वीरेंद्र यादव
प्रायः ऐसा कम होता है कि कोई कृति तुरंता समय के पार जाकर पाठक को उस टाइम जोन में अवस्थित कर दे जिसमें वह सचमुच जीने को अभिशप्त हो. चंदन पांडे की उपन्यासिका या लंबी कहानी ‘ वैधानिक गल्प’ का पढ़ना कोरोना कैद के पार जाकर उस वास्तविक समय को महसूस करना है, जो किसी लंबी अंधेरी सुरंग से कम नहीं है. यूँ तो कथानक मुख्तसर सा है, मुख्यपात्र रफीक की गुमशुदगी की गुंजलक को रचते भेदते हुए. लेकिन इस कथानक के निहितार्थ गहरे और दूरगामी हैं. उत्तर भारत के एक ऊंघते कस्बे की यह कहानी बदल चुके भारत की वह तस्वीर बयां करती है, जहाँ अब लघु और वृहत्तर वृतांत विलयित होकर वर्तमान समय के प्रभुत्वशाली विचार में स्थापित हो चुका है.
कथावृतांत में रफीक का गायब होना महज एक व्यक्ति का गायब होना न होकर प्रतिरोध के उस साझी हौसले का अदृश्य किया जाना है जिसमें किसी नियाज़ को किसी अमनदीप द्वारा नौकरी का जोखिम उठाकर बचाया जा सकता है और रफीक सरीखे बेहतरीन कलाकार और प्रतिभाशाली रचनाकार इसे अपने नुक्कड़ नाटक का विषय बनाकर लोगों को जागरूक करने का हौसला बांधते हैं. नुक्कड़ नाटक की टीम को एक एक कर गायब किया जा रहा है ताकि लवजिहाद की मनगढ़ंत को झुठलाने वाले सबूतों को मिटाया जा सके. रफीक और जानकी के अध्यापक और छात्रा के संबधों को लव जेहाद के जिस रसायन में तैयार किया जा रहा है, उसकी भठ्ठी दहकाने में संस्कृति के कथित रक्षक, पुलिस, मीडिया, राजनीति के खिलाड़ी और कस्बे के रसूखदार सब शामिल हैं.
उपन्यास का नैरेटर एक मध्यवर्गीय शहरी लेखक है, जो कभी के बीते व रीते संबंध के अपराध और दायित्व बोध के चलते अपनी पूर्व प्रेमिका व रफीक की पत्नी अनसूया के मददगार के रूप में उन समूची स्थितियों का साक्षी बनता है जो आज के समय की नंगी सच्चाई है. कुल मिलाकर यह कि अपनी संपूर्णता में इस कथा वृतांत से गुजरना उन सच्चाइयों से रुबरु होना है जो रोजमर्रा घटित होते हुए भी खबरों की दुनिया से अपने वास्तविक रुप में अनुपस्थित हैं.
चंदन पांडे इसे पूरी संवेदनशीलता के साथ कथात्मक बना सके, इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं.जनतंत्र को खौफतंत्र में बदलते जाने के इस क्रिटिक को पढ़ा जाना चाहिए. छोटे कलेवर के बावजूद यह अपने समय में एक जरुरी रचनात्मक हस्तक्षेप है.
पुस्तक अंश
वैधानिक गल्प : चन्दन पांडे
डायरी का पहला अंश पढ़ कर मिजाज कसैला हो गया. संविदा शिक्षकों के ऐसे हालात पर क्या कभी उन्होंने गौर किया होगा जिन्होंने एड-हाव्किज्म बनाया. आश्चर्य इसका भी हुआ कि संविदा पर रहते हुए खुराकपुर्सी से अलग रंगमंच के लिए समर्पित हो पाना भी एक बड़ा काम रहा होगा. कितना तटस्थ रहना होता होगा, मन में जीवन के प्यारे पक्षों को लेकर, उन्हें संजोने को लेकर, कुछ कर गुजरने की इच्छा जैसी कितनी मीनारें खड़ी होंगी.
आख़िरी हिस्से को पढ़कर हैरत इस बात की हुई कि नोमा जैसे कस्बेनुमा शहर में रहते हुए, एड-हॉक की नौकरी करते हुए, बिना किसी शोर-ओ-गुल के यह बन्दा युन फोस्से के नाटकों को न सिर्फ पढ़ रहा है, बल्कि उन्हें छात्रों के साथ मिलकर मंचित भी कर रहा है.
रफीक से मिलना, उस धुनी मनुष्य को देख सकना, अब अपना व्यक्तिगत उद्देश्य होता जा रहा था. लगा कि जिस ख़ास समय में रफीक को मेरी जरुरत थी, या कम से कम जो मुझे लग रहा था, उसी समय में रफीक किसी जादू की तरह मेरी जिन्दगी के अनसुलझे प्रश्नों का जवाब बन कर आता दिख रहा था.
जब कोई पन्ना खुलता नहीं दिखा और हर प्रयास में कागज़ फटते ही रहे तब मैंने निर्णय लिया कि हरेक पन्ने को एक एक पूरे कमरे में फैला दिया जाए. शुरुआत मैंने आलमारी से की. लकड़ी की उस आलमारी में तीन खाने थे. नीचे वाला खाना बड़ा था लेकिन उसका बड़ा होना मेरे किसी मशरफ का नहीं था. मुझे सतह पर ही कागजों को फैलाना था. कागजों के फैलाने के साथ मन के भीतर बेचैनी का एक गूमड़ उमड़ता जा रहा था. फैलाने के क्रम में एकाध अक्षर या एक दो कोई शब्द रौशनी की तरह चमक जाते लेकिन मुझे उन्हें समूचेपन में पढ़ना था.
आलमारी के निचले खाने की सतह पर छ: पन्ने ही पसर सके. इस तरह करीब बीस पन्नों के सुखाने का इंतजाम इस आलमारी के जरिए हो सकता था. उपरी खाने में कागजों को फैलाते हुए वह चार हैंगर दिखे, जिनमें से दो पर मेरे कपड़े थे. उन कपड़ों को बिस्तर पर डाल दिया और उन चार हैंगर पर रजिस्टर के तीन तीन पन्ने, एक के ऊपर एक, टांग दिए. पंखे की हवा में वह पन्ने फडफडा रहे थे. पंख की तरह या किसी भी अन्य की तरह नहीं. अपनी तरह. जैसे कागज़ फडफडाते हैं. यह उनके सूखने का या सूखते चले जाने का शुरुआती लक्षण भी हो सकता था.
इसी क्रम में दूसरी नोटबुक तथा दोनों डायरियों के पन्नों को कमरे के फर्श, वाशरूम के बेसिन तक पसार दिया था. फिर भी जब बहुत सारे पन्ने बचे रह गए तब उन्हें बिस्तर पर, अपने सोने भर की जगह छोड़ कर, पसार दिया. बिस्तर पर एक के ऊपर एक यानी दो पन्ने तरउपरिया फैलाए थे.
लेकिन पन्ने खत्म होने का नाम नहीं ले रहे थे.
अपनी कमीज और पतलून को एक तरफ खिड़की और दूसरी तरफ पलंग के सिरहाने से बाँध कर अलगनी बनाया और बाकी बचे सारे पन्ने उस पर फैला दिए.
पूरा कमरा अक्षरों से, शब्दों से, वाक्यों से, उनके अर्थों से और सबसे बड़ी बात कि रफीक के होने और न होने की संभावना से पटा पड़ा था. यह थका देने वाली कवायद करीबन आधे पौना घंटे तक चली होगी इसलिए खत्म करते ही बिस्तर पर मैं खुद भी पसर गया. और यह सोच कर डर गया कि थोड़ी देर पहले मैं जिन शब्दों में रफीक के गायब होने की संभावनाओं को तलाश रहा था, कहीं मैं भी उनमें से तो एक नहीं था.
इन शब्दों के बीच पड़े पड़े मैं भी एक शब्द सा खुद को प्रतीत होने लगा था. वह शब्द गुमशुदा, लापता, गायब, खो जाना, बिला जाना कुछ भी हो सकता था लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं था. मेरा मन इन संज्ञाओं को रफीक पर आरोपित करने के लिए तैयार नहीं हो पा रहा था. गुमशुदा लोगों के लिए इतने विज्ञापन दिख जाते हैं लेकिन आज से पहले कभी यह ख्याल नहीं आया कि मनुष्य पर इन संज्ञाओं को निरुपित करना अमानवीय है. मसलन वस्तुओं के लिए प्रयोग में लाये जाने वाले क्रूर शब्द मनुष्यों पर कितने खराब लग सकते हैं, यह बात समझ में आ रही थी और नहीं भी आ रही थी. मनुष्य की गरिमा को साबुत रखने के लिए कहना चाहिए कि रफीक घर नहीं लौटा है. इस वाक्यांश में उम्मीद का सूरज है जो संभव है उगा न हो, लेकिन है. इस पृथ्वी पर मनुष्य को इतनी आजादी होनी चाहिए कि वह चाहे जब घर लौट आए. पत्नी की आँखों में ही हो, पति पत्नी के अरमान में ही हो लेकिन लौटने के लिए एक घर होना चाहिए. इस सुखद ख्याल से कि रफीक के पास लौटने के लिए लोग हैं, घर है, नींद ने मुझे हर तरफ से घेर लिया.
वैधानिक गल्प : चन्दन पांडे, मू. 160 रूपये [पेपरबैक], राजकमल प्रकाशन, दिल्ली | अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.
वीरेन्द्र यादव : लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए.। छात्र जीवन से ही वामपंथी बौद्धिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के लम्बे समय तक सचिव एवं ‘प्रयोजन’ पत्रिका का सम्पादन। जान हर्सी की पुस्तक ‘हिरोशिमा’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद। साहित्यिक सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में विपुल लेखन। प्रेमचन्द सम्बन्धी बहसों और ‘1857’ के विमर्श पर हस्तक्षेपकारी लेखन के लिए विशेष रूप से चर्चित। कई लेखों का अंग्रेजी और उर्दू में भी अनुवाद प्रकाशित। ‘राग दरबारी’ उपन्यास पर केन्द्रित विनिबन्ध इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। ‘नवें दशक के औपन्यासिक परिदृश्य’ पर विनिबन्ध ‘पहल पुस्तिका’ में प्रकाशित। सम्मान: आलोचनात्मक अवदान के लिए वर्ष 2001 के देवीशंकर अवस्थी सम्मान से समादृत।