दो पंक्तियों के बीच अंधेरी चुप्पियों पर जगह-जगह टॅंकी झींगुरों की आवाजें

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प्रेम शशांक

’’एक कलाकृति कुछ बताती या सिखाती नहीं, वह सिर्फ एक चमत्कारिक रहस्योद्घाटन है— जिसमें एक सत्य की तानाशाही नहीं—अनेक विरोधी-अंतर्विरोधी सत्यों का एक ऐसा यथार्थ उद्घाटित होता है, जो हमारे अपने जीवन के खंडित, बहदवास, विश्रंखलित अनुभवों को एक संगति, एक पैटर्न, एक व्यवस्था देता है।’’—निर्मल वर्मा, (शताब्दी के ढलते वर्षो में)

किसी ने कहा है कि हर कवि और लेखक के भीतर एक उपन्यास होता है। तो उस उपन्यास के बाहर आने की प्रतीक्षा सिर्फ उसी को नहीं होती उसके पाठकों में भी रहती है। ’कयास’ को पढ़ना निरा संयोग नहीं है। इसके चुनाव के पीछे उद्यन वाजपेयी के निबन्धों की किताब ’चरखे पर बढत’ के पाठ की विरल स्मृति रही है। ’’कयास’ की भाषा और शिल्पगत संरचना उसके कथ्य के बहुत अनुकूल है। हम सभी रोज़ाना अख़बार पढ़ते हैं जिसमें चोरी, छिनारी, हत्या की खबरें होती हैं लेकिन पढने के साथ उन्हें भूल भी जाते हैं। ऐसी खबरों का हमारी मनःस्थिति पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं रहता। लेकिन जब यहीं चीजें किसी कथाकृति के माध्यम से प्रकट होती हैं, तो उनके मायने बदल जाते हैं। वन्दना और सुदीप्त के मित्रता सम्बन्ध और साथ काम करने को लेकर इस उपन्यास की कहानी बुनी गयी है। कहानी के मुताबिक इन दोनों को नायक-नायिका भी कहा जा सकता है। लेकिन भारतीय समाज के सोच की सच्चाई कहें या विडम्बना कि एक लडका-लडकी या स्त्री-पुरूष मित्रता के फ्रेम में फिट नहीं हो पाते। परिवार हो या समाज उनकी परिकल्पना प्रेम सम्बन्धों के बाहर कुछ देख ही नहीं पाती। बात सन्देह से शुरू होकर घृणा और बदला लेने तक पहुंच जाती है। कई बार किसी एक की और कभी दोनों की हत्या कर दी जाती है या फिर उन्हें आत्महत्या करने को लेकर विवश कर दिया जाता है। यह सब कुछ अखबार की हेड लाइन तक सीमित नहीं रहता बल्कि साहित्य और कला जगत की अन्य विधाएं यथा कहानी, उपन्यास या हिन्दी फिल्मों से यही प्रतिध्वनित होता है। कहानी सुदीप्त की हत्या के साथ शुरू होती है। एक वाक्य में कहना हो तो इसका कथ्य अखबार में छपी एक साधारण खबर पर केन्द्रित है। लेकिन कथाकार ने एक मामूली सी खबर पर कई मंजिला जो ढांचा खडा किया है वही रचना कौशल इस कथाकृति का पीक लेवल प्वाइन्ट है ।

इस उपन्यास का टैक्स्ट किरदारों के नाम और नजरियें में विभक्त है। इसके चेप्टर कुछ इस तरह खुलते हैं यथा किशोर, वन्दना, स्नेहा, नुआ, मृदुला, किशोर, वन्दना, बिददू, मृदुला, मार्ग, सुशीला, वीना, लखना, सांवली, चोर, किशोर, अलीम, नुआ, स्नेहा, हॉल, वन्दना, अलीम, सुशीला, लखना, स्नेहा, मृदुला, नुआ, लखना। इन स्त्री-पुरूष किरदारों के बीच ’मार्ग’ चेप्टर में लेखक खुद सक्रिय होते हुए सीधे पाठकों से मुखातिब होता है। यह उसकी अपने पाठकों के साथ विरल साझेदारी है क्योंकि कथा में लेखक का सीधा हस्तक्षेप अच्छा नहीं माना जाता है। लेकिन कथाकार का यह जोखिम अनायास नहीं है। वह अपनी रचनात्मक कठिनाइयों और चुनौतियों से जूझते हुए पाठक के साथ एक साझेदारी सुनिश्चित करता है। “उपन्यास में लगभग आधा मार्ग तय कर लिया है। या शायद उससे कुछ अधिक या कुछ कम। मैं कुछ देर विश्राम के लिए यहां ठहर कर सोच में पड़ गया हॅूं। यह उपन्यास पूरा होगा भी या मैं उसके पूरे होने का ताउम्र इन्तजार करता रहूंगा यह मालूम करना मुश्किल है बल्कि लगभग नामुमकिन है। मैंने सुना है कि उपन्यास के पूरे होने के कुछ पूर्व लक्षण होते हैं पर उनकी मुझे खबर नहीं है। मैं इसीलिए अब तक कवि भर हॅू, उपन्यासकार नहीं।’’ इस गद्यांश में हम लेखक और पाठक के बीच निजता का एक उपक्रम निर्मित होते हुए देखते हैं। उत्तरआधुनिक विचार के परिपेक्ष्य में जब रचना पूरी होने के बाद पाठक की प्रापर्टी हो जाती है और लेखक का उस पर कोई अधिकार नहीं रह जाता। पाठक जैसे चाहे और जितने चाहे अर्थ करने को स्वतंत्र है तो रचनात्मक कठिनाई आने पर टैक्स्ट में पाठक की सीधी भागीदारी का आमंत्रण चौंकाता है लेकिन इतना गलत भी नहीं लगता।

कथाकार उपन्यास के पूरा हो जाने के बाद पाठक की पाठोत्तर भूमिका को लेकर भी पर्याप्त सहज और सजग है, ’’उपन्यास के पूरा हो जाने पर पन्ने जिल्द के भीतर बन्द हो जाते हैं। वे तभी प्राणवान हो पाते हैं जब कोई पाठक आकर उनमें अपनी सांसे भरता है।’’ इस तरह उपन्यास के पूरा होने की उम्मीद और नाउम्मीद के बीच कथाकार अपने किरदारों की भूमिका के महत्व को लेकर भी सजग है, ’’मुझे अपने भीतर यह उम्मीद होने की उम्मीद है कि ये पन्ने कभी तो उपन्यास का रूप ले लेगें। पर इस उम्मीद और नाउम्मीद के बीच के खेल में मैं अकेला नहीं हॅू। मेरे साथ कुछ और भी हैं जिन्हें चरित्र कहा जाता है। चरित्र यानि ऐसी उपस्थितियां जो विशेष तरह से चलती हैं, अपना दिमाग चलाती है, अपनी शंकाओं को फैलाती हैं, अपने सदभावों को बिखेरती है, अपने लगावों को बरतती हैं। विशेष तरह से।’’ ये किरदार कृति में व्यक्त संवेदना को कई स्तरों पर खोलते हैं जहां सत्य इकहरा नहीं रह जाता, कई दरवाजों और खिडकियों से झांकता है और शिल्पगत संरचना से निर्मित बाहरी चारदीवारी कथ्य की सुरक्षा ही नहीं करती बल्कि सत्य तक पहुंचने के लिए पाठक के समक्ष चुनौतियां भी खडी करती है। यह सृजन-विन्यास कथाकृति का सौन्दर्य बिन्दु है। किरदारों की सोच, व्यवहार और उनके तर्को की स्याही बिखरने से ही यह कथाकृति एक कलाकृति की ऊंचाइयों को छूती है। इसलिए इन किरदारों से परिचय गलत न होगा।      

किशोर (वंदना का चाचा)    कितनी बेशरमी थी उसमें जो वो चुपचाप करती रही। मेरी और हमारी शान कैसी ताक पर रख गयी थी। वही शान जिसे मैंने बल्कि हमने तिनका-तिनका जमा करके बुना था। उसका क्या हुआ?
स्नेहा (वंदना की सहेली)  मैंने वन्दना को कितना कहा लेकिन उनकी कायरता पर उसे पूरा भरोसा था, शायद इसलिए कि वह हर भावना को अपने प्रेम की तरह ही मानती थी। विशुद्ध। कौन जाने यह सच भी हो। प्रेम ही शायद एक मात्र विशुद्ध भावना है। इसलिए नहीं कि उसमें दूसरी भावनाएं होती नहीं। वे होती हैं बल्कि बाकी भावनाओं की तुलना में वह यहां कुछ ज्यादा ही बड़ी संख्या में होती हैं पर वे सब की सब प्रेम में प्रवेश करते ही अपने रंग को छोडकर प्रेम के ही रंग में रंग जाती हैं।
मृदुला (सुदीप्त की पत्नी)उसने कभी मेरी अवहेलना नहीं की इससे पहले। उसके भीतर अपने से अलगाव की बेहद बारीक दरार मैं कभी-कभी महसूस जरूर करती थी पर वह व्यवहार के इतने आवरणों के नीचे दबी रहती थी कि वह होते हुए भी नहीं जैसी थी। मानों हमारे सम्बन्ध के धागे में किसी ऐसी जगह टूटन रही हो कि उस पर अंगुली रख पाना नामुमकिन हो । उस टूटन की टीस ने कभी पीछा नहीं छोड़ा। 
बिद्दू (वंदना का भाई)  ये मलाल जिन्दगी भर रहेगा कि वो कमीना मेरे हाथों नहीं मरा। साले ने मौका नहीं दिया। चोरों की तरह छिपकर मर गया। नहीं चोरों की तरह नहीं, कुत्तों तरह मार दिया गया। वन्दों को लेकर मरता तो हमारी बला कटती। ये छिनाल भी मर जाती तो किस्सा खत्म होता।  
सुशीला (वंदना की मॉं)शायद हमसे अपने बच्चों के चेहरे की वह चमक सहन नहीं होती जिसका सोता हम न हों। हां, वो वन्दना के चेहरे की चमक, आंखों का तेज ही था जो हमसे सहा नहीं गया, हमने उसमें खतरा भांप लिया और उसे दूर करने में तन-मन-धन से जुट गये।
वीना (सुदीप्त की पूर्व प्रेयसी)मॉं होने का हमने यह मतलब निकाला है कि तुम्हें अपने बच्चों से वही सब कराते रहना है जो कि हमेशा से होता आया है। अगर कभी पार्क के एकांत में मैं उसे छूने की कोशिश करती, वह मना नहीं करता पर मुझे महसूस होता मैं जिन होठों को छू रही हॅूं वह उनसे कुछ पीछे खडा हमें देख मुस्करा रहा है। उसे रोक नहीं सकी। रोकती भी कैसे। हमारे बीच का अपना पन हमारे बीच की दूरी में ही धडकता था। उसे मिटाने का साहस मुझमें नहीं था।
लखना (सुदीप्त और मृदुला का नौकर)  मेम साहब ही बीच में पड़कर लखन लाल को छुड़वा लायीं थीं। वरना वे इतना पीटते कि हड्डी पसली टूट जाती। गरीबों को चोर-हत्यारा बनाने में क्या देर लगती है। वे मार मार कर कहलवा लेते हैं। हमें कहना पड़ता है, हॉं, माई-बाप हम ही चोर हैं- हॉं, हम ही हत्यारे हैं। हमें तो बोलना पड़ता है जो वे सुनना चाहते हैं।    
चोर (सुदीप्त का हत्यारा)    अपने साथ हथियार रखना ही नहीं था। पर हथियार हमेशा साथ रहता था तब भी कभी कुछ नहीं हुआ। यह मेरे हाथों पहली बार हुआ है। पता नहीं कैसे हो गया। उस भले आदमी के हाथ का आखिरी बार हिलकर रूक जाना मेरे माथे में कील सा गड़ गया है। मेरी वैसा करने की जरा भी मंशा नहीं थी, होती भी क्यों, मैं मामूली चोरी के लिए वहां गया था। अब तो मुझे याद तक नहीं ऐसा क्या हुआ कि मेरा हाथ चल गया।  
अलीम (पुस्तकालय सहायक)  लगता जैसे वे किताबों के हिस्सों को नहीं हर बार बिखरे हुए ब्रहमाण्ड को किसी हद तक संयोजित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन दोनों को काम करता देख मैंने उन ढेरों किताबों के साथ होने के मायने को करीब से महसूस किया और कैसा अजीब है कि उन दोनों के साथ पढने की रोशनी में मुझे इस लाइब्रेरी की विराटता का एहसास होना शुरू हुआ। काश मृदुला जी कभी ऐसी दोपहरों में कभी एक बार भी यहां आयी होतीं। लेकिन उन्हें सिर्फ सुदीप्त और वन्दना के सानिध्य का नतीजा नजर आता होगा, उसके पीछे छिपी साधना और पीड़ा के धागे नहीं।

इन उदाहरणों में सुदीप्त की हत्या और वन्दना और सुदीप्त के सम्बन्धों को लेकर जो रिएक्शन नजर आता है उसमें एक बात समान है कि उनके सम्बन्धों को लेकर एक अस्वीकृति का भाव हर किरदार की प्रतिक्रिया में व्यक्त है। यद्यपि सुदीप्त की हत्या एक संयोग है फिर भी उसके लिए वन्दना और सुदीप्त के सम्बन्धों को ही कारण के रूप में देखा जा रहा है। उनके सम्बन्धों को लेकर ज्यादातर किरदार दिक्कत महसूस करते हैं। यह अलग बात है कि जैसा वो सोचते हैं उसमें कितनी सच्चाई है ना तो उसे कोई जानना चाहता है और ना ही समझना चाहता है। चाहे सुदीप्त की पत्नी हो या उसका नौकर। चाहे वन्दना का चाचा हो या भाई या उसकी सहेली। वन्दना की मॉं जैसा सोचती है उसमें जरूर कुछ खुलापन नजर आता है और सच को जानने और स्वीकारने का साहस भी लक्ष्य किया जा सकता है। पुस्तकालय सहायक अलीम सच को जानता है और उसे स्वीकारता भी है वरना ज्यादातर किरदार यथास्थितिवादी हैं। जैसा कि समाज में आम रिवाज होता है कि उसके परसेप्शन आधी अधूरी और सुनी सुनाई बातों पर बन जाते हैं या बना लिये जाते हैं। समाज का यह रूख भारतीय सन्दर्भो तक सीमित नहीं है। जब हम रूसी या फ्रेंच उपन्यास पढते हैं तो वहां के समाज का नजरिया भी बहुत अलग नहीं होता। दरअसल हम जीवन को प्राप्ति और त्याग और लाभ-हानि के नजरिये से देखने के अभ्यस्त हैं। जीवन के सभी पक्ष इसी कसौटी से निर्धारित होते हैं। प्रेम सम्बन्धों का आंकलन भी इसी कसौटी पर होता है। मनोविज्ञान की विचार सरणी मे प्रेम सम्बन्धों के इसी तंग नजरिये के कारण उसे काम-कुंठित समाज की संज्ञा दी गयी है। यह एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है कि जहां हम कुछ नहीं कर पाते तो उसमें दूसरों को सफल होते हुए देखना भी अच्छा नहीं लगता। सदियों के इतिहास में गिनती के प्रेम सम्बन्ध अपनी असफलता के कारण ही सुर्खियों में रहे हैं। इससे सहज की समझा जा सकता है कि प्रेम सम्बन्धों के मामले में सामाजिक-अपच बहुत पुराना रोग है। साहित्यक कथाकृतियों के माध्यम से वैश्विक स्तर पर समाज का यह चेहरा सामने आता रहा है।

“’कयास” के किरदारों का जीवन, कार्य व्यापार और सामाजिक भूमिका भले जी यथार्थवादी-जनतांत्रिक व्यवस्था में अंर्तगुंफित नजर आती हो लेकिन इसका समूचा परिदृश्य एक आभासी संसार की तरह ही खुलता है। इस दृष्टि से यथार्थ और आभासी संसार की निर्मिति में समानुपातिक ऑंख मिचौली एक दिलचस्प पहेली है। वन्दना और सुदीप्त की साहित्यक पुस्तकों के प्रभावी और रोचक प्रसंगों की लाइब्रेरी में बैठकर साझा तैयारी और शो के प्रदर्शन तक की भूमिका ही कथ्य के केन्द्र में है लेकिन सुदीप्त की हत्या के बाद शो का रूक जाना और सुदीप्त के प्रति वन्दना का न केवल सम्बन्धों वरन रचनात्मक अधूरे पन के साथ एक लम्बा गैप और उसके बाद दोनों ही स्तरों पर खुद को इकठठा कर दुबारा शो की तैयारी और प्रदर्शन में उस ‘हॅाल’ की भावनामयी प्रतिक्रिया एक आभासी संसार की सैर से कम नहीं है। जैसा मैंने पूर्व में कहा है कि इसके कथ्य का केन्द्र एक अखबारी कतरन से ज्यादा नहीं है। इसके साथ इस तथ्य को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि खबर इतिहास का हिस्सा नहीं हो सकती चाहे कितनी ही महत्वपूर्ण चुनौती उससे जुडी हो लेकिन जब वह वृतान्त में रूपान्तरित हो जाती है तो उसके पाठ की यात्रा इतिहास तक सुनिश्चित हो जाती है। नव्य-इतिहास शास्त्र के विचार में जो इतिहास है वह साहित्य है क्योंकि जो भी इतिहास है वह सारा का सारा वृतान्त है इसलिए साहित्य है और साहित्य के सारे वृतान्त भविष्य में इतिहास का हिस्सा होगें। इस कृति के सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि स्त्री-पुरूष के मैत्री-सम्बन्ध चाहते न चाहते हुए भी पाठ के केन्द्र में हैं और इनको लेकर पारिवारिक सामाजिक नजरिया पाठ के रूप में खुला है और भविष्य में पाठकों की संख्या के साथ नये नये अर्थ भी खुलेंगे। पाठ की यही शक्ति एक अखवारी खबर पर वृतान्त की जीत का इतिहास निर्मित करेगी।


क़यास : उदयन बाजपेयी [उपन्यास], मू.199 रुपये, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से भी मँगवा सकते हैं।  


प्रेम शशांक : विगत तीन दशकों से आलोचनात्मक लेखन और पुस्तक समीक्षाओं का प्रकाशन। नौ संपादित पुस्तकों में आलोचनात्मक लेख सम्मिलित। आलोचना, पूर्वग्रह, वागर्थ, समकालीन भारतीय साहित्य, वाक, दोआबा, पुस्तक वार्ता, हंस, कथादेश, समीक्षा, अमर उजाला, जनसत्ता, दैनिक जागरण में लेख और पुस्तक समीक्षाओं का प्रकाशन। किताब घर प्रकाशन द्वारा “आर्य स्मृति साहित्य सम्मान” से सम्मानित। आप समीक्षक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— premshashank77@gmail.com


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