वंदना राग
हर चर्च में एक क्वायर होता है.लड़के-लड़कियों का, स्त्रियों और पुरुषों का, जो आस्थावान और बे- आस्था सबको अपने धीमे गायन से आध्यात्मिक दुनिया की ऐसी गलियों में लिए चलता है कि मन भीग जाता है।
उपन्यास ‘अँधेरा कोना’ पढ़ते हुए एक ऐसा ही धीमा दुःख मन को जकड़ने लगता है और फिर उसकी गिरफ्त से छूटना खासा मुश्किल हो जाता है। उपन्यास के शुरू में दर्ज की गयी पंक्तियों से हमारे आम जीवन का गहरा ताल्लुक है। यह उपन्यास के एक पन्ने को भरने की कोई बेजा हरकत नहीं, ये उससे आगे जाकर एक फलसफे का बयान है, एक नृशंस समय का रेखांकन है, एक हताशा और निराशा के बीच झूलते समाज का यथार्थवादी चिंतन है। पंक्तियाँ कहती हैं—‘जब्त हवा, पानी, आग, खुशबू, पत्थर, औजार, कला, शब्द और आवाज।
उपन्यास इन पंक्तियों के सार को एक चित्रात्मक प्रस्तुति के मार्फत दर्ज करता है। एक नए और खूबसूरत अंदाज से।
कुछ हमसे खो गया है और कुछ लोगों ने जब्त कर लिया है हमसे छीन कर। उन लोगों ने ही छीन लिया जिन्हें हमने अपनी सभ्यता और संस्कृति का वाहक बनाया, पैरोकार का रुतबा दिया। उन्हें एक शासन तंत्र को विकसित करने का मौका दिया जो हमें सुरक्षित रखें, हमारी विरासत को सुरक्षित रखें। उन्होंने हमसे वायदा किया कि हम ऐसा तंत्र विकसित करेंगे जो ‘लोक के लिए, लोक से बना, लोक के द्वारा’ चलने वाला शासन तंत्र होगा। फलतः ऐसे तंत्र के केंद्र में लोक होना चाहिए। यह लोकतंत्र की एक सुन्दर थिअरी है जिसकी कद्र हर विकास अपेक्षी राष्ट्र और व्यक्ति करते है। लेकिन आज का सच क्या है? इस प्रचलित लोकतंत्र प्रणाली का सच क्या है?लोकतंत्र का दावा करने वाले अपने देश-भारत का सच क्या है?
हम देश की आजादी के बाद से ही इसके बिखरते व्यावहारिक मूल्यों को असहाय नेत्रों से ताक रहे हैं। लेकिन फिर भी हम आशा का दामन नहीं छोड़ते, क्योंकि लोकतंत्र में शासन तंत्र के वायदे सकारात्मकता का स्वप्न दिखाते हैं। और दुरूह जीवन जीने के लिए स्वप्न देखना निहायत जरूरी है। स्वप्न दुःख के क्षणों में दर्द निवारक दवा का काम करते हैं।कठिन परिस्थियों में जीने के हौसला देते हैं.स्वप्न न हों तो मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए. उमा-शंकर चौधरी भी अपने उपन्यास में स्वप्न देखते हैं और स्वप्नों के माध्यम से एक हौसले भरे उपन्यास को साकार करते हैं।
उपन्यास के कथा नायक नागो का एक स्वप्न है। उसके लोहार पिता का भी एक स्वप्न है। लेकिन नागो का स्वप्न अपने पिता के स्वप्न से भिन्न है। नागो को पिता की भट्ठी की आग से अधिक सूरज की उर्जा लुभाती है। अतः वह एक सूरज अपने घर ले आता है। सूरज उसका घोड़ा उसकी उर्जा, उसका रोजगार ,उसकी मोहब्बत का गवाह और उसका सबसे प्यारा दोस्त।
इसी तरह नायिका चिडि़या का भी एक स्वप्न है, आजादी से अपने पैरों पर खड़े होकर अपने चुनाव खुद कर सकने का स्वप्न। विधायक छुई देवी के स्वप्न के सामान शायद लेकिन व्यहवार में पूर्णतः अलग। यदि इन दो कथा नायिकाओं को आमने-सामने कर दिया जाए तो निश्चित ही दोनों गले लगकर अपने साझे संघर्ष की कहानी साथ लिख दें। अर्थात बर्फी के रस और पिंजड़े वाली मुनिया एक ही हैं।
एक जगह यह बात बौरा के कह भी दी जाती है ‘जब एक स्त्री, पुरुष के द्वारा डमी रूप में उपयोग कर ली जाती है तो…चुनाव आयोग को घोषित कर देना चाहिए कि इस स्वतंत्र देश में महिलाएं सिर्फ आटा गूंधने के लिए बनीं हैं।’
छुई देवी नाम है विधायक का, लेकिन असली लोकतंत्र का वाहक उसका पति घुटर यादव है। अपने देश के चिरपरिचित शासन तंत्र का प्रतीक-बेईमान और झूठा, लफ्फाज! गाँव के साधारण और सामान्य लोगों की नकली आवाज है वह। और जो असली है, गाँव के लोगों की आवाज हो सकता है, उसकी समाज में और इस शासन तंत्र के सामने कोई औकात नहीं। जाहिर है,ऐसे में उसे ही, एक दिन खो जाना होगा। उस स्वस्थचित्त विवेकपूर्ण आवाज को खो जाना होगा। कथा के महानायक विदो बाबू की आवाज को खो जाना होगा। उसे जब्त कर चुप कर दिया जाएगा। ठीक उसी तरह जैसे लोहार की धौंकनी, नागो का रोजगार, थोड़ी सी जमीन और थोड़ा सा पानी।
रहें उसी गाँव के फूलो बाबू राष्ट्र कवि दिनकर के मुरीद। गाते रहें गीत गाँव की चौपालों पर, सिंहासन खाली करो जनता आती है !
लेकिन साहब सच तो यह है कि न जनता कहीं आएगी न जायेगी? जनता की क्या औकात? जनता तो मिटटी का माधव बन जाती है आवाज उठाते वक्त, वह इस कदर दब जाती है कि उसकी क्या मजाल कि, वह सरकारों से कुछ मांग ले, या कह दे खुलकर, सीना ठोक कर— यह मेरा अधिकार है।
अक्सर आज के लोकतंत्र के हालातों के मद्देनजर शासन तंत्र का भय और फिर उसके प्रति एक निस्संगता उपजने लगती है जनता में है जब हर जुगत भिड़ाकर भी सुनवाई नहीं होती है। विदो बाबू खत पर खत लिखतें हैं सरकार को, ठीक वैसे ही जैसे हर सरकारी दफ्तर में जनता जा-जा कर शिकायत दर्ज करवाती है, ठाणे में रपट लिखती है यह स्वप्न देखते हुए कि शायद कोई सुनवाई हो जाए, शायद कोई निदान। गाँव तो वैसे भी आज की तारीख में बहुत छिटके हुए धाड़ें हैं लोकतंत्र के गरीब और बेहद पिछड़े हुए गाँव वाले तो बेसी कुछ मांगते भी नहीं। उनके लिए सड़क, पानी बिजली ही तो मुख्य मुद्दे हैं। यदि आपके गाँव में नहीं हैं तो तेतरी में तो हैं ही। वही तेतरी जो बिहार के किसी कोने में पड़ा है। वहीँ जहाँ विदो बाबू हैं, जहाँ ठीक वोट पड़ने के पहले एक चमचमाती हुई सड़क बनती है और घुटर यादव उस उपरी विकास के प्रतीक का यशोगान करते चुनाव जीत जाते हैं। घुटर यादव बाहुबली है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सब उस बाहुबली की असलियत नहीं जानते। फिर भी सब चुप रहते हैं। यह लोकतंत्र में चुप्पी की प्रचलित मिसाल है। जैसा की हम जानते हैं-हमेशा ही यह घटित होती है द्यइस चुप्पी के दलदल से लेकिन कभी कुछ लोग आकर चुनौती कहदी कर देते हैंद्य यहाँ तेतरी में भी वही होता है.यहाँ भी चुप नहीं रह पाता तो एक कमजोर बूढ़ा।
उमा शंकर हमसे एक सवाल करने लगते हैं— गौर करने वाली बात है, क्या हर युग में प्रतिरोध की लड़ाई लड़ने के लिए हम एक कमजोर बूढ़े का ही चुनाव करेंगे? इस देश के भहराते लोकतंत्र में बूढ़ों की कीमत खूब लगाते हैं हम। यूँही नहीं गाते गाँव वाले,एक बिता दिए गए बूढ़े के विषय में, ‘जब तक आपके कड़कडि़या नोट पर रहेगा गांधी हियाँ ई गाँव में तब तक चलेगा विकास का आंधी’ उस बूढ़े को बीतने नहीं देते हम क्योंकि वह हमारे लिए हमेशा से एक सौदेबाजी करता आया हैद्यपहले अंग्रेजों से फिर गाहे बगाहे इस लोकतंत्र से और मजे की बात है हमेशा ही वह हमें फायदा पहुंचा देता है इसीलिए हम उसको इतरा कर भी तभी इस्तेमाल करते हैं जब हम निगोशिएट करना चाहते हैं अपने, समय समाज और स्पेसेस को।
तो उपन्यास में विदो बाबू भी बीतने के बात बीतते नहीं विकास की मांग, बेईमानी को बेनकाब करते रहते हैं।
जाहिर है विकास की शक्ल कछुआ और अफवाहगर्द हवा है। फांकीबाज हवा. चारों ओर झूठ और फरेब का साम्राज्य है। उसी में एक कृशकाय साहसी कहता है, ‘तो भैया आप लोग उनका पूजा करो बैठ के। हमरा तो जब तक जान है, तब तक हम भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ेंगे.’ यही बूढ़ा विदो बाबू हैं। एक अवकाश प्राप्त पशु चिकित्सक। सच, जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है यह है कि ऐसे बूढ़ों को हमने स्वेच्छा से अवकाश दान कर दिया है, फिर भी देखिये तो वे कितने जबर हैं कि मुँह उठाये चले आते हैं चेताने, हमें जगाने जैसे विदो बाबू चेताते हैं, ‘सब सह लो ,लेकिन ई ठीक नहीं है, जो सहता है, एक दिन नंबर उसका भी आता है।’
लेकिन लोग कहाँ चेतते हैं। लोग भ्रमों और जालों में अपने तमाम भोलेपन का हवाला दे, खुशी-खुशी फंसते हैं और धीरे-धीरे अपना सब भौतिक, नैतिक गँवाते चलते हैं। इतनी तीव्रता से कि अंत में हासिल कुछ नहीं होता।
लिहाजा इतिहास गवाह है और यह उपन्यास उसकी तस्दीक करता है कि पहले गए पारंपरिक रोजगार। नागो और उसका तांगा। आ गए हैं मोटर चलित रिक्शे.इ-रिक्शा है उसका नया नाम। अब तांगा गया तो बचता है एक घोड़ा जो वास्तव में सूरज नहीं है। उर्जा कहाँ दे पाता है वह अब। तांगा जो गया तो उर्जा भी गयीद्य एक क्षीण सी प्रतिछाया है अब बची उस पुराने सूरज की। प्रेम ही की तरह, जो दिलों में नागो और चिडि़या के तो है लेकिन परवान नहीं चढ़ता।न इतना प्रबंधन हो पाता है न इतने संसाधन जुट पाते हैंद्य इधर विदो बाबू हैं जो निरंतर प्रतिरोध के खत लिखते रहते हैं सरकार को, लेकिन हमेशा की तरह कोई सुनवाई नहीं होती।
इस तरह सिर्फ व्यहवारिक स्तर पर वास्तविक लोग और भाव नहीं बचते सिर्फ उनकी प्रतिछायाएं बचती हैं। धीरे-धीरे ये सारे लोगध्वस्तुएं और भाव अकारथ और बेकार लगने लगते हैं। सबको चुप रहने का आदेश है। अब बाहुबली अपने विरोधियों (इसे आम जनता भी पढ़ा जा सकता है) को मारते नहीं उन्हें गायब कर देते हैं।
उमाशंकर चौधरी अपने पहले ही उपन्यास में एक जागरूक पर्यवेक्षक की तरह हमें उन गायब जगहों पर ले जाते हैं जहाँ पात्रों का एक क्वायर कुछ गा रहा है। आप यदि नजदीक जाकर सुनने की कोशिश करेंगे तो सुन लेंगे बखूबी उनका हलाक हो जाने वाला गीत।इस गीत में एक पूरा समय और समाज है, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था की उखड़ती परतें हैं, प्रेम है, निस्तार है, आभाव है और सब कुछ खत्म हो जाने के पहले कुछ विचार करने और बचा लेने की गुहार है।
अत्यंत चुस्त भाषा, कथ्य की रवानगी, राजनीति और समाज पर मजबूत पकड़ के दिलचस्प वाकयों से भरा यह उपन्यास कोई जादुई यथार्थवाद का आख्यान नहीं है। यह तो तेतरी गाँव और पटौना स्टेशन का आज का सच है। बिहार के किसी जिले का सच। वहाँ की छीजती भाषा और संस्कृति का सच। स्त्री मुक्ति के शहरी आडम्बर का गँवई, पिछड़ा और, दुखद सच। मोहब्बत के नाश का सच। प्रकृति से अलगाव का सच। लोकतंत्र के प्राण-पखेरू उड़ने की सम्भावना का सच। जो प्रीतिकर नहीं उसे ओझल कर देने का सच। उन अँधेरे कोनों का सच जो पारंपरिक रूप से पुरानी और बेकाम हो गयी चीजों को फेंकने से पहले कुछ देर छिपा देने के लिए हुआ करते थे। लेकिन आज लोकतंत्र ने अपने तईं ऐसी व्यवस्था कर दी है कि हम सबने अपनी सुविधानुसार, अपने घरों, मोहल्लों के अलावा सार्वजनिक इस्तेमाल के स्पेसेस में भी उन अँधेरे कोनों ‘डंपिंग ग्राउंड’ तैयार कर लिए हैं। जहाँ हम बहुत आसानी से बेमोल चीजों को फेंक कर आ सकते हैं।
ऐसे में गायब हो गए विदो बाबू को कैसे ढूंढे नागो, गो कि उसे फरियाद करनी है और फरियाद करने का माद्दा तो सिर्फ उस साहसी बूढ़े के पास था। यही सच है आज का— देखिये न यह जादुई विकास का कैसा अद्भुत खेल है कि हमने अपने एक्टिविस्टों, समाज सुधारकों, को ही अँधेरे कोने में डाल दिया है।
उमा शंकर चौधरी अपनी कथा के पात्रों से जो शोकगीत गवाते हैं वह समय, समाज और तंत्र की दुखद मृत्यु की सम्भावना के पहले ही गाया जाना शुरू हो चुका है।
अब हमारे रोने की बारी है।
अपने इस बेहद महत्पूर्ण उपन्यास के साथ उमा शंकर चौधरी ने उपन्यास की दुनिया में शानदार आगाज किया है। यह महज गल्प नहीं— बिहार की आंचलिक पृष्ठभूमि पर रचा गया 21वीं सदी का कडुआ सच है जिसकी अनुगूंज न सिर्फ बिहार में बल्कि भारत के सभी अंचलों में मिल जायेगी। इसे पढ़े जाने की बहुत जरूरत है।
अंधेरा कोना : उमा शंकर चौधरी [उपन्यास], मू. 350, आधार प्रकाशन, पंचकुला। आप पुस्तक अमेज़न से ऑनलाइन किताब मँगवा सकते हैं।
वन्दना राग : वंदना मूलत: बिहार के सीवान जिले से हैं। जन्म इन्दौर मध्य प्रदेश में हुआ और पिता की स्थानान्तरण वाली नौकरी की वजह से भारत के विभिन्न शहरों में स्कूली शिक्षा पाई। 1990 में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया। पहली कहानी हंस में 1999 में छपी और फिर निरंतर लिखने और छपने का सिलसिला चल पड़ा। तब से कहानियों की चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं— यूटोपिया, हिजरत से पहले, खयालनामा अरु मैं और मेरी कहानियां। इसके अलावा अनेक अनुवाद कर चुकी है जिनमें प्रख्यात इतिहासकार ई.जे. हॉब्सबाम की किताब एज ऑफ़ कैपिटल का अनुवाद पूँजी का युग शीर्षक से किया है। यदा-कदा अख़बारों में सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लिखती रहती हैं। बिसात पर जुगनू इनका पहला उपन्यास है। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— tarun.bhatnagar1996@gmail.com