फाग-लोक के ईसुरी उपन्यास

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दया दीक्षित

अभी वे यह चौकडि़या कह ही रहे थे कि इतने में ही रेलवे लाइन की तरफ वाले टोले के कुछ लोग उनके पास आकर रुक गए! लंबे लंबे डग भरके आ रहे इन लोगों के शरीर पसीने से भीगे हुए थे! पिछौरा से मुख और गले का पसीना पोंछता व्यक्ति कहने लगा—

फगुवारे जू, हमाई दौर तौ लो तुम तक है, सो इतईं चले आए तुमाए नगीचें! रोक सकत हौ, तौ चलकें रोक लो हमाई बर्बादी!’’इससे आगे के शब्द उसकी सिसकियों के मध्य कहीं खो गए!

उनमें से दूसरा व्यक्ति बोला- महराज, हमोंरन की तौ कौनऊँ औकात नईंया, कछू कैबे की, तुमईं कछू कै हेरौ! स्यात् तुमाई सुन लें बे- सिरकारी आदमी।’ ईसुरी ने उनकी बातें सुनीं। उन्हें आत्मीयता से अपने घर के सामने वाली नीम के नीचे बैठाया। हरवाहे से कहा कि पता करे- इन लोगों के टोले में क्या हुआ।

लगभग एक घंटे के भीतर ईसुरी को वस्तुस्थिति का संज्ञान हो गया। वे आऐ हुए लोगों को साथ लेकर उस ओर पहुँचे जहाँ रेलवे लाइन बनाने के लिए भूमि न केवल चिन्हित की जा रही थी बल्कि उसी नाप जोख के बीच जमीन से डूंखरे, जड़ें और झकड़ा हटाया जा रहा था। इसी नाप जोख में वह भाग भी आ गया था, जिसमें चमरटोला बसा हुआ था बसावट क्या थी? नीम के घने पेड़ों के नीचे कुछ टपरा टपरियाँ बने हुए थे, रहवास की वस्तुएँ-खटियाँ, मिट्टी के घड़े़, नादें, चूल्हा लकडि़याँ, माटी के बर्तन फटे पुराने कपड़ा उन्ना, कथरी आदि नीम तले रखी हुई थीं, मानों उन टपरियों का यही आँगन हों। अब अगर इस भूमि की खुदाई होगी, तब तो इन घरों का नामोनिशान तक मिट जायेगा। ईसुरी कुछ देर तक सोचते रहे, फिर पटवारी से बोले— काए जू, जा रेलवे की लैन कऊँ और सें नईं निकर सकत का? अभी वे यह कह ही रहे थे कि उनकी दृष्टि उन महुआ के वृक्षों की ओर गई, जिन्हें तीन चार आदमी कुल्हाडि़यों से काट रहे थे, वे यह देखते ही अपने आपे में न रह सके, लगभग दौड़ते हुए उस ओर गये और व्यग्र स्वरों में आक्रोश के साथ कहने लगे— ‘‘काए खों काट रए इनें? अरे मूरख! जौ तो सोचौ के जेई पेड़े तुमाए गाढ़े समय में, टैम में काम आऊत, तुमाई जिंदगानी बचाउत! जब गोऊँ पिसिया सपनन खों हो जात, जब मौटो नाज लों नईं जुरत खैबे तब इनईं मऊअन खों चबा चबा के प्रान बचाउत अपने परवार के, औ इनईं पै ऐसी बेदर्दी से कुलरियाँ घालत तुमें सरम नईं आ रई तनकऊ!

इनपै लगे कुलरियाँ घालन, महुआ मानस पालन।

इनैं काटबौ नई चइयत तौ, काट देत जौ कालन।

ऐसे भूँख रुख के लानें, लगवा दये नँद लालन।

जे कर देत नई सी ईसुर, मरी मराई खालन।

अर्थात्— अरे भाई! इन पर कुल्हाडि़याँ चलाते हो, यह महुआ मानुस के पालनहार हैं। इन्हें नहीं काटना चाहिए था, यह काल को भी काट देते हैं। अर्थात् भूख से होने वाली मौत से बचाते हैं। यह वृक्ष भगवान (नंदलाल आदि) ने भूख से रक्षा के लिए उपजाए हैं यह मरणासन्न लोगों में भी प्राणों का संचार कर देते हैं। मृत शरीर को भी नवप्राण देते हैं)।

ईसुरी और उनकी ये पंक्तियाँ सुनकर महुआ के वृक्षों पर चलती कुल्हडि़याँ रुक गईं! जैसे उन्हें अपने अपराध का बोध हुआ हो! कुछ देर चारों ओर मौन पसरा रहा! ईसुरी तो जैसे किसी दूसरे लोक में ही पहुँच गए थे। उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे! समीप के महुआ, नीम,

जामुन के वृक्षों पर वे ऐसे हाथ फेर रहे थे, जैसे पेड़ न होकर आत्मीय बंधु बांधव हों!

उन वृक्षों को स्नेहसिक्त स्पर्श करते हुए वे कह उठे— अरे जे पेड़े नोंईं, जे तौ अपने संगी सगाती आयें! मताई बाप की गोदी की नाईं है इनकी छतुरछाया—

सीतल एइ नीम की छइयाँ, घामौ व्यापत नइयाँ।

धरती नौं जे छू-छू जावें, है लालौई डरइयाँ।

फिर करवौ आराम लौट कें, अपनों जी राखइयाँ।

ऐसौई हरौ बनौ रय ईसुर, हमरे जियत गुसइयाँ।

चौकडि़याँ कहते सुनते ईसुरी के साथ ही साथ वहाँ जितने लोग थे, वे ऐसे चुप, शांत हो गए थे, जैसे चित्र में चित्रित हों! एकदम चित्र लिखे से! इस शांति के बीच पटवारी की कफ से खरखराती सी आवाज सुनई पड़ी, वह ईसुरी से कह रहा था!

‘‘ईसुरी मराज, दद्दा मीठौ औ दाई भी मीठी, जौ नईं हो सकत एक संगै!

ईसुरी— पटवारी जू खुलकें काऔ? का कै रए?

पटवारी— जई, कै रेलबे लैन भी खुद जाबै, औ जौ टोला टम्मा, जे रुख पेड़ भी बने राँयें, सो ऐसौ नई हो सकत!

ईसुरी— कछू तो करनें परहै पटवारी जू!

पटवारी— मराज, हम तौ हुकम के गुलाम हैं! का कर सकत! पै हाँ अगर सांसऊ तुमें इन रुखन की लौलद्यया लगी हो तौ फिर एक काम करौ!

ईसुरी— का काम? तुम बताऔ तौ?

पटवारी- मराज, अगर तनक घूम कें लैन की जमीन नापी जाय तौ जा समुझ लो कै न फिर रुख पेड़न खों काटने परहै औ न टपरा टपरियन कों हटाउनें परै! मगर जा जान लो कै रेलबे लैन के उस तरपीं के घुमाव में चतुर्भुज किलेदार की चरौखर कौ कछू हींसा औ तुमाई बखरी के पिछाऊँ के दो कोठा की बली चड़ जैहै!

बोलौ है मंजूर! पूंछ हेरौ घर में औ किलेदार जू सें!

ईसुरी— ‘‘परमारथ के लानें तौ अपनी जान लौ हाजिर है। ईमें कोऊ सें कछू नईं पूछनें! किलेदार जू नें तौ पैलऊँ हमें पूरी मालिकी सोंप दई! ठीक है पटवारी जू, आप जमीन की नापजोख करवाऔ, हमाई बखरी की चिंता न करौ।’’

बात की बात में, रेलपटरी का चलता हुआ काम बंद होकर दूसरी ओर से आरंभ हो गया। पूरे चमरटोला में स्त्री/पुरुषों के जयकारों की गूंज आसमान छू रही थी! जिसके नाम की जयजयकार हो रही थी, वह शांत, संतुष्ट मन से जा रहा था, अपने घर की ओर!

किंतु घर, घर नहीं रहा था! घरैतिन, घरवाली, श्यामबाई, का प्राणपंक्षी न जाने कब उस देश उड़ गया था, जहाँ से कोई नहीं आता! मृतकाया के समीप धीरे पंडा सिर झुकाए चुपचाप खड़े थे। पुत्री गुरन माता की देह से लगी सिसक रही थी! ईसुरी को देख, उसका रुदन घर की छतें फोड़ने लगा! और ईसुरी! इस अनहोनी पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे!

***

कहते हैं कि जब एक आफत आती है, तब दूसरी भी जैसे घर का रास्ता देख लेती है! पत्नी के प्राणांत के असहनीय दुख ने ईसुरी को जो पीड़ा दी, उससे कई गुना अधिक पीड़ा उन्हें पुत्री के वैधव्य की उठानी पड़ी! वे गुरन से बेहद स्नेह करते थे। गुरन के लिए तो अब ईसुरी ही माता और पिता दोनों के रूप में थे। अपने दुख में दुखी ईसुरी बेटी को समझाते, सांत्वना देते थे—

जिदना गुरन तुमें औतारो, विध ने अक्षरे मारो।

ऐसी नौनी रूप रंग की, नख-सिख से सिंगारो।

उनपै अपनों जौर नई है, परमेसुर सें हारो।

‘ईसुर’ वेई पार लगा हैं, जिननें बनो बिगारो।’’

विधि के विधान के सम्मुख विवश पिता-पुत्री अब परस्पर एक दूसरे को सहारा, आसरा व जीने की राह समझते थे! गुरन कुछ दिनों तक बगौरा में रही, अपने पिता ईसुरी के साथ, किन्तु सास की तबियत खराब होने की बात सुन वह अपने नाते-गोते के देवर के साथ ससुराल चली गई। अब इतने बड़े घर में थे, केवल ईसुरी या उनकी पीर!

ईसुरी की पीर बजाय कम होने के, बढ़ती ही जा रही थी! पत्नी को दिवंगत हुए दिन, हफ्ते, महीने गुजरते जा रहे थे, मगर ईसुरी के व्यथित हृदय की क्लांति पीड़ा, दुख, जलन कम नहीं हुई! पत्नी श्यामबाई के देहांत के बाद जब तक नाते रिश्तेदार रहे, तब तक तो फिर भी कुछ भूले हुए रहे, मगर अब इतने बड़े हवेली जैसे घर में एकदम सूनर फैल गई। बखरी, कमरा, अटारी सब सांय सांय सन्नाटे की गिरफ्त में।

बेलपत्तरी जो छुटपन से ही अनाथ थी, ईसुरी के पिता ने जिसे सहारा आसरा दिया था जिसे सब बिलिया बऊ कहते थे, उसकी खटर पटरी भी बहुत कम हो गई थी। काम ही क्या बचा था, खुद के और ईसुरी के लिए भोजन बनाने में, ज्यादा समय नहीं लगता था। भोजन बनता जरूर था, मगर ईसुरी का तो भोजन ही क्या, सब कुछ छूट सा गया था। विषण्ण मनःस्थिति में स्नान-ध्यान समय असमय होने लगा था, कभी भोजन करते, कभी हाथ का कौर, हाथ में ही लिये रह जाते! पत्नी सामने बैठकर भोजन कराती थी। जब तक वे उठ नहीं जाते थे, बराबर बिजना डुलाती जाँयें, और नजर थाली पर!! क्या मजाल कि कोई कटोरी खाली रह जाने दें, कैसे न-न करने पर भी हिया-हिलोर से जिमाती थीं। आँख से गिरते आँसू कौर को भिगोने लगते! परसी थाली वैसी ही अनूठी रह जाती और ईसुरी मोरी पर हाथ मुँह धोने चले जाते। बाहर निकलना कम हो गया! कहाँ तो आधी आधी रात घर नहीं आते थे, तो कभी दिन दो चार बाहर ही बीतते थे। उनके जैसा विद्वान सरस कंठी गायक पूरे बुंदेलखण्ड में नहीं था। खुद अपनी बनाई फागें, चौकडि़याँ, जब अपने सुरीले स्वर में गाते थे, तब लोग सम्मोहित से हो उठते थे। गाने को तो धीरे पंडा भी ईसुरी की चौकडि़याँ गाते थे पर ईसुरी के कंठ में उनकी वाणी में उनकी लेखनी में तो जैसे साक्षात् वाग्देवी सरस्वती विराजती थीं, उनके गाने पर ऐसा कौन था जो मोहित न हुआ हो। ब्याह, काज औसर, तीज त्योहारों पर बड़े बड़े सेठ, श्रीमंत, जमींदार, तिलक छाप राजा, दीवान, भूपति…सबकी एक ही बलवती लालसा— ईसुरी की महफिल सजे, उनकी ड्योढ़ी, गढ़ी, दरबार में। एक अनार सौ बीमार वाली हालत थी ईसुरी की। महीने में जितने दिन तो घर में बीतते थे, उससे ड्योढ़े दोगुने दिन बाहर ही व्यतीत होते थे उनके!

गाँव आन गाँव सर्वत्र उनका बेहद मान-पान-सम्मान था। लोग उनकी विद्वता, सज्जनता, सिधाई और विनम्रता पर सौ जान से निसार थे, सोने में सुहागा यह कि उनके बारे में पूरे बुंदेलखण्ड में यह बात व्याप्त थी कि उन्हें देवी दुर्गा की सिद्धि प्राप्त है! इसके पीछे कई प्रत्यक्ष घटनाओं के प्रमाण थे! ऐसे लोग भी थे जिन्हें ईसुरी ने उपकृत किया था। इन सब बातों ने ईसुरी को आसमान की बुलंदियों पर पहुँचा दिया था। कहा गया है- गुण के गाहक सहस नर…। ईसुरी के गुण ग्राहकों की तादात कितनी थी, स्वयं ईसुरी भी नहीं जानते थे।

अपने समय का इतना रुतबे रुआबदार गुणवंत आशुकवि आज पत्नी के वियोग में घर की देहरी के भीतर दीन हीन दशा में एक कमरे से दूसरे में भटकता, पत्नी की स्मृतियों को टटोलता, तलाशता, जल बिन मछली की भाँति तड़पता फिरता! खिड़कियों, झरोखों को खोल अकारण ही झाँकता! पत्नी ऐसे ही झांक कर देखती थी उन्हें तब तक जब तक कि वे गैल गली के मुहाने न पहुँच जाते। कभी भण्डार कक्ष में जाते, अचार अथाने की बरनियों को देख विह्वल हो उठते। ‘‘तुमारे हांतन के डारे अचार अथाने, बरी पापर जे धर हमाई आँखों के सामने! तुम कहां चली गईं! श्यामा, मोरी रजऊ, प्रानप्यारी, पुतरिया, तुम कऊँ नईयां। कऊँ नईं दिखातीं! ऐसे काय चली गईं जू…। विधना, हमसें का अपराध हो गओ, जिसकी जा सजा दई तुमनें!!’’ कहते कहते फूट-फूट कर रो पड़े ईसुरी! रोते रहे! कौन था, जो चुप कराता? उनकी ऐसी उन्मादी हालत देख, बिलिया बऊ कीका दे-देकर रोने लगी।

ऐसे ही समय पौर के द्वारे की कुंडी खरक पड़ी। कोई जोर-जोर से दरवाजे की सांकल बजा रहा था। कंधे पर पड़े धोती के पल्ले से सिर ढंककर कंघेला मार कर बिलियाबऊ चली गईं किबाड़ खोलने! बिलिया ने कुंडी खोली। ईसुरी के अनन्य मित्र धीरे पंडा को देख बऊ का विषाद कम हुआ, मुँह की कड़ी रेखाएं हल्की होने लगी। द्वार खोल, एक ओर हो गई बिलिया।

धीरे पंडा— काए बेलपत्तरीं, का हो रओ तो! ईसुरी महराज का कर रए! हैं, कै कड़ गए क्याऊँ? बोलती काय नईंया। बऊ! हमारी आवाज नई सुना परी का? काए डुकरो?

बिलिया बऊ— का बोलें? का बताएं बेटा? कछू कई नई जात हमसें! जिस लरका कौ भओ-बघाओ करो हमनें, गोदी खिलाओ, आज ऐसी दसा ओई मौड़ा की? देख कें करेजा बायरें कड़ो जात बेटा? तुम अच्छे आ गए भैया, जाऔ, उनें तसल्ली देओ, धीरज बंधाऔ, उतै हैं बे, भंडरिया कोदी!

कहाँ तो, धीरे पंडा आए थे ईसुरी को ‘साई’ देने के लिए, कहाँ ईसुरी की यह हालत! इतना तो वे समझ गए थे कि जब तक श्यामा भौजी की याद दिलाने वाली एक एक चीज बसत घर से हट नहीं जाती, तब तक ईसुरी उन्हें भुलाना तो दूर, ऐसे ही रोते सिसकते रहेंगे! पहनने ओढ़ने की कई चीजें उन्होंने खुद ही हटवा दी थीं, साज सिंगार की वस्तुएँ भी बंट गई थीं ये भंडरिया कैसे चूक गई? चलो अब आजकल में इसे भी खाली कराना होगा, भले फिर नया सामान खरीदना पड़े! नई चीजों पर भौजी की चिन्हार तो नहीं होगी! उन्हें देखकर ये ऐसे बावरे तो न होंगें। कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। धीरे को देखते ही ईसुरी उनसे लिपट कर रोने लगे! धीरे पंडा क्या करते? उनका भी जी भर आया था। ‘‘भावुक होने से काम नहीं चलेगा’’। धीरे ने सोचा और मन मजबूत करके बोले— ‘‘यार तुमईं तौ कहत रहत हौ कै आदमी तौ बई है, जो पराई पीर के पीछें अपनी पीर, अपनों दुक्ख, भूल कें उसकी मदद करै! और अब देख लो खुद खों! भौजी के आंचर सें बायरें नईं निकर पा रए! देस दुनियां में कितनों पानी बै गओ, कछू होस है तुमें! अरे फाग, चौकडि़यां बनाबे गाबे खों को कै रओ तुमसें! पै जौ बताऔ कै इतनियई है का तुमारी जिंदगी! कितनी पंचायतें धरीं निपटाबे खों, बे कम नईं होनें, दिन दिन बढ़ती जानें। कछू ख्याल करौ महराज!! बायरें तौ कड़नेंई परहै।’’

धीरे पंडा की इन बातों से कुछ होंसला, हिम्मत, बल मिला ईसुरी को। कुछ बोध हुआ। ये तो वे स्वयं जानते थे कि इतने दिनों में लोगों की कई समस्याएँ न्याय निपटारे की बाट देख रही होंगी। सुना है, कई लोग उनकी उस पंक्ति की नजीर बनाकर दंद-फंद का, बँटवारे का निपटारा कर चुके हैं, जो उन्होंने बघौरा और बड़े गाँव के मध्य पहाड़ी की सीमा की कब्जेदारी के झगड़े को सुलझाने शांत करने के लिए कही थी, उसी की ये पंक्ति है— ‘‘तन तन दोऊ जनैं गम खायें, करो फैंसला चायें।’’ रुपये में सोलह आने सच है कि अगर वास्तव में दोंनों पक्ष फैसला करने की नीयत रखते हैं, तो थोड़ा-थोड़ा दोनों को दबना/झुकना/सहना, धीरज रखना पड़ेगा। इस तत्व की बात को ज्ञानी गुणी जानते हैं, मगर मेरे मुँह से सुनकर लोगों ने पत्थर की लकीर मान कर अपने झगड़े झझंट निपटाए हैं, सो यह तुम्हारी ही कृपा है, देवी हिंगलाज भवानी, तुम्हीं मेरी जिह्वा पर असवार हो कें चौकडि़याँ कह देती हो, नाम मेरा होता है!! उनके मुख से निकल पड़ा— जै हो महामाई हिंगलाज मैया!!

धीरे पंडा— ईसुरी महराज जिन महामाई की तुम जै बोल रए, उनईं की भक्तिन हैं कोनिया (हरपालपुर) के दिमान (दीवान) की रानी! रानी जू की फुआ के लरका सें हमाऔ भौतऊँ हेलमेल दांत काटी रोटी है। उन्हीं के साथ हम गए थे कोनियां! उतै रानी जू ने हांत जोर कें हमसें विनती करीती कै भैया तुमारा बड़ा उपकार हो हम पै, एक बिरिया ईसुरी महराज कों लिवाा ल्याऔ इतै! दिमान जू को बड़ी होंस है!’’ रानी जू के अंसुआ बस नईं गिरे, बाकी भौतऊ दीन हीन हतीं बे! उनकी दसा देख कें हमनें हाल कै दई कै ‘‘रानीबाई साब जौ मईना तब कड़है, जब फगुवारे महराज तुमाए महलों में आयेंगे।’’ सो देख लो कै फिटन भेज दई दिमान साहब ने, अब तौ हमाई लज्जा तुमारे हांत है! चाय चेला समझौ, चाय अपनी फागों का गवैया समझौ औ चाय हितू-मीत यार समझौ— अब तौ तुमें जानेंई परहै।’’

धीरे पंडा की बातें सुनकर ईसुरी दुविधा में पड़ गए। उनकी मानसिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे बाहर जायें या किसी दरबार या उत्सव की शोभा बढ़ाएँ। मगर धीरे ने तो वहाँ वचन दे दिया है! कुछ सोचकर बोले— ‘‘पंडा तुमारी यारी की वजां सें चले तौ हम जैहें, मगर अकेले! औ दरबार या उनके औसर में कतई नहीं जायेंगे, बोलौ मंजूर?’’

धीरे पंडा— ‘‘हओ, सोला आना मंजूर!’’ मन में सोचा, इसी बहाने ईसुरी घर से निकलेंगे दो चार दिन के लिए! पूरे बुंदेलखण्ड में ऐसा कोई नहीं, जो ईसुरी महराज की मंसा के बिना उनसें तिनूका तक टोरबे की कह सके!

***

मार्ग के सघन वृक्षों की झूमती शाखों को देख ईसुरी का मन प्रसन्न हो उठा! पत्नी के देहांत के इतने महीनों बाद आज पहली बार वे यात्रा पर जा रहे हैं! महुआ, नीम के वृक्षों में लगे फूलों की मदिर सुगंध वायु के कांधों पर सवार हो इठलाती, बलखाती हुई, पानी भरने जा रही पनिहारिनों के आंचल को भी अपने साथ उड़ा रही है। जंगल के दूसरे छोर तक जाते पलास के दरकते नारंगी फूल! ऐसे लग रहे हैं जैसे दावाग्नि भड़क उठी हो! ये गेरुआ पहाडि़यां हैं या गेरुआ वस्त्रधारिणी अल्हड़ सन्यासिनें! ईसुरी का कवि मन जागृत हो गया। एक पल के लिए उन्हें आभास हुआ कि सिरजनहार की इस अपरूप छवि को उपेक्षित करना स्वयं विश्वात्मा की उपेक्षा करना है! नहीं, वे इस दिव्य सौंदर्य की उपेक्षा नहीं करेंगे! वे अपनी पीर से उबरेंगे! जरूर उबरेंगे! घर बाहर व्याप्त परमात्मा को, प्रकृति को, लोगों की पीर को आत्मसात करेंगे। हाँ यही अब उनके जीवन का ध्येय है, यही प्राप्य है, यही करणीय है।

***

कोनियां के महल में ईसुरी महराज का भव्य स्वागत सत्कार हुआ! ईसुरी की इच्छानुसार महल के भीतरी प्रांगण में दीवान साहब और उनकी रानी के अलावा कोई नहीं था। अंगरक्षकों, टहलनियों (परिचारिकाओं) कामदारों के अतिरिक्त किसी को प्रवेश की आज्ञा नहीं थी! दीवान साहब अत्यंत प्रसन्न होकर वार्तालाप कर रहे थे, जब कि रानी का मुख मुरझाया सा था। वे अनमनी सी थीं। ईसुरी ने भांप लिया। यह तो वे बहुत पहले से ही सुन चुके थे कि दीवान के यहाँ गृहकलह और क्लेश का वातावरण है। एक पल को ऐसा प्रतीत हुआ मानों इसी को निपटाने के लिए उन्हें बुलाया गया है। रानी की अब तक की बातों का सार भी यही था कि वे ईसुरी द्वारा किये गये फैसलों, निपटारों की बातों से बेहद प्रभावित हैं। बातें करते करते भोजन की बेला उपस्थित हुई।

भोजन के समय रानी ने बिना नमक की दाल व सब्जी थाल में परोस कर ईसुरी के समक्ष रख दीं! ईसुरी ने बड़े आदर के साथ बिना नमक का भोजन किया। भोजनोपरांत दीवान साहब ने बहुत संकोच के साथ ईसुरी से कुछ सुनाने को कहा, बोले— मधुकर शाह को तो बिहारी जू कवित्त सुनाते थे। इस वक्त आप ही हमारे बिहारी कविराज हो! ईसुरी भला कब चूकने वाले थे, उन्होंने कहा— दिमान जू फिर हमाए मधुकर साह भी आप हौ! नीत की बात पै अमल करौ, तौ मैं तुरतईं फाग कहबे के लानें तैयार हूँ।’’ दीवान साहब ने वचन दे दिया। इधर ईसुरी ने रानी द्वारा बिना नमक की दाल, सब्जी परोसने पर गौर किया। षटरस व्यंजन एक रामरस (नमक) के बिना बिल्कुल बेस्वाद, फीके, नीरस… तो क्या रानी का जीवन भी ऐसा ही हो गया है? है तो क्यों? किस कारण से! क्या उनके जीवन का रस खो गया है? ‘खो गया है’ पर उनका ध्यान केन्द्रित हो गया। आँखे बंद हुईं! देवी दुर्गा हिंगलाज भवानी का सुमिरन किया। चेतना स्पंदित हुई। आशुकवि की जिह्वा से फाग निसृत हुई! मानो कवित्व सत्य की साखी बनकर प्रकट हो उठा—

भौंरा जात पराए बागै, तनक लाज ना लागै।

घर की कली कौन कम फूलीं, काय न लेत परागै।

कैसें आय लगाउत हुइयें, और आंग सें आंगै।

ईसुर जूंठी, जाठी पातर, भावै कूकर कागै।

दीवान ने यह फाग सुनी या अपनी पतित गाथा! विरुप सत्य! आन मर्जाद त्याग कर वह बेशर्म होकर परस्त्री गमन में ही रमा हुआ है! जबकि सर्वांगसुंदर तरुणाई की आभा से दिपदिपाती युवा रानी की अक्षत यौवनप्रदीप्त छवि का कोई सानी नहीं। घर के इस विलक्षण पुष्प के पराग का परित्याग क्यों करता रहा, जबकि वह सहज सुलभ और प्रेम की प्रतिमूर्ति है! देखने मात्र से अनुराग बढ़ता है। इतनी सुंदर नारी के होते, क्यों परस्त्री को अंग लगाते हो, तुम्हारीं पत्नी के हृदय में यह वेदना कितनी आग लगाती होगी! तुम यह भी जानते हो कि जूठी जाठी पत्तल तो कुत्तों और कौवों को ही भाती है।

फाग सुनते ही दीवान जी सन्न रह गए। उनकी अवस्था ऐसी कि काटो तो खून नहीं। यह तो उन्हीं की पंकिल पतित गाथा है। इस गाथा के कटु सत्य ने उनहें विचलित कर दिया। सच्चाई सामने आते ही वे कांप उठे। कितना अनर्थ करते रहे। अनिंद्य सुंदरी पत्नी का परित्याग कर दिया! पश्चाताप, लज्जा और ग्लानि के मारे उनके मुख से शब्द नहीं फूटे। एकदम मौन, आत्मचिंतन में लीन और उनकी रानी… आज रानी के लिए ईसुरी साक्षात् देवदूत बनकर आए हैं। वे जिस दुखाग्नि को अपने हृदय में जब्त किए जी रही थीं, आज फाग को सुनकर वह दुखाग्नि पिघल उठी। मदिर नयनों से अश्रुबूंदें गिर पड़ीं। बहते आंसू पोंछ, कृतज्ञ दृष्टि से उन्होंने ईसुरी की ओर देखा। उधर, ईसुरी कह रहे थे, ‘काए दिमान जू, चिमा कें काए रै गए? कछू जादा कै दई का फाग में?’

लज्जित दीवान जी मुख नीचा किए, मंद स्वर में बोले, ‘महराज, आपने तो मेरी असलियत और ज्यादती को दर्पण दिखाया है। एक पथभ्रष्ट पथिक अब राह पर चलना चाहता है।’

इस पर ईसुरी बोले, ‘तो फिर उठौ! औ देवमूर्ति से असीस लेओ जोड़ी संे।’ दीवान जी उठे, रानी भी पति का संकेत समझ अपने स्थान से उठकर खड़ी हो गईं। दीवान भारी कदमों से उनकी ओर चले, उनके चेहरे पर स्पष्ट याचना के भाव दिखाई पड़ रहे थे। रानी सिर झुकाए खड़ी थीं। उनके मिलन को अपनी आँखें से देखने के लिए ईसुरी वहाँ नहीं रुके और बाहर निकल आए।

दीवान जी अर्दली को आदेश दे रहे थे— बगीचे वाली गढ़ी व्यवस्थित करो। जल बिहार का मेला देखकर हम और रानी वहीं रात्रि विश्राम करेंगे। लौटते हुए महाकवि ईसुरी यह सुनकर अपनी पीर जैसे भूल गए।


फाग लोक के ईसुरी : दया दीक्षित, मू. 295, अमन प्रकाशन, कानपुर। आप इस पुस्तक को अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर मँगवा सकते हैं।


दया दीक्षित : सुपरिचित आलोचक। कहानियाँ, संस्मरण आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। ‘हिन्दी साहित्य का तथ्यपरक इतिहास’ महत्वपूर्ण पुस्तक। अब तक एक कथा संग्रह, एक लघु उपन्यास और तीन समीक्षात्मक पुस्तकें प्रकाशित। लगभग बारह पुस्तकों का सम्पादन। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं का सम्पादन। दूरदर्शन व आकाशवाणी से रचनाओं की प्रस्तुति। संप्रति कानपुर के एक महाविद्यालय में अध्यापन।


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