टोपी शुक्ला : यह किताब दिमाग़ से बाहर नहीं जाती

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हरिशंकर शाही

“और तुम्हारी वह ज़बरदस्त चुटिया क्या हुई?”

“तुम्हारी दाढ़ी के काम आई गई?” टोपी ने जलकर कहा।

हिंदी साहित्य की किताबों में तमाम एक से बढ़कर एक कहानियाँ हैं, उपन्यास हैं, और कथाएँ हैं जो कहीं तो आत्म-कथा हैं तो कहीं आंखों देखी कथा और या किसी ऐतिहासिक काल की कथाएँ हैं। यह सभी कुछ आपको उस दौर या पल में ले जा सकती हैं या अंदर से महसूस करा सकती हैं जिस दौर की ये कहानियाँ हैं, या कथाकारी से आपको पात्रों के साथ ही जीने का या उनसे जुड़ने अहसास देती हैं। तो ऐसा ही एक उपन्यास है, जो मेरी पसंदीदा किताब के रूप में सबसे पहले खाने में है, वह है डॉक्टर राही मासूम रज़ा का ‘टोपी शुक्ला।’

कई किताबों को पढ़ने और अपने निजी पुस्तकालय में समेटने के बावजूद यह किताब मुझे कभी नहीं भूलती है, और हमेशा इसका ज़िक्र कर बैठता हूँ। इसकी कहानी और इस के पात्रों से इतना अधिक जुड़ाव महसूस करने का कारण शायद यह रहा है कि इस किताब का जो दौर है वही हमारा दौर है। मुसलमान और हिंदु कट्टरपंथ की मार-काट और आम आदमी की हर छोटी-बड़ी बात में धर्म और मज़हब की पहचान ही शायद वह अनदेखा धागा है जो इस किताब को दिमाग़ से बाहर जाने ही नहीं देता है।

टोपी और उसके दोस्त इफ़्फ़न की वह तमाम बातें, जहाँ हिंदुओं पर सब कुछ कब्जाने का आरोप लगता है, तो वहीं दूसरी ओर मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाना चाहिए इसकी व़कालत की जाती है। शायद हम इस दौर-ए-कहानी में ऐसा फंस चुके हैं कि हमारे सामने टोपी शुक्ला का हर पात्र जिंदा रहता है। चाहें पंडित भिरगूनायारन शुकला नीले तेल वाले हों या इफ़्फ़न के अब्बू। इस उपन्यास का हर पात्र हिंदु और मुसलमान के चश्मे से देखता है और समझता है, फिर उसका फर्क भी महसूस करता है।

टोपी शुक्ला की कहानी में इफ़्फ़न तो एक अहम पात्र हैं ही, लेकिन जो सबसे ज्यादा अहम किरदार टोपी के बाद, मुझे लगता है, वह हैं इफ़्फ़न की बीबी सकीना। सकीना का वह डर कि हिंदुओं से नफ़रत तो करना चाहती है, लेकिन कर नहीं सकती है। वह टोपी की बहन है टोपी की संरक्षिका है, लेकिन एक हिंदु की वह कुछ नहीं हो सकती है। रिश्तों के लिहाज़ से भी यह उपन्यास हमारी सामजिक परत को उघारती है। टोपी को राखी, ना बांधने के सवाल पर सकीना एक जगह कहती है, “यहां के मुल्लों से डरकर? यहाँ की जमीला, अनीसा, क़ुदसिया आपाओं से डरकर? यहाँ के डरपोक कम्युनिस्टों से डरकर? मैं किसी हिंदु को राखी नहीं बाँध सकती।”

यह कहानी एक बात और बहुत सी साफ़ उजागर करती है जिसे शायद देखना, कहना भूल रहा था, वह बात यह है कि आजादी के बाद और या यूँ कहें बंटवारे के बाद देश में आर्थिक असमानता दूर करने का जो साधन सबसे पहले लोगों के समझ में आया वह था नौकरी। यह नौकरी लेने और देने का जो तरीका था वह आज भी बदस्तूर जारी है, बस थोड़ा बहुत ‘सिस्टम’ आ गया है। अधिकतर पात्रों की चिढ़ नौकरियों के ना मिलने की हताशा है, वह कहीं हिंदु पक्षपात का आरोप तो कहीं मुसलमानों को यहाँ कि नौकरियों में क्या हक़ है, कहते हुए निकल जाता है। और इस नौकरी से उपजी हताशा में नए लड़कों अगला रास्ता राजनीति का ही दिखता है, जहाँ आसानी से पैसे कमाए जा सकता है।

इस उपन्यास का भावनात्मक पक्ष ही इसकी ताकत है, और साथ ही यह राजनीति, नौकरी, बेकारी, हताशा और हताशा से ऊपजी मानसिकता से भीड़ की राजनीति और जल्दी ही पैसेवाला बनकर किसी तरह से अपने को अलग करने की जो अंधी दौड़ हमें आज भी दिखती है वह इस उपन्यास में है। टोपी एक ऐसा पात्र है जो घर-परिवार, समाज, और सबसे कहीं ना कहीं निराश है या निराश किया गया है। उसे जिसकी तलाश है वह शायद आज हम सभी को है, जिसमें ज्यादा कुछ नहीं बस साधारण जिंदगी ही जीने को मिले।

बलभद्रनारायण शुक्ला के टोपी शुक्ला में बदलने की कहानी इसलिए भी मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है क्योंकि इसके पात्र जगह-जगह दिख जाते हैं। और इसके संवाद वैसे के वैसे ही रहते हैं, बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को इसके पात्र दिखने इतने भी मुश्किल नहीं हैं। डॉक्टर रज़ा वैसे भी अपनी कहानियों में पूर्वी उत्तर-प्रदेश को बहुत काएदे से उकरेते दिखते हैं। तो इसीलिए इस पृष्ठभूमि का इंसान इसे आसानी से आत्मसात कर सकता है।

इस किताब ने सोच के भीतरी खानों में अपनी बैठ बना ली है, इसके पात्रों की कहानी अपनी कहानी जैसी लगती है और यही तो कथा की विशेषता होती है कि अगर पढ़ने वाला उसके किरदारों को देख सकता है, तो कथा का लक्ष्य पूरा हो जाता है। अंतिम में जब टोपी की मौत हो जाती है, वह भी निहायत तन्हाई में वह भी नौकरी का परवाना पढ़ने, और सकीना की राखी मिलने के बाद, तो सवाल मथता है कि टोपी का लक्ष्य नौकरी तो शायद था ही नहीं। उसका लक्ष्य वह परिवार, वह दोस्त, वह समाज था जो शायद बना होता तो टोपी जिंदा होता।


टोपी शुक्ला : राही मासूम रज़ा [उपन्यास], मू. 150 रुपये, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से भी मँगवा सकते हैं।  


हरिशंकर शाही : विगत आठ वर्षों से स्वतंत्र लेखन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अनुवाद, भाषाई श्रम, लोकलाइजेशन प्रोजेक्ट, और कमर्शियल लेखन कर रहा हूँ। कमर्शियल लेखन और भाषाई श्रम से संबंधित तकीनीकी प्रयोग में स्वतंत्र वीडियो एडिटिंग और डिज़ाइनिंग भी मेरे कार्य का हिस्सा हैं। अखबार और पत्रिकाओं के लिए कॉलम या लेख भी अक्सर लिखता हूँ। भाषा संबंधी हर कार्य का हिस्सा हूँ और हर किसी नए कार्य का हिस्सा बनना प्राथमिकता है। लेखक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— harishankar.shahi@gmail.com


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