अशोक कुमार पाण्डेय
राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित अशोक कुमार पांडे की पुस्तक ‘कश्मीर और कश्मीरी पंडित’ काफी चर्चा में है। इसी किताब से एक अंश पुस्तकनामा के पाठकों के लिए —
दसवीं सदी आते-आते कश्मीर में राजाओं के पतन से अराजकता का माहौल आम हो गया था। 883 ईसवी में अवन्तिवर्मन की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठे उसके पुत्र शंकरवर्मन का समय मन्दिरों की लूट, बेहद ऊँचे करों से त्रस्त जनता और कश्मीर में बेगार की शुरुआत का है तो उसके बाद का समय षड्यंत्रों और सस्ते थ्रिलर जैसी घटनाओं का है जिसमें हत्या, सेक्स, अवैध सम्बन्ध और जनता पर भयावह अत्याचारों के किस्से हैं जिन पर 993 ईसवी में यशस्कर के राजा बनने पर रोक तो लगी लेकिन हालात इतने बिगड़ चुके थे कि जब जलोदर से पीडि़त राजा मृत्युशैया पर था तो उसने रानी के पुत्र संग्रामदेव को इसलिए युवराज घोषित नहीं किया कि उसकी नज़र में वह एक अवैध संतान था। अपने मंत्री पर्वगुप्त की सलाह पर जिस भतीजे वर्णत को अपना वारिस घोषित किया, वह अपने बीमार चाचा का हाल पूछने भी उसके पास नहीं गया तो राजा ने क्रोधित होकर उसे बन्दी बनाने का आदेश दिया और संग्रामदेव को राज्य सौंपकर किसी मठ में चला गया।
हालत यह कि उसकी निजी सम्पत्ति ढाई सौ किलो सोने को उसके प्रधानमंत्री पर्वगुप्त और अन्य मंत्रियों ने लूट लिया और आपस में बँटवारा कर लिया। मठ में जब तीन दिन तक उसकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई तो रिश्तेदारों, नौकरों और वेल्वित्ता ने ज़हर देकर उसकी हत्या कर दी और महल लौट आए। ब्रिटिश काल में लिखी अपनी महत्त्वपूर्ण किताब में वाल्टर लॉरेंस ने टिप्पणी की है कि ‘जब जयसिम्हा का शासन समाप्त हुआ तो कश्मीर शराबियों और जुआरियों का अड्डा था तथा स्त्रियों की दशा वैसी ही थी जैसी ऐसे में हो सकती थी।’
हिमालय कश्मीर के लिए सुरक्षा की गारंटी तो था लेकिन उत्तरी भारत, काबुल और कश्मीर के आसपास पश्चिम एशिया में जिस तरह की हलचल हो रही थी, उससे इसका अछूता रह पाना बहुत लम्बे समय तक सम्भव नहीं था। रफ़ीक़ी अली बिन हामिद अल-कूफ़ी के चाचानामा के हवाले से बताते हैं कि चन्द्रपीड (682-691) के समय मुहम्मद अल्फ़ी नामक भाड़े का अरब सैनिक कश्मीर में शरणागत हुआ था और राजा ने उसे शकलबार की जागीर दी थी जो उसके मरने के बाद जहम को मिली और उसने कई मस्जिदें भी बनवाईं। 713 ईसवी में मुहम्मद बिन क़ासिम ने मुल्तान विजय के बाद कश्मीर की तरफ़ बढ़ने की कोशिश की थी लेकिन उसे ख़लीफ़ा अल वालिद प्रथम ने वापस बुला लिया था। 757 ईसवी में सिंध के अरब सूबेदार हिशम बिन अम्र उल तग़लिबी ने भी कश्मीर घाटी पर क़ब्ज़े की असफल कोशिश की थी। संग्रामराजा के राज्यकाल में महमूद ग़ज़नी ने 1015 और 1021 में कश्मीर पर आक्रमण करने की कोशिश की लेकिन मौसम का ग़लत चुनाव करने के कारण लोहारकोट के क़िले से आगे बढ़ने में सफल नहीं हुआ। लेकिन इससे सबक लेने की जगह कश्मीरी राजा अपने भोग-विलास में इस क़दर मसरूफ़ रहे कि अनन्त (1029-1064) ने राजदंड और अपना मुकुट भी एक विदेशी व्यापारी के यहाँ गिरवी रख दिया था। उसके बाद के उल्लेखनीय राजा हर्ष को मन्दिरों की लूटपाट, अनियंत्रित यौन-सम्बन्धों और बेतहाशा करों के लिए ही याद किया जाता है। उसके समय में मुस्लिम सैनिकों के सेना में प्रवेश की सूचना मिलती है। मार्को पोलो के यात्रा-संस्मरणों से भी यह सूचना मिलती है कि तेरहवीं सदी के अन्त तक कश्मीर में मुसलमानों की बस्ती थी जिसके बाशिंदे कसाई का काम करते थे। हर्ष के बाद के राजाओं के यहाँ तुर्क सैनिकों के होने की सूचना मिलती है। जयसिम्हा (1128-1155) के सेनापति संजपाल के साथ यवन सैनिकों के छावनी में जाने का ज़िक्र आता है।
शाहमीर और रिंचन भी इसी तरह सहदेव (1286-1300) के समय कश्मीर आए थे। रिंचन (ला चेन रिग्याल बू रिन चेन) बौद्ध था जो कुबलाई ख़ान की मौत के बाद लद्दाख में मची अफ़रा-तफ़री में अपने पिता और वहाँ कुबलाई ख़ान के प्रतिनिधि लाचेन की हत्या के बाद अपनी छोटी-सी सेना के साथ जो-जी-ला दर्रे से सोनमर्ग घाटी पार कर गंगागीर में सेनापति रामचन्द्र के महल में शरणागत हुआ था। शाहमीर स्वात घाटी का निवासी था और कहा जाता है कि एक रात उसे ख़्वाब आया कि वह कश्मीर का शहंशाह बनेगा तो इस बिना पर वह सपरिवार श्रीनगर पहुँच गया और राजा के दरबार में उसने रामचन्द्र से निकटता बनाई। राजा सहदेव ने उसे बारामूला के पास एक गाँव दावर कुनैल की जागीर दे दी थी। कालान्तर में रिंचन और शाहमीर अच्छे मित्र बन गए। हालाँकि उसके संदर्भ में महाभारत के अर्जुन के वंश से लेकर स्वात के शासक परिवार तक के होने की मान्यताएँ हैं। इसी दौर में दार्दिस्तान से एक बौद्ध लंकर चक अपने भाई से हारकर कश्मीर घाटी आ गया था। चकों को आगे कश्मीर में महत्त्वपूर्ण राजनीतिक भूमिका निभानी थी।
1320 ईसवी में जुल्चू (जोनाराज उसे दुलचा कहते हैं और राजा कर्मसेना का सेनापति बताते हैं लेकिन कर्मसेना के बारे में कोई मालूमात नहीं मिलती।) नामक मंगोल ने अपनी विशाल सेना के साथ कश्मीर पर आक्रमण किया। सहदेव ने पहले तो उसे लालच देने की कोशिश की और इसके लिए ब्राह्मणों तक से भारी कर वसूला गया लेकिन जब जुल्चू नहीं माना तो राजा अपने परिवार सहित किस्तवार भाग गया। जुल्चू ने अगले आठ महीनों तक असहाय प्रजा को बर्बरता से लूटा। जाड़ों के आने पर जब खेतों में कुछ नहीं रह गया तो उसने वापस जाने का निर्णय लिया। उसके सहयोगियों ने बारामूला और पाखली के उसी रास्ते से लौटने की सलाह दी जिससे वे आए थे, पर जुल्चू ने स्थानीय क़ैदियों से सबसे छोटे रास्ते के बारे में पूछा। कहते हैं कि जुल्चू से उसकी ज़्यादतियों का बदला लेने के लिए उन्होंने जान-बूझकर सबसे ख़तरनाक रास्ते, बनिहाल दर्रे, से जाने का सुझाव दिया और लौटते हुए जुल्चू दिवासर परगना की चोटी के पास अपने सैनिकों, क़ैदियों और लूट के सामान के साथ बर्फ़ में दफ़न हो गया।
जुल्चू के जाने के बाद सहदेव लौटा तो उसने किस्तवार के गद्दी क़बीले के साथ श्रीनगर पर क़ब्ज़े की कोशिश की लेकिन रामचन्द्र ने ख़ुद को राजा घोषित कर दिया। उसने लार के अपने क़िले से उतर अन्दरकोट पर क़ब्ज़ा कर लिया और सहदेव की सेना को हरा कर गद्दी पर बैठ गया। भय से पहाड़ों में जा छिपी जनता जब वापस लौटी तो राजा के लिए उसके मन में कोई सम्मान शेष न था। चारों ओर त्राहि-त्राहि-सी मची थी। हालत यह कि पहाड़ी क़बीलों ने इसी बीच हमला कर दिया और बचा-खुचा लूटने के साथ कई लोगों को दास बनाकर ले गए और इन सबके परिणामस्वरूप अकाल की स्थिति पैदा हो गई। जनता की रक्षा के लिए वहाँ कोई नहीं था। उन्होंने ख़ुद अपनी सेनाएँ बनाकर इन क़बीलों का सामना किया। रिंचन ने इसका पूरा फ़ायदा उठाया। पहले तो उसने जनता का साथ दिया और फिर शाहमीर तथा अपनी लद्दाखी सेना की सहायता से सैनिकों को वस्त्र-व्यापारी के रूप में धीरे-धीरे महल के अन्दर भेजकर उचित समय पर हमला कर रामचन्द्र की हत्या कर दी। मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए सहदेव की बेटी कोटा ने पिता की हत्या को महत्त्व देने की जगह कश्मीर की महारानी के पद को महत्त्व दिया और 6 अक्टूबर, 1320 को रिंचन जब कश्मीर की गद्दी पर बैठा तो कोटा उसकी महारानी के रूप में उसके बगल में बैठी। रिंचन ने रामचन्द्र के पुत्र रावणचन्द्र को रैना की उपाधि देकर लार परगना और लद्दाख की जागीर दे दी और इस तरह उसे अपना मित्र बना लिया।
रिंचन के इस्लाम अपनाने को लेकर जो प्रसिद्ध क़िस्सा है, वह न केवल कश्मीर में इस्लामीकरण की तलवार के ज़ोर पर शुरुआत के मिथक को तोड़ता है बल्कि ब्राह्मणों के उस रवैये की तरफ़ भी इंगित करता है जिसने कश्मीर में इस्लामीकरण में मदद की। हमने देखा है कि हिन्दू राजाओं के आख़िरी दौर में राज्यसत्ता से ब्राह्मणों के टकराव और राजाओं द्वारा उन्हें अलग-थलग करने की कोशिशों के पर्याप्त उदाहरण मिलते हैं। राजदेव (1212-1235) के समय ब्राह्मणों पर अत्याचार का जो क़िस्सा हमने पढ़ा है, उसकी जड़ में राजदरबार के षड्यंत्रों में उनकी भागीदारी है। सहदेव के समय भी ब्राह्मणों पर करारोपण और उन्हें अलग-थलग करने की कोशिशों का ज़िक्र मिलता है। हर्ष और शंकरवर्मन के समय मन्दिरों की लूट और अग्रहार ज़ब्त किये जाने की अनेक घटनाओं का वर्णन कल्हण ने किया है। जोनाराज बताते हैं कि रिंचन हिन्दू धर्म अपनाना चाहता था लेकिन उसके तिब्बती बौद्ध होने के कारण ब्राह्मण देवस्वामी ने उसे शैव धर्म में दीक्षित करने से इनकार कर दिया और उसके बाद शाहमीर के कहने पर वह मन की शान्ति के लिए कश्मीर में रह रहे एक सूफ़ी संत बुलबुल शाह से मिलने गया, जिनके प्रभाव में उसने इस्लाम अपना लिया और सुल्तान सदरुद्दीन के नाम से कश्मीर की गद्दी पर बैठा। हालाँकि रफ़ीक़ी सहित ज़्यादातर विद्वानों का मत है कि उसके इस निर्णय के पीछे पश्चिम एशिया और कश्मीर के आसपास के इलाक़ों में इस्लाम का बढ़ता प्रभाव था लेकिन जोनाराज का यह कथन उनकी अपनी समझ और मानसिकता का द्योतक है और कश्मीरी ब्राह्मणों के कट्टरपन की ओर इशारा तो करता ही है।
कश्मीर में इस्लाम के आगमन के बावजूद तुरन्त ब्राह्मणों के प्राधिकार पर किसी प्रभाव का प्रमाण नहीं मिलता बल्कि दरबार में उनके षड्यंत्र पहले की तरह चलते रहे। रिंचन का प्रधान मंत्री था तुक्का जिसे हटाकर उसने व्यालराज को वह पद दिया था। रिंचन ने उसके भाई की हत्या भी करवा दी थी। इससे नाराज़ तुक्का ने बदला लेने के लिए रिंचन पर जानलेवा हमला किया। रिंचन बच तो गया और उसने तुक्का से भयावह बदले भी लिये लेकिन यही घाव उसके लिए जानलेवा साबित हुआ। यही नहीं, 1323 ईसवी में रिंचन की मृत्यु के बाद ये दरबारी उसके अल्पवयस्क बेटे को गद्दी पर बिठाकर ख़ुद राज करने की कोटारानी की योजना को विफल कर सहदेव के भाई उदयनदेव को गद्दी पर बिठाने और कोटा को उससे शादी करने का निर्णय लेने के लिए बाध्य करने में सफल रहे। उस समय शाहमीर के साथ भट्ट भीक्ष्ण दरबार के ताक़तवर लोगों में शामिल थे। तुर्क अचल के हमले* के बाद पूरी तरह से निष्प्रभावी हो जाने के बाद जब 1338 ईसवी में उदयनदेव की मृत्यु हुई तो कोटारानी ने भट्ट भीक्ष्ण को ही अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। शाहमीर ने भट्ट भीक्ष्ण तथा अन्य मंत्रियों की हत्या कर जब सत्ता पर क़ब्ज़ा किया और कश्मीर में शाहमीर वंश की स्थापना हुई तो भी आरम्भिक वर्षों में दरबार में ब्राह्मणों का वर्चस्व बना रहा और संस्कृत दरबार की भाषा बनी रही। अली शेर के समय उसके मंत्री लक्ष्मण भट्ट का ज़िक्र आता है जबकि शहाबुद्दीन के मंत्रियों में उदयश्री और कोटा भट्ट शामिल थे। उदयश्री के उत्तराधिकार की लड़ाई में क़ुतबुद्दीन के ख़िलाफ़ षड्यंत्र करते पकड़े जाने, रानी के हस्तक्षेप से माफ़ किये जाने तथा फिर धोखा दिये जाने के बाद सुलतान द्वारा उसकी हत्या किये जाने का ज़िक्र आता है।
स्वाभाविक तौर पर इस्लामी शासन स्थापित होने के बाद कश्मीर में मुस्लिम सूफ़ी संतों का आना शुरू हो गया था। बुलबुल शाह के बाद बुखारा से सैयद जलालउद्दीन और सैयद ताजुद्दीन और उनके छोटे भाई सैयद हुसैन सिमनानी सहित कई बड़े सूफ़ी संत इस दौर में कश्मीर आए और वहाँ इस्लाम का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। लेकिन यह प्रक्रिया परवान चढ़ी सुलतान क़ुतुबुद्दीन के शासनकाल (1373-1389 ईसवी) के दौरान 1379 में सैयद अली हमदानी के दूसरी बार कश्मीर आने से। इस समय तक कश्मीर में मुसलमानों की संख्या काफ़ी कम थी। चन्द मस्जिदों और लंगरख़ानों के अलावा इस्लामी प्रतीकों का कश्मीर में कोई ख़ास प्रचार न हुआ था। हिन्दुओं तथा मुसलमानों के खान-पान और रहन-सहन में कोई ख़ास अन्तर नहीं था और दरबार में सुलतान भी कश्मीरी ढब के कपड़े ही पहनते थे। शरिया को लेकर भी कोई कट्टरता नहीं थी। उदाहरण के लिए तत्कालीन सुलतान ने दो सगी बहनों से शादी की थी और अल्लाउद्दीनपुर के एक मन्दिर में वह रोज़ अपने साथी मुसलमानों के साथ जाया करता था तथा अकाल पड़ने पर उसने एक यज्ञ किया जिसमें ब्राह्मणों को काफ़ी मात्रा में दान-दक्षिणा भी दी गई थी। ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन या मन्दिरों को तोड़ने की कोई घटना तब तक नहीं हुई थी। आधिकारिक रूप से फ़ारसी और शारदा (स्थानीय कश्मीरी भाषा की लिपि), दोनों का प्रयोग होता था।
कश्मीर और कश्मीरी पंडित : अशोक कुमार पाण्डेय [इतिहास], मू. 999 [सजिल्द], 399 [पेपरबैक], राजकमल प्रकशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर मँगवा सकते हैं।

अशोक कुमार पांडेय : कश्मीर के इतिहास और समकाल के विशेषज्ञ के रूप में सशक्त पहचान बन चुके अशोक कुमार पांडेय का जन्म 24 जनवरी, 1975 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के मऊ ज़िले के सुग्गी चौरी गाँव में हुआ। ये गोरखपुर विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में परास्नातक हैं। कविता, कहानी और अन्य कई विधाओं में लेखन के साथ-साथ अनुवाद कार्य भी करते हैं। इनकी पुस्तक ‘कश्मीरनामा’ विद्वानों और आम पाठकों द्वारा समान रूप से ख़ूब सराही गई है।