विमल कुमार
भारतीय वांग्मय, भाषा और साहित्य के निर्माण में विदेशी विद्वानों का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। सर विलियम जोन्स से लेकर मैक्समूलर और जॉर्ज ग्रियर्सन ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है लेकिन हिंदी साहित्य के जो पाठ्यक्रम बने, उसमें इन तीनों विद्वानों की चर्चा आमतौर पर नहीं है लेकिन जब कोई शोधार्थी भाषा विज्ञान और संस्कृत साहित्य पर काम करता है तो वह इन मनीषियों के कार्यों का अध्ययन जरूर करता है। इसके बावजूद हिंदी में मैक्समूलर और जॉर्ज ग्रियर्सन पर अब तक अच्छी किताबें नहीं आई थी। अंग्रेजी के मशहूर लेखक नीरद सी. चौधरी ने तो मैक्समूलर की जीवनी ही अंग्रेजी में लिखी थी और उस पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था पर हिंदी में किसी ने आज तक इन युग पुरुषों पर कोई सुंदर जीवनी नहीं लिखी थी। 50 वर्ष पूर्व आशा गुप्ता ने जॉर्ज ग्रियर्सन पर हिंदी में एक किताब जरूर लिखी थी लेकिन उसकी हिंदी साहित्य में कोई चर्चा नहीं हुई।
अक्सर यह देखा गया है की हिंदी साहित्य की मुख्यधारा में ऐसे कार्यों पर आलोचकों की निगाह बहुत कम जाती है और अगर जाती भी है तो ऐसे कार्यों को महत्व नहीं दिया जाता है। दो एक साल पहले रांची विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर एवं आलोचक डॉ अरुण कुमार की एक महत्वपूर्ण किताब जॉर्ज ग्रियर्सन पर आई थी लेकिन उससे भी नोटिस नहीं लिया गया जबकि वह एक महत्वपूर्ण और स्तरीय कार्य था। अगर यह कार्य अंग्रेजी में होता तो उसकी बहुत चर्चा एकेडमिक जगत में होती।
डॉ. कुमार ने यह किताब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक शोध परियोजना के तहत लिखी है। यह बहुत मिहनत और गहरे शोध से लिखी गयी है। परिशिष्ट में लेखक ने संदर्भ ग्रंथों और लेखों की जो सूची उन्होंने दी है, उस से पता चलता है कि लेखक ने कितना श्रम किया है। उन्होंने इस बात का जिक्र किया है कि उनकी किताब से पहले जॉर्ज ग्रियर्सन पर एक जीवनी हिंदी में आ चुकी थी जाहिर है कि अब तक हिंदी और अंग्रेजी में जो कुछ भी जॉर्ज ग्रियर्सन पर प्रकाशित हो चुका है उस को आधार बनाकर डॉ. कुमार ने यह महत्वपूर्ण किताब लिखी है।
हिंदी का आम पाठक बस इतना ही जानता है कि भारतीय भाषा का एक सर्वेक्षण उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में किया था और यह कार्य जार्ज ग्रियर्सन ने किया था लेकिन तुलसीदास और विद्यापति को रेखाँकित करने वाले पहले व्यक्ति वह थे, यह बहुत कम लोग जानते है। वाह भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा पास कर 1873 में भारत आए थे। तब भारतेन्दु युग की शुरुआत हुई थी। इतना ही नही लोक साहित्य के महत्व को जानने वाले और उसे संग्रहित करने वाले पहले व्यक्ति वही थे। बाद में टैगोर और रामनरेश त्रिपाठी तथा देवेंद्र सत्यार्थी ने ने इस कार्य को अंजाम दिया।
जॉर्ज ग्रियर्सन ने भाषा सर्वेक्षण के क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण कार्य किया उसके महत्व को इस बात से समझा जा सकता है कि भारत सरकार ने डेढ़ दशक पूर्व में ऐसी योजना बनाई थी कि भारतीय भाषाओं का फिर से सर्वेक्षण किया जाए और योजना आयोग ने इसकी एक रूपरेखा भी तैयार की थी लेकिन इसके बाद भी इस योजना को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। इससे यह बात साबित होती है कि जब सरकार अपने संसाधनों का इस्तेमाल कर अपने देश की भाषा का सर्वेक्षण नहीं करा सकती है तो कैसे आज से 100 साल से भी पहले जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने व्यक्तिगत प्रयासों से इस कार्य को संभव किया था। बाद में गणेश देवी ने इस काम को अंजाम दिया।
अरुण कुमार ने इस पुस्तक में जॉर्ज ग्रियर्सन के भाषा और साहित्य के चिंतन पर भी रोशनी डाली है और कुछ मूलभूत सवाल भी उठाए हैं। उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि जॉर्ज ग्रियर्सन ने हिंदी के विकास के लिए भले ही बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया हो लेकिन वह देवनागरी लिपि के भी विरोधी थे। उन्होंने लल्लू लाल की पुस्तक की भूमिका जरूर लिखी थी पर क्या वे हिंदी के भी विरोधी थे? अरुण कुमार ने लिखा है कि डॉक्टर ग्रियर्सन की मित्रता अयोध्याप्रसाद खत्री, रामदीन सिंह और महेश नारायण से भी थी जो उस समय हिंदी की बड़ी हस्ती थे भले ही वे विस्मृत हुए और हिंदी के इतिहास में उन्हें उचित स्थान नही मिला।
महेश नारायण को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने 1981 में हिंदी की पहली मुक्त छंद की रचना लिखी थी पर डॉ ग्रियर्सन ने लोगों का अपनी किताब में कभी कोई जिक्र नहीं किया है। अरुण कुमार लिखते हैं कि बिहार के खड़गविलास प्रेस की भूमिका किताब लिखने वाले डॉ धीरेंद्र भले ही ग्रियर्सन को हिंदी सेवी मानते हो पर डॉ ग्रियर्सन बिहार को हिन्दी का इलाका नही मानते थे और देवनागरी लिपि के विरोधी थे। वे मानते थे कि हिंदी बिहार की भाषा नही हो सकती। उन्होंने अदालतों में हिंदी का भी विरोध किया था।
अरुण कुमार ने कैथी के वर्चस्व बनाम बिहार की हिंदी पर विस्तार से लिखा है। उन्होंने अपनी इस पुस्तक से बोलियों भाषा लिपि और लोक साहित्य के अन्तर्सम्बन्धों पर भी प्रकाश डाला है और ग्रियर्सन के योगदान को स्वीकार करते हुए उनके वैचारिक अंतर्विरोधों पर भी प्रकाश डाला है। पहले अध्याय में ग्रियर्सन की जीवन यात्रा का विस्तृत लेखा जोखा पेश किया है और उन्हें भाषाविद कोशकार व्याकरण निर्माता आलोचक भी माना है तथा उन्हें काव्यशास्त्र से लेकर पुरातत्व में भी गहन रुचि रखनेवाला बताया है। लेकिन क्या डॉक्टर ग्रियर्सन के पीछे उनकी कोई औपनिवेशिक मानसिकता भी काम कर रही थी कि उन्होंने हिंदी और भाषा के विकास में इतना कुछ करने के बावजूद वह हिंदी के प्रबल समर्थक नहीं रहे और उन्होंने देवनागरी लिपि का विरोध किया था इस किताब से पाठकों के मन में डॉ. ग्रियर्सन पर कई सवाल उठने लगते हैं और उनके मन में यह बात घर कर जाती है कि डॉ. ग्रियर्सन अंधता विदेशी थे और भारत की भाषाओं से शायद लगाव रखने के बावजूद हुआ। आखिरकार औपनिवेशिक दृष्टि से ही चीजों को देखते थे।
इस मनीषी ने भारत में वर्षों रहकर अनेक ग्रंथ लिखे और कश्मीरी व्याकरण की भी रचना की। भोजपुरी के गीतों का संपादन किया। बिहार के किसानों पर पहली किताब लिखी। वर्षों बिहार में रहे लेकिन बिहार में उनका कोई स्मृति चिन्ह नहीं लेकिन उनके नाम पर केंद्रीय हिंदी संस्थान का केवल एक पुरस्कार ही है।
वे काशी नागरी प्रचारिणी सभा के सदस्य भी थे लेकिन कालांतर में वह आम पाठकों में क्या इसलिए कम जाने गए क्योंकि हिंदी में कविता कहानी उपन्यास लिखनेवालों की चर्चा अधिक होती है यह उन्होंने हिंदी और देवनागरी लिपि का विरोध किया था। वैसे साहित्य की दुनिया मे कोशकार और भाषाविदों की चर्चा कम होती और उन पर शोध कार्य कम होते है लेकिन अरुण कुमार ने अपनी प्रतिभा और लगान से यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस किताब में कुल छह अध्याय है और हर अध्याय में ग्रियर्सन के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया गया है। भाषा वैज्ञानिकों और छात्रों के लिए यह काफी काम लायक विश्लेषण है। जब जब ग्रियर्सन की चर्चा हिंदी में होगी तब यह किताब एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में याद आएगी।
ग्रियर्सन—भाषा और साहित्य चिंतन : अरुण कुमार [आलोचना], मू. 695, वाणी प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर मँगवा सकते हैं।

विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com
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जॉर्ज ग्रियर्सन ने बंगाल प्रेसीडेंसी(बिहार उसका हिस्सा था) में गिरमिटिया मजदूरों को भरती करने की तत्कालीन व्यवस्था पर विस्तृत रिपोर्ट 1883 में सरकार को सौंपी थी… औपनिवेशिक दृष्टि से किया गया यह भी एक महत्वपूर्ण काम है जिससे हिंदी समाज परिचित नहीं है।
— यादवेन्द्र