हाल ही में कथाकार तरुण भटनागर का उपन्यास ‘बेदावा’ राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित हुआ है। इन दिनों ‘बेदावा’ चर्चा में है। उपन्यास का एक बहुत ही रोचक अंश आपके लिए पुस्तकनामा पर…
(सुधीर देख नहीं सकता। वह बचपन से अंधा है। एकदम नाबीना। पर खूबसूरत मोमबत्तियाँ बनाता है। अपर्णा उससे मोमबत्तियाँ बनाना सीखती है। वह धीरे-धीरे उससे प्रेम करने लगती है। सुधीर ने आज तक किसी औरत को कभी नहीं देखा। कोई उपाय भी नहीं कि वह कभी किसी औरत को देख पाये। यह उपन्यास ‘बेदावा’ का सातवाँ अध्याय है—‘मंजि़ले-मकसूद’।)
सुधीर को चंपी और मसाज का काम मकसूद ने सिखाया था।
मकसूद एक नेक दिल लडका था। वह सुधीर से बहुत छोटा था। वह अक्सर पीर बाबा की दरगाह पर आता। वहीं उसे एक शख़्स मिला, एक फ़कीर। फ़कीर मज़ार की देखभाल करता। मकसूद के अम्मा-अब्बू न थे। वह ठीक-ठीक न जानता था कि उसका नाम मकसूद किसने रखा। सब उसे मकसूद कहते। मकसूद उसके जेहन में दर्ज़ हो गया। वह मकसूद हो गया। फ़कीर उसे कहता कि उर्दू में ‘मकसद’ की बात करने वाले कई लफ्ज़ हैं पर सबसे उम्दा लफ्ज़ है मकसूद। बडा प्यारा सा नाम, चाँद जैसा— मकसूद। याने वह जो कम से कम किसी उम्दा मकसद का दीवाना सा हो।
हरे लबादे और अपनी सुफेद दाढी के साथ फरिश्ते सा दीखता वह फ़कीर उससे कहता कि जब बिछौने में हाथ-पैर मारते किसी बच्चे को घर का कोई बुजुर्ग देखता है तो वह आसमान से तारे की तरह कोई लफ्ज़ तोडकर लाता है और वह उसका नाम हो जाता है— ‘मकसूद ओ मकसूद तू याद रख तेरा यह नाम दुनिया जहान का दिया नहीं, यह किसी बुजुर्ग की पानीदार आँखों से तुझपर इनायत हुआ…मकसूद ओ मकसूद इसके मायनों को याद रख, जज़्ब कर ले अपने जेहन में इसे’ —फ़कीर की उजली सुफेद दाढी धूप में दमकती। उसके चेहरे पर एक रौशनी तैरती और आँखों में एक चमक, एक ताब। जब वह कहता तो लगता उसकी बातें कहीं किसी पराये मुल्क से आती होंगी। मुहल्ले के आवारा छोकरों के साथ घूमते- भटकते मकसूद न जाने कैसे तो उस फकीर की सोहबत में आ गया। फ़कीर किसी ख़ानकोह में शामिल था और अपने शेख़ का सबसे लडौता मुरीद था और एक दिन इस दरगाह के पास से गुजरते हुए उसे लगा मानो यह जगह उसे बुलाती हो, इसकी अगर इबादत हो तो बात शायद खुदा तक पहुँचे,…इस तरह वह यहाँ रुक गया।
मकसूद अक्सर इस दरगाह आता। जब वह इस दरगाह के पास से गुजरता तो उसे अपनी आपा याद आती। बचपन में वह आपा के साथ दरगाह जाता था। वह दरगाह भी इसी तरह की थी। छोटी, साफ सुथरी और अपनी ख़ामोशी में मगन। चार खम्भों पर टिके खूबसूरत से खरबूजिया गुँबद और उसके ठीक नीचे ख़ामोश हसीन सी मज़ार। बेदाग़ हरे-हरे रंग में पुती। एक चबूतरा था, बस चार सीढी ऊँचा जिस पर यह मज़ार थी। इतनी करीने और तरतीब से बनी कि लगता पहले बनाई गई हो और फिर चबुतरे पर रख दी गई हो। चबूतरा बहुत लंबा-चौडा था, मज़ार के चारों तरफ फैला-पसरा। विशाल चबूतरे के बीच मज़ार ऐसी दीखती मानो पानी से लबालब किसी दरिया में कोई छोटा खूबसूरत सा जहाज़ खडा हो। अपने मस्तूलों के साथ ख़ामोश। रात की रौशनी में अपने हरे रंग में नहाई मज़ार को जब वह देखता तो ठिठक जाता।
उसे जालियों में से आती रौशनी में धुँआ-धुँआ उठती लुबान की लहरिया पाँतें याद आतीं। हवा में गोल-गोल होकर घुलते अगरबत्तियों के खुशबूदार लच्छे और खस की ठण्डी-सी गंध जिसे वह गहरी साँसों से खींचकर अपने फेफडों में भर लेता। इस खुशबू से एक रिश्ता है। जब यह मकसूद की साँसों में उतरती तो उकडू बैठ अपने सर को सफेद कपडे से ढंक कर इबादत करती उसकी आपा का चेहरा उसे दीखता। आपा के हाथ दुआ में उठे होते और उसके गोरे सादे चेहरे पर एक पुरसुकून सी ख़ामोशी तैर रही होती। वह उन्हें देखता। उसे फरिश्तों की कहानियाँ सच्ची जान पडतीं। वह भी अपनी आपा के पास उसी तरह बैठ जाता, घुटनों के बल, चुपचाप और उसको एकटक घूरता। उसकी जिंदगी में सिर्फ आपा ही थीं। कोई और न था। उसे मज़ार पर पडी चमकीली चादर बडी प्रीतिकर लगती। अक्सर वह बदल दी जाती। हर दिन एक नई चादर वहाँ होती, हरे रंग के किसी नये रंग में, गोटे और सलमा सितारों से सजी। दूसरों की तरह वह भी मज़ार पर पडी चादर के किनारों को आँखों और होठों से लगाता ताकि वह उसे छूकर उसकी मुलायमियत को जान पाये। वहाँ एक बहुत भली सी ख़ामोशी होती, इबादत की बेहद रुहानी सी बुदबुदाहटों से सजी हुई, वहाँ दबे पाँव चुप्पियों की आवाज़ आती रहती, मज़ार के पथरीले फैलाव में ख़ामोशी की कोई परिचित सी नज़्म सुनाई देती रहती…।
जब-जब आपा की याद आती वह दरगाह चला आता। इस तरह वह यहाँ रोज आने लगा।
फ़कीर की बातों में तसव्वुफ़ के लफ्ज थे। उसकी इबादत की फुसफुसाहट से रुहानियत की सदा आती थी। फर्श पर घुटनों के बल वह ऐसी तमीज़ से बैठता मानो फर्श के पत्थर से मोहब्बत करता हो। जब कहता तो उसे चुपचाप सुनने का मन करता। जब मज़ार पर सिज़दा करता तो ख़ामोशी अपनी गहराइयों में फिसलती जाती। जब दुआ के लिए हाथ उठाता तो पूरा आसमान सिमट आता।
अक्सर शाम दो शख़्स उस मजार पर आते। एक के हाथ में पेटी होती और दूसरा खाली हाथ होता। दोनों दरगाह के सामने जमीन पर बैठ जाते। खाली हाथ वाला शख़्स तान छेडता और पेटी वाला उसमें हारमोनियम की चीनी घोलता। ख़ामोशी पर समा का रंग चढता। फ़कीर सीढियों पर बैठ उन्हें सुनता। खाली हाथ वाला ऊँचे स्वरों में गाता। बुल्लेशाह के कलाम से दरगाह की दरो दीवार खिल उठती। अमीर खुसरो की नज़्म से कायनात का हर ज़र्रा सिर हिलाता सा मसरुर होता जाता। फ़कीर अपना चिमटा उठाये गोल गोल घूमता। चिमटे की आवाज़ खाली हाथ वाले शख्स के ऊँचे स्वरों वाली लय से संगत करती, हर लफ़्ज, हर ताल पर…। मकसूद उन तीनों को देखता रह जाता।
तो वह फ़कीर ही था जो कहता था, कि किसी बुजुर्ग के जेहन में मकसद की बात आई होगी और इस तरह तू मकसूद हुआ…कि कुछ काम कर, कुछ कर, कुछ खोज, कुछ बना…ओ मकसूद…। फ़कीर की बात का असर हुआ। आवारा छोकरों की सोहबत से निकलकर वह काम की तलाश में भटका। कई-कई दिनों तक। बहुत घूमने फिरने के बाद उसने चंपी करने और मसाज देने का काम करना शुरु कर दिया। उसे अक्सर वह फ़कीर याद आता। कभी-कभी काम के वक़्त भी। मसाज देते वक्त भी फ़कीर की बात उसके जेहन में गूँजती -छूने में भी एक पाकीज़गी होती है— सुफ़ेद दाढी में बुदबुदाते उसके होंठ उसे दीखते— छूना भी इबादत हो सकता है, इश्क है छूना— फिर वह झल्ला जाता, शायद उसे लगता कि पता नहीं किससे तो क्या बात कह रहा है वह— कितने कमज़र्क हो तुम, कितने बेवकूफ कि कुछ भी समझ नहीं पाते, आज के लौंडे तेरी फितरत ही ऐसी है कि एक साफ सुथरा चाँद सा नाम पाकर भी तू नाली में सडे…। जब उसने फ़कीर को बताया कि वह चंपी और मसाज का काम कर रहा है, तो उसने उसे बडी लताड लगाई— नाली के कीडे, तेरी सोहबत ही ऐसी है कि तुझे कुछ भी साफ सुथरा काम ठीक न लगेगा…दफा हो जा और कभी शक्ल न दिखाना…।
मकसूद को मकसद की बात एक आवारा दोस्त ने बताई थी।
हुआ यूँ था कि आवारा दोस्त को एक अदद छोकरे की जरुरत थी। मसाज के जिस काम के लिए उसे छोकरे की जरुरत थी उसके लिए मकसूद एकदम सही था। पर उसे भान न था कि मकसूद के नाम में मकसद की गूँज है। कि जब वह काम पर लगेगा तो इतना परफेक्ट हो जायेगा कि फिर उसका कोई सानी न रहे। इतना दुरुस्त कि खुद इस आवारा छोकरे का काम फीका पड जाये। हुआ भी यही। आजकल कोई भी मकसूद के उस आवारा दोस्त को नहीं पूछता। जिसे मसाज चाहिए वह मकसूद को ही ढूँढता है।
शहर का एक किनारा समंदर का किनारा है। समंदर की लहरें बरसों से वहाँ अपना सिर पटकती रही हैं। कुछ इस तरह कि सारी कायनात वहाँ खिंची चली आती है। शाम को सारा शहर समंदर के इस विशाल रेतीले विस्तार पर उमड आता है। यह जगह चंपी और मसाज देने के काम के लिए एक बेहद माकूल जगह है।
उस आवारा दोस्त ने मकसूद को बताया था कि चंपी और मसाज का काम किस पर आजमाना चाहिए। वह कौन है जो बेहतरीन मसाज के लिए अपने पैसे लुटा सके। वह कहता कि वह तो दरिया के किनारे फिरंगियों के लिए आता है। रेतीले विस्तार के कुछ हिस्सों में ये विदेशी जिन्हें वह फिरंगी कहता था, धूप में उघाडे पडे होते। वह धूप में पडे फिरंगी जिस्मों को ढूँढता। उस आवारा दोस्त के मुताबिक जिस जिस्म पर मसाज सबसे ज्यादा असर करती है वह गोरी चमडी वाला फिरंगी ही है। पता नहीं ऐसा क्यूँ है ? खुदा ने सबको एक से जिस्म दिये पर उन पर ही मसाज का इतना असर क्यों होता है, उसे नहीं पता। कभी-कभी तो उन पर मसाज का इतना असर होता है कि फिरंगी न सिर्फ मुँहमाँगी रकम दे देता है बल्कि अपना बटुआ खोलकर सारा पैसा लुटा देता है। कभी तो वह छप्पर फाड कर देता है। इतना रुपया कि आँखें फटी की फटी रह जायें। वही मकसूद को बताता था कि जो हमारा रुपया है उससे भी बडा एक और रुपया होता है। उसे डॉलर कहते हैं। फिरंगी के पास डॉलर भी है और मसाज के माफिक गोरी चमडी भी।
जब उसे मकसूद का मतलब पता चला तब कहने लगा कि तू जो मकसद की बात करता है उसकी धमक भी इसी दरिया के किनारे है, कहीं और नहीं। वह समंदर को दरिया कहता। वह मकसूद को बताता कि वह एक ऐसे मसाज देने वाले को जानता है जिसे एक फिरंगन अपने साथ अपने मुल्क ले गई थी। फिर वह वहीं रह गया। उस फिरंगन के साथ, उसके मुल्क में। फिरंगन उससे मसाज करवाती। उससे मोहब्बत करती। उसे भी फिरंगन और उसका मुल्क भा गया। वह भी वहीं रह गया। एक बार आया तो पहचान ही नहीं आया। शानदार कपडे, रे बैन का चश्मा, चमचमाते जूते, कत्थई रंग का खूबसूरत ब्लैज़र और एक चमचमाती कार….सच यार उसकी तो लाइफ बन गई। फिरंगन ने उस पर खूब लुटाया। लुटाती भी क्यों न, वह उसका यार जो बन गया था। वह वहीं रहता है, आज भी। फिरंगन के घर में, उसकी आगोश में, बहुत खूबसूरत से उस पराये मुल्क में…हमारे बीच का वह मवाली छोकरा। मिलता है तो कहता है कभी न लौटेगा। मसाज के रास्ते उसे सब मिला। सब। वो जो तू कहता है न ‘मकसद’…वही, समझा बे मकसूद…।
मकसूद उसे बताता कि फ़कीर कहता था कि दुनिया में मकसद के मुख़्तलिफ इलाके होते हैं, हर मकसद अपने मुख़्तलिफ इलाके में रहता है…। इस बात पर वह आवारा दोस्त कहता कि इस शहर में मकसद का इलाका दरिया की यह रेत है, यह समंदर का किनारा है….यह याद रहे मकसूद वर्ना आज की हवा के हिचकोले में सूखे पत्ते के माफि़क कहाँ उडकर औंधे मुँह गिरेगा पता भी नहीं चलेगा…।
हुआ यूँ था कि उस आवारा दोस्त का काम बढ गया था। आवारा दोस्त का नाम बलराम था।
बलराम को एक शागिर्द की जरुरत थी, ताकि मसाज का काम थोडा आसान हो जाये। कोई चेला टाइप शागिर्द अगर मिल जाये तो सबसे बढिया। यद्यपि वह जानता था कि भला कोई क्यों मसाज का काम सीखेगा? इस काम को लेकर लोग तरह-तरह की बात बनाते हैं। इस काम में आदमी और औरत के जिस्म को छूना जो पडता है। सो लोग इसे अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। फिर हर काम की कीमत होती है। कोई भी काम करो तो दो पैसे तो मिल ही जाते हैं। फिर कोई मसाज का काम ही क्यों करने लगा भला। यूँ भी यह एक नये किस्म का काम है। नये काम की तरफ लोग जल्दी नहीं आते। ऐसे कामों की कोई मशहूरियत नहीं होती। फिर वह पुरकशिश भी नहीं होता है। उसने पहले भी एक दो छोकरों से बात की थी। पर कोई तैय्यार न हुआ।
कुछ लफंगे टाइप के छोकरे उससे मसाज सीखने के चक्कर में रहते। पर उनका टारगेट मसाज सीखना न होता। बस वे एक या दो बार किसी फिरंगन की मसाज करने के फिराक में मंडराते रहते। बलराम ऐसे लंपट छोकरों से सख्ती से निबटता। कुछ छोकरे कभी उसे इस बात के लिए पटाते कि वह उन्हें मसाज के किस्से सुनाये। कि क्या-क्या हुआ, कैसा लगा…आदि-आदि। वह ऐसे लफंगों से भी दूर ही रहता। उसे ऐसे छोकरे की तलाश थी जो इस इल्म को इल्म की तरह ले सके। मसाज के काम में जिसे इल्मदां होने की ख़्वाहिश हो।
इस काम की ओर लोगों को खींचने की कुछ तरकीबें हो सकती थीं। उसे पता था। वह इन्हीं तरकीबों को आजमाता। नये छोकरों की एक कमजोरी होती है। वे जिस्म को लेकर थोडे बेताब होते हैं। थोडे से इश्तियाक़मंद। ज्यादातर इसे हँसी मजाक की तरह लेते हैं, पर कुछ सीरियस भी होते हैं। मसाज का काम ऐसा मौका देता है। किसी को ख़बर भी नहीं चल सकती कि मसाज करने वाला क्या महसूस कर रहा है। काम की शक्ल में यह किसी ख़्वाब को पूरे इत्मिनान से पूरा करने का मौका देता था। भला जिस्म से जुडा कोई ख़्वाब इतने खुलेपन से जिया जा सकता है जितना की मसाज में। समंदर की खुली रेत पर, सारी दुनिया की निगाहों के सामने। चोरी अगर बेधडक हो और वह भी सबके सामने तो फिर वह चोरी कहाँ रह जाती है?
इस तरह बलराम जब शागिर्दगी के लिए किसी छोकरे से बात करता तो इस काम की रुमानियत की बात भी उसे तफ्सील से बताता। बताता कि ऐसा मौका भला कहाँ मिलेगा ? पैसा तो खैर ऐसा मुद्दा ही न था कि वे टिक पाते। किसी फिरंगन के साथ भाग जाने का रुमानी ख़याल पल भर को लुभाता तो था, पर इससे एक किस्म का ख़ौफ और पराये मुल्क की अजनबियत के ख़याल भी उभरते ही थे। बावज़ूद इसके मकसूद पर उसकी बात का असर हुआ था। पैसा और रुमानियत दोनों मामले में। बलराम को यह न पता था कि मकसूद के जेहन में बार-बार दरगाह वाला वह फ़कीर आता रहता है और उससे कुछ कहता रहता है। इस काम में मन रमाने का जो इज़हार वह कर रहा था उसकी सबसे बडी वजह भी वह फकीर ही था, उसकी बातें ही थीं। बलराम को यह सब पता न था। मकसूद ने भी उसे कभी न बताया। वह इसे उसके नाम से जोडकर ‘मकसद’ वाली बात ही कहता रहा। हकीकत उसे कभी पता न चली।
बलराम से मकसूद ने सब सीखा।
बलराम के पास एक छोटा सा बक्सा था, जिसे वह अपने कंधे पर लटकाये रखता। कुछ-कुछ वैसा ही जैसा कि बूट पॉलिश वालों के पास होता है। बल्कि उससे थोडा बडा। बलराम ने बक्सा खोलकर उसे सब दिखाया था। बक्से में तेल की तीन शीशियाँ थीं। एक शीशी फिरंगियों के लिए थी। उसमें बेहद महीन पतला हल्की खुशबू वाला तेल था। बलराम के कहने पर उसने अपनी हथेली के पीछे एक बूँद टपकाकर खाल पर फैलाकर उसे सूँघा। उसमें से एक ऐसी खुशबू आ रही थी जो उसने पहले कभी न सूँघी थी। दूसरी शीशी दूसरे लोगों के लिए थी। यह भी एक नये किस्म का तेल था जो थोडा ज्यादा चिपचिपा और गाढा था पर उसमें कोई विशेष खुशबू न थी। अपना सिर खुजाते हुए उसने बलराम से पूछा— और यह तीसरी वाली शीशी- बलराम ने गाली का रुपक लगाते हुए कहा— ‘कुछ ठेठ टाइप लोग भी आते हैं, भो…. वालों को सरसों का तेल लगता है। एक तो एक बार कह रहा था कि लहसुन के साथ गर्म किया वाला सरसों का तेल लगाओ। क्या करोगे बिजनेस में हर किसी के माफि़क आइटम रखना पडता है।’
बक्से में एक बोतल जैसा कुछ था जिसे बलराम बार-बार थर्मस कह रहा था। उसमें गर्म पानी था। उसने मकसूद की हथेलियों पर थोडा सा गर्म पानी डाला।
‘ पता चला….बस इतना ही गर्म। न इससे कम, न इससे ज्यादा। एक ताप है, मीठा गुनगुना सा ताप, जब ऐसे ताप वाले पानी के छींटे जिस्म पर पडते हैं तो जादू का सा असर होता है।’
‘ तुझे कैसे पता..?’
‘ एक फिरंगी ने बताया था। उसने अपने मुल्क में कुछ दिन मसाज देने का काम किया था।’
‘…अच्छा..’
मकसूद दरिया की रेत पर उकडू बैठ गया।
‘ ये मेरा सीक्रेट है। इस काम में मेरे चल निकलने की वजह यह गुनगुना पानी ही है। यह आइडिया सिर्फ मेरे पास था। बाकी लोग ठण्डा पानी लगाते थे। इसे तू भी सीक्रेट ही रखना।’
‘ पर इसे छूकर तो ऐसा कुछ भी नहीं लगता।’
‘ पहले जब फिरंगी ने मुझे बताया था तब मुझे भी ऐसा ही लगा था। गुनगुना पानी भी इंसान की खाल पर ऐसा करतब दिखा सकता है कभी सोचा न था। पर यकीन मान मकसूद यार यह कमाल है, कमाल…बस वह ताप बना रहे। इसलिए इसे थर्मस में रखता हूँ।’
बलराम के बक्से में एक पूरी दुनिया थी।
लकडी के छोटे-छोटे टुकडे जो हाथ पैर की उंगलियों के बीच फँसाये जाकर उन्हें आहिस्ता से दबाने के काम आते। एक्यूप्रेशर के कटखन्ने बेलन जो जिस्म के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग दबाव के साथ चलाये जाते। कुछ टुकडे जो उंगलियों के बीच दबाये जाकर जिस्मानी खाल के गोश्त भरे उभारों पर हौले-हौले थपके जाते। कानों को भीतर से गुदगुदाने, खुजलाने के लिए तरह-तरह के बड्स। नेलकटर, मुलायम तौलिये और बालों को खुजलाने की एक तारों से बनी चीज़ जिसके किनारों पर मोती जैसा कुछ लगा था और भी जाने क्या-क्या। इन सब चीजों में न जाने किन-किन अजनबी और पराये मुल्क के लोगों के पुरसुकून अहसास जज़्ब थे। अनाम लोगों के दिलों की न जाने कैसी-कैसी गुदगुदियाँ रमीं थीं इन चीजों में। थपकते चैन के न जाने कौन-कौन से किस्से थे उस बक्से में कैद थे। उन चीजों में लिपटा कोई जादू था कि उसकी गिरफ्त में वे अनजान लोग जिनकी ज़बान भी समझ न आती थी अपनी जेबें खाली कर देते थे। मकसूद ने एक बार फिर से तेल को अपनी हथेली के पीछे की खाल पर टपकाया था, बूँद-दर-बूँद और खाल पर उसके फैलने, फिसलने और धीरे-धीरे जज़्ब होने को महसूस किया था, उसने आँखें बंद कर लीं, उसे सुफेद दाढी वाला वह फ़कीर दीखा, दीखा कि वह उसके सामने उसका प्याला उठाये खडा है और उसने बस अभी-अभी उससे कहा है- कोई फर्क नहीं होता मर्दाना और जनाना जिस्म में, अपनी हया को हिरा चुकी नजरें ही हैं जो यह फर्क करती रहती हैं…।
मकसूद ने मसाज देने के काम में खूब दिल लगाया। समंदर के किनारे कई दीवानी आँखें उसे तलाशती रहती हैं। अपने जिस्म पर मकसूद की उँगलियों के जादू की गिरफ्त में कैद तमाम लोग बस उसे ही ढूँढते रहते हैं।
सुधीर को मकसूद से मुश्ताक ने मिलाया था। अरे वही मुश्ताक जो सुधीर के घर चरखा रख गया था। जिस चरखे को देखकर अपर्णा को लगा था कि उँगलियों के जिस काम की बात सुधीर कह रहा है वह शायद कातने-बुनने का काम हो।
मुश्ताक मकसूद के साथ सुधीर के घर आता। हर दूसरे रोज। जमीन पर चटाई बिछाई जाती। मुश्ताक कपडे उतारकर चटाई पर औंधे लेट जाता। मकसूद सुधीर की उँगलियाँ आहिस्ते से मुश्ताक के जिस्म पर रखता। मुश्ताक का जिस्म स्लेट था जिस पर सुधीर को मसाज की हुरुफे़-तहज़्जी लिखने से शुरुआत करनी थी, पहली-पहली बार। सुधीर ने अपने उस्ताद मकसूद से सब सीखा। मकसूद उसे मसाज सिखाता और कहता जाता— यह जिस्म का मामला है, जो शख्स घिन और हया दोनों से निज़ात पा सके वही इसमें रम पाये— मुश्ताक बेशरमों की तरह खिलखिलाकर हँस देता— भाईजान इसके और भी फायदे हैं— मकसूद उसके कान खींचता, मुश्ताक चीखता- अबे छोड नहीं भाग जाउँगा।
‘ मुझे लगता है देख सकने वाले लोगों और न देख सकने वालों के मसाज देने में एक बुनियादी फर्क होता है।’
सुधीर ने कहा।
‘ वह कैसे?’
अपर्णा ने उत्सुकता से उसे देखा।
‘ जब मैं किसी को देखना चाहता हूँ तो अपने जिस्म पर उँगलियाँ फिराता हूँ। आप सूँघकर, महसूस कर नहीं देख सकते। ठीक तरीके से देखने के लिए छूना जरुरी है।’
सुधीर ने इस तरह कहा मानो वह कमरे में तन्हा हो, कि वहाँ होकर भी अपर्णा न हो। कोई बहुत उतावला सा अकेलापन हो जिसमें खुद से खुद को कोई बात कहने को खुद का बरसों का तन्हा दिल धडक रहा हो पूरी शिद्दत से। मानो पर्दे हटाकर खुद के मन में झाँकने की कोशिश। दौलत की ख़्वाहिश में मन की दीवार पर कोई सेंध। मरुस्थल की तपती सूखी रेत पर मन भर पानी उँडेलने और फिर उसे रेत के प्यासे सूखेपन में जज़्ब होते देखने का कोई ख़याल।
सूखे मृत दरख़्त पर घोंसले की कोई इबारत।
एकांत में पेन थामे लफ़्जों के इंतजार सा कुछ…।
‘ मुझे ठीक-ठीक नहीं पता था कि किसी औरत का जिस्म कैसा होता है? वह कैसी दीखती है? कोई उपाय भी नहीं कि कैसे पता हो। जब आप अंधे हो, देख नहीं सकते तो फिर आप कुछ भी नहीं देख सकते। औरत को भी नहीं…तुम समझ सकती हो।’
‘… …।’
‘ जब भी औरत को देखने का मन होता मुझे मेरी माँ याद आती। मैं बचपन में उसके पास सोता था। पर औरत सिर्फ माँ नहीं होती।…तुम हँसोगी पर एक बात है…मैंने…मैंने कई-कई बार औरतों की मूर्तियों पर अपनी उँगलियाँ फेरी हैं…उनके मुजस्समे पर, मुजस्समे के हर हिस्से पर बहुत इत्मिनान से अपनी उँगलियाँ चलाई हैं…जैसे…जैसे इस तरह मैं औरतों को देख सकता हूँ…।’
कमरे में एक खिडकी थी। खिडकी के पार नीम की डाली झूल रही थी। दरिया के पास से हवा का एक झोंका आया था अभी-अभी, समंदर का खारापन संजोये। खिडकी से फर्श पर पडती सूरज की रौशनी में लाखों नुक्ते तैरते टिमक रहे थे। बाथरुम की देहरी के नीचे पूरी किनारी पर जहाँ से कल चींटियों की कतार गुजरती रही थी मुँह में अण्डे दबाये, वहाँ अब उनके गुजर जान के निशान बचे थे— मिट्टी के कण, काली बुँदकियाँ, अस्पष्ट सी खोती दिखती धूसर लकीरें…। गली के पार वाले हैण्डपंप को कोई चला रहा था, एक सी धुन में, उस नज़्म के लिए जो उसके जेहन में कुलाँछें मार रही थी। सुधीर और अपर्णा की बातों के बीच खामोशी बात करती थी चुपचाप। उन दोनों के बीच कुछ लफ्ज़ थे लजाते, मुस्कुराते, झिझकते, मुँह फेर-फेर लेते से…।
बेदावा : तरुण भटनागर [उपन्यास], मू. 160 रूपये [पेपरबैक], राजकमल प्रकाशन, दिल्ली। आप पुस्तक अमेज़न से ऑनलाइन किताब मँगवा सकते हैं।
तरुण भटनागर : तरुण भटनागर का जन्म 24 सितम्बर को रायपुर, छत्तीसगढ़ में हुआ। अब तक तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं : ‘गुलमेंहदी की झाडि़याँ’, ‘भूगोल के दरवाज़े पर’ तथा ‘जंगल में दर्पण’। पहला उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ वर्ष 2014 में प्रकाशित। दूसरा उपन्यास ‘राजा, जंगल और काला चाँद’ वर्ष 2019 में प्रकाशित। ‘बेदावा’ तीसरा उपन्यास है। कुछ रचनाएँ मराठी, उड़िया, अँगरेज़ी और तेलगू में अनूदित हो चुकी हैं। कई कहानियों व कविताओं का हिन्दी से अँगरेज़ी में अनुवाद। कहानी-संग्रह ‘गुलमेंहदी की झाड़ियाँ’ को युवा रचनाशीलता का ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ 2009; कहानी ‘मैंगोलाइट’ जो बाद में कुछ संशोधन के साथ ‘भूगोल के दरवाज़े पर’ शीर्षक से आई थी, ‘शैलेश मटियानी कथा पुरस्कार’ से पुरस्कृत; उपन्यास ‘लौटती नहीं जो हँसी’ को 2014 का ‘स्पंदन कृति सम्मान’; ‘वनमाली युवा कथा सम्मान’ 2019; मध्य भारतीय हिन्दी साहित्य सभा का ‘हिन्दी सेवा सम्मान’ 2015 आदि। वर्तमान में भारतीय प्रशासनिक सेवा में कार्यरत। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— tarun.bhatnagar1996@gmail.com