में होने के कारण अपनी गतिविधियों की वजह से उन्हें ख़ामियाज़ा भी भुगतना पड़ा, लेकिन उन्होंने इन चीज़ों को छोड़ा नहीं। उन्होंने अपनी अभिवृत्ति के विरुद्ध जी जा रही ज़िंदगी में हस्तक्षेप करने का बराबर मूल्य चुकाया। महत्त्वपूर्ण यह नहीं कि आप संघर्ष का रास्ता चुनते हैं या नहीं, महत्त्वपूर्ण यह कि उस संघर्ष का मूल्य चुकाने का साहस आपमें कितना है! ज़ाहिर है, लम्बे समय तक संघर्ष करना व मूल्य चुकाना आसान नहीं। लेकिन यह जीवन लेखक ने जिया। यही उनकी रचना-प्रक्रिया की आधारभूमि बनी।

रचना-प्रक्रिया की मानसिक व आत्मीय भूमि यदि यहाँ से तैयार होती है, तब उसके लिए ‘वस्तु’ का निर्माण, उनकी नौकरी के दौरान विभिन्न स्थानों पर जिए गए जीवन ने किया। नए लोग, नयी परिस्थितियों ने लेखक के सामने चुनाव की विस्तृत उर्वर-भूमि का निर्माण किया। मध्य-प्रदेश से महाराष्ट्र, फिर तमिलनाडु, राजस्थान, ओडिशा व अंत में राजस्थान का चित्तौड़। इस बीच में नौसेना से लेकर राजभाषा अधिकारी व अंततः सतर्कता विभाग में नौकरी। इतने अधिक व विविधता-सम्पन्न मोड़ों से गुज़रने वाली यात्रा में एक सजग रचनाकार के लिए पर्याप्त मात्रा में ऐसा अनुभव मिलता है, जिसका वह बहुविध प्रयोग कर सके। जीवन-बोध की इस प्रक्रिया से लेखक ने विपुल मात्रा में साहित्य-सर्जना की। स्वयं प्रकाश जी के कथा-साहित्य में जिस दमित-वंचित वर्ग की आवाज़ को प्रमुखता से उठाया गया, बदलते समय में देश में विभाजन की नयी दरारों की पहचान की गयी है, आर्थिक उदारीकरण के बाद पुरानी समस्याएँ नए रूप में व नई जटिलाएँ आयीं, उन सबकी प्रेरणा  के  बीज इस पुस्तक में हर तरफ़ बिखरे पड़े हैं। यह पुस्तक रचना-प्रक्रिया की मानसिक-आधारभूमि व बाह्य-तत्त्वों के बीच के सम्बन्धों को व्याख्यायित करती है।

यह किताब लेखक के विचारों को भी काफ़ी स्पष्ट करती है। इससे लेखक के सामाजिक-आर्थिक विचार जानने को मिलते हैं। अपनी अभिवृत्तियों के कारण लेखक जहाँ भी रहा, वहाँ सामाजिक रूप से काफ़ी सक्रिय रहा। ग़रीब बच्चों को पढ़ाना हो अथवा पुस्तकालय की स्थापना हो, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से लेकर सांस्कृतिक गतिविधियों तक में उसकी भागीदारी, उसकी पक्षधरता को स्पष्ट करती है। लेखक ने पुस्तक में केवल प्रतिष्ठित लोगों के विषय में नहीं लिखा, बल्कि बेहद सामान्य लोगों का बहुत आत्मीयता के साथ वर्णन किया है। इन्हीं लोगों में से लेखक ने अपने कथा-साहित्य के कई पात्र चुने हैं। लेखक का ‘जनवाद’ कोई दिखावे की चीज़ नहीं, बल्कि उसके सामान्य जीवन व साहित्यिक चेतना का मूल बिंदु है।

वहीं, देश के कई अहिंदी-भाषी राज्यों में रहने के कारण उन्हें हिंदी-विरोध का विकटतम रूप देखने को मिला। अपने ही देश में अपनी ही भाषा के लोगों के विरुद्ध विदेशियों जैसा व्यवहार उन्होंने सहा। लेकिन हिंदी-भाषी राज्य में भी हिंदी को लेकर बहुत सम्मानजनक स्थिति नहीं थी। इस सम्बन्ध में लेखक ने भाषा सम्बन्धी बहस को कई बार किताब में उठाया है। वह समाधान देने को तत्पर नहीं है, हालाँकि समाधान के बिंदु बीच-बीच में आते हैं, पर वह उस बहस का मूल उद्देश्य नहीं था। बहस का मूल, भारत में भाषा की गहराती समस्या को सम्बोधित करना था। ज़ाहिर है, भाषा व साहित्य के प्रति अपनी अभिवृत्ति के कारण वह इस विषय पर गहनता से सोचने को विवश भी है।

दूसरी ओर, देश की बदलती आर्थिक नीतियाँ उनके विचार में आती रहीं। वह नीतियाँ क्या थीं, यह तो किताब पढ़कर ही पता चलेगा, लेकिन उनका दृष्टिकोण ग़रीब-मज़दूर वर्ग के पक्ष में ही रहा। साथ ही, लेखक के इन विचारों की भूमि सैद्धांतिकी पढ़कर तैयार नहीं हुई, बल्कि नौकरी के कारण आम-जन के बीच रहकर उन्होंने अपनी विचारों को ठोस धरातल दिया।

इस सब के बीच लेखक ने अपने वामपंथी झुकाव को बिल्कुल खुले रूप से कहा है। वह उसको लेकर भ्रमित नहीं हैं। विचारधारा के घटाघोंप भरे समय में, जहाँ निष्ठाएँ सत्ता को देखकर लोलक की भाँति डोलने लगती हैं, यह स्पष्टता एक लेखक व मनुष्य में दुर्लभ भले ही नहीं, पर मुश्किल ज़रूर है; वह भी तब, जबकि वह एक सरकारी नौकरी में है, जहाँ इस प्रकार की विचारधारा में निष्ठा रखना ख़तरे से ख़ाली नहीं। वह अपनी सांस्कृतिक विरासत को विचारधारा की तुला पर तौलकर परखते हैं। उनकी ईमानदारी यह है कि वह विचारधारा के पक्षधर होने की वजह से वामपंथी पार्टियों के अंध-समर्थक नहीं हो जाते। उन्होंने कई स्थानों पर उनकी भी आलोचना की है।

इन सभी चीज़ों से एक बात स्पष्ट होती है, वह है लेखक का ‘सच’ के प्रति आचरण। ‘सच’ को निरपेक्ष अवधारणा नहीं। हर व्यक्ति के लिए सच की अवधारणा दो ओर से दबाव के बाद रूप लेती है। पहला, उस व्यक्ति का संस्कार व विचार बोध; दूसरा, बाह्य परिस्थितियों से सम्बद्ध उसकी प्रतिक्रिया। इसी के फलस्वरूप कोई भी मनुष्य अपने हिस्से का ‘सच’ रचता है। इसी ‘सच’ से उसकी यथार्थ व आदर्श दृष्टि पता चलती है। यह किताब अपनी नौकरीपेशा ज़िंदगी को लेकर लिखी गयी है, लेकिन इसके माध्यम से लेखक का ‘सच’ व उसके प्रति उसका दृष्टिकोण सामने आता है। रूप के जिस ढाँचे का निर्वहन यह रचना करती है, उसमें यह ज़रूरी भी है कि लेखक के ‘सच’ की पड़ताल की जाए, क्योंकि यहाँ वह सीधे पाठक से सम्बोधित है। साथ ही, कथेतर होने का अर्थ यह नहीं कि उसमें ‘कथा’ का तत्त्व न हो। आत्मकथा, संस्मरण, डायरी आदि कथेतर विधाओं में भी कथा तत्त्व होता है, उनमें ‘कथात्मक विधाओं’ के बरअक्स कल्पना तत्त्व बहुत कम होता है। लेखक उनमें सीधे-सीधे वही लिखता है, जोकि घटा है। इस पुस्तक में भी आद्यांत कथा-तत्त्व है, और वह इतना सधा हुआ है कि कई बार ‘क़िस्सागोई’ का आस्वाद आने लगता है। ऐसे में, ‘सच’ का निर्वहन सरल कार्य नहीं। पर लेखक ने उस क़िस्सागोई के साथ ‘सच’ को जिस तरह फेंटा है, उससे रचना के शिल्प के साथ-साथ कथ्य पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। इस प्रकार के प्रयोग पाठक की आस्वाद-क्षमता को भी विविधता प्रदान करते हैं।

लेकिन इससे यह न समझा जाए कि किताब में केवल कथा या क़िस्सागोई है। जैसा कि कहा जा चुका है कि लेखक ने इस किताब में अपने विचारों को प्रमुखता से स्थान दिया है। इतिहास से लेकर  भूगोल तथा साहित्य से लेकर संस्कृति तक, इस किताब में कई महत्त्वपूर्ण चर्चाएँ आपको मिल जाएँगी। चाहे व भारत का प्राचीन व मध्यकालीन इतिहास हो, या जैसलमेर का भूगोल हो; लेखक ने तर्क व तन्मयता के साथ अपना विश्लेषण दिया है। मीरा के विषय में तो जिस तरह लेखक ने अपनी आलोचकीय दृष्टि का परिचय दिया, वह उनकी साहित्यिक व मानवतावादी दृष्टि के समन्वय को दर्शाती है। इसके अतिरिक्त, जहाँ भी वह गए, वहाँ के सांस्कृतिक-वातावरण से वह पाठक का परिचय कराते चलते हैं। कहना न होगा, लेखक ने पुस्तक की परिधि में व्याप्त हो सकने वाले उन सभी बिंदुओ की चर्चा उस औचित्य के साथ की है, जिसके निमित्त, रूप व वस्तु के स्तर पर रचना की गुणवत्ता भी प्रभावित न हो तथा पुस्तक साहित्यिक मूल्यों के विकास में योग दे सके।

अपनी ज़िंदगी के बारे में लिखने का एक बड़ा ख़तरा यह रहता है कि उसमें वह एकपक्षीय तरीक़े से चीज़ें लिखकर  किसी अन्य का मान-मर्दन कर सकता है, तथा स्वयं को महापुरुष के रूप में प्रस्तुत कर सकता है। वास्तव में ऐसा हो सकना सम्भव भी नहीं कि कोई बेहद ख़राब ही हो और कोई अच्छाई का पुतला ( मैं अपवाद से इंकार नहीं करता लेकिन, ऐसा होना सम्भव नहीं लगता )। लेकिन यदि ऐसा कोई करता है, तब न केवल उस रचना का मूल्य गिरता है, बल्कि रचनाकार की ईमानदारी पर भी सवाल खड़ा होता है। इस रचना में ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता, यह संतोष की बात है। लेखक ने अपने कमज़ोर पक्षों को कहीं भी छिपाने की कोई कोशिश नहीं की। उसने अपनी सफलता लिखी, तो विफलताओं को भी उतनी ही हिम्मत से स्वीकारा। हाँ, उसने इतनी लेखकीय छूट ज़रूर ली है, कि किसी घटना का ज़िक्र करने उसे अपने दृष्टिकोण से परखा है। हो सकता है कि किसी और व्यक्ति का उक्त घटना के प्रति दृष्टिकोण अलग हो, लेकिन इतनी छूट तो हर लेखक का अधिकार है। उदाहरणार्थ—लेखक जिस कम्पनी, ‘हिंदुस्तान ज़िंक लिमिटेड’ में कार्यरत था, उसके निजीकरण के लिए उसने भाजपा, कांग्रेस, व वामपंथी, तीनों को ज़िम्मेदार ठहराया है। साथ ही, उस संदर्भ में विनिवेश, स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति आदि आर्थिक नीतियों की आलोचना की है। सम्भव है कि किसी व्यक्ति की समझ लेखक से बिल्कुल भिन्न हो, पर लेखक ने पहले घटना को बताया, फिर अपनी बात कही। ऐसे में, लेखक के साथ-साथ पाठक को भी छूट है कि वह अपना भिन्न मत रख सकता है।

लेखक की यह ईमानदारी अपने परिवार व अन्य लोगों के प्रति अंत तक बनी रहती है। जिस ‘रूप’ की यह रचना है, उसके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व ‘ईमानदारी’ ही है, जिसका निर्वहन यहाँ बख़ूबी हुआ है। दरअसल इस प्रकार की कोई भी किताब सोचने समझने की बन चुके ढाँचे को बदलने पर विवश करती है। यही ‘विवशता’ पैदा करना किसी भी कृति की सफलता का बिंदु है।

कुछ बातें यहाँ और स्पष्ट करने की हैं। जैसा कि विवेचन के आरम्भ में ही बताया गया है कि किताब में अपने जीवन से जुड़े व्यक्तियों का विश्लेषण कम ही है, जोकि शायद संरचना के कारण सम्भव नहीं था। लेकिन ध्यान देने योग्य बात है लेखक ने कुछ जगहों पर वह स्थान निकाला है और कई जगहों पर सम्भावना होने के बाद भी छोड़ दिया है। एक सीमा के बाद ‘सम्भावना’ का दवाब ‘संरचना’ के तर्क पर भारी पड़ने लगता है। कई ऐसे व्यक्ति बीच-बीच में आते रहे, जिनको ‘घटना’ से आगे पुस्तक में स्थान मिलना चाहिए था; उससे संरचना कुछ विशृंखल हो सकती थी, लेकिन यह ‘विशृंखलता’ तो समय के सभी हिस्सों में देखी जा सकती है। साथ ही, साहित्य में कथेतर गद्य की उर्वर होती भूमि के पीछे यह ‘विशृंखलता’ एक महत्त्वपूर्ण कारण है। पुस्तक लिखते हुए अनायास ही ‘संरचना’ में बँधकर लेखक एक मायने में ‘चूक’ कर देता है। एक अधूरापन बीच-बीच में लक्षित करना मुश्किल नहीं रह जाता।

इसके अलावा, दृष्टिकोण के स्तर पर व्यापकता पुस्तक में बीच-बीच में टूट जाती है और लेखक के विचारों में धँसा सामंती काँच का टुकड़ा दीखने लगता है। उदाहरण के लिए—लेखक ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ को लेकर बेहद एकांगी दृष्टि के साथ प्रस्तुत हुआ है। एक सीमा तक इसे ‘अभिरुचि’ कहकर समझा भी जा सकता था, लेकिन जब वह शास्त्रीय नृत्य की नृत्यांगनाओं के पृथुल शरीर को लेकर टिप्पणी करता है, तब यह बात ‘अभिरुचि’ से आगे, ‘विकृति’ की ओर मुड़ जाती है। कोई इसे ‘बॉडी शेमिंग’ भी कहे, तो हर्ज नहीं। क्या नृत्य केवल छरहरे शरीर के साथ हो सकता है? साथ ही, क्या पृथुल होना, ‘कमतर’ होना है? यह ठीक है कि पुस्तक में लेखक अपनी ‘ईमानदारी’ को बनाए रखता है, लेकिन ‘रचनात्मक ईमानदारी’ के नाम पर भी इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। साथ ही,  यह सोच लेखक के ‘सच’ का हिस्सा है तथा ‘सच’ और ‘ईमानदारी’ से उत्पन्न हुए ऐसे विचार विस्तृत विचारभूमि को कमज़ोर करते हैं और पाठक के लेखक के प्रति ‘विश्वास-बोध’ को ठेस पहुँचाते हैं।

समय हमेशा बदलता रहा है, वह केवल आज ही नहीं बदल रहा; ऐसे में साहित्य हर पल जागरूक रहना चाहिए, अद्यतन रहना चाहिए। रूप और वस्तु के स्तर पर नए प्रयोग होते रहना, रचना के लिए आवश्यक है। यह बाद की बात है कि वह प्रयोग सफल रहा या नहीं; या फिर उस प्रयोग की आवश्यकता थी भी या नहीं। यह पुस्तक साहित्यिक चिन्तन से आगे, सामाजिक व वैश्विक चिंता की दिशा में बढ़ती है। कथेतर विधाओं की यह विशेषता भी है कि उनमें समाज-दर्शन-अर्थ-संस्कृति-विश्व आदि के सम्बन्ध में जितनी सीधी चर्चा ‘कथा’ तत्त्व के साथ जिस तरह हो सकती है, वह ‘कथा-साहित्य’ की विधाओं में सम्भव नहीं। यह ‘कथा-साहित्य’ का कोई अवगुण व ‘कथेतर’ का कोई विशिष्ट गुण नहीं, बल्कि उनका संरचनात्मक विधान है।

इस किताब को इस समय की क्रांतिकारी किताब का तमग़ा मैं नहीं दे सकूँगा, यह चाहे मेरी सीमा हो या अक्षमता; पर इस प्रकार की उपाधियाँ न ही उचित हैं न ही ज़रूरी। इस किताब के माध्यम से लेखक ने अपने व्यक्तित्व का विकास किया है व साहित्य में नई सम्भावनाओं के लिए और जगह बनायी है। विधाओं की सीमाओं का अतिक्रमण करती यह किताब, विधाओं के विश्लेषण के बने-बनाए बिंदुओ के बोझ से बच जाती है। अपनी ‘ईमानदारी’ के साथ लिखी गयी यह किताब कथेतर साहित्य को समृद्ध करती है। हिंदी-साहित्य में जिस तरह कथा-साहित्य का दबदबा रहा है, उससे मुक्त होना अब बेहद ज़रूरी है। यह नहीं कहा जा रहा है कि कथा-साहित्य की महत्ता नहीं है; कहने का अर्थ यह है कि साहित्य व भाषा की प्रगति के लिए सभी का योगदान होना चाहिए। ऐसे में, एक गम्भीर कथाकार जब इस दिशा में प्रयास करता है, तब उस साहित्य के मूल्य की प्रामणिकता भी बनी रही है। दो-चार विधाओं के फेर में पड़कर किसी भी भाषा का साहित्य, उस भाषा की प्रगति को अवरुद्ध कर सकता है। साहित्य, किसी भी भाषा के लिए बेहद ज़रूरी है। जैव-विविधता का वह नियम—कि तंत्र में जितनी प्रजातिगत विविधता होगी, तंत्र उतना ही दीर्घजीवी व मज़बूत होगा—यहाँ भी लागू होता है; जितनी विधागत विविधता साहित्य में होगी, भाषा उतनी ही दीर्घजीवी व मज़बूत होगी। इस किताब को कथेतर विधाओं की ज़रूरी मज़बूती के रूप में पढ़ना और समझना चाहिए।

कुछ बातें यहाँ और स्पष्ट करने की हैं। जैसा कि विवेचन के आरम्भ में ही बताया गया है कि किताब में अपने जीवन से जुड़े व्यक्तियों का विश्लेषण कम ही है, जोकि शायद संरचना के कारण सम्भव नहीं था। लेकिन ध्यान देने योग्य बात है लेखक ने कुछ जगहों पर वह स्थान निकाला है और कई जगहों पर सम्भावना होने के बाद भी छोड़ दिया है। एक सीमा के बाद ‘सम्भावना’ का दवाब ‘संरचना’ के तर्क पर भारी पड़ने लगता है। कई ऐसे व्यक्ति बीच-बीच में आते रहे, जिनको ‘घटना’ से आगे पुस्तक में स्थान मिलना चाहिए था; उससे संरचना कुछ विशृंखल हो सकती थी, लेकिन यह ‘विशृंखलता’ तो समय के सभी हिस्सों में देखी जा सकती है। साथ ही, साहित्य में कथेतर गद्य की उर्वर होती भूमि के पीछे यह ‘विशृंखलता’ एक महत्त्वपूर्ण कारण है। पुस्तक लिखते हुए अनायास ही ‘संरचना’ में बँधकर लेखक एक मायने में ‘चूक’ कर देता है।

इसके अलावा, दृष्टिकोण के स्तर पर व्यापकता पुस्तक में बीच-बीच में टूट जाती है और लेखक के विचारों में धँसा सामंती काँच का टुकड़ा दीखने लगता है। उदाहरण के लिए—लेखक ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ को लेकर बेहद एकांगी के साथ प्रस्तुत हुआ है। एक सीमा तक इसे अभिरुचि कहकर समझा भी जा सकता था, लेकिन जब वह शास्त्रीय नृत्य की नृत्यांगाओं के पृथुल शरीर को लेकर टिप्पणी करता है, तब यह बात ‘अभिरुचि’ से आगे, ‘विकृति’ की ओर मुड़ जाती है। कोई इसे ‘बॉडी शेमिंग’ भी कहे, तो हर्ज नहीं। क्या नृत्य केवल छरहरे शरीर के साथ हो सकता है? साथ ही, क्या पृथुल होना, ‘कमतर’ होना है? यह ठीक है कि पुस्तक में लेखक अपनी ‘ईमानदारी’ को बनाए रखता है, लेकिन ‘रचनात्मक ईमानदारी’ के नाम पर भी इसे सही नहीं ठहराया जा सकता। साथ ही, यह सोच लेखक के ‘सच’ का हिस्सा है तथा ‘सच’ और ‘ईमानदारी’ से उत्पन्न हुए ऐसे विचार विस्तृत विचारभूमि को कमज़ोर करते हैं और पाठक के लेखक के प्रति ‘विश्वास-बोध’ को ठेस पहुँचाते हैं।


धूप में नंगे पाँव : स्वयं प्रकाश, मू. 395 रूपये [कथेतर], राजपाल एंड संज. अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.


असीम अग्रवाल : दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग, उत्तरी परिसर में शोधार्थी हैं. रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है— aseemagarwal24@gmail.com


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