अभिषेक कश्यप
किस्से-कहानियों के साथ-साथ चित्रों से भी एक सहज लगाव बचपन से रहा है। तब शब्दों से इतना गहरा नाता नहीं बन पाया था लेकिन अब सोचता हूं, छुटपन में ही यह अहसास हो गया था कि अच्छे चित्रों में एक जादू होता है, जो हमारे अंतर्जगत में घटित होता है। अच्छे चित्र हमें अदेखे-अबूझ एक नये संसार में ले जाते हैं। वे लंबे समय तक हमारी स्मृतियों में जब-तब कौंधते रहते हैं और इस तरह वे अनिवार्य रूप से हमारी कल्पनाओं का हिस्सा बन जाते हैं।
होश संभालने के बाद देखे गए चित्रों में देवी-देवताओं के चित्रों की ही स्मृतियां बाकी हैं, जो पूजाघर के साथ-साथ दादाजी के बनवाए बड़ी-बड़ी खिड़कियों और ऊंचे छतोंवालों हमारे पुराने, जर्जर बंगले के प्रायः सभी कमरों में कैलेंडर के रूप में मौजूद थे। तब इन चित्रों को देख कर मन में गहरा विस्मय जगता था… हाथों में लड्डू लिए अदने-से चूहे पर बैठा हाथी के सूढ़वाला बच्चा, एक हाथ में गदा दूसरे में पहाड़ उठाए उड़ता हुआ एक वनमानुष, सुर्ख लाल जीभ लपलपाती एक काली डरावनी औरत, शेर पर बैठी दस हाथों में तरह-तरह के हथियारों से लैस एक क्रोधित स्त्री…इन सबमें गहनों से लदी और कमल फूल पर विराजमान होने के बावजूद सबसे भली, सहज, सुंदर वह स्त्री थी, जिसके हाथ में वीणा था। बाद में हमने इन्हें देवी-देवताओं (गणेश, बजरंग बली, काली, दुर्गा, सरस्वती) के रूप में पहचाना। (बहुत बाद में पता चला कि ये सारे चित्र भारत में ब्रिटिश राज के दौरान चित्रकार राजा रवि वर्मा ने बनाए थे और छापखाना डाल कर इन चित्रों को कैलेंडर के रूप में घर-घर पहुंचा दिया था।)
फिर हुआ यह कि रोज-रोज घर-बाहर देखते हुए ये छवियां इतनी आम हो गयीं कि किशोरावस्था तक आते-आते इनको लेकर मन में कोई खास कौतुक नहीं बचा। हमें इन्हें देखते रहने, पूजते रहने की आदत पड़ गयी। वे घर में रखे पलंग, कुर्सियों, बर्तनों जैसी हो गए। जीवन की अनिवार्य/आम उपस्थिति।
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साल 1987। मैं छठी कक्षा में था। तब जैसा कि अधिकांश बच्चों के साथ होता था, किशोरावस्था में पाठ्यक्रम की किताबों से अरूचि और इसके समानांतर कॉमिक्स, कहानियों की किताबें, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने का गहरा चस्का लग चुका था (बाद में यही चस्का कहानी-लेखन और पत्रकारिता की ओर ले गया)। उन्हीं दिनों मैंने किसी साप्ताहिक पत्रिका में वॉन गॉग का चित्र ‘सूरजमुखी’ देखा (‘सूरजमुखी’ श्रृंखला का एक चित्र) और इसके चटख रंग-रूपाकारों की उष्मा मेरे भीरत कहीं गहरे जा कर पैठ गयी! यह चित्र मैंने सैकड़ों बार देखा और 31 साल गुजर जाने के बाद भी मेरे जेहन में इसकी स्मृति उतनी ही ताजा है। उसके बाद मैंने जब भी सूरजमुखी का कोई फूल देखा, मुझे गॉग का वह चित्र याद आया। यह गॉग के जूनून और गहरे आत्मसंघर्ष से उपजी महान कला का ही जादू है कि मेरे लिए ‘सूरजमुखी’ अब प्रकृति द्वारा रचित कोई फूल न हो कर एक चित्रकार की कल्पना है।
प्रकृति द्वारा रचित संसार के समानांतर एक प्रतिसंसार !
महान कलाकृतियों का यही तो रहस्य है-वे पहले से मौजूद संसार के समानांतर ‘एक और संसार’ रच डालते हैं। कमाल यह कि ‘यह नया संसार’ (प्रतिसंसार) पहले से मौजूद संसार से ज्यादा वास्तविक, ज्यादा आत्मीय होने की अनुभूति जगा सकता है।
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वॉन गॉग के बाद अखबारों-पत्रिकाओं के जरिये जिस दूसरे चित्रकार से मेरा परिचय हुआ, वे थे-मकबूल फिदा हुसेन। हुसेन के ‘बिटविन स्पाइडर एंड द लैंप’, मदर टेरेसा, घोड़ा श्रृंखला के चित्र मैंने कई पत्रिकाओं में छपे देखे और उनके जरिए यह अहसास हुआ कि चित्रकला की दुनिया एक बड़ी और दिलचस्प दुनिया है। चित्र ही नहीं, अखबारों-पत्रिकाओं में सफेद दाढ़ीवाले रंगीले हुसेन के फोटोग्राफ देख कर लगता-यह जरूर कमाल का आदमी होगा। तब तक मैं एक स्थानीय अखबार में लिखने लगा था, सो यह इच्छा जगी कि कभी हुसेन का इंटरव्यू करूंगा। इंटरव्यू माने हुसेन से मिल कर खूब सारी बातें करूंगा (अफसोस ! यह हो नहीं पाया)।
खैर, साल 2000 में दिल्ली आ कर बस जाने के बाद संग्रहालयों और चित्र-प्रदर्शनियों में ओरिजनल पेंटिंग्स देखने के साथ-साथ चित्रों पर छोटी-मोटी टिप्पणियां लिखने, कलाकारों से मिलने-जुलने, इंटरव्यू करने, जाने-माने, अनजाने कलाकारों से परिचय और दोस्तियों का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अब तक जारी है।
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चित्र देखना, चित्र का आनंद लेना, उससे संबंध स्थापित करना एक सहज, सरस प्रक्रिया है, जहां सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त, खुद को खुला रखना होता है। मुझे हैरानी होती है, तरस भी आता है उन लोगों पर, जो किसी चित्र-प्रदर्शनी में पहुंच कर बिना चित्र को देखे ही यह जुुमला उछाल देते हैं-‘‘हमें चित्र समझ नहीं आता।’’ या फिर चित्रकार से कहते हैं-‘‘यार, हमें समझाओ। चित्रकला में मेरी कोई गति नहीं है।’’ उन्हें समझाना मुश्किल है कि चित्र को समझने की नहीं, खुले मन से देखने और अनुभव करने की दरकार है। फिर ऐसे तथाकथित कला रसिकों की भी कोई कमी नहीं, जो चित्र देखते नहीं बल्कि ‘देखने का अभिनय’ करते हैं।
इस चाक्षुष निरक्षरता, चित्र को समझने, देखने के ढकोसले की विडंबना पर किंवदंती बन चुके चित्रकार, कला चिंतक जे. स्वामीनाथन से जुड़े एक प्रसंग को याद करना प्रासंगिक होगा। स्वामीनाथन तब भारत भवन, भोपाल के ‘रूपंकर’ संग्रहालय के निदेशक थे। तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह भारत भवन देखने आए। उनके साथ मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल और अन्य अधिकारीगण भी थे। ज्ञानी जैल सिंह ‘रूपंकर’ संग्रहालय में चित्रों को देखते हुए कुछ-न-कुछ टिप्पणी करते जा रहे थे। मूर्धन्य चित्रकार अम्बा दास के चित्र के सामने खड़े होते ही वे बोले-‘‘यह चित्र मेरी समझ में नहीं आया।’’ राज्यपाल ने भी सहमति में सिर हिलाया। फिर जब वे स्वामीनाथन के ‘पेड़, पहाड़, चिडि़या’ श्रृंखला वाले चित्र के सामने आए तो कुछ प्रसन्न हो कर बोले-‘‘हां, यह चित्र मेरी समझ में आ रहा है। किसका है ?’’ स्वामी बोले-‘‘बनाया तो मैंने ही है पर यह मेरी समझ में नहीं आता!’’
सैकड़ों चित्र-प्रदर्शनियों, दर्जनों संग्रहालयों में अनगिनत चित्रों को देखते, लंबे समय से अनूभूति, कल्पना और स्मृति की भूमि पर चित्रों से अपना संबंध स्थापित करते हुए, अपनी अत्यंत सीमित समझ के साथ बस यही कह सकता हूं कि अच्छे चित्र वही हैं, जो अपनी भौतिक उपस्थिति का विलोम रचते हैं। हमें बस पूर्वाग्रह से मुक्त हो कर चित्र देखना होता है, कुछ इस भाव से कि हम अपने किसी प्रिय मित्र या परिजन से मिल-बतिया रहे हों। फिर चित्र स्वतः ही हमसे एक आत्मीय संबंध स्थापित कर लेते हैं। फिर वे भौतिक रूप में हमारे समक्ष उपस्थित न होते हुए भी हमारे भावबोध का हिस्सा बने रहते हैं। फिर समय के साथ हमारे अंतर्जगत में उनकी उपस्थिति और सघन और तीव्र होती चली जाती है !
कला वार्ता : अभिषेक कश्यप [विवेचना], मू. 495 रुपये, अनन्य प्रकाशन, दिल्ली। यह पुस्तक आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं।
अभिषेक कश्यप : चर्चित युवा कथाकार, कला समीक्षक, संस्कृतिकर्मी व पत्रकार। प्रकाशित कृतियां: ‘खेल’, ‘सबसे अच्छी लड़की’ (कथा-संग्रह), ‘हम सब माही’ (उपन्यास), ‘देखते परखते हुए’ (समीक्षा/आलोचना), ‘नोटबुक’ (कथेतर गद्य), ‘सृजन संवाद’ (लेखकों के साक्षात्कार), ‘चित्र संवाद’ (समकालीन भारतीय चित्रकारों के साक्षात्कार), ‘कलावार्ता’ (कलाकारों के साक्षात्कार व कला समीक्षा), ‘कलाकार का देखना’ (चित्रकार अखिलेश से संवाद), ‘एक था चिड़ा एक थी चिड़ी’ (बाल कथा-संग्रह)। संपादित पुस्तकें: ‘जोगेन’ (विख्यात चित्रकार जोगेन चौधरी पर केंद्रित)। ‘छोटी-छोटी मुलाकातें’ (विख्यात मीडियाकर्मी शरद दत्त द्वारा किये गए साक्षात्कारों का वृहद संकलन)। ‘शब्द संसार’ (विख्यात पत्रकार और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के आलेखों का संकलन)। ‘कला की दुनिया में’ (प्रसिद्ध कवि, कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल का कला-लेखन संचयन)। ‘अनामिका: एक मूल्यांकन’ (प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका के कृतित्व का विशद मूल्यांकन), ‘कविता का लोकतंत्र’ (रमणिका गुप्ता की कविताओं के विशद मूल्यांकन पर केंद्रित)। सम्मान: साल 2006 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने देश के 13 ‘ऑलमोस्ट फेमस’ युवा लेखकों में चुना। कथा-संग्रह ‘खेल’ पर सांस्कृतिक संस्था एसएएमएमएफ (उत्तर प्रदेश) का पहला ‘युवा कथा सम्मान’ (2010)। संप्रति: पूर्वी भारत के पहले कला मेला ‘धनबाद आर्ट फेयर’ के संस्थापक निदेशक। भारतीय कलाकारों के साक्षात्कारों पर केंद्रित हिंदी की पहली पत्रिका ‘प्रोफाइल’ और त्रैमासिक हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘हमारा भारत संचयन’ का संपादन-प्रकाशन। समूह चित्र-प्रदर्शनी श्रृंखला ‘द्वादशी’ के क्यूरेटर। लेखक से इस ई-मेल पर संपर्क किया जा सकता है— indiatelling@gmail.com