अनिल कुमार पाण्डेय
कविता में जब जन-सरोकारों के संरक्षण की बात आएगी तो कवि की निष्क्रियता एवं निष्पक्षता को लेकर सवाल किया जाएगा. किसी भी देश के सांस्कृतिक समाज और सामाजिक संस्कृति की समृद्धि कवि-विवेक और कविता-सामर्थ्य पर निर्भर करता है. जनसामान्य यहाँ एक हद तक उत्तरदायी नहीं होता जितने कि बुद्धिजीवी. साधारण जनता से यह अपेक्षा इसलिए कम की जाती है क्योंकि दैनिक समस्याओं से जूझते हुए जीवन-यापन के संसाधनों की तलाश करना उसकी नियति होती है. वह इतना समय निकाल पाने में असमर्थ होता है कि सत्ता केन्द्रित षड्यंत्रों का प्रतिरोध कर सके. होता तो कवि भी नहीं फुर्सत में लेकिन स्वयं की समस्याओं से कहीं अधिक चिंता उसे जन-समस्या की होती है. जूझता कवि भी है लेकिन व्यक्तिगत समस्याओं से कहीं अधिक जन-सम्भावनाओं को सम्पुष्ट करने वाली स्थितियां उसके चिंतन-केन्द्र में होती हैं. .
इस अर्थ में एक जागरूक कवि कभी नहीं चाहेगा कि उसका लोक किसी की स्वार्थ-लिप्सा का भाजन बने. वह जागते रहने की ऐसी प्रक्रिया में होता है कि कोई गैरजिम्मेदारी की स्थिति पर टिका नहीं रह सकता. यहाँ कवि की भूमिका बढ़ जाती है. जब मैं यह कह रहा हूँ तो स्पष्ट होना चाहिए कि किसी कवि के लिए कह रहा हूँ, झोला उठाकर ‘कविता-क्रांति’ का विस्फोटक पदार्थ लेकर चलने वाले साहित्य-व्यापारियों के लिए नहीं. यहाँ यदि यह कहा जाए कि प्रतिरोध का एक मात्र विश्वसनीय आवाज, जिस पर विश्वास किया जा सकता है, कवि है, तो इसे अतिश्योक्ति न माना जाए. यह एक सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया होती है जिसमें आने के बाद कोई कवि शांत न बैठकर चौकन्ना रहता है. कहने को कह सकते हैं कि वह एक विशेष ‘चौकीदार’ की भूमिका में होता है लेकिन इस शब्द को अभी राजनीतिक फायदे और कायदे के लिए प्रयोग किया जा रहा है इसलिए यदि कहना चाहते हैं तो अभिभावक कह सकते हैं.
कवि अभिभावक होता है यह जोर देकर कहने और समझने की जरूरत है. कवि शब्दों का व्यापारी नहीं अपितु सम्वेदनाओं का सर्जक होता है. सृजन का माध्यम जो बनता है वह समय, समाज, जन और जीवन का महत्त्व समझता है. वह समझता है कि यह समय, जिसमें रहते हुए तमाम आशाओं के दीप बुझने के करीब पहुँच जाते हैं तो तमाम संभावनाएं पैदा होने से पहले ही मृत्यु के कगार पर खड़ी बंजर भूमि का आहार बन जाती हैं, ‘क्षीरसागर में नींद’ लेने का समय नहीं अपितु नींद से उठकर उद्यम-पथ पर बढ़ने का समय है. वह समझता है कि जब सभी के लिए सब धान बाईस पसेरी हैं तो श्रेष्ठता के पैमाने को निर्धारित करने का समय है यह. यह समय है उसकी नजर में लोगों को ‘सही और गलत’ के अंतर को समझाने का ताकि लोग ‘क्या हो रहा है’ के साथ दो कदम आगे बढ़कर अपना ध्यान ‘क्या होना चाहिए’ पर भी लगाएँ.
यहाँ कवि उनके प्रति संदेह से भर उठता है जो किसी के ‘कहे’ को स्वीकार कर अपने भाग्य का फैसला कर बैठते हैं, किसी स्थिति के ‘होने’ को अपनी नियति और समय का सच मान बैठते हैं. ‘कहे’ और ‘होने’ भर की स्थिति को अपना सब कुछ मान बैठने वाले लोग ही उसे पुरुषार्थ की संज्ञा देते हैं जबकि कवि ऐसे पुरुषार्थ को सीधे नकारता है; वह मानता है कि “यदि यही है हमारा पुरुषार्थ/ तो हम मानवीय आधारों पर इसे अस्वीकार करते हैं/ अस्वीकार करते हैं उन सभी शब्दों को जो/ जो कुछ के हो जाने/ हर कुछ के स्वीकर करने को/ घटित होता हुआ मान लेते हैं.” ऐसा कहते हुए कवि विरोध या प्रतिशोध का लबादा ओढ़कर चुप बैठने की स्थिति में नहीं होता क्योंकि यह हर स्वतंत्र ख़याल व्यक्तित्व को पता है कि “नहीं बंधी है हमारी नियति/ जो कुछ हो जाता है उसके होने से/ हम जो कुछ करते हैं/ होता वही है/ जो कुछ के होने से बड़ा और भारी.” जो यह जानता है और मानता है ऐसा वह निर्भीक होकर अपने मन की बात लोक में रखता है और रखे हुए बात को सवालों के घेरे में लाकर उत्तरदायित्व के निर्वहन के प्रति जिम्मेदार होने के लिए विवश करता है. विवशता की इस स्थिति पर व्यक्ति को लाना ही कविता की पहली ज़िम्मेदारी है.
कविता की जिम्मेदारी ‘कहे में दम’ और और ‘चुप्पी’ में असर भरने की जिम्मेदारी है. कवि का मानना है कि “अगर आपके कहे में दम है/ तो आपकी चुप्पी भी दमदार होगी.” जो चुप्पी में होते हैं वे कहीं न कहीं प्रतिरोध की संस्कृति के सम्वाहक होते हैं. यहाँ एक सम्बल बन रहा होता है जो तमाम विसंगतियों का चुपचाप प्रतिकार करता है. श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं का मूल स्वर प्रतिरोधी प्रतिकार है जो शोर तो नहीं करता लेकिन चुपचाप अपना कार्य कर रहा होता है. समकालीन हिंदी कविता में यह अपनी तरह का जोखिम है लकिन संग्रह में शामिल जितनी भी कविताएँ हैं इस ‘जोखिम’ पर खरा उतरती हैं.
जिस कवि के दिल-दिमाग में “यात्रा भीतर यात्रा/ यात्रा भीतर घर/ घर भीतर यात्रा” होती है वह सम्पूर्ण परिवेश को निज-घर और समाज को अपने परिवार का अंश मान कर चलता है. वह यह भी मानकर चलता है कि सरहदों का निर्माण हम व्यावहारिक तौर पर करने से बचें. बंधन वहीं तक अच्छे लगते हैं जहाँ तक उनमें स्वाभाविकता बची होती है. बनी बनाई धारणाओं के आधार पर जब हम मानवीय स्वभाव को बंदिशों में कैद करना शुरू करते हैं तो उसका अतिक्रमण निश्चित होता है. इस अर्थ में“तुम मानो या न मानो/ सरहदों के पार जाने की छूट जहाँ नहीं मिलती/ सरहदें वहाँ रोज़ ही लाँघी जाती हैं.” चेतना कभी भी बंधन को स्वीकार नहीं करती. चेतना सम्पन्न मनुष्य अपनी इच्छाओं के अनुसार चलता है. ज्ञान प्राप्ति से लेकर अगम सत्ता की खोज तक उसकी इच्छाएं सक्रिय होती हैं, तो टोने-टोटके से लेकर वैज्ञानिक आविष्कार तक अबाध गति से यही इच्छाएँ उसे शोध-ज्ञान में प्रवृत्त करती हैं.
कवि जब कहता है कि “पाँवों का इतिहास असल में मनुष्य की इच्छाओं का इतिहास है/ और मनुष्य की इच्छाएँ अपने समय के भूगोल से तय होती हैं/ जहाँ बाज़ार के उछलने के साथ/ पाँवों में भी उछाल आता है” तो वह यह समझाने का प्रयास कर रहा होता है कि जिसने कदम बढ़ाए हैं वह सहसा रुकने की गलती नहीं कर सकता. बाज़ार घाटे-मुनाफे की गुणा-गणित पर केन्द्रित होता जहाँ दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ रहा है यह चिंता न होकर हमें कितना फायदा होने वाला है यह आंकलन महत्त्वपूर्ण होता है. बाज़ार के उछाल पर मनुष्य का उठा हुआ कदम महत्त्वाकांक्षा की जमीन पर सरपट दौड़ने की अभिलाषा रखता है. इस अभिलाषा में ‘जीवन’ और ‘जन’ न होकर ‘धन’ की केन्द्रिकता होती है.“एक खुला हुआ बाज़ार है/ जो दबी हुई आकाँक्षाओं की तरह/ आक्रामक है/ और फैलने को आतुर/ महाल की मलिन बस्तियों में धुएँ को समेटने की जल्दी है/ जिन्होंने धीरे–धीरे फैलाए अपने पक्के पाँव/ वे अब इसे अपने कंधे पर लेकर भाग रहे हैं/ एक धंधे की तरह” और जैसे धंधा करने वाला कभी स्थाई नहीं होता वैसे स्थाई होना इन्हें भी नहीं है. लोभ-लाभ के लालच में अपने स्थाई स्थान को छोड़ने का जोखिम ‘धन्धे’ वाले ही उठा सकते हैं. बाज़ार में बिकने की नीयति के साथ उजड़ने और उजाड़ने की प्रवृत्ति जब हावी होती है तो ‘सृजन’ का स्वप्न पालना कठिन होता है.
जो निर्माण की प्रक्रिया से गुजरता है वह कभी विनाश की बात नहीं करता. उसके स्वप्न से लेकर कल्पना तक मात्र निर्माण होता है. विध्वंश की स्थितियां देखकर वह विचलित होता है. परेशान होता है. हतप्रभ होने की अंतिम स्थिति तक प्रयास उसका यही होता है कि सृजन की सम्भावनाएं जिन्दा रहें. विनाश का हितैषी ऐसा नहीं सोचता. वह एक उर्वर भावभूमि को विनष्ट करने का पूरा खेल खेलता है और उसे बंजर बनाने के लिए ‘विलायती’ कारनामों का प्रयोग करता है. बाज़ार कभी भी हमारे लोक का स्थाई विकल्प नहीं रहा. पक्का महाल टूटने की स्थिति पर जन की यह परिकल्पना कि “यहाँ एक बिग बाज़ार होगा/ जहाँ सब तरह की सामग्री सब प्रकार के दामों में उपलब्ध होगी” मल्टीनेशनल कंपनियों के आगमन के समय देखे जाने वाले स्वप्न की याद ताजा कर जाती है. आज कम्पनियाँ तो मालोमाल हो रही हैं लेकिन जन-मानस अपने ही उत्पादन का लाभ नहीं ले पा रहा है. पक्का महाल की शर्त पर बाज़ार को तो सजाया जाएगा लेकिन लोक-व्यापार को जो क्षति पहुँचेगा उसे पूरा करने का साहस कौन करेगा? यह निश्चित नहीं है. निश्चित कुछ भी नहीं है.
निर्माण का जो स्वप्न लेकर यहाँ निवेश किया जा रहा है दरअसल वह विनाश का प्रारंभ है. लोक के गिरवी होने और जन के हथियाए जाने की शुरुआत है. इस शुरुआत में सहभागी कौन है और कौन है इसका सूत्रधार यह पक्का महाल के आसपास के नागरिकों में चर्चा का विषय है. सत्तासीन यदि व्यापारी की भूमिका में होता है तो जनता का आकर्षण कुछ और बढ़ जाता है. पक्का महाल के परिवर्तन को देखते हुए कोई कहता है कि “यहाँ के लोगों ने खुद इसे बुलाया/ जो खुद ही खुद की हवा, पानी व नमी से ऊब चुके थे/ और खुद ब खुद यहाँ की गलियों से निकल कर/ एक चौड़े मैदान में चहकना चाह रहे थे,” जहाँ के लोगों को यह विश्वास अभी तक नहीं हो पा रहा है कि वे मात्र गलियों से मुक्त होकर चौड़े मैदानों में नहीं पहुँच रहे हैं अपितु अपनी संस्कृति से अपदस्थ हो रहे हैं. कोई कहता है कि “यह एक सिरफिरे अधिकारी की समझ का परिणाम है/ जिसको उतने ही बड़े सिरफिरे शासक का संरक्षण मिल गया/ जिसको पोथियों से उतनी ही ताकतवर यह सनक मिली/ कि इतिहास उन्हें ज्यादे याद करता है/ जो नींव का निर्माण कम/ शिखर का विध्वंस अधिक करते हैं.” यह कहना भी उस समय यथार्थ प्रतीत होता है जब देश में निर्माण की अपेक्षा परिवर्तन, जोड़ की अपेक्षा तोड़ को महत्त्व दिया जा रहा है. कोई तो यहाँ तक कहता है कि “यह सब कुछ शिव की इच्छा का परिणाम है/ जो अब अपनी गंगा को समेटना चाहते हैं.” ये वे लोग हैं जो आस्था और धर्म के आगे सोचने-समझने का विवेक खो बैठे हैं. जो हो रहा है सब सही हो रहा है की नीति पर मंत्रमुग्ध रहने वाले लोग हैं ये जिनके पैर के नीचे की जमीन गायब हो चुकी है और अभी फ़ौज-दौड़ के अभ्यास का स्वप्न पाल रहे हैं.
यहाँ कवि का जो मानना है वह हमें बहुत देर तक सोचते रहने के लिए प्रेरित करता है “यह शिव की मुक्ति का अद्भुत समारोह है/ कि एक मुक्तिधाम विकसित हो रहा है/ सैकड़ों ‘घर-धाम’ को ध्वस्त करता हुआ.” यहाँ घर की परिकल्पना यथार्थ है और धाम का सम्बन्ध अध्यात्म से है. ‘धाम’ को ‘स्वर्ग’ से जोड़ने की नीयति ने ‘घर’ के यथार्थ को झुठलाने का प्रयास किया है जिससे ‘घर-विहीन’ होने की स्थिति अधिक विकट होती जा रही है. अध्यात्म को साधते हुए यही भारतीय दृष्टि है लेकिन इधर इस दृष्टि से न देखने की सीख लोक-समुदाय को दी जा रही है. यह अपनी तरह का सच है कि अलगाव शब्द से नफरत करने वाला ‘लोक’ विलगाव में नहीं होता. बनावटी सौंदर्य के सजावट में भी नहीं होता है लोक. लोक अपनी तरह की विवशता में हो सकता है. परेशानियों और विसंगतियों में हो सकता है लेकिन षड्यंत्रों में नहीं होता. फौरेबों और दलाली की प्रवृत्ति से सदैव स्वयं को सुरक्षित रखता है इसीलिए वह अपने जन के हृदय में स्थाई होता है. लोक का अपना सौन्दर्य होता है जो बनावटीपन से बहुत दूर वास्तविक और ईमानदार होता है. लोक की रवायतों में रचा-बसा जन अपनी संस्कृति और संस्कार के दम पर संसार में न होते हुए भी बड़े समय तक लोगों के दिल-दिमाग पर राज करता है. पक्का महाल से सम्बन्धित श्री प्रकाश शुक्ल“खुली आँखों से देखते हैं दृश्य तो/ बूढ़े मिसिर की आँखें दिख ही जाती हैं/ कुछ–कुछ गनी मियाँ के मलबे से मेल खातीं” जहाँ बूढ़े मिसिर और गनी मियाँ के रूप में पक्का महाल के आसपास अपनी रोजी-रोटी चलाने वाला आम आदमी वर्तमान दिखाई देता है.
ये पात्र स्थाई हैं इनके भाव और स्वभाव अपनी तरह के दुनिया की संस्कृति और संस्कार हैं. पक्का महाल के परिवर्तित हो रहे रूप पर गर्व इन्हें तो नहीं हो सकता, एक खीझ और पश्चाताप जरूर होता है. यह खीझ और पश्चाताप का ही परिणाम है कि “ठीक ऐसी स्थिति में/ भयानक न कह पाने की कोशिश में/ पकड़ा जाते हैं एक नया बैट/ तथा आँसू पोछते लौट पड़ते हैं/ फिर न लौट आने का संकल्प लिए.” ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें पता है कि उनके लिए जो कुछ सम्वेदनाओं का आधार है वह सत्तासीन लोगों के लिए खेल का एक साधन मात्र है जहाँ “एक बस्ती का उजड़ना भी तो आखिर खेल ही है/ हरियाली, हवा व रोशनी के नाम पर.” यह सच है कि हमें सभ्य बनने के लिए बदलाव के यथार्थ को सहन करना पड़ता है लेकन यह यथार्थ इतना भी खतरनाक न हो कि हमें अपनी जड़ों से ही महरूम कर दे.
इधर जड़ों से महरूम करने का ‘खेल’ मध्यकालीन प्रवृत्ति की तरह बेतरतीब जारी है. आतंरिक आदतों से हम बेहद क्रूर और असंवेदनशील हैं जिसमें बदलाव की जरूरत थी. व्यावहारिक रूप से हम संकीर्ण और अपनी ही परिधि में सीमित होने वाले लोग हैं जिसमें विस्तार की जरूरत थी. जरूरत थी लोगों को अपना कहने और स्वयं लोगों का होने की लेकिन न तो कहने की कोशिश की और न ही तो हो पाए. इन जरूरतों पर ध्यान देने की बजाय इधर ‘बदलाव’ की हवा चल पड़ी है जिस पर कवि को ऐतराज है और वह मानता है कि “जो शहर नहीं बदल पाए/ वो नाम बदल रहे हैं/ जिनको कचड़ा साफ़ करना था/ वो कपड़ा बदल रहे हैं/ जिन्हें गंगा को स्वच्छ करना था/ वे गौ की सुरक्षा पर जोर मार रहे हैं/ अल्लाह के बन्दे हैं जो/ ईश्वर के धन्धे में लिप्त हैं/ यादें जिनकी भोथरी हैं/ वे स्मृतियों को चमका रहे हैं/ ऐसे में एक शहर कब तक बचा पायेगा अपना वजूद/ कि लोग चुप हैं/ और अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं.” यह सभी विसंगतियां पिछले दो-चार वर्षों से हावी हैं और हम निरंतर चुप होने के अभ्यास में व्यस्त हैं. यह भी सच है कि इस इंतजार से उनकी तरक्की नहीं होनी है और न ही तो देश का विकास सम्भव है. फिर भी यदि लोग चुप हैं और नहीं बोल रहे हैं तो यह बदलाव उन्हें कहाँ लेकर जा रहा है…चिंता का विषय है.
चिंता का विषय है इसलिए कवि चिंतित है और उसकी कविताएँ गवाह हैं कि समय कितना दुर्दांत चल रहा है जिसमें बने रहने के लिए हमें विकास से कहीं अधिक व्यवस्था की जरूरत है. सरकार उन्हें मुक्ति दे रही है और वे इनकार करते हैं/ यह कहते हुए कि जिन गलियों में वे बड़े हुए हैं/ वहां विकास नहीं/ व्यवस्था की जरूरत है” जिसे पूरा करना प्राथमिकता तो है सरकार की लेकिन वह मानती नहीं. व्यवस्था की मांग करना एक तरह से सरकार के अस्तित्व पर प्रश्न लगाना है और प्रश्न लगे किसी पर ऐसा भला कौन चाहेगा? यहाँ “सब कुछ विकास मय है/ और मैं स्मार्ट होते शहरों में जंगल की हत्या देख रहा हूँ” और उन्हें हत्या एक तरह का परोपकार लग रहा है. अब यह परोपकार शहरवासियों पर है या शहर को बढ़ावा देने वाले धनाढ्यों पर यह भी गंभीर चिंता का विषय है.
पिता के त्याग और संघर्षों को लेकर बहुत कम काम हुआ है समकालीन हिंदी कविता में. माँ पर बहुत लिखा गया है. सम्वेदना के सभी द्वार की ड्योढ़ी माँ से शुरू होती है और उसी से लगभग समाप्त हो जाती है. पहले तो जिक्र नहीं करता कोई और यदि करता भी है तो एक अपराधी की तरह कटघरे में उसे खड़ा कर दिया जाता है. इस संग्रह में कवि ‘अलसाई उम्मीदें’, ‘पहरे पर पिता’, ‘पिता की रुलाई’, ‘देवदारु पिता’ कविताओं के माध्यम से यह बताने का प्रयास करता है कि वात्सल्य की भावना माँ के समान पिता में भी वर्तमान होती है. इतना कि “पिता हमारी नींद को लेकर/ अपने खांसने में भी सजग हैं…/ अब जब खाँसते हैं तो मुँह तोपकर खाँसते हैं” कि कहीं बच्चों की नींद पर इसका असर न पड़े. पिता बढ़ती उम्र की वजह से अपने वर्तमान को जितनी जिम्मेदारी से जीता है अतीत को याद भी करता है उसी सिद्दत से.
परिवार में उम्र के ढलान से उपेक्षित होने का दुःख भी उसे होता है और बच्चों द्वारा जिम्मेदारी के भाव को हथिया लेने का मलाल भी. कवि देखता है कि उपेक्षा और दुःख के इन्हीं वजहों से“आजकल पिता बात–बात पर रोते हैं/ रोना जैसे अपने होने को जीना है…/ जब वे रोते हैं तब अपने वर्तमान में होते हैं/ जब हँसते हैं तब अतीत में.” वर्तमान कचोटता है तो अतीत गुदगुदाता है. वर्तमान से पिता अपदस्थ हो रहा होता है और अतीत उसे लुभा रहा होता है. पिता के लिए “हँसना जैसे बीते जीवन को फिर से देखना है!” ऐसा जीवन जिसे उन्होंने खड़ा किया, संवारा, परिवार, समाज और परिवेश को बनाया. जहाँ पिता को सम्वेदना के धरातल पर लगातार उपेक्षित किया जाता रहा हो वहां उनके संघर्ष को कविता-सृजन का आधार बनाना सही अर्थों में एक बड़ा कार्य करना है. इन कविताओं से गुजरते हुए सहसा पुरुष-विमर्श की आवश्यकता महसूस होने लगती है तो वृद्ध-विमर्श की जरूरत भी.
सृजन एक जिम्मेदारी है. जिम्मेदारी कभी लापरवाह नहीं होने देती. इधर लापरवाही की हद तक जाकर कविता-सृजन का कार्य किया जा रहा है. जो ऐसा कर रहे हैं वे स्वयं को भले कवि मानकर चल रहे हों, कविता उनमें हो यह जरूरी नहीं है. सृजन के उत्स को जानना और उसकी जमीन को उर्वर बनाना आसान नहीं है. इधर यथार्थ और विमर्श के नाम पर बहुत कुछ परोसा जा रहा है जिसका न तो सम्वेदना से कोई लेना देना है और न ही तो परिवेश अभिव्यक्ति से. सभी एक ‘चिंगारी’ लेकर दौड़ लगा रहे हैं. जो दौड़ रहे हैं वह कविता की लहलहाती फसल को जलाने का कार्य कर रहे हैं. कवि जलाने की इस प्रक्रिया के खिलाफ है. वह ‘चिंगारी’ की जगह ‘आँच’ को प्राप्त करना चाहता है जिसमें सम्वेदनाओं को पकाया जा सके. सम्वेदनाएँ जब पकती हैं तो कविता हृदय से निकलकर मस्तिष्क तक को प्रभावित करती हैं. “हमें चिंगारी नहीं/ आंच चाहिए/ चिंगारियां तो जलाने के काम आती हैं/ हमारा काम तो पकाना है/ वह हांड़ी का चावल हो/ या अपने मूल से छिटके हुए शब्द.”
शब्द अर्थ देते हैं. जिन शब्दों से अर्थों की प्राप्ति होती है ‘विद्वान लोग’ उसे कल्पना लोक की उपज मानते हैं. कवि ऐसा नहीं मानता. वह मानता है कि “शब्द अगर अर्थ हैं तो इसी धरती पर हैं/ कि वे सब जगह हैं जिनसे जीवन सम्भव होता है.” ‘जिनसे जीवन सम्भव होता है’ उन ‘सब जगह’ शब्दों के होने की बात करना व्यावहारिक जीवन और यथार्थ परिवेश से काव्य-सम्वेदना ग्रहण करना है. जब आप किसी स्थिति या घटना को ‘घटित’ होते हुए देखते हैं तो कहीं गहरे में उसके प्रभाव और स्वभाव को आत्मसात कर रहे होते हैं. अनुभूतियाँ यहीं से सघन होती हैं. यहीं से सम्वेदनाओं का अंकुरण होता है और बाद में ‘काव्य-वृक्ष’ परिवर्तित होकर हमारे चिंतन-भूमि को पल्लवित करता है, न कि स्वप्नलोक में खोए रहने से. मनुष्य-हृदय की चिंतन-भूमि में“शब्दों के होने से यह दुनिया प्रकाशित है/ और अन्धकार से मुक्त भी .”
क्या कभी सोचा है आपने कि जिन शब्दों से दुनिया प्रकाशित होती है और जिनसे अंधकार से मुक्ति होती है, उन शब्दों को ‘सम्वेदना रूप’ का आकार कैसे देता है एक कवि? कैसे ‘चिन्तन-भूमि’ में उन्हें अंकुरित होने का ‘खाद-बिसार’ मुहैया करते हुए कोई सम्वेदना का प्रतिमूर्ति गढ़ता है? दरअसल जब तक हमारे चेतन हृदय में ‘चिंतन’ का प्राधान्य होता है हम चुप और शांत नहीं रह सकते. हम विमर्श करते हैं, विचार करते हैं. जिस समय ऐसा कर रहे होते हैं उस समय हर प्रकार की स्थिति मिल जाने वाली ‘रेत’ होते हैं. ऐसी रेत “जिसे हमारे भीतर का कलाकार/ हर वक्त एक आकृति में गढ़ता रहता है/ हमारा आकृति में होना/ हमारे जिंदा होने का निशान होना है.” जो जिन्दा होते हैं वे श्रम करते हैं. जो श्रम करते हैं वे हर समय सार्थक करने और होने का उद्यम करते हैं. उद्यम करने की प्रक्रिया में “जो जिंदा हैं/ एक आकृति हैं/ दूसरे को गढ़ते हुए.” इसी तरह ये शब्द बनते हैं और इसी तरह अपनी जिम्मेदारी को निभाते हुए एक ‘दूसरे को गढ़ने’ का उपक्रम करते हैं.
यह उपक्रम आसान नहीं होता. औसत बुद्धिमान और समझदार के मध्य द्वंद्व की स्थिति से जूझता रहता है कवि. वह कवि जो अतीत को साथ लेते वर्तमान को झेलते रहने का श्रम ही नहीं करता भविष्य को सुन्दर बनाने का प्रयास भी करता है. इस बीच कवि के पास एक ‘स्मृति’ होती है जो उसे अधिक सांस्कृतिक और भाउक बनाकर रखती है. परिवार और समाज से जुड़े रहने का भाव उसमें खूब होता है. ऐसा होना ही उसे कवि बना जाता है और सदैव जमीन पर रहने और उसे उर्वर बनाकर रखने के लिए प्रेरित करता है. इस अर्थ में “स्मृति का अच्छा होना/ अपने को ज्यादे सांस्कृतिक और कोमल बनाना है.” जिनके पास यह स्मृति नहीं होती उस रूप में ‘वे शीर्ष पर पहुँचते हैं/ और हमेशा ऊपर देखते हैं’ उन्हें किसी चीज के बनने बिगड़ने का कोई फर्क नहीं पड़ता. ऐसी स्थिति में “स्मृति का बुरा होना/ खुद को ज्यादे राजनैतिक और कठोर बनाना है.” यहाँ जो शब्द, जो सम्वेदना और जो भाव बनते हैं वे ‘दूसरे को गढ़ने’ का नहीं ‘तोड़ने’ का उपक्रम करते हैं. लेकिन यदि एक कवि-हृदय और उसके हृदय में उठने वाली सम्वेदना की बात करें तो “कठोर और मुलायम के बीच/ बना रहता है एक तनाव/ जिसे एक कवि के अलावा कोई नहीं जानता” क्योंकि कवि जिम्मेदार होता है. सही और हानिकारक की स्थिति को पहचानता भर नहीं सृजन और सम्वाद के धरातल पर विचरण करते हुए जो भी करता है सार्थक करता है.
क्षीरसागर में नींद संग्रह की एक बहुत जरूरी कविता है ‘आलोचक’. वैसे तो यह कविता पढ़ते हुए आप हंसने को मजबूर होते हैं लेकिन जैसे ही होठ हंसी की मस्ती से गंभीरता की मुद्रा में आते हैं आप बहुत गंभीर होते जाते हैं. इस कविता के हवाले से कहें तो इधर हिंदी कविता में आलोचना पर संशय और विश्वास का दौर चल रहा है. आलोचक की प्रवृत्ति कहीं आक्रामक हो रही है तो कहीं सामंजस्यपूर्ण. विश्वास और अविश्वास की जमीन पर खड़ा आलोचक कहीं जिम्मेदारी के मूड में है तो कहीं लापरवाही की. कुछ ऐसे आलोचक हैं जिन्होंने ‘चाटुकारिता’ हद तक जाकर अपना स्वाभिमान गिरवी रख दिया है जिसके लिए इसी संग्रह की ‘चापलूस’ कविता को देखना जरूरी हो जाता है.
‘आलोचक’ कविता को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि इधर कुछ आलोचक ऐसे दिखे हैं जिनमें स्थाईत्व नहीं दिखाई देती. भटकाव इस तरह है कि अपने ही स्थापनाओं का ध्यान नहीं. विमर्श के दौरान आलोचक से “जब कभी कविता की बात होती है/ वह कहानी बतियाने लगता है/ जब साहित्य की बात होती है/ वह उपनिषद बतियाने लगता है.” कारण यह कि न तो वह कविता से उस हद तक जुड़ा हुआ है और न ही तो साहित्य से. कविता के समय कहानी की बात करना और साहित्य के समय उपनिषद की चर्चा करना आलोचक के विक्षिप्त होने की कहानी मात्र है. यथार्थ पर आदर्श की परिचर्चा और ‘निराला, मुक्तिबोध व प्रेमचंद’ के स्थान पर ‘वाल्मीकि व व्यास के सैकड़ों उदहारण’ रखना जहाँ उसके वैचारिक रूप से कमजोर होने की स्थिति का पता चलना है वहीं उसका ‘गाथा के विरुद्ध ऋक का आवाहन’ उसकी ‘मानसिक दुराग्रह’ की स्थिति को स्पष्ट करता है.
वैचारिक दुराग्रह में चिंतन का विकल्प तो कहीं रह ही नहीं गया है, यह भी इधर की एक बड़ी समस्या है आलोचना जगत की. यह यहाँ से समझिये कि “उसकी हर स्थापना एक बिंदु से शुरू होती है/ और सभी तरंगों को ख़ारिज करती हुई/ उसी बिंदु में समाहित हो जाती है.” जहाँ से उठना वहीं आकर समाप्त होना लकीर का फकीर होना है. साहित्य विस्तार की बात करता है और कविता वहां तक हमारे मस्तिष्क को ले जाती है जहाँ तक की कवि भी नहीं सोच पाता है. यह ठहराव मात्र आलोचक का ठहराव नहीं है अपितु कविता की सीमा को संकुचित करना है. कहने को इस कटेगरी में आने वाला आलोचक“एक खोजी आलोचक है/ जो हमेशा फेंकता रहता है नये पत्ते/ अपने पुराने पीपल की याद में/ जबकि सच तो यह है कि पुराना बचा नहीं है/ और नये में कोई गति नहीं है.” यहाँ ‘पुराना’ से कवि का आशय ऐसे रचनाकारों से जिनमे इतनी सामर्थ्य नहीं कि वे समकालीनता की अवधारणा को सम्पुष्ट कर सकें और ‘नये’ से तात्पर्य उनसे है जो किसी तरह से परम्परा का दीप जलाए बैठे हैं. दीप जलाना अलग बात है और दीप के माध्यम से परिवेश को रोशनी देना एक दूसरी बात. यहाँ जरूरी हो जाता है कि हमारा प्रयास परिवेश को रोशनी देना हो, न कि दीप जलाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना.
सौंदर्य वही है जो स्वयं की आँखों से देखा गया हो. जिसकी आभा को अपने हृदय में प्रस्फुटित होता महसूसते हैं वही हमें आकर्षित करता है और हम उसी के आकर्षण में स्वर्गिक आनंद का अनुभव करते हैं. यह अनुभव नितांत निजत्व से प्राप्त होता है जो कहीं गहरे में सबका होता चला जाता है. ‘सूर्योदय’ के समय की छटा को कवि ‘रूप अपरूप’ कहता है और स्वीकार करता है कि “तुम्हारी आभा से ही तो आभासित है यह दुनिया.” यह कोई पहला अवसर नहीं है जब किसी कवि द्वारा सौंदर्य को ‘रूप अपरूप’ की संज्ञा दी गयी है “उगे तो पहले भी थे तुम मेरे भीतर/ बस आज उसे रंग मिला है/ सुर्ख लाल रंग.” इसके पहले महज कल्पनाओं से एक आंकलन किया जाता था जो लगभग अगम और अगोचर होता था. जिस ‘रूप अपरूप’ का प्रयोग नायिका के नख-शिख वर्णन में किया जाता था कवि पहली बार उसका प्रयोग सूर्योदय के लिए करता है. उस सूर्योदय के लिए “जिसकी विभा से फूटता है मेरे भीतर एक कल्ला…उठती हैं तरंगें…जो उछालता है मेरे भीतर/ अनंत की उम्मीद” जिसके सहारे कवि अपने‘भीतर के कायर को’ तोड़ता है.
व्यक्ति भीतर के कायर से इतना घिरा होता है कि स्व-विवेक का प्रयोग कम कर पाता है. जिस समय वह स्व-विवेक का प्रयोग करना शुरू करता है कहीं अधिक मानवीय और भावुक होना शुरू होता है. यहीं से प्रेम का अंकुरण होता है उसके हृदय में. प्रेम के सम्बन्ध में कवि मानवीय अधिक है ‘क्रांति’ की बनिस्बत. क्रांति में तोड़-फोड़ की गुन्जाईस अधिक होती है जबकि भावुकता व्यक्ति को जोड़ती है. हृदय से हृदय तक की दूरी कम करती है. कवि प्रेम में है और मौन की उपस्थिति में “आँखों की कोर से टपका जो टटका आँसू/ कह गया बहुत कुछ पथ भटक कर.” इस भटकन में ही ‘कवि-कथा’ की तलब होती है उसे और फरियाद करता है कि “चुप क्यों हो/ बोलो/ कुछ तो बोलो/ आख़िरकार बोलने से ही तो चुप रहना संभव हुआ है.”
मौन बोलने के बाद की स्थिति है लेकिन कवि मौन में उठने वाली पीड़ा को पुनरावृत्ति नहीं चाहता. प्रेम में अक्सर मौन अपना कार्य करता है लेकिन जब यही मौन पीड़ा की हद तक जाकर सिसकन का आधार बनता है तो कवि शब्द का निर्माण करता है. शब्द ही सबद होते हैं जो सदियों से गाए जाते रहे हैं. आत्मा और परमात्मा के मिलन-बिछुड़न की एक लम्बी परंपरा के साथ. आश्चर्य है कि कवि अपने स्व-विवेक से सृजित शब्द को ‘सबद’ ही नहीं रहना देना चाहता है. नाम न दे पाने की छटपटाहट उसे ‘कविता’ तक वापस लेकर आती है जिसे चाहते हुए भी वह कविता नहीं मान पाता-
तुम एक शब्द हो/ सबद ही हो
इस ज़हानेफानी में/ रौनक अफ़रोज की तरह
अदृश्य ही सही/ तुम्हें क्या नाम दूँ
कविता भी कहूँ तो कैसे/ बनने में ही टूट गयी हो
लय जैसे.”
कवि फिर भी लिखता है कविता क्योंकि लय के टूटने पर भी कवि में कविता-सृजन की सम्भावनाएं बनी रहती हैं. जीवन में टूटने पर जैसे बना रहता है फिर से उठ खड़े होने का विश्वास. जितनी यातना जीवन में होता है जीने का अंदाज और रंग उतना ही विशिष्ट और अलग होता है. जितना संघर्ष लय साधने में होता है सृजन का अनुभव और अनुभव से उपजा कविता का यथार्थ उतना ही विशेष होता है. यह विशेष ही प्रेम और सौन्दर्य को पढ़ने और सृजन की चाक पर स्मृति की कारीगरी को अनुभूतिजन्य बनाता है. सृजन के धरातल पर विश्वास को बनाकर रखना और उसी ऊर्जा को अपने पाठकों में देखना बड़ी बात है. ‘क्षीरसागर में नींद’ इस विश्वास पर अपनी सार्थक भूमिका में पाठकों के सामने है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
क्षीर सागर में नींद : श्रीप्रकाश शुक्ल [कविता-संग्रह], मू. 112, सेतु प्रकाशन, दिल्ली। आप इसे अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.
अनिल कुमार पाण्डेय : युवा कवि और आलोचक. वर्तमान में लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, फगवाड़ा, पंजाब के हिंदी विभाग में कार्यरत हैं. वे जालंधर से प्रकाशित ‘बिम्ब-प्रतिबिम्ब’ नामक पत्रिका का संपादन भी करते हैं. इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है.