अतिक्रमण से उत्पन्न समय-सत्यों का अन्वेषण

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राकेश बिहारी

इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथा।  वाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते॥

(इस संसार में शिष्टों अर्थात शब्दशास्त्रियों द्वारा अनुशासित शब्दों एवं उनसे भिन्न अननुशासित शब्दों की सहायता से ही सर्वथा लोक व्यवहार चलता है।) —आचार्य दण्डी

उदारीकरण और भूमंडलीकरण के नाम पर नब्बे के दशक में जिन संरचनात्मक समायोजन वाले आर्थिक बदलावों की शुरुआत हुई थी, उसका स्पष्ट और मुखर प्रभाव आज जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। अधुनातन सुविधाओं और अभूतपूर्व चुनौतियों की अभिसंधि पर खड़ा यह कालखंड हिन्दी कहानी में एक नई कथा-पीढ़ी, जिसे संपादकों-आलोचकों ने बहुधा ‘युवा पीढ़ी’ के नाम से पुकारा है, के आने और स्थापित हो जाने का भी गवाह है। चूंकि युवा शब्द अंतत: एक खास उम्र का ही द्योतक होता है और अब यह कथा-पीढ़ी एक महत्वपूर्ण आकार भी ग्रहण कर चुकी है, यह जरूरी हो गया है कि इसे एक ऐसा नाम दिया जाय जो उम्र और वय की परिसीमा से बाहर, इस कालावधि की विशिष्टताओं को भी अभिव्यंजित करे।  भूमंडलीकरण जो एक राजनैतिक-आर्थिक एजेंडे के रूप में चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा रहा है, की शुरुआत के बाद की कालावधि को अभिव्यक्त करने के लिये ही मैने अपनी किताब ‘केंद्र मे कहानी’ में ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द का प्रयोग किया है।

‘भूमंडलोत्तर’ शब्द अबतक किसी शब्दकोष का हिस्सा नहीं है, लिहाजा इस शब्द के प्रयोग पर आपत्तियाँ होनी ही थी। ऐसा नहीं है कि इसे गढ़ते हुये मैं किसी मुगालते या खुशफहमी में था कि इस पर होनेवाली संभावित आपत्तियों के बारे में सोचा ही नहीं। सच तो यह है कि इस संदर्भ में कई मित्रों और वरिष्ठों से लंबी अनौपचारिक बातचीत में ‘भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद’ की कालावधि को अभिव्यक्त करने के लिए कोई एक शब्द या पद न मिलने पर ही अपनी उन आशंकाओं के साथ मैंने ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द प्रस्तावित किया था। जिन लोगों ने मेरी वह किताब पढ़ी है, उनकी नज़र मेरी उन आशंकाओं पर भी गई होगी। इस मुद्दे पर एक रचनात्मक बहस की शुरुआत कथालोचक और मेरे प्रिय मित्र संजीव कुमार ने परिकथा के जनवरी-फरवरी 2014 अंक में की थी। वे ‘उत्तर-छायावाद’ और ‘छायावादोत्तर’ शब्द का उदाहरण देते हुये ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द के प्रयोग में और सावधानी बरतने की बात करते हैं। अपनी आपत्तियों के बावजूद संजीव कुमार नए शब्दों की गढ़ंत में शुद्धतावाद किस हद तक बरता जाये को लेकर खुद को संभ्रम की स्थिति में पाते हैं और ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द के प्रयोज्य अर्थ पर सर्वानुमति की संभावनाओं की बात भी करते हैं। खुद को संभ्रम की स्थिति में कहने की उनकी विनम्रता को मैं नए शब्द के निर्माण और उसकी अर्थ-स्वीकृति की प्रक्रिया के संदर्भ मे उनका बौद्धिक और रचनात्मक खुलापन मानता हूँ।

उसी दौरान हमारे अग्रज कथाकार और ‘भूमंडलीय यथार्थ’ के विचारक रमेश उपाध्याय जी ने भी फेसबुक पर इस शब्द के प्रयोग को लेकर अपनी आपत्ति जताई थी। संजीव कुमार की तरह किसी  नए शब्द के गढ़ंत को लेकर एक रचनात्मक बहस करने की बजाय तथाकथित जिज्ञासा की चाशनी में लपेटकर इसका लगभग उपहास करते हुये वे कहते हैं—‘यह ‘भूमंडलोत्तर’ क्या है? यह किस भाषा का शब्द है? अगर हिन्दी का है, तो कोई हमें बताए कि यह शब्द कैसे बना और इसका अर्थ क्या है!’

‘भूमंडलोत्तर’ शब्द के प्रयोग पर संजीव जी की तार्किक आपत्तियों तथा उनके बौद्धिक व रचनात्मक खुलेपन और रमेश उपाध्याय जी की उपहासपरक जिज्ञासाओं के बीच यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि शब्द हमेशा व्याकरण की कोख से ही पैदा नहीं होते। यह भी जरूरी नहीं कि नए शब्द हर बार कहीं से कोई पूर्वस्वीकृत अर्थ धारण करके ही प्रकट हों। बल्कि सच तो यह है कि नए शब्दों पर एक खास तरह के अर्थ का स्वीकृतिबोध आरोपित करके उन्हें दैनंदिनी का हिस्सा बना लिया जाता है। चूंकि शब्दों का सिर्फ अर्थ संदर्भ ही नहीं उनका एक काल और भाव संदर्भ भी होता है, मैं शब्द निर्माण की प्रक्रिया को किसी तयशुदा खांचे या शुद्धतावाद के चश्मे से देखने का आग्रही भी नहीं हूँ।

जहां तक ‘भूमंडलोत्तर’ शब्द का प्रश्न है, इसको लेकर की जाने वाली आपत्तियों के दो मुख्य कारण हैं— एक भूमंडल शब्द में भूमंडलीकरण के उत्तरार्ध ‘करण’ के भाव-लोप का, तथा दूसरा— अँग्रेजी के ‘पोस्ट’ का हिंदी अनुवाद ‘उत्तर’ के प्रचलित अर्थ ‘के बाद’ के हवाले से भूमंडलीकरण के दौर के समाप्त न होने के भावबोध का। ‘आधुनिकोत्तर’, ‘उत्तर आधुनिक’, ‘छायावादोत्तर’ या ‘उत्तर छायावाद’ जैसे शब्दों/पदों  के उदाहरण इन्हीं संदर्भों में दिये जाते हैं। नए शब्द, पद या शब्द-युग्म के निर्माण की प्रक्रिया पर बात करते हुये इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि शब्दों की संधि के क्रम में किसी पद का विलोप कोई नई बात नहीं है। इस तरह के पद-विलोपों को स्वीकार कर न जाने कितने शब्दों को उनके प्रयोज्य अर्थ के साथ स्वीकृति मिलती रही है। यहाँ ‘स्वातंत्रयोत्तर’ शब्द का संदर्भ लिया जाना चाहिए जिसका प्रयोग ‘स्वतन्त्रता के बाद’ नहीं, ‘स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद’ के समय का अर्थ संप्रेषित करने के लिए किया जाता है। कहने की जरूरत नहीं कि `स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद’ के अर्थ में स्वातंत्रयोत्तर शब्द की स्वीकार्यता भाषा या व्याकरण के बने-बनाए नियमों से नहीं बल्कि आम बोलचाल में उसके प्रयोज्य अर्थ के स्वीकृतिबोध से मिली है। इसलिए यदि स्वातंत्रयोत्तर का अर्थ स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का समय हो सकता है तो भूमंडलोत्तर का अर्थ भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद का कालखंड क्यों नहीं हो सकता? ‘भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद’ की कालावधि को अभिव्यक्त करने के लिए एक निश्चित शब्द खोजते हुये मेरे जेहन में ‘भूमंडलीकरणोत्तर’ भी आया था लेकिन उसके रुखड़ेपन के मुक़ाबले ‘भूमंडलोत्तर’ की संक्षिप्तता और लयात्मकता मुझे ज्यादा पसंद आई और ‘स्वातंत्रयोत्तर’ के उदाहरण तथा इस आलेख के आरंभ में उद्धृत आचार्य दण्डी के सूत्र ने मुझे इसका प्रयोग करने के लिए जरूरी आत्मविश्वास भी दिया।

किसी नए शब्द के उसके प्रयोज्य अर्थ के साथ स्वीकारने में होने वाली दिक्कतों का एक कारण यह भी है कि हम अपनी भाषा में नया शब्द गढ़ने की जरूरत पर ध्यान देने से ज्यादा अँग्रेजी शब्दों के सीधे-सीधे शाब्दिक अनुवाद खोजने में उलझ जाते हैं। ‘पोस्ट ग्लोबलाइज़ेशन’ का शाब्दिक अनुवाद ‘भूमंडलीकरण के बाद’ होगा, इससे किसको इंकार हो सकता है, लेकिन भूमंडलीकरण के बाद के समय के लिए एक शब्द, पद या शब्द-युग्म की खोज करते हुये उसके प्रयोज्य अर्थबोध पर सामान्य सहमति की बात करना शाब्दिक अनुवाद की यांत्रिक प्रक्रिया से कहीं आगे की बात है, जिसे किसी लीक विशेष से बंध कर चलने वाली ठस वृत्ति से नहीं समझा जा सकता। मतलब यह कि नए शब्दों की गढ़ंत पर बात करते हुये हमें अपनी संवेदना-चक्षुओं पर लगे आचार-संहिताओं के तालों के भार से मुक्त होकर खुले मन से विचार करना होगा।

हिन्दी व्याकरण में ‘योगरूढ़ि’ को परिभाषित करते हुये शब्दों का अपना मूल अर्थ छोड़कर विशेष अर्थ धारण कर लेने की बात भी बताई जाती है। आज ‘भूमंडलीकरण’, ‘बाजारीकरण’, ‘उदारीकरण’ जैसे शब्दों को उनके मूल अर्थ संदर्भों तक सीमित कर के देखा जाना कितना हास्यास्पद या अर्थहीन हो सकता है, अलग से बताने की जरूरत नहीं है। एक अर्थ में `वसुधैव कुटुंबकम, और कार्ल मार्क्स की उक्ति ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के पीछे भी एक तरह के भूमंडलीकरण की अवधारणा ही है। लेकिन आज ‘भूमंडलीकरण’ शब्द से सिर्फ और सिर्फ नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत एक ऐसे आर्थिक परिवेश के निर्माण की प्रक्रिया का बोध होता है जहां पूंजी बेरोक टोक आ-जा सके। और तो और, ‘भूमंडलीकरण’, ‘वैश्वीकरण’, ‘बाजारीकरण’ आदि के समानार्थी प्रयोगों को भी किसी शुद्धतावाद के चश्मे से देखने या शब्दकोष  में उसकी पूर्व उपस्थिति के मानकों से जाँचने-परखने की कोशिश करें तो हमारे हाथ कुछ नहीं लगेगा। ठीक इसी तरह यदि ‘साठोत्तरी’ शब्द के शाब्दिक अर्थ पर जाएँ तो मेरा कोई सहकर्मी जिसका हिन्दी कहानी के इतिहास से कोई रिश्ता नहीं, मुझे और खुद को उसी पीढ़ी में शामिल मान लेगा। लेकिन ‘साठोत्तरी’ शब्द के भाव और इतिहास-संदर्भों को देखते हुये यह कितना हास्यास्पद हो सकता है, सब समझते हैं। इसी क्रम में रमेश उपाध्याय जी द्वारा बहुप्रयुक्त पद ‘भूमंडलीय यथार्थ’ या फिर पंकज राग की कविता ‘यह भूमण्डल की रात है’ के ठीक-ठीक भाव को पकड़ने के लिए हम शब्दकोष में दिये गए भूमंडल शब्द के अर्थ का मुखापेक्षी भी नहीं हो सकते। मतलब यह कि शब्द जीवन में स्वीकृत होने के बाद ही शब्दकोष में स्थान पाते हैं। इसलिए किसी नए शब्द के प्रयोग पर चौंकने या उसका उपहास करने के बजाय  उसके अर्थबोध की स्वीकृति की संभावनाओं पर भी एक रचनात्मक बहस की जरूरत है।

‘भूमंडलोत्तर’ शब्द के प्रयोग पर अपना पक्ष रखते हुये मैं व्यापक हिन्दी समाज से इस शब्द को इसके प्रयोज्य अर्थसंदर्भों, जिसमें निश्चय ही काल और भाव का संदर्भ भी जुड़ा हुआ है, के साथ स्वीकार करने की संभावनाओं पर विचार करने की अपील भी करता हूँ।

भूमंडलीकरण की शुरुआत के बाद का समय, जिसे मैंने भूमंडलोत्तर समय कहा है, को पिछले समय से अलग करने में तकनीकी और सूचना क्रान्ति की बड़ी भूमिका है। भूमंडलोत्तर समय को जिस तरह सूचना क्रान्ति से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है, उसी तरह उसके पहले के समय को समझने के लिए औद्योगिक क्रान्ति की चर्चा जरूरी है। अट्ठारहवीं सदी में स्टीम इंजन के आविष्कार के साथ जिस औद्योगिक क्रान्ति की शुरुआत मानी जाती है, तब से आजतक पूरी दुनिया में पूंजी का निर्माण बहुत तेज़ गति से हुआ है और लोगों का जीवन स्तर भी दिनानुदिन बेहतर हुआ है। लेकिन, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि औद्योगिक क्रांति अकेली नहीं आई थी, उसके साथ एक सामाजिक क्रान्ति भी कदमताल कर रही थी। बेरोजगारी और श्रम की कम कीमत की आशंका ने तब श्रम आंदोलनों को जन्म दिया था। लेकिन विनिवेशीकरण और निजीकरण के तीव्रगामी और सुनियोजित सत्ता-अनुष्ठानों के बावजूद आज श्रम आन्दोलन की संभावनाएं बहुत क्षीण हो गई हैं। गति, संकुचन और फ्यूजन इस समय के ऐसे अनिवार्य लक्षण हैं, जो लगभग मूल्य की तरह स्वीकार कर लिए गए हैं। ज्ञान का सूचना में, रचनात्मकता का उत्पादन में, उपलब्धि का जीत में, प्रगति का गति में, वस्तु का उत्पाद में, व्यक्ति का उपभोक्ता में और सम्बन्धों का संभावित ग्राहक में रिड्यूस हो जाना भी इस समय की बड़ी विशेषताएँ हैं। ज्ञान और संवेदना कभी एक दूसरे का संवर्द्धन करते थे, पर आज सूचना और संवेदना जैसे परस्पर विपरीतधर्मी हो गए हैं। सूचना और संवेदनात्मक सूचना के बीच फर्क करने की सलाहियत जिस तरह खत्म हो रही है, आज उसके कारण सूचना और अफवाह तथा फैक्ट्स और फिक्शन के बीच की दूरियाँ लगातार कम होती जा रही हैं।       

अपनी भयावहता और खूबसूरती दोनों ही अर्थों में अभूतपूर्व होने के कारण पिछले दो दशकों के बीच फैले समय का भूगोल खासा जटिल है। बाज़ारवादी शक्तियों का नवोत्कर्ष और हमेशा से हाशिये पर जीने को मजबूर समाज और समूहों का अस्मिताबोध दोनों ही इस समय की विशेषताएँ हैं। उदारीकरण की शुरुआत के पहले तक का समय जहां एक खास तरह के मूल्यों और मानदंडों की स्थापना का समय था वहीं उसके बाद का कालखंड उन मूल्यों और मान्यताओं के अतिक्रमण और विखंडन का काल है। लेकिन स्थापना के विरुद्ध अतिक्रमण के इस दौर को सबकुछ लुट जाने या तहस-नहस हो जाने के सतही, सरलीकृत और एकरैखिक टिप्पणियों से नहीं समझा जा सकता। नए दौर के इस विखंडन और अतिक्रमण में बहुत तरह की पुनर्संरचनाओं के बीज भी छिपे हैं। ‘जेंडर’ और जाति की रूढ़ियों का प्रतिरोध, समलैंगिकों और तृतीय प्रकृति के लोगों के संघर्ष, पर्यावरण की चिंता आदि इसी की कड़ियाँ हैं। इन चिंताओं का एक पहलू विस्थापन और विस्मृति के द्वन्द्वों के बीच स्मृति और स्थानीयता के संरक्षण के बहाने लोक को नए सिरे से सहेजने से भी जुड़ता है।  अतिक्रमण और पुनर्संरचना के इन्हीं द्वन्द्वों से टकराकर आलोचना के नए टूल्स विकसित होंगे। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि तेज़ रफ्तार चलते समय के इन विविधवर्णी और बहुपरतीय यथार्थों और उसकी विडंबनाओं को भूमंडलोत्तर कहानी जिस तरह दर्ज कर रही है, उससे हिन्दी कहानी की परंपरा समृद्ध हुई है। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो, कहानी में मौजूद बदलते समय की इस धमक को आलोचना ठीक-ठीक पकड़ने मे सफल रही है यह उसी आश्वस्ति के साथ नहीं कहा जा सकता। अबतक के स्थापित मूल्यों-मानदंडों के आधार पर इतिहास की किसी कहानी को ही सर्वश्रेष्ठता का आखिरी पैमाना मानकर की जानेवाली कथालोचना जो कई बार नई सदी की कहानियों से प्रतिबद्धता, विचारधारा और वैचारिकता के खत्म होने और कहानियों के लड़खड़ा जाने की घोषणा करती है, से मैं सहमत नहीं हो पाता और चाहता हूँ कि आज की कहानियों को भूमंडलोत्तर समय की इन चारित्रिक विशेषताओं के आलोक में पढ़ा जाये। सहमति-असहमति और प्रशंसा-निंदा की सुविधाजनक और सरलीकृत बाइनरी से बाहर आकर कहानियों के अंतर्लोक में प्रवेश कर जबतक उनकी सामर्थ्य और सीमा का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण नहीं किया जाता, हम   आलोचना के संकट को रचना का संकट मानते हुये एक छद्म शोकाकुल चिंता का शिकार होते रहेंगे। इसका मतलब यह भी नहीं कि आज की कहानियों की कोई सीमा  नहीं है। सूचना का दबाव, फैक्ट्स और फिक्शन के बीच की कम होती दूरियाँ और अंतर्द्वंद्वों से मुक्त हो रहे पात्रों की उपस्थिति भूमंडलोत्तर कहानी की बड़ी चुनौतियाँ हैं। यह सच है कि सत्ता जनसामान्य के भीतर स्थित ज्ञानात्मक अंतर्द्वंद्वों को  भावनात्मक अंतर्द्वंद्वों में बदलने का नियोजित प्रयास करती है और इस तरह शनैः-शनैः एकपक्षीय भावनात्मकता का एक ऐसा सैलाब निर्मित होता है जिसमें अंतर्द्वंद्व के सारे अवशेष बह जाते हैं। गांधी बनाम अंबेडकर या नेहरू बनाम पटेल की जो भावनात्मक बाइनरी आज खड़ी की जा रही है वह इसी का उदाहरण है। आज की कहानियों में अंतर्द्वंद्व के क्षणों के खत्म याकि कम होते जाने का कारण वर्तमान समय का यह यथार्थ भी हो सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि सत्ता जनमानस को अंतर्द्वंद्व से मुक्त करने की लाख कोशिश करे, कहानियों में इसकी जगह खत्म नहीं होनी चाहिए।   

कहानी के संदर्भ में वस्तु बनाम रूप की बहस भी बहुत पुरानी है। कुछ कथालोचक जहां वस्तु को अहमियत देते हैं तो कुछ शिल्प-संरचना या रूप को। मैं खुद को उस अवधारणा के करीब पाता हूँ जो ‘गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न’ की तरह वस्तु और रूप को अलग करके नहीं देखती, उन्हें एक ही मानती है। कहानी कला का सर्वोत्तम स्वरूप वस्तु और शिल्प के एक हो जाने की रचनात्मक उपलब्धि है। पिछले बीस-पच्चीस वर्षों की अवधि में लिखी गई कई महत्वपूर्ण कहानियाँ जिनमें से कुछ पर इस पुस्तक में भी विचार किया गया है, की शिल्प-संरचना को भूमंडलोत्तर यथार्थ ने जिस तरह प्रभावित किया है, उसे देखते हुये वस्तु और रूप के अभिन्न होने की अवधारणा को सहज ही समझा जा सकता है।

यह पुस्तक मेरे द्वारा चयनित तेईस महत्वपूर्ण भूमंडलोत्तर कहानियों को केंद्र में रख कर लिखे गए स्वतंत्र आलेखों का संग्रह है, जो प्रतिष्ठित ई-पत्रिका समालोचन पर एक लेखमाला के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। निश्चित तौर पर इस चयन का आधार भूमंडलोत्तर समय की वही विशेषताएँ रही हैं, जिनका उल्लेख मैंने ऊपर किया है। तरतीब देने के लिए इन आलेखों को इनकी संदर्भित कहानियों के प्रकाशन समय के क्रम में लगाया गया है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी मुझे जरूरी लगता है कि किसी कथाकार की एक कहानी से उसके पूरे कथा-व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं हो सकता न ही यह इस आयोजन का उद्देश्य है। इसे इन लेखकों के सर्वश्रेष्ठ की तरह भी नहीं पढ़ा जाना चाहिए। कारण कि इस आयोजन का उद्देश्य कथाकारों का मूल्यांकन नहीं बल्कि इन कहानियों के बहाने अपने समय की समीक्षा करना है। इस उद्देश्य में मैं कितना सफल हो पाया हूँ इसका निर्णय तो आप पाठकों को ही करना है, पर मेरे इस लघु प्रयास में आपको यदि इन कहानियों के आलोक में भूमंडलोत्तर समय को समझने के लिए कुछ सूत्र भी मिल जाएँ तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।

पिछले पच्चीस वर्षों की कालावधि में बहुत सारी महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी गई हैं, जाहिर है इस तरह के किसी प्रकल्प में उन सारी कहानियों को शामिल नहीं किया जा सकता। सच तो यह है कि ऐसे आयोजनों में छूटने वालों की संख्या शामिल होने वालों से हमेशा ज्यादा होती है। संयोग से ज्यादा यह मेरे पढ़त की सीमा ही है कि दो-एक अपवादों कों छोड़कर इस पुस्तक में जिन कथाकारों की कहानियों पर बात हुई है, वे सामान्यतया 2010 तक अपनी कथा यात्रा शुरू कर चुके थे। पिछले लगभग दस वर्षों के बीच कथाकारों की एक नई पौध बहुत तेजी से अपना आकार ग्रहण कर रही है, जिनका मूल्यांकन अभी होना है। उम्मीद करता हूँ कि समकालीन कथालोचना के अन्य सहचर मेरे इस लघु प्रयास को और विस्तार देंगे ताकि भूमंडलोत्तर कहानी और समय के मूल्यांकन का फ़लक और विस्तृत हो सके।      


भूमंडलोत्तर कहानी : राकेश बिहारी [कथालोचना], मू. 350, आधार प्रकाशन, पंचकुला। आप पुस्तक अमेज़न से ऑनलाइन किताब मँगवा सकते हैं।


राकेश बिहारी : कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय। प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह), केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी  (कथालोचना)। सम्पादन :  स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन),
‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित ‘अर्य संदेश’ का विशेषांक, ‘अकार-41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर
केन्द्रित), ‘रचना समय’ का  कहानी विशेषांक। वर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान से सम्मानित। लेखक से आप इस ईमेल brakesh1110@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।


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