इश्राकुल इस्लाम माहिर
मण्टो ने कहा है कि “ज़माने के जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं अगर आप उससे वाकिफ नहीं तो मेरे अफसाने पढ़िये और अगर आप उन अफसानों को बरदाश्त नहीं कर सकते इसका मतलब है कि ज़माना नाकाबिले–बरदाश्त है।”
साहिर लुधियानवी का मशहूर शे’र है– दुनिया ने तज्रिबातो–हवादिस की शक्ल में / जो कुछ मुझे दिया है वह लौटा रहा हूँ मैं
साहिर के शे’र पर मण्टो का असर है कि नहीं, आप तै करें। मुझे मण्टो की बात पर नक्काद शीन काफ़ निज़ाम का यह जुम्ला याद आया कि “अदब आईना है… दिखाने से ज़्यादा देखने के लिये’ मण्टो ने अपनी बात अपने अफसानों के मुतअल्लिक कही है, साहिर का शे’र उसकी शाइरी से निस्बत रखता है और शीन काफ निज़ाम का कौल पूरे अदब के लिये है तो आइये अफसानवी अदब में से मण्टो के अफसाने मोज़ेल को आईना करते हैं।
मण्टो को पसन्द करने की अनगिनत वज्हें हैं, पहली यह कि मण्टो मज़्हब के बजाए इन्सान और अख्लाक की जगह अक्दार (मूल्यों) को मर्कज़ी हैसियत देता है। उसके अफसानों से लगता है कि दुनिया और ज़िन्दगी का मुशाहिदा करते वक्त मण्टो की आँखों से नज़रें नहीं एक्स–रेज़ निकलती थीं। वह रौशनाई नहीं तेज़ाब से लिखता था। आप कहेंगे कि वह लिखता कब था, वह तो टाइप करता था, तो उसके टाइप राइटर में जो सियाही थी वह समाज के मुँह से उतारी हुई कालिख थी ताकि वह समाज को उसका असली चेहरा दिखा सके। मण्टो को पसन्द करने की दूसरी वज्ह यह है कि मण्टो मज़्हबी तफ़र्रूक़ का तो कतई रवादार था ही नहीं, तख्लीकी सत्ह पर मर्द और औरत की तफरीक का भी काइल नहीं था। इस का अन्दाज़ा मण्टो के उस जुम्ले से होता है जो उस ने इस्मत चुग्ताई के अफसाने “लिहाफ’ के आखरी जुम्ले पर रद्दे–अमल के तौर पर कहा था “कमबख्त तू भी औरत निकली” । मण्टो को पसन्द करने की तीसरी वज्ह यह है कि वह तख्लीकी सत्ह पर इन्सानी ज़िन्दगी के हालातो–मुआम्लात पर साथ ही इन्सानों के जज़्बात, नफ्सियात और अहसासात को अपने अन्दर समोए हुए था। न सिर्फ समाज के हर आदमी का किरदार अपनी अस्लियत के साथ उसके अफसानों में मौजूद है।
यही वज्ह है कि मर्द अफसाना निगार होने के बावजूद मण्टो के निस्वानी किरदार (स्त्री–चरित्र) इस्मत चुग्ताई के निस्वानी किरदारों के मुकाबले ज़्यादा फितरी हैं और तेज़ी से तरसील होते हैं। इस्मत मण्टो की करीब-तरीन अफसाना निगार हैं, इसलिये अक्सर तकाबुल की ज़द में आ जाती हैं। इस्मत की बगावत समाज, ज़मी्रदाराना निज़ाम और मौल्वियत से है। मण्टो का अहतजाज मज़्हब, मज़्हब और मज़्हब से है। मण्टों ने चीज़ों को वैसा ही दिखाया है जैसा उसने उन्हें पाया। उसने हुब्बुल–वतनी या नारा–ओ–नसीहत का सहारा लिये बगैर तक्सीम की ट्रेजडी को एक ऐसे तमाशे की तरह पेश किया कि इन्सान को अपने इन्सान होने पर निहायत सन्जीदगी से सोचना पड़े। इस तरह मण्टो ने न सिर्फ ज़िन्दगी की कद्रों की तरफ ध्यान दिलाया बल्कि अदबी अक्दार का तहफ्फुज़ भी किया।
पिकासो ने कहा है कि “फन ऐसा झूट है जो हमें सच का सामना कराता है।” मण्टो का फन भी ऐसा ही है। अब सवाल यह है कि मण्टो के इतने अफसानों में से यहाँ मोज़ेल ही को क्यों चुना गया। इसका पहला जवाब तो यह है कि मण्टो को पसन्द करने की जितनी वज्हें बताई गई हैं, मोज़ेल उनका इहाता करता है। दूसरा यह कि उर्दू फिक्शन में दानिश्वराना सत्ह पर निस्वानी किरदारों की कमी है। मोज़ेल इस कमी को एक हद तक पूरा करता है। तीसरी वज्ह यह कि उर्दू की मुश्तरका तहज़ीब में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई तो मिलते ही रहे हैं लेकिन मोज़ेल पहला ऐसा यहूदी किरदार है जो उर्दू के कारी तक पहुँचा है। मण्टो ने इस यहूदी को इस कदर अहम और मर्कज़ी किरदार में पेश कर के इस इश्तिराक को और वुस्अत दी है। एक आखिरी वज्ह जिसने इस किरदार की तरफ बहुत तेज़ी से खींचा, वह है मोज़ेल का अण्डरवियर और शादी से ले कर कर्फ़्यू तक की किसी भी बंदिश को तस्लीम न करना। वह रूह की तरह आज़ाद रहना चाहती है, फितरी मिज़ाज को तरजीह देती है और जो यह मानती है कि मज़हब के बगैर भी इन्सान सच्चा, ईमानदार और वफादार हो सकता है। इस सिल्सिले में”आमद’ के मुदीर खुर्शद अकबर के दो जुम्ले देखिये– “अदब अपना मकसूद आप है और इसके फितरी तकाज़े मज़हबी इदारों से अलग हैं’ और “अदब का मक्सदे–निजात, इसकी आज़ादी और खुदमुख्तारी में पोशीदा है’ ।
यहाँ यह अर्ज़ करना मक्सूद है कि मोज़ेल कोई अदीब नहीं है, मगर वह अदब मिज़ाज है, इसलिये मोज़ेल में मुझे मण्टों का अक्स नज़र आता है। वह अपने खिलण्डरेपन में अपनी जज़्बातियत छुपा ले जाती है। वह त्रिलोचन से मुहब्बत करती है और अपने इस महबूब की माशूक के लिये अपनी जान लड़ा देती है। त्रिलोचन से बार–बार किरपाल कौर का नाम पूछने के बाद भी कभी वह अपनी ज़बान से उसका नाम अदा नहीं कर पाती, जो इस बात का इशारा हो सकता है कि वह त्रिलोचन से बेइन्तिहा मुहब्बत करती है। जगह-जगह मोज़ेल मण्टो की याद दिलाती है। जब इस्मत पहली बार मण्टो के घर आती है तो अपनी बीवी सफिया की गैर मौजूदगी में सफिया की तारीफ करता है तो इस्मत ताना मारती है–”बहुत मुहब्बत है उससे’। तो मण्टो तकरीबन चीख कर जवाब देता है–”मुझे उससे कोई मुहब्बत नहीं है’। मोज़ेल भी अक्सर त्रिलोचन से मुहब्बत करने के बावजूद उस पर यही ज़ाहिर करती है कि वह उससे मुहब्बत नहीं करती। एक मरतबा शादी का वादा करके देवलाली चली जाती है, इस अमल से ऐसा लगता है कि वह त्रिलोचन से मुहब्बत करते रहना चाहती है। उसकी दाढ़ी और केश कटवा कर उसे मज़हबी इन्सान से बस इन्सान बना हुवा देखना चाहती है और त्रिलोचन के सिर्फ बाल कटवाने के लिये शादी को रज़ामन्द हो जाती है क्यूँ कि उसका बुनियादी मिज़ाज तो यह है कि वह किसी बन्धन में बन्धना नहीं चाहती। वह अक्सर त्रिलोचन के मज़हबी और गबी होने का मज़ाक उड़ाती है और जब कभी त्रिलोचन उसे अण्डरवियर पहनने की हिदायत या मश्वरा देता है तो चिढ़ जाती है और कहती है—“कौन सा लिबास है जिसमें आदमी नंगा नहीं हो सकता… मुझे मालूम है कि तुम पतलून के नीचे एक सिल्ली-सा अण्डरवियर पहने हुए हो… यह भी तुम्हारी दाढ़ी और सर के बालों की तरह तुम्हारे मज़हब में शामिल है… शर्म आनी चाहिये तुम्हें… इतने बड़े हो गए हो और अभी तक यह समझते हो कि तुम्हारा मज़हब अण्डरवियर में छुपा बैठा है।
लिबासे–पारसाई से शराफत आ नहीं सकती
शराफत गर नफस में है तो इन्साँ पारसा होगा (नामालूम)
यही वज्ह है कि मोज़ेल बार–बार त्रिलोचन को दाढ़ी वगैरह कटवाने का कहती रहती है।
कहानी मोज़ेल में मण्टो और मोज़ेल की बाहम हम-मिज़ाजी के भी नुकूश मिलते हैं। याद कीजिये जब मोज़ेल और त्रिलोचन कर्फ़्यू में किरपाल कौर को लेने जा रहे हैं, रास्ते में एक शख्स शहवानी नज़रों से मोज़ेल की तरफ देखता है फिर आगे बढ़ के अपनी कुहनी से उसक छातियों में टहूका देता है तो त्रिलोचन बड़बड़ाता है—”कैसी ज़लील हरकत की… हरामज़ादे ने ‘मोज़ेल अपनी छातियों पर हाथ फेरते हुए कहती है—”कोई ज़लील हरकत नहीं… सब चलता है… आओ।’ यानी मोज़ेल चीज़ों को उनकी अस्लियत के साथ कबूल करती है और उसका एतराफ करती है। वह बद-किरदार भी नहीं है क्यूँकि जब वह शादी का वादा करके देवलाली चली जाती है तो त्रिलोचन उससे सख्त नाराज़गी के आलम में भी उसके किरदार के बारे में कोई गलत बात नहीं सोचता है।
अब याद कीजिये जब इस्मत चुगताई हामिला होती है और मण्टो किसी तज्रिबेकार दाई की तरह उसे अहतियात बरतने के जो मश्वरे देता है और जो–जो मज़ाक करता है वह मोज़ेल और मण्टो के साफ और मज़बूत फितरी किरदार में यगानगत का पता देते हैं। अफसाने मोज़ेल में एक मन्ज़र है कि नंगी मोज़ेल त्रिलोचन से मुखातिब है— “मैं दरवाज़ा खोल कर बाहर निकलती हूँ… तुम मेरे पीछे भागना… मैं ऊ पर चढ़ जाऊँगी, तुम भी ऊ पर चले आना… यह लोग दरवाज़ा तोड़ रहे हैं… सब भूल जाएँगे… और हमारे पीछे चले आएँगे।’ उसके बाद कमो-बेश यही हो रहा होता है, मगर मोज़ेल की खड़ाऊँ अटक जाती है, उसका पाँव फिसलता है, वह सीढियों से टकराती और लोहे के जंगले से उलझती हुई शदीद ज़ख्मी हालत में पथरीले फर्श पर गिरती है। यहाँ मण्टो ने क्या खूब लतीफ इशारा किया है। अफसाने में इस मुकाम पर मोज़ेल किरदार की हैसियत से बलन्दी की तरफ जा रही है और वाकिआत का रुख भी यही है कि वह भाग कर सीढियाँ चढ़ने को लपकती है, मगर खड़ाऊँ! खड़ाऊँ… आप को याद रखना पड़ेगा।
बम्बई के अडवानी चैंबर में सिर्फ यहूदी औरतें ही खड़ाऊँ और एक खास किस्म का चौगा पहनती हैं। यह दोनों चीज़ें यहूदी की पहचान हैं। चौगा उसने किरपाल कौर को पहना दिया और मज़हब की आखिरी निशानी ने उसे नीचे गिरा दिया क्यूंकि वह मानती थी कि— “कौन सा लिबास है जिसमें आदमी नंगा नहीं हो सकता…।’ इसलिये वह दुनिया के लिबास जैसे मज़हब और मज़हब जैसे लिबास को दुनिया ही में उतार जाती है… और वह लोग जो दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश कर रहे थे, उसके गिरते ही उसके इर्द–गिर्द जमा हो गए। किसी ने कुछ नहीं पूछा कि क्या हुवा है। सब खामोश थे और मोज़ेल के नंगे गोरे बदन को देख रहे थे। यहाँ एक बात तो यह है कि मोज़ेल भी मण्टो की तरह पुर–एतमाद तरीके से पहले ही से यह जानती थी कि जब वह दंग-धड़ंग बाहर निकलेगी तो वह लोग सब कुछ भूल जाएँगे, जब कि वह मज़हब के नाम पर जंग करने को निकले हुए हैं। वह लोग एक नंगी औरत को देखते ही अपना मज़हब और मज़हबी एजेण्डा दोनों भूल गए।
इस मन्ज़र और मौज़ूअ से मण्टो का शाहकार अफसाना “खोल दो’ याद आता है और “खोल दो’ से दिसम्बर, 2013 में दिल्ली में “दामिनी/निर्भया’ का रेप केस याद आता है… सकीना और दामिनी दोनों को उनके हम–मज़हब अपनी हवस का शिकार बनाते हैं। यह माना कि—”मज़्हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’, लेकिन मज़्हब जो सिखाता है वह क्या यह नाम–निहाद मज़्हबी लोग वाकई सीखते हैं, अगर ऐसा होता तो यह लोग एक नंगी औरत से अपना मुँह फेर लेते। इसके मुकाबले में त्रिलोचन के यहाँ फितरी शराफत के कुछ नमूने मिलते हैं, वह एक बार मोज़ेल और दूसरी बार किरपाल कौर को नंगा देख कर अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लेता है, लेकिन त्रिलोचन भी खुद को मज़्हबी समझता है, है नहीं, क्यूँकि उस पर मज़्हब से ज़्यादा औरत को हासिल करने का जज़्बा हावी है जिसे वह मुहब्बत का नाम देता है। अगर वह वाकई मज़्हबी होता तो किरपाल कौर के वालिदैन और भाई की मौत का तसव्वुर करके खुश नहीं होता। दूसरा यह कि एक बार खुद को मज़्हबी समझने वाला वही त्रिलोचन मोज़ेल से शादी करने के लिये अपनी दाढ़ी और बाल कटवा डालता है और दूसरी बार किरपाल कौर को हासिल करने के लिये अपने सर पर मज़हब की झूटी पगड़ी धरे रहता है, ताकि किरपाल कौर को यह न मालूम हो जाए कि उसके केश कटे हुए हैं। बुनियादी तौर पर डरपोक त्रिलोचन कर्फ़्यू के बावजूद मुस्लिम मुहल्ले में औरत को हासिल करने के जज़्बे की शिद्दत में पगड़ी उतारने से मना कर देता है। दूसरी तरफ बेलौस मोज़ेल के खड़ाऊँ की आवाज़ त्रिलोचन को कर्फ़्यू के सन्नाटे में खटकती है। जब कि उस वक्त मुस्लिम मुहल्ले में खतरा पगड़ी को ज़्यादा है।
त्रिलोचन और मोज़ेल के रिश्ते में मण्टो ने ज़बान का कमाल भी दिखाया है। हमारे यहाँ किसी मर्द का औरत से या किसी औरत का मर्द से खाने–पीने का मुहावरा किन मा’नों में इस्तेमाल होता है यह किसी से छुपा हुवा नहीं है। मण्टो लिखता है— “एक बात थी कि वह बहुत खुदसर थी, वह त्रिलोचन को खातिर में नहीं लाती थी। उससे खाती थी उससे पीती थी।’ यहाँ मण्टो ने उससे “खाती–पीती थी’ नहीं लिखा और दोनों मर्तबा “उससे’ का इस्तेमाल किया। “उससे खाती थी’ “उससे पीती थी’, ताकि दोनों के दरमियान नज़दीकी के बावजूद दूरी का अहसास बना रहे। इसीलिये आगे कहता है— “उसके साथ सिनेमा जाती, सारा सारा दिन उसके साथ जुहू पर नहाती, लेकिन जब बांहों और होंटों से कुछ अौर आगे बढ़ना चाहता तो उसे डाँट देती।
अफसाने में एक बात शायद आपको अखरी हो कि मोज़ेल किरपाल के वालिदैन को फ्लैट ही में छोड़ने पर आमादा है और त्रिलोचन से कहती है— “जहन्नुम में जाएँ वह… तुम उसे ले जाओ’, लेकिन मण्टो के अफसानों में अक्सर ऐसे मखफी किरदार होते हैं जो हमेशा पसमन्ज़र में रहते हैं और कारी को अपने तौर पर उनके मा’नी निकालने होते हैं। किरपाल कौर की माँ अन्धी और बाप मफलूज है। मेरी हकीर राय में यह चीज़ें इस तरफ इशारा करती हैं कि इस कस्मपुर्स के आलम में या ज़िन्दगी के बुहरान में जो अन्धी रिवायत और मफलूज माज़ी आप का साथ नहीं दे सकते, आपके साथ नहीं चल सकते और आपके रौशन मुस्तकबल की राह में रुकावट बनें तो उसे छोड़ देना बेहतर है चाहे वह आपको कितने ही अज़ीज़ हों और यहाँ आपको यह भी नहीं भूलना चाहिये कि किरपाल कौर के वालिदैन को साथ लेने का मुतालिबा और फिक्र त्रिलोचन करता है किरपाल कौर नहीं… एक बार भी नहीं।
आखिर में एक बात जो अफसाने में बहुत मामूली और सरसरी मालूम होती है। नंगी मोज़ेल के ज़ख्मी हालत में गिरने के बाद वह जब त्रिलोचन को किरपाल कौर को सम्भालने के लिये उसे इशारे मेंसमझाते हुए कहती है तो यह अल्फाज़ इस्तेमाल करती है— “जाओ देखो मेरा अण्डरवियर वहाँ है कि नहीं… मेरा मतलब है वह।’ वह गैर लोगों की मौजूदगी की वज्ह ही से सही मगर किरपाल कौर के लिये ‘अण्डरवियर’ लफ्ज़ इस्तेमाल करती है और अण्डरवियर जो त्रिलोचन के मज़हब का हिस्सा है, वह किरपाल कौर को अण्डरवियर कह कर उसे अपना मज़हब बता देती है। उसके लिये किसी के काम आना, किसी को बचाने के लिये खुद मर मिटना, मुहब्बत को बचाना ही इन्सान होना है।
खाक इस नुक्ते को समझेंगे मकासिद के गुलाम/जज़्ब हो जाने की हसरत का मुहब्बत नाम है (अहसान दानिश)
इसी लिये मरने से पहले वह त्रिलोचन की पगड़ी हटाती है और कहती है कि— “ले जाओ इसको… अपने इस मज़हब को’ और दूर कहीं सन्नाटा यह शे’र गुनगुनाता हुवाआस्मान की तरफ बढ़ रहा होता है—
मज़्हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे / तहज़ीब सलीके की इन्सान करीने के (फिराक गोरखपुरी)
मोज़ेल : सआदत हसन मंटो [कहानी-संग्रह], मू. 70 रुपये, वाग्देवी प्रकाशन, जयपुर। आप इसे वाग्देवी प्रकाशन से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.
इश्राकुल इस्लाम माहिर : 90वे के दशक से सक्रिय शाइर इश्राक़ुल इस्लाम माहिर राजस्थान से उर्दू के उन गिने-चुने साहित्यकारों में हैं जिन्होने गद्य-लेखन में भी चिन्तन एवं विचारशीलता का परिचय दिया है। साहित्य अकादमी (नई दिल्ली), टी.वी. चैनल्स और आकाशवाणी पर कविता-पाठ करते रहने वाले माहिर का देवनागरी में एक काव्य-संग्रह ‘रेत पे पानी लिखता हूँ’ (2014) प्रकाशित हो चुका है। लिप्यन्तरण (दीवाने-ग़ालिब एव किश्वर नाहीद की नज़्में) सम्पादन (सहरा मेँ भटकता चाँद-रम्ज़ी इटावी) कर चुके माहिर राजस्थान उर्दू अकादमी जयपुर के सदस्य भी रह चुके है।
Comments
Excellent
पाठक के सामने परत-दर-परत कहानी के मायने खोल कर रखने के लिए माहिर भाई को टनों मुबारकबाद ! लेकिन एक बात जरा खटकती है ! साहित्य में क्यों हम बनावटी ज़बान इस्तेमाल करते हैं ! वह ज़बान हम क्यों नहीं लिख सकते जो हम अपने घर में बोलते हैं !
माशाअल्लाह
तब्सरे में आपका मुतालेआ और हुनर दोनो बोलते हैं
क़ारी बंध जाता है
मुबारकबाद आपको