विस्थापन, पीड़ा और दुश्चिंताओं की इबारत
ओम निश्चल
लीलाधर मंडलोई एक बेचैन कवि हैं। कुछ कवि होते हैं जिनके पास कहने को बहुत कुछ होता है और बार बार वे उस पीड़ा का इज़हार करते हैं जिससे यह पूरी मनुष्यता गुज़र रही है। कहने को हम विश्वबंधुता का ढोल अक्सर पीटते हैं पर पूरी दुनिया में जिस तरह का नस्ली, जातीय, धार्मिक, पूंजीवादी वर्चस्ववादी भेदभाव व्याप्त है, मनुष्यता उसके क्रूरतम प्रभावों को झेलने को विवश है। निरंकुश सत्ताएं धार्मिक उन्माद या नस्ली उन्माद के वशीभूत होकर मानवीय इकाइयों को जिस तरह कुचलने और उसे आत्महीन निर्ममताओं का शिकार बनाने पर आमादा होती हैं उस भयावह परिदृश्य से आंख बचा कर निकल जाना आसान नहीं। अचरज यह है कि मनुष्य के पास न तो एक मनुष्य का स्वाभिमान बचा है न कवि के पास कवि का। ऐसे हालात में हमें जर्मन कवि बर्तोल्त ब्रेख्त की आवाज़ सुन पड़ती है जिन्होंने निर्वासन झेलते हुए अपनी सचाई के कौल पर टिके रहे पर नई पीढ़ी को इस बर्बरता की याद भी दिलाते रहे ताकि उसे कवि की पीड़ा और विस्थापन का अहसास रहे। उन्होंने लिखा था –
तुम जो इस सैलाब से उबर कर निकल आए हो
जिसमें हम डूब गए
याद रखना जब हमारी विफलताओं पर बात करना
तो उस अंधेरे समय के बारे में बात करना मत भूलना
जिससे तुम बच कर निकल आए हो
हमने जितने ज्यादा जूते नहीं बदले
उससे ज्यादा मुल्क बदले
युद्धों और हताशाओं से गुजरते हुए
जहां केवल अन्याय था और कहीं कोई प्रतिकार नहीं।
(टू दोज़ बार्न लेटर, बेख्त, बर्तोल्त ब्रेख्त: पोयम्स, 1913-1956)
ब्रेख्त की कविताएं पढ़ते हुए लगता है यह एक कवि की पीड़ा नहीं है, यह समूची मनुष्यता की पीड़ा है जो दुनिया में अपनी रिहाइश की तलाश में दर ब दर हो रही है। यों तो कहने को पूरी दुनिया मनुष्यों का ही घर है किन्तु समस्त मानवाधिकारों पर विमर्श के बावजूद लाखों करोड़ों लोग पूरी जिंदगी एक घर की तलाश में बिता देते हैं। वे अपनी जड़ों से उखड़ते हैं या इसके लिए बाध्य किए जाते हैं तो फिर किसी दूसरे मुल्क में शरण खोजते हैं और वे वहां जा पहुंचते हैं जहां दाना पानी लिखा होता है। ऐसी स्थिति में जरा उनकी सोचिए जो किसी न किसी कारणवश अपने ही मुल्क से खदेड़ दिए जाते हैं और किसी अन्य मुल्क में शरण ले लेते हैं। बेघर होने की पीड़ा या पराये मुल्क में जिस तरह का व्यवहार उनके साथ किया जाता है, वह कितना त्रासद होता है, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यहां से गिरमिटिया मजदूर बन कर जो लोग फीजी, सूरीनाम, गयाना, त्रिनीदाद आदि मुल्कों में ले जाए गए वे अपने देश और संस्कृति से छिन्नमूल होकर वहां बसे। वहां की ज़मीन को उर्वर बनाया। पर जहां तक अधिकारों का प्रश्न है, वहां के मूल नागरिकों की तरह वे स्वीकार नहीं किए जाते। इससे भी बदतर स्थिति यह है कि जहां जहां जिन मुल्कों में अंग्रेज, फ्रेंच या अन्य शासकों के उपनिवेश बने, वहां उन मुल्कों के मूल नागरिकों से गुलामों की तरह व्यवहार किया जाता था। अविकसित या अल्पविकसित राष्ट्रों ने गुलामी की जंजीरों को निकट से महसूस किया है।
अचरच नहीं कि बीती अर्धशती में विश्व भर में हुए अत्याचारों से हिंदी के कवि चिंतित और आंदोलित होते रहे हैं और पीड़ित कीलित विस्थापित मनुष्यता के पक्ष में अपनी जोरदार आवाज़ बुलंद की है। हम याद करें कि दक्षिण अफ्रीका के आजादी के संघर्ष के दौरान वहां के काले लोगों के प्रति जिस तरह का अत्याचार किया गया, जिस तरह पूरी जिन्दगी नेल्शन मंडेला जैसे जन नायकों को जेल में यातनाओं के बीच गुजार देनी पड़ी तब कहीं आजादी देखने को मिली। विश्व के अनेक देशों वियतनाम, सीरिया, फिलिस्तीन जैसे मुल्कों की जनता इसी पीड़ा का शिकार रही है। एक देश पर दूसरे देश का आक्रमण हो, देश में जातीय हिंसाएं हों, धार्मिक उन्माद को राष्ट्रवाद की मुहिम के बतौर संचालित किए जाने की रणनीति हो, आए दिन हजारों लाखों जनता इसका शिकार होती है। कहना न होगा कि धीर शांत किस्म की कविताएं लिखने वाले विनोद कुमार शुक्ल ने अपने पिछले संग्रह कभी के बाद अभी में जिस तरह असम और पूर्वोत्तर से खदेड़े जाते बिहारियों के ऊपर हुए अत्याचार को अपनी कविताओं में मूर्त किया है वह हिंदी में एक शुभ संकेत है। वरना ऐसी कविताओं को लाउड मान कर उन्हें नजरंदाज किया जाता रहा है। पर वह कविता ही क्या जिसमें सुभाषितों का बोलबाला तो हो पर मनुष्य की पीड़ा, आह कराह की कोई व्यंजना शामिल न हो। लीलाधर मंडलोई के नए संग्रह जलावतन की कविताएं इसी पीड़ा आह और कराह को कविता की इबारत में बदलती प्रतीत होती हैं।
मंडलोई ने अपनी कविता यात्रा ‘घर घर घूमा’ से शुरु की थी। अंडमान निकोबार द्वीप समूह में प्रवास के दौरान उनहोंने लुप्त होती जन जातियों पर न केवल कविताएं लिखीं बल्कि ‘दिल का किस्सा’ और अन्य पुस्तकों में उनकी आनुवंशिकी का एक लेखा जोखा भी किया । उनकी कविता के भूगोल में छिंदवाड़ा के उनके अपने इलाके से लेकर पूरा मध्यभारत, अंडमान, देश दुनिया वे तमाम कोने शामिल हैं जहां उन्होंने यात्राएं कीं, जहां के हालात का जायज़ा उनहोंने लिया तथा एक प्रसारक के तौर पर उनहें अपनी लेखनी और वाचिक अदायगी का हिस्सा बनाया। इस परिभ्रमण के दौरान छन छन कर आती हुई कविताओं की एक बड़ी संख्या है जिसे मंडलोई अपने कवि के डार्क रूप में बैठ कर उनके इम्प्रिंट्स को एक नया प्रारुप देते हैं। ‘जलावतन’ हाल के ऐसे ही अनुभवों की तहरीर है जो उनकी संवेदना की करुणा से भीगी हुई लगती है।
जब मैं मंडलोई की इन कविताओं से गुजर रहा हूँ मुझे हाल ही में नासिरा शर्मा द्वारा अनूदित विश्लेषित समालोचित ‘अफ्रोएशियाई कविताएं’ ध्यान में आ रही हैं जो शायद पहली बार नासिरा जी के अनुवाद में बाहर आई हैं और जिन्हें पढ़ कर लगता है मध्यएशियाई और अफ्रीकी मुल्कों की कविताएं अपने भीतर मानवीय करुणा के साथ साथ अपने अपने मुल्कों के सियासती जुल्मों का इतिवृत्त भी कहती हैं। नेपाल, अफगानिस्तान, इथियोपिया, सोमालिया, कुवैत, फिलिस्तीन, ईरान, सीरिया, इराक, पाकिस्तान, तजाकिस्तान, तजाकिस्तान,लेबनान आदि देशों की कविताओं में हमें कविता की वह वैविध्यपूर्ण तासीर देखने को मिलती है जो अभी हिंदी विश्व के लिए ओझल थी। युद्ध और विस्थापन की भयावहता से गुजरे मुल्कों की कविताएं इस बात की गवाही देती हैं कि आप युद्ध से किसी देश को तो जीत सकते हैं या उसे तबाह कर सकते हैं पर मनुष्य के मन में एक अपार घृणा पैदा कर देते हैं जिसका असर बाद में देश की खुशहाली के माहौल में भले भुलाया जा सके पर कविताओं में दर्ज पीड़ा घृणा उन्माद को कभी भी विस्मृत नही किया जा सकता। मंडलोई ने भी यहां एक भारतीय कवि के रुप में केवल विस्थापन का शिल्प नहीं रचा है उस अनुभूति, अहसास, संवेदना को पकड़ने व्यक्त करने की चेष्टा की है जिसे कवि अपने चित्त में संवेदित होता हुआ महसूस करता है।
कभी भी खत्म कविता नहीं होती। वह बार बार नए मनुष्य के साथ पुनर्जन्म लेती है। प्रकृति की तरह ही हर बार उसकी त्वचा नई होती है । हर बार मनुष्यता की मातृभाषा रचता हुआ कवि अपनी तरह से धरती को देखता है और बार बार वह विनाश की लीलाओं को देखता हुआ इन्कार और प्रतिरोध को एक नई इबारत में बदलता है। वह अपने को उस भाषा का कर्जदार मानता है जो संकट में छटपटा रही है जिसे वह अपनी मातृभाषा में लिख कर उस कर्ज को उतारना चाहता है।
मंडलोई की इन कविताओं के विहंगम पाठ में मेरी नज़र अब यही मेरा घर कविता पर पड़ती है जिसकी पंक्तियां हैं —
जो अब नहीं हैं
जो अब खो चुके हैं
जो अभी लौटे नहीं हैं
मेरे पिता
भाई, बहनें
नातेदार और पड़ोसी
मैं उनकी आवाज़ों के संग रहती हॅूं
इस घर में जो अब नहीं
न दीवारें
न छत
न बिस्तर
न रसोई
मैं सिर्फ आवाजों में रहती हूँ
अब यही मेरा घर
भले ही चीत्कारों के अलावा यहां कुछ नहीं। (पृष्ठ 70)
जगूड़ी ने एक कविता में लिखा है : ‘मेरी कविता हर उस आंख की दरख्वास्त है / जिसमें आंसू हैं ।’ कवि के कार्यभार क्या हैं यह उसकी कविताएं जताती हैं। सरोकारों का ऐसा निनाद कम देखने को मिलता है जहां कातर मनुष्यता के पक्ष पर उसकी वाणी ऋषियों के शाप की तरह बरसती है और कहती है : ‘जो मरे वे फिर जन्म लेंगे। जिन लेखकों की आंख से बहा एक भी आंसू/ वे खड़े होंगे बेख़ौफ़ धरती के दुखों में।…..जिन औरतों ने जलावन बटोर कर रोटियां पकायीं भूखों के लिए/ वे जंगल की रक्षा में एक दिन आवाज़ को आकाश करेंगी/ जो शामिल हैं दुनिया की तबाही में / इंसान उन्हें घसीट लाएंगे एक दिन जनता की अदालत में/ ईश्वर की परवाह किए बगैर, दीमकें उन्हें चट कर जाएंगी।'(ईश्वर की परवाह किए बगैर, पृष्ठ 81) मंडलोई की यह इबारत आतताइयों के लिए कवि का शाप है।
पर काश कि ऐसा होता। आततायी रोज जन्म लेते हैं। यातनाएं कभी खत्म नहीं होतीं । जितना हम मनुष्यता के बीच फासले को पाटने की बातें करते हैं, उतना ही रोज फासला बढ़ता जाता है। इन कविताओं में तुर्की, सीरियाई, ईराकी, फिलिस्तीनी शरणार्थियों की पीड़ा है, बच्चों स्त्रियों की बेआवाज़ कराहें हैं, युद्ध, बम विस्फोट, नग्नता, बर्बरता, कायरता और हत्याओं का आर्तनाद है…..कवि उस सताई हुई मनुष्यता के पक्ष में खड़ा है जिसकी सुनवाई नहीं होती। कभी देवीप्रसाद मिश्र ने लिखा था, ”मेरा पहचान पत्र किसी भी सताए हुए आदमी की जेब में मिल सकता है।” इन कविताओं से भी सताई हुई मनुष्यता की शिनाख्त की जा सकती है।
मंडलोई की काव्य-भाषा कविता की प्रचलित सौंदर्याभिरूचि से थोड़ा अलग है। वह कई बार अनगढ़ सी दिखती और ऐसे स्थानिक शब्दों के प्रति अपनेपन का रवैया अपनाती है, जिसे देख कर सुगढ़ शिल्प के ख्वाहिशमंद पाठकों को किंचित भिन्न काव्यास्वाद का बोध हो सकता है। दूसरी बात यह कि मंडलोई की कविता में आंतरिक संगति तो है पर वह प्रगीतात्मकता नहीं, जिसकी जरूरत आज की कविता को कदाचित सबसे ज्यादा है। एजरा पाउंड ने कहा था, कविता जब संगीत से बहुत दूर निकल जाती है तो दम तोड़ने लगती है। अपने विपुल कथ्य, भावप्रवण संवेदन और वस्तुनिष्ठता के बावजूद यहां मंडलोई कविता में जिस चीज को सबसे ज्यादा तवज्जो देते जान पड़ते हैं वह है कविता का आंतरिक संगीत। मंडलोई में मात्रिक या वर्णिक छंद भले ही क्षीण हो पर विचारों का एक अविरल संगीत तो है ही जो सूक्तियों, मितकथनों में उतरता और परवान चढता है।
लिखे में दुक्ख, एक बहुत कोमल तान , महज शरीर नहीं पहन रखा था उसने , मनवा बेपरवाह, भीजै दास कबीर जैसे दर्जनभर संग्रहों के बाद अब जलावतन में छोटी – बड़ी कविताओं के साथ मौजूद लीलाधर मंडलोई ने कविता को बोलचाल की भाषा के बहुत करीब लाने का जतन किया है। इस अर्थ में मीडिया और जनमानस के बीच जिस तरह की वाचिक भाषा-भंगिमा का उदय इधर हुआ है, उसे कविता जैसी संवेदी अभिव्यक्ति के केंद्र में रखते हुए मंडलोई ने कविता के अभ्यस्त वाचिक संसार को एक नए स्वरूप में बरतने में सफलता पाई है। मंडलोई ने बचपन में मजदूरों के जो विस्थापन देखे हैं, जमीनों का अधिग्रहण देखा है उसने एक कचोट उनके भीतर पैदा की है। यों वे अब रहते दिल्ली जैसे महानगर में हैं किन्तु इस बात की कचोट से उबरे नहीं है कि ‘मैं भटक रहा हूँ सालो साल से । नहीं बताता कोई कहां है मेरी धरती, मेरा घर, मेरा देश। मैं खानाबदोश हूँ , अपने ही देश में। (ख़ानाबदोश) और सरकार का अध्यादेश जैसी कविता में वे उस माटी का स्मरण करते हुए भीतर की करुणा और नमी से अभिषिक्त हो उठते हैं जहां वे पाते हैं कि जिस मिट्टी में खेल कर बड़े हुए , मां ने खदान के लिए गुटके बनाए, भीत उठाई, भित्ति चित्र से दीवारें सजाईं, परिंदों के लिए सकोरे बनाए, माटी का चूल्हा बनाया, आंगन की तुलसी सूखने अंत तक सूखने नहीं दी, उस मिट्टी पर आज उनका कोई हक़ नहीं। अतीत की अंधविश्वासी दुनिया में वे मिसफिट होते हुए भी कैसे जातबाहर होकर भी सविनय अवज्ञाओं के भागीदार रहे, यह जातबाहर कविता से प्रकट होता है। यहां इन कविताओं में भी वे मूल काव्यभूमि से विचलित नहीं हुए हैं जैसे बुनियादी संबंधों से उनकी कविता का कैनवस वंचित नहीं है। इस सिलसिले में उनके इस संग्रह की कई कविताएं देखी जा सकती है। संपादक के तौर पर विस्थापन पर उन्होंने नया ज्ञानोदय का एक विशेषांक ही निकाला था, एक कवि के रुप में उन्होंने विस्थापन को ही केंद्र में रखते हुए ये कविताएं लिख कर विश्व मानवता के प्रति एक कवि होने का ऋण भी अदा किया है।
जलावतन : लीलाधर मंडलोई [कविता संग्रह] , मू. 200, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली. संस्करण 2018 । आप इसे www.ibpbooks.com से ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं।
डॉ. ओम निश्चल : हिंदी के सुपरिचित कवि आलोचक एवं भाषाविद् हैं, दो दर्जन से ज्यादा कृतियों के लेखक हैं तथा हिंदी संस्थान उ.प्र. के आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्नेअदब के शान ए हिंदी खिताब एवं विचार संस्था, कोलकाता के प्रो.कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से विभूषित हैं। आप समीक्षक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— dromnishchal@gmail.com