पल्लव
मैं एक आम हिंदुस्तानी हूँ। जैसा भारतीय मध्य वर्ग का परिवेश है मैं उसी में पला-बढ़ा। जब मैं दसवीं में पढता था, तब उसी साल प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें मानकर आरक्षण की नयी व्यवस्था लागू करने की घोषणा की थी। इस पर तथाकथित सवर्ण तबके की तीखी प्रतिक्रिया हुई। मेरे शहर (चित्तौड़गढ़ ) में भी जुलूस निकले, मुर्दाबाद के नारे लगे और घृणा का वातावरण बना। मैं भी समझने लगा कि आरक्षण हमारे लिए मुसीबत है और हमारे जीवन की सभी सम्भवनाएँ ख़त्म कर देगा। धीरे धीरे बहुत धीरे धीरे जब मैं साहित्य पढ़ने लगा, कालेज में अच्छे और ईमानदार शिक्षकों से नयी नयी बातें जानने लगा, जब मैं स्वयं प्रकाश जी की सोहबत में आया, एक कच्ची नौकरी में मेरे प्रिंसिपल साहब ने मुझे आरक्षण का अर्थ और कालेज में प्रवेश के दौरान उसे लागू करने का सही ढंग समझाया, उन्होंने ही मुझे बताया कि आदिवासी लोगों से प्यार करना चाहिए क्योंकि दे आर इनोसेंट पीपुल। लेकिन क्या मैं बदल गया? आदमी रोज कुछ नया सीखता है – रोज़ कुछ अच्छा या बुरा होता है। फिर मेरे हाथ कांचा इलैया की किताब ‘हमारे समय में श्रम की गरिमा’ आई। इसे पढ़कर मैं चौंक गया। लोककथाओं ने मुझे बताया था कि नाई का काम करने वाले बहुत तेज और चालाक होते हैं जिसे मैंने शोले फिल्म से पुष्ट भी किया लेकिन कांचा ने बता दिया कि नाई का काम करने वाले लोग धरती के पहले डाक्टर हैं। एकदम उलट देने वाली बात। और ऐसी कई सारी बातें। यह किताब वह थी जिसने मेरे दिमाग में बचा-खुचा कचरा भी बुहार दिया। आग्रह करता हूँ कि इसे हर कोई पढ़े। –पल्लव
स्वयं प्रकाश की एक कहानी है ‘अविनाश मोटू उर्फ एक आम आदमी’। कहानी एक ऐसे टेलिफोन मेकेनिक की है जो अपने काम से बेइंतहा प्रेम करता है और इसके चलते अपने साथियों में उपहास का पात्र भी बनता है। परिश्रम उसका जीवन दर्शन है लेकिन वह इसकी सैद्धांतिकी से सर्वथा अनभिज्ञ है और अपने आचरण से चुपचाप कर्म संस्कृति की वापसी कर रहा है, जो मनुष्यता के लिए जरूरी है। सवाल यह है कि क्यों किया जाए परिश्रम? मशीन है तो! क्या विज्ञान ने तमाम आविष्कार हमारे जीवन को सुखी और आरामदायक बनाने के लिए नहीं किए हैं? तो! ऐसे में हाथों से काम करना? और काम करने वाले! या तो बेचारे हैं वे या इतने नालायक कि साहब झाडू लगाने के अलावा कर क्या सकते हैं ये! किसी बड़े पद पर भी बैठ जाएं ‘ये’ तो अक्ल थोड़े आ जाएगी, जूते गांठने वाले ही रहेंगे। फिर अविनाश क्यों काम कर रहा है? काम से उसे प्यार कैसे है?
यह सारी बातें कांचा आइलैया की पुस्तक ‘हमारे समय में श्रम की गरिमा’ पढ़कर मेरे मन में आईं। आरक्षण का विरोध करते नवयुवक डॉक्टरों-इंजीनियरों को सबसे ‘सहज गांधीवादी’ तरीका नजर आता है वह है झाडू लगाना। क्योंकि झाडू लगाना सबसे घटिया काम है जिसके लिए किसी ज्ञान, कौशल या बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती। कांचा आइलैया इसी मिथक को तोड़ते हैं और आदिवासी पशुपालक, चर्मकार, किसान, कुम्हार, बुनकर, धोबी, नाई जैसे समुदायों के साथ जुड़े श्रम के गौरवपूर्ण अध्यायों की व्याख्या करते हैं। आदिवासी समुदाय पर लिखते हुए जो पहली बात पाठक के समक्ष रखते हैं वह यह है कि आखिर कब, कैसे, किसने तय किया होगा कि आम रसीला-स्वादिष्ट-स्वास्थ्यवर्द्धक फल है और रतनजोत के फल खाने से मृत्यु हो सकती है। इस ज्ञान को देने वाले आदिवासियों को हमारा तकनीक संपन्न समाज जंगली समझकर दुत्कारता है, उन्हें दूसरे दर्जे का मनुष्य मानता है क्योंकि वे परिश्रम कर जीवन चलाते हैं। वे लिखते हैं—‘मानव जाति के जीवित रह पाने का प्रमुख कारण है कि हमने सहस्त्राब्दियों से सही प्रकार के खाद्य पदार्थ खाए हैं। आज जो कन्द मूल हम खाते हैं, उन्हें जमीन से खोदना पड़ता है; जो फल हम खाते हैं उन्हें पेड़ों से तोड़ना पड़ता है; जो मांस हम खाते हैं, वह पशु-पक्षियों से मिलता है। यदि आदिवासियों ने ये कठिन काम न किए होते तो मनुष्य जाति जीवित न रह पाती।’
आगे वे स्पष्ट कहते हैं कि हमारी बुनियादी खाद्य संस्कृति विकसित करने की खातिर अपने जीवन और अंगों को खतरे में डालकर पाए ज्ञान को आदिवासियों ने दूसरों के साथ बांटा। तो क्या यह आधुनिक समाज की बिडम्बना और कृतघ्नता ही है कि वह परिश्रम को हेय समझता गया और जितनी अधिक मेहनत जो समुदाय करता उसे उतनी ही नीची नजर से देखने का अभ्यस्त होता गया? वहीं आगे पुस्तक में जब वे नाई समुदाय पर लिखते हैं तब और अधिक रोचक जानकारी मिलती है जो इस बिडम्बना को गहरा करती है। आइलैया बताते हैं कि ‘आधुनिक युग के पहले नाइयों के अलावा किसी भी अन्य जाति के लोग बीमारियों से पीडि़त लोगों को नहीं छूते थे। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अस्तित्व में आने तक नाई ही कई छोटी-मोटी शल्यक्रियाएं करते थे। उस्तरा चलाने में अपनी विशेषज्ञता के कारण वे रणभूमि में लगी चोटों का उपचार करते थे। वास्तव में शल्य चिकित्सा और बाल काटने के व्यवसय में सहज संबंध है। शरीर के उस हिस्से पर जहां शल्यचिकित्सा होनी होती है, बालों की उपस्थिति के कारण संक्रमण हो सकता है। इसलिए शल्यक्रिया से पहले बालों को पूरी तरह साफ करना अनिवार्य होता है। यह चलन आज भी जारी है। अतः नाई भारतीय समाज के सबसे पहले चिकित्सक कहे जा सकते हैं।
तमिलनाडु में आज भी नाई को ‘मरुत्तुवर’ कहा जाता है जिसका अर्थ होता है- चिकित्सक।’ और हां, जरा इसी प्रसंग में नाई समुदाय की स्त्रियों-दाइयों की भूमिका पर विचार करें। वे न होतीं तो गांवों में प्रसव कौन करवाता? आज भी आधुनिक चिकित्सा के इस बड़े अभाव को पूरा करने का दायित्व कौन उठा रहा है? हम जानते हैं कि इस समुदाय की सामाजिक हैसियत डॉक्टर या नर्स वाली तो बिल्कुल ही नहीं है। भले बाजार में जावेद हबीब अपने सैलून की फ्रेंचाइजी महंगे दामों में देते हों।
‘गोदान’ पर विचार करते हुए समझ में आता है कि हमें अन्न देने वाले किसान की वर्गीय-सामाजिक स्थिति अन्नदाता की तो बिल्कुल नहीं है। सब्जी उगाने वाले और गली में सब्जी बेचने वाले दोनों को अपने श्रम का मूल्य मिले न मिले, सब्जी को गोदाम में जमा करने वाले पूंजीपति को हम पूरा आदर और धन देते रहेंगे। यह किताब ऐसी बिडम्बनाओं को बार बार कुरेदती है और पाठक को विवेकवान बनाती है।
कांचा आइलैया ने इस छोटी किंतु अत्यंत रोचक व पठनीय पुस्तक में इतिहास, विज्ञान और समाज विज्ञान के अनेक प्रसंगों को समाहित कर उपयोगी बनाया है। मसलन वे धोबियों पर लिखे अध्याय में बताते हैं कि ‘पुरानी पेशाब पहला डिटर्जेंट था’ या ‘प्राचीन रोम में कपड़े के टुकड़े पहले पुरानी पेशाब या अन्य क्षारीय घोलों में भिगोए जाते थे।’ कांचा आइलैया लिखते हैं—‘जो लागे अज्ञानतावश धोबियों की निन्दा करते हैं उन्हें धुलाई के विज्ञान की खोज करने वाले इस समुदाय से सीख लेने की कोशिश करना चाहिए।’ वे आगे इस समुदाय में मौजूद लैंगिक समानता को भी अनुकरणीय बताते हैं—‘जहां अधिकांश परिवारों में केवल महिलाएं कपड़े धोती हैं और अन्य घरेलू सफाई गतिविधियों का भार उठाती हैं, वहीं धोबियों में महिलाएं और पुरुष दोनों धुलाई का काम करते हैं।…सभी जातियों और समुदायों के पुरुषों और लड़कों को धोबी बिरादरी के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए जो अपनी स्त्रियों के साथ मिलकर कपड़े धोते हैं । कोई भी अच्छा समाज महिला-पुरुष और लड़के-लड़की के बीच श्रम को लेकर भेदभाव नहीं करता।’ पशुपालक समुदायों को वे श्रेय देते हैं कि उनकी वजह से ही भारत का मांस और दुग्ध उद्योग फला-फूला है लेकिन हमारी जाति व्यवस्था ने इसे तुच्छ और गन्दा पेशा मान लिया।
कांचा इस बिडम्बना को उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं- ‘आज भी पशु पालक समुदाय से आने वाले लालू प्रसाद यादव जैसे राजनेता का भैंसों से संबंध होने के कारण मखौल उड़ाया जाता है, जबकि यज्ञों में भाग लेने वाले और धार्मिक स्वामियों के पैरों पर गिरने वाले कई राजनेता उपहास का विषय नहीं बनते।’ चर्मकारों पर लिखे अध्याय में वे प्राचीन भारत और रोम में इस समुदाय के लोगों के लिए बनाए नियमों की तुलना करते हैं। जहां भारत में प्रावधान था कि ‘अछूत गांव के बाहर रहें, फेंके हुए कटोरों का प्रयोग करें और टूटे हुए बरतनों में भोजन करें। कुत्ते और बन्दर इनकी सम्पत्ति हों, (मनु स्मृति) वहीं ‘रोमन सम्राट डायोक्लेशियन द्वारा जारी किए गए फरमान के जरिए कई प्रकार के सामानों और सेवाओं के उच्चतम मूल्य तय किए गए, पुस्तक में विभिन्न श्रमिक जातियों पर लिखे ऐसे अध्यायों को कांचा बेहद तार्किक-रोचक व गंभीर बनाते हुए यह बताना नहीं भूलते कि वर्तमान व्यवस्था में इन्हें समान अवसर व आदर क्यों दिया जाए। अन्त में लिखे गए वैचारिक अध्यायों में वे अपने निष्कर्षों को सैद्धान्तिक आधार देते हैं। वे लिखते हैं- ‘श्रम सभ्यताओं की प्राण शक्ति है। यदि श्रम को उपेक्षित किया जाता है तो हर समाज में आलस्य का कैंसर पैदा हो जाता है। भारत में श्रमिक समुदायों को अपमानित किया जाता रहा है और जो मेहनत का काम नहीं करते उन्हें ऊंचा दर्जा मिलता रहा है। श्रम के प्रति ऐसे नकारात्मक रवैए के कारण मजदूर जातियों को अछूत माना गया।’ आश्चर्य नहीं कि इसी रवैए ने लैंगिक विषमता को बढ़ावा दिया और औरतों को दूसरा दर्जा मिला। यदि हम अपना समाज उन्नत और वाकई सभ्य बनाना चाहते हैं तो इसके लिए जरुरी है कि समाज के सभी वर्गों-लोगों को समान अवसर, समान आदर और समान पारिश्रमिक मिले। इसके लिए श्रम की गरिमा को स्थापित करना असल चुनौती है।
याद करें एक और कहानी। कफन। प्रेमचन्द ने कैसी विश्वसनीयता से बताया था कि जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना चाहते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहां इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। अपनी नयी पीढ़ी को हम घीसू और माधव चाहते हैं या अविनाश मोटू? मेहनत से काम कर आगे बढ़ता हुआ समाज चाहिए या अपने दुर्गुणों को ओढ़ता बिछाता नष्ट होता एक रुग्ण समुदाय? फैसला हमें ही करना है। और कहना न होगा कि हमारे स्कूल-कॉलेजों की शिक्षा वह सीढ़ी है जो परिश्रम के प्रति असम्मान के भाव को धो-पोंछ सकती है। शुरुआत यहीं से होनी चाहिए, तभी कांचा आइलैया जैसे बड़े समाज वैज्ञानिक चिन्तक स्कूली बच्चों और अध्यापकों के लिए ऐसी पुस्तक लिखने के लिए तत्पर हुए। अंग्रेजी की इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण किसी दृष्टि से अनुवाद या पुनर्प्रस्तुति नहीं लगता, दुर्गाबाई व्याम के चित्र इसकी आभा को दुगुना करते हैं। चिन्ता यही होनी चाहिए कि भारत का हर विद्यार्थी और अध्यापक इसे कैसे पढ़े?
हमारे समय में श्रम की गरिमा : कांचा आइलैया [अध्ययन], मू. 75 रुपये, एकलव्य, भोपाल। आप इस किताब को www.exoticindiaart.com से ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं।

पल्लव : राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार में 2 अक्टूबर को जन्म। गद्य आलोचना में विशेष रुचि। ‘कहानी का लोकतंत्र’ और ‘लेखकों का संसार’ शीर्षक से दो पुस्तकें। ‘मीरा: एक पुनर्मूल्यांकन’, ‘गपोड़ी से गपशप’, ‘एक दो तीन’ और ‘अस्सी का काशी’ शीर्षक से संपादित पुस्तकों का प्रकाशन। असगर वजाहत के सम्पूर्ण रचना संसार से चुनकर तीन खंडों में असगर वजाहत रचना संचयन का संपादन। ‘ मैं और मेरी कहानियां ‘ शीर्षक से हिंदी के दस प्रतिनिधि युवा कथाकारों के कहानी संग्रहों का चयन और संपादन। साहित्य-संस्कृति के विशिष्ट संचयन ‘बनास जन’ का विगत दस वर्षों से सम्पादन। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आलेख, आलोचना और समीक्षा लेखों का लगभग दो दशकों से निरन्तर प्रकाशन। भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा साहित्य पुरस्कार, वनमाली सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजन पुरस्कार सहित कुछ और पुरस्कार-सम्मान। सम्प्रति-दिल्ली के हिन्दू कॉलेज में अध्यापन। आप इनसे निम्न ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— pallavkidak@gmail.com