सुनील कुमार
युवा कवि, कथाकार, आलोचक भरत प्रसाद की चुनी हुई कविताओं का संग्रह ‘पुकारता हूँ कबीर’ समाज के कई मुद्दों को आईना दिखाती हुई नजर आती है। अमन प्रकाशन से प्रकाशित इस काव्य संग्रह की प्रत्येक कविताओं में समाज से टकराहट की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। महात्मा कबीर केवल संत कवि ही नहीं थें उन्होनें समाज सुधारक के रूप में भी अपनी उपस्थिति दर्ज कारवाई है। कबीर के आदर्श, जीवन-दर्शन और संस्कार आज भी साहित्य एवं समाज में उपस्थित है। यह समय है उन्हें तलाशने और समझने की। कवि भरत प्रसाद इन बातों एवं महात्मा कबीर के उन सभी गुणों से भली-भाँति वाकिफ हैं। कविता और कविकर्म फक्कड़ता और बेफिक्री से उत्पन्न होता है। कबीर में भी वही अंदाज़ था जिसे फक्कड़ता, अक्खड़पन और बेफिक्री कहा जा सकता है। इसी कारण उनकी कविताई में समाज, सामाजिक सच्चाई की परत दर परत उघड़ती हुई नजर आती है। युवा कवि भरत प्रसाद ने भूमिका में अपनी कविता की जमीन तलाशने की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए लिखा है ‘प्रायः कविदृष्टि का यह अहलादपन उसकी ‘साहसिक बेफिक्री’ से जन्म लेता है। इतना ही नहीं इस बेमिसाल अहलदेपन के लिए एक फक्कड़पन, एक बेखुदी और आत्म साक्षात्कार का दुस्साहस अत्यावश्यक है। कवि के भीतर स्वयं को द्रष्टा या साक्षी की तरह देख पाने की आग प्रज्वलित हो। इस अंतर्ज्वाला के विस्तार में वह देखता है- दिशा-दिशा में उड़ते हुए अनकहे अर्थ, अव्यक्त प्रतीक और बिम्ब, आवाजाही मचाए हुए प्राणवंत विचार और सृष्टि को आधार देने वाले चैतन्य सूत्र’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, भूमिका से)। इसी दृष्टि से कवि जीवन के मर्म एवं सच्चाई को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है।
प्रस्तुत काव्य संग्रह ‘पुकारता हूँ कबीर’ में कुल सत्तावन कविताएँ संकलित हैं। इन सभी कविताओं में जीवन के प्रति सच्चा दर्शन तथा अनुभव छिपा हुआ है। पुस्तक की पहली कविता ‘मन की बाँसुरी पर तन का विलाप’ में नष्ट होती प्रकृति के प्रति कवि के विलाप को देखा जा सकता है। कवि का प्रकृति के क्षरण के प्रति विद्रोह इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य ने जब-जब प्रकृति को नुकसान पहुँचाया है तब-तब उसने इसका हर्जाना चुकाया है-
‘नदियों की नाभि में
मृत्यु की ऐंठन होने लगी है
अनादि काल से खड़े-खड़े पहाड़
ढह रहे हैं स्मृति में बेतरह
दरख्तों के शरीर से’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.14)
कवि की प्रकृति के प्रति छटपटाहट एवं प्रकृति को बचा लेने की ललक को ‘मुझे बचाओ’ कविता में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है-
‘जीवन से भरी हुई धरती देखने का सुख
लूटने के लिए
मुझे अव्वल दर्जे का पागल हो जाने दो
मुँह के बल चाहे बार-बार गिरूँ
चातक ही क्यों न जाए घुटने की हड्डियां
उसे देखने के लिए
फिर तड़प कर उठूँ’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.34)
प्रतिदिन प्रकृति पर मंडराते खतरों को भाँपते हुए कवि प्रस्तुत काव्य संग्रह में सतर्क नजर आते हैं। ‘पृथ्वी को खोने से पहले’ कविता में पृथ्वी के क्षरण की कहानी बयाँ किया गया है। कवि इन खतरों को जानते हैं। इनकी संवेदना जायज है और एक बड़ी समस्या की ओर इशारा करते हैं। इनकी टीस को इस कविता में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। एक प्रकृति प्रेमी की इच्छा है कि वह प्रकृति एवं पृथ्वी को नष्ट होने से पहले उसे जी भर कर देख लेना चाहता है-
‘पृथ्वी को खोने से पहले
जी भर कर जी लेना चाहता हूँ
एक-एक दिन
सुन लेना चाहता हूँ
जड़ चेतन में धड़कती
पृथ्वी का हृदय
पी लेना चाहता हूँ
सृष्टि के सारे अलक्षित मर्म’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.63)
गंगा निर्मलीकरण के लिए देश स्तर पर कई तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। नए विभाग बनने के बाद भी गंगा की जमीनी हकीकत क्या है, इससे गंगा और सामान्यजन वाकिफ हैं। गंगा की पीड़ा कवि की पीड़ा बनकर ‘गंगा का बनारस’ जैसी मार्मिक कविता में उभरी है। कविता के प्रत्येक पंक्ति में गंगा के खून से सिंचित आँसू नजर आते हैं। जल एवं नदी प्रदूषण पर लिखी गई इस कविता में गंगा के दुख साधारणीकरण कर पाठक से उसका एकाकार कराया है-
‘पछाड़ खा-खाकर
रात-दिन
खून के आँसू रोती
आँचल पसर कर प्राण की भीख माँगती
जहर का घूंट पी-पीकर
मौत के एक-एक दिन गिनती
पराजय की मूर्ति बन गई है गंगा
अरे! तुम्हारे छूते ही गंगा का पानी
काला क्यों हो जाता है’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.68)
प्रकृति एवं पर्यावरण को बचाने के लिए कवि की चिंता सहज समझने लायक है। प्रकृति के प्रति कवि की बेचैन एवं झकझोर देने वाली व्यथा को इस कविता में देखा जा सकता है-
‘भटकती है आत्मा
प्रकृति के भीतर बैठी
हजारों हजार माँओं के लिए
खोजती फिरती हैं आँखें-
कहीं तो प्राण का प्राण हासिल हो जाय’(पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.21)
कवि की चिंता केवल प्रकृति को बचाने की नहीं हैं। उनकी पैनी नजर सामाजिक विषमताओं और सामाजिक गतिविधियों पर भी पड़ती है। जैसा कि पुस्तक का नाम है ‘पुकारता हूँ कबीर’। कबीर जिस तरह से सांसारिक विषमताओं एवं अव्यवस्थाओं पर बेबाक राय देते हैं। उन्हें समाज के शीर्ष एवं तथाकथित उच्च वर्ग से भय नहीं था। ठीक इसी तरह कवि भरत प्रसाद भी व्यवस्था के दोहरे चरित्र पर अपनी राय बहुत ही बाहादुरी एवं ईमानदारी से देते हैं। विगत दिनों गोरखपुर अस्पताल में ऑक्सीजन के अभाव में मारे गए बच्चों की कोमल स्मृति को समर्पित कविता ‘जीवन @ ऑक्सीजन’ में कवि उन माँओं और बच्चों को पीड़ा से याद करते हुए एवं ऐसी व्यवस्था का प्रतिकार करते हुए दिखते हैं-
‘हम फिर लौटेंगे!
कई माँओं की कोख में
कई अमिट, सवाल बनकर
लेकर रहेंगे एक-एक मौत का उत्तर
अपने मौलिक अधिकार की तरह
मांगेंगे तुमसे दफन हो चुकी एक-एक सांस का हिसाब’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.23)
विगत दिनों बुद्धिजीवियों पर होते हुए हमले ने यह साबित कर दिखाया कि बुद्धि , बल से काफी ताकतवर होता है। कलबुर्गी, दाभोलकर, पंसारे, गौरी लंकेश जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं ने देश के प्रगतिशील पक्ष को झकझोर कर रख दिया। जब लोग बोलने में डरते हैं, ऐसे समय में गौरी लंकेश की हत्या को समर्पित कविता ‘मौत का नया पता’ के माध्यम से सच कहने की ताकत को कवि ने दिखलाया है-
‘मौत अब तुम्हारी साँसों पर दावा करती
तुम्हारी धड़कनों को छीनती हुई आएगी
यह मौत हर सही कदम के खिलाफ
निर्णायक फैसले की तरह आयेगी’(पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.24)
भारत केवल माटी का एक हिस्सा नहीं है। यह सवा सौ करोड़ देशवासियों के लिए अरमान एवं एहसास है। देश पर कई विदेशी आक्रमण हुए। विदेशियों ने इस देश को कई बार लूटा और बर्बाद किया। आज आतंकवाद के कई क्रियाकलापों ने देश को सहमा कर रख दिया है। पूरा विश्व इस समस्या से जूझ रहा है। विश्व विजय की कामना रखने वाले सिकंदर की क्या गति हुई यह पूरा विश्व जनता है। इस प्रसंग पर भरत प्रसाद की यह कविता काफी सटीक बैठती है-
‘पृथ्वी अटूट धैर्य और अमर संतुलन के साथ
अथाह आकाश में नृत्य कर रही है
तुम्हारी समूची लड़ाइयों के साथ
अनगिनत महायुद्धों के साथ
वह तब भी नहीं काँपी'(पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.31)
अभाव एवं लाचारी मनुष्य को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है, जहाँ से वह पीछे लौटकर वापस भी नहीं जा सकता। देश की कुल पूंजी पर कुछ ही परिवारों का ही कब्ज़ा है। गरीबी और गरीबी रेखा और लंबी खींचती चली जा रही है। ‘कूड़ाखोर’ कविताओं एक ऐसी ही तस्वीर कवि ने खींची है-
‘कूड़ा उसके लिए कूड़ा नहीं
बुझते हुए जीवन की अंतिम उम्मीद है
डूबते हुए सुख का आखिरी तिनका
पराजय की आखिरी शरण स्थली
वह निःशेष उम्र के लिए कूड़ाखोर बन चुका है’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 38)
तथाकथित सभ्य समाज जिस समुदाय को त्याग कर एक विशेष नाम ‘वेश्या’ देता है, वह भी समाज का अभिन्न हिस्सा है। उनको भी समाज में रहने-जीने का, पेट पालने का, अन्य संसाधनों आदि का उपयोग करने का उतना ही अधिकार है जितना अन्य लोगों को। वे भी चाहते हैं उनके बच्चे भी कान्वेंट स्कूलों में पढ़ें। समाज के इन ठेकेदारों को किसी की इज्जत से खेलने, उनपर लांछन लगाने का कोई अधिकार नहीं है। वे अपनी दुख को तथाकथित सभ्य समाज से नहीं कहती है। यह है रेड लाइट एरिया में रहने वालों की इंसानी हकीकत। इस हकीकत को समाज को स्वीकार करना ही पड़ेगा। कवि भरत प्रसाद की कविता ‘रेड लाइट एरिया’ इस प्रसंग पर बहुत कुछ कहती है-
‘कोई देखे जरा
सब-कुछ लुट जाने के बावजूद
उसकी आँखों में अभी कितना पानी शेष है
यकीन नहीं होता कि
वह अब भी हंस सकती है
रो सकती है, नाच सकती है, खुश हो सकती है’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 50)
अंधविश्वास की बेदी पर हजारों-लाखों निरीह बेजुबान पशु-पक्षियों को देश में बली के नाम पर मौत के घाट उतार दिया जाता है। कबूतर को शांति का दूत कहा जाता है। इन कबूतरों को छटपटाने से भी कोई फाइदा नहीं हो सकता है। इन पक्षियों और पशुओं की बेदना को भी कई साहित्यकारों ने साहित्य में स्थान दिया है। भरत प्रसाद की ‘कामाख्या मंदिर के कबूतर’ कविता में उन पशु पक्षियों के आह को, हृदय को बेध देने वाली चित्कार को बखूबी सुना जा सकता है-
‘कौन समझाये इन मोहान्ध कबूतरों को कि
लाख तड़फड़ाएँ, अहक-अहक कर मरें
माँ को ढूँढ़ती नन्हीं आँखें
अब इन्हें नहीं दिखाई देंगी’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ.56)
अंधविश्वास एवं मनुष्य की व्यक्तिगत लालसा के कारण वन्यजीव एवं पालतू पशुओं को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इन पशुओं और जीवों की आंतरिक भावना कैसी होगी इसका अनुमान कवि ने प्रस्तुत कविता के माध्यम से किया है। जीवों पर दया एवं जीवों के आंतरिक भावधारा को कवि ने ‘मैं सूअर हूँ’ कविता में बहुत ही मार्मिकता से चित्रित किया है-
‘जानवर को कभी माँ नहीं होना चाहिए
मेरा बाँझ रहना
अपनी आँखों के सामने
बच्चों की हत्या देखने के पाप से बच जाना है’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 73)
कवि केवल महात्मा कबीर के आदर्श, जीवन दर्शन के प्रति ही कृतज्ञ नहीं हैं, वे उस माटी, फसल, उन हवाओं, उन शब्दों आदि के प्रति भी कृतज्ञ हैं जो इनकी धमनियों में रक्त की तरह दौड़ रहा है। ‘मैं कृतज्ञ हूँ’ कविता में इसकी झलक साफ-साफ दिखाई पड़ती है-
‘मैं कृतज्ञ हूँ उन शब्दों का
जिसने मुझको गढ़ा-तराशा
तोड़ा-मोड़ा, जिंदा रखा
मैं कृतज्ञ हूँ उस माटी का
जिसने मुझको साँसें सौंपी
पाला-पोसा बड़ा कर दिया’(पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 89)
शब्द की ताकत कलम से निकलती है। कलम कई मायनों में शब्द को और शब्द संसार को समृद्ध करती है। आज़ादी के समय कलम की ताकत को स्वतंत्रता सेनानियों एवं तत्कालीन समय के लेखकों ने पहचान लिया था। इस बात को और कलम की ताकत के प्रति कृतज्ञता को भी कवि ने बड़े ही गंभीरता से स्वीकार करते हुए ‘कलम’ कविता में लिखा है-
‘सभ्यता, संस्कृति, इतिहास
अपना न्याय पाने के लिए
इसी कलम पर निर्भर हैं-
इसका निर्णय ही
वास्तव में अंतिम निर्णय है।’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 102)
आतंकवाद एवं सांप्रदायिकता के जहर से समस्त विश्व समस्याग्रस्त है। यह समस्या प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से साहित्य एवं साहित्यकार भी प्रभावित हुआ है। इस प्रभाव को साहित्य की कई विधाओं में देखा जा सकता है। कवि भरत प्रसाद ने इस गंभीर समस्या को कविता में स्थान देते हुए ‘कश्मीर के बच्चे’ में लिखा है-
‘इतने वर्षों से उत्तर की
शांत और सुंदर घाटी में,
तोपों, गोलों, बंदूकों का
खूनी शासन गूँज रहा है!’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 111)
इसी प्रसंग पर ठीक ऐसा ही चित्र कवि ने ‘गुजरात की रात’ कविता में भी खींचा है-
‘दो हाथ, मजहबी जोश भरे
आतंकमुखी विस्फोटक से
प्यासे शस्त्रों की फौज लिए
बढ़ते हैं अंधड़ हो जैसे!’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 115)
मनुष्य अंत समय में आदमी और आदमियत की परिभाषा को समझता है। उसके सामने अतीत के सारे चित्र उभरने लगते हैं। डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा लिखित एकांकी ‘औरंगजेब की आखिरी रात’ में औरंगजेब के द्वारा किए गए सारे कृत्यों को शय्या पर याद करते हुए दिखलाया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य अपने सभी कामों का मूल्यांकन अंतिम समय में अवश्य करता है। कविता ‘रवीन्द्रनाथ के आँसू में कवि ने इसी सत्य की ओर इशारा किया गया है-
‘रोगशय्या पर पड़े
अपने भाई-बंधुओं को आस-पास
उदास-उदास सा देख कर
ममत्ववश रो पड़ने वाले गुरुदेव!
तुमने बता दिया कि
सारी उपलब्धियों के बावजूद
आँसुओं से बढ़कर
आदमियत की कोई परिभाषा नहीं!’ (पुकारता हूँ कबीर, भरत प्रसाद, पृ. 99)
‘पुकारता हूँ कबीर’ काव्य संग्रह उन सभी घटनाओं, सामाजिक विषमताओं और व्यवस्था के रूप का जीवंत दस्तावेज है। कवि व्यवस्था की विद्रुपताओं के खिलाफ मुखरता से खड़ा होता है। कवि भरत प्रसाद ने लोकतंत्र पर हो रहे निरंतर हमले से लेकर आतंकवाद, सांप्रदायिकता तक के आख्यान को बहुत ही रोचकता से वर्णित किया है। समाज में जब बुद्धिजीवी एवं साहित्यकार प्रथम पंक्ति में खड़ा होकर व्यवस्था से दो-दो हाथ करता है तब यह भालिभांति समझ लेना चाहिए कि व्यवस्था का रुख सही नहीं है। युवा कवि, कथाकार, आलोचक भरत प्रसाद की कविताओं में मार्मिकता का विलक्षण रूप देखने को मिलता है। इनकी कविताओं की विशेषता है कि यह पाठक को एक ऐसे भावलोक का विचरण करता है जहाँ आत्मा उच्चता की शीर्ष पर पहुँचता है। कवि के प्रकृति एवं पृथ्वी प्रेम, असहाय तथा हाशिए पर के लोगों से आत्मीय लगाव को इस काव्य संग्रह में सर्वत्र देखा जा सकता है। काव्य संग्रह ‘पुकारता हूँ कबीर’ महात्मा कबीर को याद करने का एक नया तरीका ईजाद करता है ।
पुकारता हूँ कबीर : भरत प्रसाद [कविता-संग्रह], मू. 175 रूपये, अमन प्रकाशन, कानपुर। आप इसे अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.
सुनील कुमार : पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग से पीएच. डी. (हिंदी). अनुवाद में स्नातकोत्तर एवं रशियन भाषा में डिप्लोमा. प्रकाशित पुस्तकें : हिंदी यात्रा साहित्य में भारत का पूर्वोत्तर, साहित्यिक निबन्ध कुछ विचार कुछ प्रश्न, अकथ कहानी : ख्रिक्सन लिंग्खोई की आत्मकथा (अनुवाद), पूर्वोत्तर भारत भाषा साहित्य और संस्कृति, सामान्य व्याकरण एवं रचना, विमल बजाज : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी. देश, विदेश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य, आलेख, समीक्षा आदि का निरंतर प्रकाशन. संपादन एवं प्रसारण : केंद्रीय हिन्दी संस्थान,क्षेत्रीय केंद्र, शिलांग द्वारा मेघालय बोर्ड की पुस्तकों का संपादन एवं संपादन कार्य में सहयोग। पूर्वोत्तर के साहित्य समाज संस्कृति पर आधारित कई पत्रिकाओं का अतिथि संपादन. पत्रिकाओं के विभिन्न समितियों में सदस्य. आकशवाणी शिलांग से कई वार्ताओं, नाटकों और परिचर्चाओं का प्रसारण. सुनील से इस पते पर संपर्क कर सकते हैं— sunilbhu50@gmail.com