पंकज मित्र
वैसे तो चंदन पाण्डेय के पहले उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ की अति सरलीकृत व्याख्या यह हो सकती है कि यह लव जिहाद और भीड़ हत्या के विषय पर लिखा गया है परंतु भीड़ को हत्यारी भीड़ में बदलने और इस कौशल से बदलने कि भीड़ को अहसास भी न हो कब वह कातिल भीड़ में बदल चुकी है, इस मानसिक निर्मिति की पड़ताल ज्यादा है इस उपन्यास में। गहरे राजनीतिक निहितार्थ एवं सामाजिक पक्षधरता का यह उपन्यास किस तरह धीरे-धीरे आपको एक गहन गुहांधकार में गहरे उतारता है जहाँ हरवक्त दिमाग की नसों में तनाव महसूस करते हैं। यह तनाव सिर्फ कथा के अंदर नहीं कथा के बाहर भी पसरा हुआ है। कथा केवल इतनी है कि एक छोटे से कस्बे नोमा के एक छोटे से नाट्यदल का निर्देशक रफीक गायब है, फिर उसकी छात्रा जानकी और फिर कुशलपाल और मुकेश भी। रफीक की गर्भवती पत्नी अनुसूया रफीक की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाना चाहती है पर यह कस्बा इस साबुत आदमी के गायब होने पर ऐसा ठंढा निस्पृह भाव रख रहा है मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। सब अपने दैनिक कार्य व्यापार में लगे हैं।
ऐसा मालूम होता है कि हम मार्क्वेज के किसी उपन्यास की पृष्ठभूमि में हैं। दरअसल रफीक का नाम रफीक होना ही वह कुंजी है जहाँ से उपन्यास के गवाक्ष खुलते हैं। कस्बे का सारा सत्ता तंत्र इस बात से परोक्ष रूप से उत्तेजित है कि रफीक नाम का एक आदमी, चाहे कितना भी जहीन, पढ़ाकू, सुसंस्कृत, रचनात्मक क्यों न हो, अनुसूया नामवाली से प्रेम कैसे कर सकता है और इस तंत्र के नाक के नीचे, जिसमें दद्दा का रौबदाब, उनके पुत्र की आतंकित करनेवाली गुंडागर्दी, पुलिसिया क्रूरता, झूठ और अफवाह की कहानियाँ उगलने वाली मीडिया, सबके रहते रफीक नुक्कड़ नाटक के जरिए सबको उद्घाटित करने का दुस्साहस कैसे कर सकता है। वह गायब हो चुका है और कस्बा यह मान चुका है कि रफीक उस षड़यंत्र का, उस डिजाइन का हिस्सा था जिसे “वे” जानबूझकर प्रयोग करते हैं “हम” लोगों के खिलाफ। यह “हम” और “उन” के बीच की खाई इतनी चौड़ी हो चुकी है या कर दी गई है कि भीड़ कभी भी उन्मत्त होकर एक हत्यारी भीड़ में बदल सकती है।
इस खाई को चौड़ी करने में समूचे तंत्र की भूमिका है—राजनीति के समीकरण, सत्ता के उपकरण जिसमें शलभ जैसे लोग हैं, भीड़ को हथियार में बदल डालने के सत्ता से इतर समीकरण, भाषा से लेकर शारीरिक हिंसा के संयोग प्रयोग— सब पिछले कुछ वर्षों में बहुत तेजी से फैलते देख रहे हैं— इन सब घात प्रतिघात के चित्रों को रचना में ढालने का कौशल चंदन पाण्डेय दिखाते हैं। कामयाबी यह कि अति यथार्थ के चित्रण के बीच संवेदना और अंतर्गुंफित भावनाओं का हाथ वह कभी नहीं छोड़ते। कहन के परंपरागत उपादानों-रहस्य, रोमांच, रोचकता, पठनीयता सबको बरकरार रखते हुए— प्रेम, करूणा, प्रतिरोधी स्वरों को भी यथायोग्य स्पेस देते हैं।
अपनी बारीक बुनावट में इन स्वरों का रंग अलग दिखता भी है। नाटक में एक चरित्र का दूसरे में बदल जाना एक ऐसी प्रविधि है जो “द शो मस्ट गो आन” की अवधारणा को ज़िंदा जावेद रखता है वह भी बिना किसी नारेबाजी के। अच्छी बात यह है कि तमाम कशीदगी और तारीकियों के बावजूद (जैसा उपन्यास के कवर पर अंधेरा तो है पर दरवाजे के पार रोशनी दिखती है) कई ऐसे चरित्र हैं जो शुभ हैं उज्ज्वल हैं और हमें यकीन दिलाते हैं कि अभी तक सबकुछ खत्म नहीं हुआ है—बचाने वाले भगवान ही नहीं होते आए हैं— मनुष्यता में, प्रतिरोध में विश्वास अभी कायम है।
चंदन पाण्डेय अपनी प्रारंभिक कहानियों से ही भाषा के प्रति सतर्कता बरतते रहे हैं और इस उपन्यास में यह भाषाई कौशल उरूज़ पर है। उपन्यास में जो तनाव है वह जैसे दिमाग को बंटकर रस्सियों में बदल डालता है और भाषा यह काम संभव करती है। छोटे-छोटे वाक्य, कहीं भी अतिनाटकीयता नहीं, तंज़ का संयमित और लक्ष्य संधानी प्रयोग, मंजाव और रचाव से निर्मित यह भाषा बहुत अभ्यास से सधती है। एक सौ चालीस पृष्ठों में चंदन पाण्डेय ने हमारे समय के यथार्थ का एक महत्वपूर्ण आख्यान रचा है जो समय की निर्मम समीक्षा तो करता ही है साथ ही कथा में वैचारिकता को पुनर्स्थापित करने का यत्न भी करता है।
वैधानिक गल्प : चन्दन पांडे, मू. 160 रूपये [पेपरबैक], राजकमल प्रकाशन, दिल्ली | अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.
पंकज मित्र : समकालीन कथा साहित्य में एक सशक्त उपस्थिति। चार कथा संग्रह—क्विजमास्टर, हुड़ुकलुल्लू, ज़िद्दी रेडियो, बाशिंदा@तीसरी दुनिया प्रकाशित। इंडिया टुडे का युवा लेखन पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का युवा सम्मान, मीरा स्मृति सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान और बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान से सम्मानित। आप इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं—pankajmitro@gmail.com