मनोज मोहन
जयशंकर 1989-2019 के तीस बरसों के अंतराल में पत्रिकाओं में लिखे-छपे गद्य को ‘गोधूलि की इबारतें’ में संकलित किया है। इस गद्य पुस्तक में उनके लिखे सृजनात्मक निबंध, संस्मरण, डायरी और टिप्पणियाँ हैं। उनकी भाषा इतनी संवेदनशील और उसका प्रवाह इतना प्रांजल है कि पूरी पुस्तक को एक साँस में पढ़ लिया जा सकता है। लेखक का स्वयं कहना है कि उनके (निर्मल वर्मा) बिना अपनी लिखने-पढ़ने की दुनिया कितनी उजाड़, कितनी नीरस जान पड़ेगी! जिस प्रश्नाकुलता, आध्यात्मिक बेचैनी और सर्जनात्मक विकलता का साक्ष्य निर्मल जी के गद्य में मिलता है, उस सृजनशील गद्य की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले लेखक के रूप में जयशंकर कहे जा सकते हैं।
स्वतंत्र भारत में निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति आधी से अधिक सदी तक बनी रही। उन्होंने सिर्फ़ पश्चिमी देशों की यात्रायें ही नहीं की बल्कि वहाँ के जन-जीवन से गहरे प्रभावित भी रहे, लेकिन अपने सचेतन भारतीय मस्तिष्क पर उसे उन्होंने हावी नहीं होने दिया। हालाँकि मुकुंद लाठ जैस चिंतक यह कहने से नहीं चूके कि निर्मल जी के विचार की धरती पश्चिम में है।
निर्मल वर्मा जब निराला सृजनपीठ के अतिथि लेखक के रूप में भोपाल पहुँचे तो वहाँ के युवा लेखकों पर उनका गहरा असर हुआ। उन्हीं में शामिल संवेदनशील कहानीकार जयशंकर भी उनसे गहरे प्रभावित हुए।
‘गोधूलि की इबारतें’ को पढ़ते हुए यह अहसास गहरा होता जाता है कि निर्मल वर्मा जैसे बड़े लेखक सिर्फ़ अपने समय को ही प्रभावित नहीं करते बल्कि भविष्य की युवा पीढी को भी एक सकारात्मक दिशा देने में सक्षम होते हैं।
जयशंकर अपनी बेहद सपाट-सी लगती भूमिका में विनम्र संकोच के साथ कहते हैं कि ‘इस किताब की ज्यादातर पंक्तियों में कहीं-कहीं, कभी-कभी सहजता और नैसर्गिकता नज़र आ भी जाये तो इनमें गहराई का, विस्तार का अभाव सतत नज़र आता रहता है।’ इन पंक्तियों में आश्वस्ति का भाव इस कारण नहीं है कि वे कहीं गहरे निर्मल वर्मा से प्रभावित हैं बल्कि उनका अपना स्वभाव भी वैसा ही है। संवेदनशीलता ही वह धरातल है जहाँ वे निर्मल वर्मा से गहरे जुड़ जाते हैं। पुस्तक के दूसरे भाग के पहले निबंध ‘निर्मल वर्मा : एक विकल तीर्थयात्री’ में वे कहते हैं ‘निर्मल वर्मा ने मेरे लिए उस दुनिया के अर्थों को भी बदला है, जिसमें मैं पिछले तीस बरसों से रहता आया हूँ। उनके लेखन में समकालीन मनुष्य के दुःख सुख की जैसी गहरी, मार्मिक और अद्भुत तलाश संभव हो सकी है, वह मुझे हमारे समाज, समाज और संस्कृति की दुर्लभ निधि जान पड़ती है।’
पहले भाग का उपशीर्षक इबारतें हैं, जिनमें लेखक के डायरी, नोट्स और जर्नल्स हैं। इन इबारतों को पढ़ते हुए साफ़ महसूस होता है कि लेखक अपने अंतर्मन की तलाश में पाश्चात्य संगीत और पश्चिमी साहित्य के पठन-पाठन तक गया है। ‘मार्था ग्राहम का विश्वास’ लेख की पहली ही टिप्पणियों में वे कहते हैं महान कलाकारों के अपने विश्वास का स्थापत्य भी काम करता होगा। उनके विश्वासों की बुनावट भी हमें प्रभावित व आगाह करती है। पुस्तक के तीसरे भाग ‘वक्तव्य’ खंड में पहले ही लेख ‘निर्मल वर्मा का गद्य’ में वे कहते हैं कि ‘शुरुआत के दिनों में, मैं उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्रों से खुद को आइडेंटीफाई (तादात्म्य) किया करता था।
धीरे-धीरे उनको पढ़ते रहने से भी मैं उनके पात्रों की जगह, उनकी उस लेखकीय चेतना से आइडेंटिफाई करने लगा जिनसे उनके पात्र जन्म ले रहे थे।’ इसी चेतना से आइडेंटिफिकेशन के कारण जयशंकर अपने लिखे से सामान्य पाठक के कलात्मक रुचि का परिष्कार करते चलते हैं। वे अपनी छोटी-छोटी टिप्पणियों में दुनियाभर के साहित्यकारों, संगीतकारों और चित्रकारों की रचनाओं से परिचय भर नहीं कराते बल्कि पाठक के मन में उन सब के प्रति सह्रदयता का संचार भी करते हैं।
गोधूलि की इबारतें में जयशंकर की लिखी डायरी, नोट्स, जर्नल्स , निबंध, वक्तव्य, संस्मरण और रेखाचित्र सभी हैं लेकिन इन सभी के केंद्र में निर्मल वर्मा और उनका लिखा साहित्य है। तभी वे कह पाते हैं कि हम बूढ़े होते जा रहे हैं और उस लेखक (निर्मल वर्मा) की कृतियाँ जवान होती जा रही हैं। आज निर्मल जी को गये पंद्रह साल हो चुके हैं, जयशंकर हमारे समय के वरिष्ठ कहानीकार हैं, सच यह है कि रचनाएँ मरती थोड़े ही हैं, वह हर काल में नये मायनों के साथ जिंदा हो उठती हैं। इस किताब को निर्मल वर्मा की आधी जीवनी भी कहा जा सकता है। ऐसी किताबें हिन्दी में बहत ही कम हैं जिससे लेखक और लेखक के संसार का अता-पता मिलता है।
गोधुली की इबारतें : जयशंकर [गद्य-संग्रह], मू. 250 पेपरबैक, आधार प्रकाशन, पंचकुला। आप इस पुस्तक को अमेज़न से भी मँगवा सकते हैं।
मनोज मोहन : मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से स्नातकोत्तर हिन्दी तक की पढाई. एक गैर सरकारी संगठन में थोड़े दिनों तक नौकरी. हिन्दी के साहित्यिक-सांस्कृतिक दुनिया में निरंतर सक्रिय. कविता और लेखन में गंभीर रुचि. पिछले बीस साल से दिल्ली में. वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान : समय समाज संस्कृति’ के संपादकीय विभाग से संबद्ध. लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है— manojmohan2828@gmail.com