सांप्रदायिक दंगों के कारणों की पड़ताल करता है– ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’

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दीपक गिरकर

हिंदी के सुपरिचित कथाकार पंकज सुबीर का धार्मिक दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखा उपन्यास ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ इन दिनों काफी चर्चा में है। इस उपन्यास के पूर्व पंकज जी के दो उपन्यास और 5 कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इस उपन्यास में कथाकार ने धर्म, धार्मिक कट्टरता, सांप्रदायिक दंगों, विघटनकारी और कलुषित विचारधाराओं पर अपनी कलम चलाई है। लेखक ने इस उपन्यास में ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सांप्रदायिकता और देश के विभाजन को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं। साम्प्रदायिकता के वीभत्स रूप पर हिंदी में अनेक कथाकारों ने उपन्यास लिखे हैं। जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था उपन्यास यशपाल के ‘झूठा सच’, नासिरा शर्मा के ‘जीरो रोड’, गीतांजलिश्री के ‘हमारा शहर उस बरस’, कमलेश्वर के ‘कितने पाकिस्तान’, राही मासूम रजा के ‘आधा गाँव’, विभूति नारायण राय के ‘शहर में कर्फ्यू’ और भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ से अपने कथ्य, प्रस्तुति और चिंतन की दृष्टि से भिन्न है। भीष्म साहनी ने भी “तमस” उपन्यास में सांप्रदायिक दंगों के कारणों का विश्लेषण किया था। ‘तमस’ उपन्यास भी सांप्रदायिक उन्माद और उसके पीछे की राजनीति को उजागर करने वाला उपन्यास है। आलोचक प्रफुल्ल कोलख्यान के अनुसार ‘तमस’ एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह महान उपन्यास होता यदि इसमें उस परोक्ष भारतीय परिदृश्य को भी उपन्यस्त कर प्रत्यक्ष किया गया होता जिस भारतीय परिदृश्य को बदलने के लिए औपनिवेशिक ताकतें जनता का विभाजन करती रही हैं और जिस प्रयोजन के लिए सांप्रदायिकता का परोक्ष इस्तेमाल करती रही हैं। ‘तमस’ का सन्देश है कि तमस को पहचानना आसान नहीं है, उससे बाहर निकलना तो खैर बहुत मुश्किल है।

अभी तक सांप्रदायिक दंगों पर जितने भी उपन्यास लिखे गये हैं उनमें यह उपन्यास ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था’ उन सब से अलग खड़ा दिखाई देता है क्योंकि लेखक ने धर्म के मर्म की पड़ताल ऐतिहासिक तथ्यों के साथ की है और साथ ही सांप्रदायिक दंगों के असली कारणों का पर्दापाश करते हुए सांप्रदायिक सदभाव का सकारात्मक सन्देश दिया है। कथाकार पंकज सुबीर सांप्रदायिकता नामक बीमारी की गहराई तक गए है और इस विषय पर गहन चिंतन भी किया है। जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था बहुपात्रीय उपन्यास है।

पात्रों की अधिक संख्या से ऊब नहीं पैदा होती है, अपितु उनके संवाद से स्वाभाविकता का निर्माण होता है। उपन्यास के पात्र गढ़े हुए नहीं लगते हैं, सभी पात्र जीवंत लगते हैं। प्रत्येक पात्र अपने-अपने चरित्र का निर्माण स्वयं करता है। पुस्तक के के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखक ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। उपन्यास में दो मुख्य चरित्र हैं— एक सूत्रधार रामेश्वर है जो कथानक को निरंतर गतिशील रखता है और दूसरा चरित्र शाहनवाज है जिससे वह लगातार मुखातिब है। इनके अलावा इस उपन्यास में भी कुछ चरित्र है भारत यादव, विकास परमार, वरुण कुमार, शाहनवाज के पिताजी शमीम, रामेश्वर का पडोसी सलीम जिनकी अलग-अलग गरिमा है। विनय, सलामुद्दीन और पुरुषोत्तम जैसे चरित्र धर्म के नाम पर दंगों की आग को भड़काते हैं।

इस उपन्यास में दिखने वाले चेहरे हमारे बहुत करीबी परिवेश के जीते-जागते चेहरे हैं। इस पुस्तक को पढ़ते हुए इस उपन्यास के पात्रों के अंदर की छटपटाहट, दंगा पीड़ितों की व्यथा, पीड़ा और प्रशासनिक अधिकारियों के अन्तर्मन की अकुलाहट को पाठक स्वयं अपने अंदर महसूस करने लगता है। कथाकार ने घटनाक्रम से अधिक वहाँ पात्रों के मनोभावों और उनके अंदर चल रहे अंतर्द्वन्द्वों को अभिव्यक्त किया है। यह उपन्यास बेहद पठनीय है और पाठक की चेतना को झकझोरता है। रामेश्वर के खड़खड़ाते तेवर पाठकों को प्रभावित करते हैं। यह उपन्यास जीवन के यथार्थ और सच्चाइयों से रूबरू करवाता है। भाषा सरल और सहज है। लेखक ने पात्रों के मनोविज्ञान को भली-भांति निरूपित किया है और साथ ही उनके स्वभाव को भी रूपायित किया है।

उपन्यास के कथानक में मौलिकता और स्वाभाविकता है। इस उपन्यास की कथा एक रात की है, जिसमें एक कस्बे की बाहर की बस्ती में दो सम्प्रदायों के लोगों के बीच दंगा भड़क उठता है। उस बस्ती में जहाँ दंगा भड़कता है वहाँ कोचिंग शिक्षक रामेश्वर के पुत्रवत शिष्य शाहनवाज का परिवार रहता है। उस रात को शाहनवाज की पत्नी को प्रसव पीड़ा होती है। रामेश्वर सारी रात जागकर किस प्रकार अपने शिष्यों और प्रशासनिक अधिकारियों की मदद से शाहनवाज की पत्नी को उसके परिवार सहित उस बस्ती से सुरक्षित बाहर निकलावाकर अस्पताल में पहुँचवाता है और दूसरी ओर अपनी कॉलोनी में रहने वाले मुस्लिम परिवार के जान-माल की अपने शिष्यों की सहायता से रक्षा करता है, यह तो आप उपन्यास पढ़कर ही समझ पाएंगे। एक साध्वी कंप्यूटर सीखना चाहती है लेकिन वह न तो कक्षा में आना चाहती है और न ही अपने निवास पर एक कंप्यूटर शिक्षक शाहनवाज से सीखना चाहती है क्योंकि शाहनवाज एक मुस्लिम है। इस कृति के माध्यम से लेखक जीवन की विसंगतियों और जीवन के कच्चे चिठ्ठों और धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को उद्घाटित करने में सफल हुए है।

आलोच्य कृति महज एक उपन्यास नहीं है बल्कि एक विचारधारा है। उपन्यास का शीर्षक अत्यंत सार्थक है। पुस्तक में यहाँ वहाँ बिखरे सूत्र वाक्य उपन्यास के विचार सौंदर्य को पुष्ट करते हैं। जैसे–

जिस समय रामनवमी का यह जुलूस निकाला जाना था, उस समय तक राम से ज्यादा राम की जन्मभूमि का महत्त्व बढ़ चुका था। और इसी कारण उस दिन रामनवमी का वह जुलूस राम का न होकर जन्मभूमि का जुलूस था। (पृष्ठ 23)

“पोलेराइजेशन…सीधी भाषा में कहा जाए तो भेड़िए के आने का डर दिखा कर, डरी हुई भेड़ों को अपने बाड़े में बंद करना। इकट्ठा करना।“ (पृष्ठ 39)

सरकारी जमीन पर क़ब्ज़ा करने का इस देश में सबसे आसान तरीक़ा है, मंदिर बनाना। (पृष्ठ 40)

“वो सर… वो… गाड़ी का बीमा और दंगे का मुआवज़ा लेने के लिए गाड़ी में गाड़ी मालिक ने ख़ुद ही आग लगा दी है। गाड़ी का बीमा भी मिल जाएगा और साथ में दंगे का मुआवज़ा मिलेगा वो अलग से। गाड़ी की हालत बहुत ख़राब थी, बहुत काम निकाल रही थी, इसलिए… इसलिए उसके मालिक ने दंगे का फ़ायदा उठा कर अपने ही हाथ से आग लगा दी।” (पृष्ठ 69)

हर कोई धर्म का उस प्रकार से अर्थ निकालता है, जिस प्रकार से धर्म उसके लिए सुविधाजनक हो। असुविधा देने वाला धर्म किसी को पसंद नहीं। (पृष्ठ 91)

सांप्रदायिक दंगा कभी भी सांप्रदायिक कारणों से नहीं होता है। आज तक के इतिहास में कभी भी नहीं हुआ है। सांप्रदायिक दंगा हमेशा व्यक्तिगत कारणों से होता है। (पृष्ठ 146)

किस धर्म की धर्म पुस्तक में हिंसा नहीं है? कौन सी ऐसी धार्मिक किताब है, जो हिंसा से भरी हुई नहीं है। बाइबिल, कुरआन, महाभारत, रामायण…? सारे धर्म अपने मूल में बात करते हैं अहिंसा की, लेकिन सारे धर्मों की किताबों में जो कहानियाँ होती हैं, वो हिंसा की कहानियाँ होती हैं, यह सबसे बड़ा विरोधाभास है। धर्म का पूरा कारोबार ही हिंसा पर टिका हुआ है, उसे स्थापित होने और स्थापित रहने, दोनों के लिए ही हिंसा की आवश्यकता पड़ती है। उसे हिंसा प्रारंभ करवाने के लिए बस एक ही वाक्य कहना होता है— “धर्म खतरे में है” बाकी काम अपने आप हो जाता है। (पृष्ठ 219)

जिस प्रकार फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में फिल्म का मुख्य पात्र महात्मा गांधी से संवाद करता है, उसी तरह से इस पुस्तक में उपन्यास के मुख्य पात्र रामेश्वर के मोबाइल फोन के इंटरसेप्ट हो जाने से रामेश्वर का नाथूराम गोडसे, जिन्ना और महात्मा गाँधी के साथ जो संवाद होता हैं उससे पाठकों को इतिहास की भ्रांतियों और देश विभाजन के सारे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं। कथाकार ने जिन्ना की महत्वाकांक्षा, धर्मनिरपेक्षता को, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के मनोविज्ञान, उनके मानसिक सोच-विचार, कांग्रेस के इतिहास को और अंग्रेजों की विघटनकारी व फूट डालो नीतियों को इस पुस्तक के माध्यम से भली-भाँति निरूपित किया है। उपन्यास में इस तरह की अभिव्यक्ति शिल्प में बेजोड़ है और लेखक की रचनात्मक सामर्थ्य का जीवंत दस्तावेज है। इस उपन्यास में सजीव, सार्थक, स्वाभाविक और सरल संवादों का प्रयोग किया गया है। 

इस पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर पंकज सुबीर ने बहुत ही सकारात्मक सारगर्भित बात लिखी है। उन्होंने लिखा है ”उन गुनाहगारों की नस्ल अभी ख़त्म नहीं हुई। अभी यह कहना ठीक नहीं होगा कि वो चले गए। बहुत सारे लोगों के रूप में अभी वो लोग बाकी हैं और आने वाले समय में भी बाकी रहेंगे। माफ़ी चाहता हूँ फ़ैज़ साहब, अभी गुनाहगार गए नहीं हैं। गुनाहगार यहीं हैं। भारत यादव, विकास परमार, वरुण कुमार, शाहनवाज के रूप में इश्क़ का जुर्म करने वाले और उस जुर्म पर नाज़ करने वाले अभी बहुत से गुनाहगार बाक़ी हैं। बाक़ी है उनके अंदर जूनून-ए- रूख़-ए-वफ़ा भी। जो मानते हैं कि असत्य के रास्ते पर मिलने वाली जीत से महत्वपूर्ण सत्य के रास्ते पर मिलने वाली पराजय है। कह दीजिए उन लोगों से जो पाँच हज़ार साल से रसन और दार लिए घूम रहे हैं इन गुनाहगारों के पीछे। कह दीजिए कि आने वाले पाँच हज़ार सालों के लिए भी रसन और दार का इंतजाम कर के रख लें। हम मानने वाले नहीं हैं। हमारी नस्ल ख़त्म होने वाली नहीं है।” 

पंकज जी पाठकों का ध्यान धार्मिक दंगों के कारणों की तह में ले जाने में कामयाब होते हैं। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने धर्म और इतिहास से संबंधित सही तथ्य प्रस्तुत किये हैं। पुस्तक में सभी धर्मों और इतिहास के बारे में सूक्ष्म जानकारियाँ गहन शोध का परिचय देती है। उपन्यास के बुनावट में कहीं भी ढीलापन नहीं है। लेखक ने इस उपन्यास को बहुत गंभीर अध्ययन और शोध के पश्चात लिखा है। जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था उपन्यास शिल्प और औपन्यासिक कला की दृष्टि से सफल रचना है। पुस्तक में कुछ प्रूफ और टंकण की त्रुटियाँ जरूर है। आशा की जानी चाहिए कि अगले संस्करण में यह सुधार ली जाएगी। यह उपन्यास सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। यह कृति धर्म, सांप्रदायिकता, धार्मिक विसंगतियों पर पर बहुत ही स्वाभाविक रूप से सवाल खड़े करती है और इन विषयों पर एक व्यापक बहस को आमंत्रित करती है। यह उपन्यास निश्चित ही पठनीयता के नए मानदंड स्थापित करेगा।


जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था : पंकज सुबीर [उपन्यास], मू. 200, शिवना प्रकाशन, सीहोर। आप इसे यहाँ shivna.prakashan@gmail.com  मेल करके भी मँगवा सकते हैं।


दीपक गिरकर : भारतीय स्टेट बैंक से जुलाई, 2016 में सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवा निवृत्त।वर्तमान में रचनात्मक लेखन : स्वतंत्र टिप्पणीकार, व्यंग्यकार, लघुकथाकार, समीक्षक। ‘बंटी, बबली और बाबूजी का बटुआ’ (व्यंग्य संग्रह), ‘एनपीए एक लाइलाज बीमारी नहीं’। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य, लघुकथा, समीक्षा और आलेख प्रकाशित। समीक्षक से इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है—deepakgirkar2016@gmail.com


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