सवालों में कथाकार

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ललित कुमार श्रीमाली

हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार-उपन्यासकार स्वयं प्रकाश के साक्षात्कारों की पुस्तक कहा-सुना में पिछले बीस वर्षों की अवधि में लिए गए उन्नीस साक्षात्कारों का संकलन है। इन साक्षात्कारों से न केवल स्वयं प्रकाश के साहित्य को समझने में मदद मिलती है अपितु हम इसके माध्यम से इस समय व समाज को भी समझ सकते हैं। स्वयं प्रकाश 1980 के बाद हिंदी कहानी को समृद्ध करने वाले महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर है। कहानी आंदोलनों की घनघोर निराशा से कहानी को जनपक्षधरता की तरफ मोड़ने में इनका अप्रतिम योगदान रहा है। अपने साक्षात्कारों के माध्यम से कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी बेबाक राय उन्होंने रखी है। एक व्यक्ति के संस्कार, उसका लेखक बनना, उसकी रचना प्रक्रिया, विभिन्न मुद्दों पर राय सभी कुछ हम इन साक्षात्कारों के माध्यम से समझ सकते हैं।

लेखक का मानना है कि सारे साहित्यिक संस्कार उस समय के हैं। उन्हें राजपूताना व मालवा दोनों के संस्कार मिले। इन्हीं संस्कारों से वे पढ़ने-लिखने की ओर अग्रसर हुए। वे मानते हैं कि अगर उनका एडमिशन नूतन विद्यालय में न हुआ होता और वहाँ के लाइब्रेरियन सुखवाल सर न मिले होते तो वे आठवीं कक्षा तक प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ, शरदचंद्र और बंकिमचंद्र को न पढ़ पाते। वहाँ पर इन्हें अमृतराय के संपादन में निकलने वाली कथा पत्रिका ‘नई कहानियाँ’ में ज्ञानरंजन की ‘भाई’ कहानी पढ़ने को मिली और उस समय ही लेखक के दिमाग में एक दिन वैसी ही कहानी लिखने का जुनून सवार हो गया।

स्वयं प्रकाश के लेखकीय व्यक्तित्व का निर्माण करने में उनके बचपन के संस्कारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वे अजमेर के मूल निवासी है लेकिन उनका बचपन ननिहाल इंदौर में बीता था। इंदौर उस समय मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी था। वहाँ बाईस सैकण्डरी स्कूल व कई कॉलेज थे। लोगों में राजनीतिक जागरुकता थी। पुस्तकालय व वाचनालय थे। नानाजी के यहाँ साहित्यिक माहौल था। नानाजी के यहाँ शाम को बैठक में सभी बच्चों के बैठने के बाद भारत भारती, जयद्रथवध का सस्वर पाठ होता था। ‘नई दुनिया’ दैनिक समाचार-पत्र था। इंदौर कवि सम्मेलनों का केन्द्र था। दूसरी तरफ अजमेर में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड था। लेखक का मानना है कि सारे साहित्यिक संस्कार उस समय के हैं। उन्हें राजपूताना व मालवा दोनों के संस्कार मिले। इन्हीं संस्कारों से वे पढ़ने-लिखने की ओर अग्रसर हुए। वे मानते हैं कि अगर उनका एडमिशन नूतन विद्यालय में न हुआ होता और वहाँ के लाइब्रेरियन सुखवाल सर न मिले होते तो वे आठवीं कक्षा तक प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ, शरदचंद्र और बंकिमचंद्र को न पढ़ पाते। वहाँ पर इन्हें अमृतराय के संपादन में निकलने वाली कथा पत्रिका ‘नई कहानियाँ’ में ज्ञानरंजन की ‘भाई’ कहानी पढ़ने को मिली और उस समय ही लेखक के दिमाग में एक दिन वैसी ही कहानी लिखने का जुनून सवार हो गया।

अपनी रचनात्मक यात्रा से जुड़े सवालों पर वे कहते हैं कि 1968 में भारतीय नौसेना की नौकरी, गोदी की नौकरी, फिल्म इण्डस्ट्री में दिहाड़ी और इधर-उधर का छुटपुट काम छोड़कर गृह नगर अजमेर आ गए। आये इसलिए कि मुम्बई में उन्हें भंयकर पीलिया हो गया था। बचने की उम्मीद नहीं थी। दोस्तों ने टाँगाटोली करके अजमेर जाने वाली ट्रेन में बिठाया और कहा स्वयं प्रकाश! वापस मत आना! इसी समय संयोग से रमेश उपाध्याय जो मुम्बई में फ़ीलांसिग कर रहे थे लेकिन पेट खराब रहने की वजह से अजमेर हिंदी में एम.ए करने के लिए आ गए। यही प्रेसों में कम्पोजटरी करते-करते लेखक बने थे। उन्हीं दिनों लेखक ने एक स्थानीय कम्पोजिटर के उकसाने पर अपना कविता संग्रह खुद का पैसा खर्च करके छपवा लिया ‘मेरी प्यास तुम्हारे बादल’ जिसमें लेखक की गहरी मोहब्बत की निशानियाँ है। रमेश उपाध्याय ने देखा तो वे बोले- आप कहानियाँ क्यों नहीं लिखते? लेखक ने उसी समय सोचा क्यों नहीं? क्या हर्ज है? और वे कहानीकार हो गए। पहली कहानी ‘टूटते हुए’ समाज कल्याण नामक पत्रिका में छपी। जब कहानियाँ लिखना शुरू किया उस समय वे निम्न मध्यवर्ग के एक बेरोजगार नौजवान थे जिसमें आक्रोश भरा हुआ था। अपनी छटपटाहट को कहानी के माध्यम से लिखकर अभिव्यक्त किया। उस समय की कहानियाँ लोगों द्वारा ज्यादा पसंद की गई। पहला कहानी संग्रह ‘मात्रा और भार’, दूसरा कहानी संग्रह ‘सूरज कब निकलेगा’ और तीसरा कहानी संग्रह ‘आसमां कैसे-कैसे’ तक आते-आते लेखक ने मध्यवर्ग की बजाय उत्पादक वर्ग जो निम्न मध्यवर्ग का व्यक्ति होता है; उससे वैचारिक और मानसिक धरातल पर जुड़ने की चेष्टा की।

‘घटना या स्थिति’ कहानी कैसे बनती है? सवाल के जवाब में वे कहते हैं कि ‘‘रचना प्रक्रिया हर लेखक की ही अलग-अलग नहीं होती, हर कहानी की भी अलग- अलग हो सकती है। कुछ पता नहीं चलता कोई घटना या अनुभूति कब, कैसे, किस तरह और क्यों कहानी बन जाती है और क्यों उतनी ही दमदार दूसरी घटनाएँ या अनुभूतियाँ कभी कहानी नहीं बन पाती।’’ वे कहते हैं कि जब लिखने बैठते हैं तो उस अनुभव का चुनाव करना पड़ता है जो सार्वजनिक महत्त्व का होने की संभावना रखता हो। सभी को कभी-न-कभी विचित्र-विचित्र प्रकार के अनुभव होते हैं। समाज के और समय के अपने व्यापक संदर्भ होते हैं। यदि उस संदर्भ में रखकर आप अपने एक अनुभव को सामने रखते हैं तो पढ़ने वाले को या सुनने वाले को यह प्रतीत होता है कि मानो उसी की कहानी कही जा रही है। यहाँ व्यक्तिगत अनुभवों को सार्वजनिक संदर्भ में रखा जाता है।

विचारधारा के संदर्भ के सवाल करने पर कहते हैं कि बचपन में रामकृष्ण मिशन में एक स्वामी जी आया करते थे स्वामी आत्मानंद जी, वे गणित में एमए.सी. थे और धाराप्रवाह भाषण देते थे अद्भुत वक्ता थे। उनसे वे स्वामी विवेकानंद के प्रति आकर्षित हुए और विवेकानंद की पुस्तकें पढ़ना प्रारंभ कर दी। फिर वे गाँधीजी की तरफ आकर्षित हुए और उनका साहित्य पढ़ा और न जाने कैसे वे लोहिया की ओर आकर्षित हो गए और लोहिया से होते-होते मार्क्स की तरफ आ गए तबसे वे मार्क्सवाद के पक्ष में ही है विचारधारा की दृष्टि से। और उन्हें लगता है कि दुनिया के सामने सबसे नया और सबसे बेहतरीन रास्ता दुनिया को बदलने का किसी ने बताया है तो अब तक का सबसे बेहतरीन और नया रास्ता मार्क्स ने ही बताया है।

उन्हें लगता है कि दुनिया के सामने सबसे नया और सबसे बेहतरीन रास्ता दुनिया को बदलने का किसी ने बताया है तो अब तक का सबसे बेहतरीन और नया रास्ता मार्क्स ने ही बताया है।

वर्तमान समय की सबसे बड़ी परिघटना भूमंडलीकरण के संदर्भ में सवाल करने पर वे बताते हैं कि यह शब्द भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण भ्रामक शब्द है। सही शब्द विश्वव्यापी नव्य साम्राज्यवाद है। दुनिया की कोई सभ्यता, कोई संस्कृति, कोई क़ौम ऐसी नहीं जिसने दूसरों से कुछ लिया-दिया न हो। फिर इसमें नया क्या है? नया है व्यापारियों का सपना कि सारी दुनिया पर हमारा आधिपत्य हो और हमारा कानून चले। सोवियत सत्ता के पतन और संचार क्रांति के बाद माल भी गरीब देशों में बन जाएगा, बिक भी वहीं जाएगा और मुनाफा अमरी देश खाएँगे। उन्हें सिर्फ फार्मूले, ब्राण्ड और पेटेन्ट बनाने और चलाने है। सरकारें अमीर देशों की लूट में अड़ंगा न लगाये इसलिए उन्हें ‘उदार’ होना है। ये है उदारीकरण। सरकार ने जनता के पैसे से जो बुनियादी उद्यम लगाये हैं और जम गये हैं, ठीक-ठाक मुनाफा भी कमाने लगे हैं वे बनियों को दे दिए जाएँ। ये है निजीकरण और सरकार अलग ही हट जाए और बाज़ार को करने दें जो भी बाजार चाहे। ये है बाजारवाद। यह सब आपस में जुड़े हुए हैं। और इसका सबसे ज्यादा लाभ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को ही हो रहा है। यह पूँजीवाद का ही एक दर्शन है और हमारे समाज में संकीर्णता और स्वार्थपरता को बढ़ावा देता है। इसका एक ही लक्ष्य है- मुनाफा। एक ही जीवन-शैली है- उपभोग।

संचार क्रांति के इस दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से भारतीय समाज पर प्रभाव के संबंध में स्वयं प्रकाश इसे चुनौती के रुप में लेते हैं और कहते हैं कि हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को दो भागों में बाँटकर देख सकते हैं। एक है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तकनीक के रुप में, तकनीकी विकास के रुप में, संचार के एक नये माध्यम के रुप में, एक नयी विधा के रुप में; और दूसरा यह कि उस तकनीकी विकास पर, संचार के माध्यम पर, संचार के नये रुप पर अधिकार किसका है और उसके प्रसार में हित किसके हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर यदि एक कहानीकार की दृष्टि से कहानी की टेक्नीक, लिखने की टेक्नीक की चर्चा की जाए तो कुछ प्रभाव अच्छे हैं। जैसे हमारे पाठकों के लिए दुनिया की बहुत सारी चीजें उनके चाक्षुष अनुभव का हिस्सा बन चुकी हैं इसलिए अब उनके विवरण नहीं लिखने पड़ते, तो बहुत सारी चीजों से आप बरी हो जाए। अब आप पहाड़ का, समुद्र का, हिमालय का… उस पर कोई कविता लिख ही नहीं सकते या कहानी भी नहीं लिख सकते क्योंकि वो सब चीजें अनुभव का हिस्सा हो गई है। विवरणों से साहित्य लगभग मुक्त हो गया। अब उपन्यासों में भी विवरण नहीं मिलते। दूसरे यह कि इसकी भाषा जो है बड़ी ठोस हो गई और बड़ी दृश्य भाषा हो गई। फिल्म की बहुत-सी टेक्नीक्स, टेलीविजन की बहुत-सी टेक्नीक्स कहानीकारों-उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं में काम में लेना शुरू की। व्याकरण के जो बंधन पुराने समय की कहानी की भाषा में रहा करते थे और जो अनुशासन रहा करता था, वह भी भंग हो गया। अब साहित्य में ऐसी चीजें आ रही है जिनके लिए कोई नाम ही नहीं है। 

स्वयं प्रकाश के इन साक्षात्कारों को पढ़कर लगता है कि वे चीजों को खुले मन से देखते हैं। उनका मानना है कि विधा चुनकर उसमें कथ्य फिट करना तो कफ़न के नाप का मुर्दा ढूँढ़ने जैसा है। कोई भी रचनाकार पहले से ही निर्धारित नहीं करता कि उसकी रचना अमुक विधा की ही होगी। वह पूरी संवेदनशीलता के साथ अपने अनुभव को सार्वजनिक संदर्भ में रखता है। स्वयं प्रकाश से इन साक्षात्कारों को संकलित-सम्पादित लक्ष्मण व्यास ने किया है और खुद उनके किये तीन साक्षात्कार भी पुस्तक में हैं। पल्लव, मिहिर, रमेश उपाध्याय, उर्मिला शिरीष और शिवराम ने तीखे और आवश्यक सवालों से अपने साक्षात्कारों को बढ़िया बना दिया है। प्रस्तुत पुस्तक के माध्यम से हिंदी के अध्येता एक लेखक के व्यक्तित्व, रचना प्रक्रिया और विचारों से परिचित होंगे। निश्चय ही साक्षात्कार विधा में यह किताब उल्लेखनीय मानी जाएगी।

 


कहा-सुनी : संपादक- लक्ष्मण व्यास, [साक्षात्कार], मू.395, अमन प्रकाशन, कानपुर। आप इसे यहाँ info@amanprakashan.com मेल करके भी मँगवा सकते हैं.


ललित श्रीमाली : पीएच.डी. (हिंदी),एम.ए. (हिंदी, राजस्थानी, शिक्षा), बी.एड., स्लेट (हिंदी), नेट (राजस्थानी). संप्रति : जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ (डीम्ड-टू-बी विश्वविद्यालय) उदयपुर, राजस्थान में सहायक आचार्य (हिंदी शिक्षण). ‘भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास’ प्रकाशित कृति. विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में शोध लेख एवं समीक्षाएं. गत 19 वर्षों से अध्यापन. समीक्षक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं—

drlalitkumarshrimali@gmail.com


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