लीलाधर मंडलोई
वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई का गद्य भी पढ़ने में काव्यात्मक लगता है। उनकी डायरी विशेष तौर पर पढ़ी जाती रही है। अब तक उनकी तीन डायरी प्रकाशित हैं- ‘दाना-पानी’, ‘दिनन दिनन के फेर’ और ‘राग सतपुड़ा’। शीघ्र ही चौथी डायरी प्रकाशित होने वाली है। ‘कोरोना काल’ में रची गयी डायरी के कुछ पन्ने ‘पुस्तकनामा’ के पाठकों के लिए।
इस डायरी की सभी इबारतें आत्मा से एकालाप हैं, संलाप है। विस्थापन, पुनःविस्थापन और आत्मविस्थापन की इन करुण आवाज़ों में समय के प्रदीर्घ आलाप के कुछ दृश्य मात्र हैं। यह एक भी अनेक भी। यह आधा अधूरा भी है और कवि का इधर का अलिखा संपूर्ण भी है, जो लिखा जाएगा भविष्य में उसका कोई सिरा इसी से निकलने को है। यह मेरा अंतःसाक्ष्य है। इसमें करुण क्षीण पुकारें हैं, चीख़ें हैं आर्तनाद हैं। इन्हें सुनने, समझने और गुनने के लिए आंखों और कानों को मेरी तरह अनुभव करने की गुजारिश है ताकि आप इस त्रासद समय को अंतर्तहों से अबेर सकें। कदाचित इन काव्यात्मक इबारतों का सच आप तक पहुंचे, इसी उम्मीद के साथ।
1
इस दौर में एक शब्द ‘सोशल डिस्टेशिंग’ ख़तरनाक है। डिस्टेशिंग शब्द अस्पृश्यता की प्रजाति का है। वर्ण व्यवस्था में यह डिस्टेशिंग हर इलाक़े में था।समाज में एक जगह, एक साथ उठने-बैठने, खाने-पीने, मंदिरों, कुंओं आदि पर जो डिस्टेशिंग थी, वह अस्पृश्यता की कोख से जनमी और जड़ें जमाती रहीं। यह उसी का दुर्भाग्यपूर्ण पुनर्जन्म है।यह अंग्रेजों ने भी देश में हर स्तर पर चरितार्थ किया था। इस शब्द का अमंगलकारी दूरगामी परिणाम दीख रहा है। इस शब्द को हटाओ। यह हमें अंधकार युग में ले जाएगा। हमें सोशल डिस्टेशिंग नहीं सेफ डिस्टेशिंग चाहिए।
2
अजीब वक़्त है पाबंदियों के साये में। ज़ुबां है लेकिन ऐतबार नहीं।
3
यह आग ऐसी है कि हर सम्त तबाही है। यह और बात है कि आग है और धुंआ कम है….
4
मालूम न था। हड़बोंग था। हड़कंप था। और छोड़कर सब भागना। सफ़र मीलों का रेगिस्तान जैसा।प्यास के लिए सबीलों का टुक इंतजाम ही होता???
5
कभी घायल परिंदा देखा है। एक का नहीं हज़ारों का कारवां निकला।
6
भूखे भी थे, प्यासे भी रहे। और गुजार दी हमने राहों में ज़िंदगी हँसकर।
7
अब तो यह हाल है बेहाल से बुरा। तुम्हारा नाम लेकर उठते हैं, तुम्हारा नाम रात भर सोने नहीं देता!
8
मरनेवालों की आबादी इधर है। जीनेवालों की आबादी उधर है।
9
जीना जब होगा, तब होगा। अभी तो मौत से लड़ाई है।
10
कुछ तो होता रास्ते में जीने का इंतजाम। हमारे साथ हैं बच्चे। हमारे साथ भूख सफ़र में पैदल है।
11
हुज़ूर बनी बनाई तकरीरों को अब भी मना करो। रोबोट हो, नकली हो, बहौत नकलची बंदर हो।
12
इरफ़ान चला गया। नाउम्मीदियों के इस दौर में ज़िदगी से लड़ाई लड़ने का दूसरा नाम था। उसकी आंखों में जीने की कशिश थी। आवाज़ में एक तेजस्वी इंसान था। एक समूची जिंदगी को जीने का ख़्वाब लिये वह मौत से दोस्ती में था। इरफ़ान ने उससे इश्क़ किया। उसके आख़री चुंबन में आंखें बंद की। हमने स्टार को नहीं हमारे भीतर के साधारण को असाधारण अभिनय में जीते हुये देखा।
13
मैं किस दुनिया में हूँ। मैं जिसमें जनमा यह वह तो नहीं है। यह मैं किस दुनिया में हूँ। यक़ीनन मैं जहाँ हूँ। वहां से यह रास्ता मेरी दुनिया में अब नहीं खुलता। मेरा वजूद जो आनलाइन है, उसका डाटा कहीं और पहुंच चुका। अब जिसके रहमोकरम पर हूँ वो मेरी दुनिया तो नहीं है।
14
इस देश के बहुत से पढ़े-लिखों को भी संक्रमण हो गया। उनकी सोच में प्रजातन्त्र के लिए अहम है धर्म। एक धर्म, एक क़ौम, एक सत्ता। एक राष्ट्र क्या इसी के होने की परिभाषा में संविधान को लील जाएगा। महामारी के अमंगल में भी यह दिशा एकरेखीय विभाजन पर खड़ी है, जीवन के लिए नहीं, उसके ख़िलाफ़।
15
भीतर से भरा रहता हूँ। कुछ न कुछ खाली होने पर एकांत को एकांत न रहने देना। अमूमन एकांत को सुबह-शाम अपने लिए रिज़र्व कर लेता हूँ। जब जग सोता हुआ हो या सोकर उठने का यत्न करता है। मैं तब तक अपने साथ जी लेता हूँ। इसके बाद अपने को भूलकर दूसरों को जीने में शामिल हो जाता हूँ। लेकिन इन दिनों सब गड्डमगड्ड है। पल पल में खाली होना और खाली होने में ही भरे होने का भ्रम जीना। ऐसा ही कुछ है जैसे बार-बार हाथों को नहीं— अपने भीतर को धोना, खाली करना, भरना।
16
ख़ासी तपिश है। मैं भोर में उन पौधों को सूखते हुए देख रहा हूँ। मैं अब भी उन्हें सूखने से बचाने की कोशिश में हूँ। मैं मन से पानी डालते हुए सूख रहा हूँ। सूख रहे हैं पौधे। पानी और मैं बचा नहीं पा रहे। सूख रहा हूँ मैं। मेरे लिए सिर्फ़ तपिश है और पानी दूर दूर तक नहीं।
17
वे अपने समय के निःसंदेह समर्थ और सर्वश्रेष्ठ कलाकार थे। जिनके क़िरदार उन्होंने निभाये। हम ही थे। हमारे जीवन को मूर्त करने पर वे अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर सम्मानित हुए। देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सहित कई शीर्ष विभूतियों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की। जिनके जीवन को दोनों ने अभिनीत किया, उनके जैसे हज़ारों के कालकवलित होने पर अभी तक सनाम तो क्या अनाम भी दो शब्द नहीं……
18
मेरी परछाईं होते तो साथ होते, न तुम हो और न दुआ सलाम… दूर से भी पास नहीं।
19
ऐ ख़ुदा भेज़ दे उम्मीद के दो लफ़्ज़। एक वायरस से डरकर तूने भी मुझे छोड़ दिया है।
20
कई दिक्कतें हैं, कई मरहले। मैं कहकशाँ हूँ। मेरा यह रास्ता है अब और ब्लैक होल है।
21
भूख होगी और प्यास की आंधियां। अब जो चल पड़े। तो तय कर दिया गया है यह भी। अब वापसी की कोई राह नहीं…।
22
इस अनाम असाध्य दुख की रेखाएं खींच ली। दुख केनवास से बाहर चला गया। पकड़ से बाहर। रंगों के बारे में सोचता हूँ तो वे दुख के रंगों से गहरे व जुदा हो जाते हैं। बहुतेरी कोशिशों के बाद मेरी कोशिकाओं की पकड़़ दुख तक नहीं पहुंच पा रही। मेरा चित्र अधूरा पड़ा है।
23
तुम्हारी पिंडलियों में बीहड़ यात्रा से आ बसीं नीली धारियों और पीठ की पीड़ा को याद करता, रात भर जागता हूँ। पीड़ा हरने का कोई रास्ता नहीं। पीड़ा हो जाने की कल्पना करता हूँ। और अपनी देह में आने के लिए प्रार्थना करता हूँ।
24
अब यह हमारा घर तो नहीं। घर भय का है। हम इसमें अलग और विभक्त हैं। पूरे घर में उसी का स्वामित्व है। हम उसके रहमोकरम पर हैं। हम कहीं नहीं। हम कहाँ हैं?
25
हर क़हर तेरे पास है। लोग सड़कों पर उजड़ी नींद में बेहाल हैं। क्या बिगड़ जाये अगर तू उन लोगों से कनारा कर ले…..।
26
इस दश्त में आकर ठहर गया कारवां। अब ये नर्म पत्थर हैं जैसे मां की गोद।बिछड़ी मांओं की गोद में बिछड़ी नींदें …।
27
काश कुछ दिनों को उस फक्कड़पन में आ जाते। जिस पर बड़ा नाज़ है। होता जो बचा, उनके बीच होते। करते हद में,बेहद का सोचते। तुम्हारे भीतर इन दिनों इंसान को मरता देखा।
28
सुबह होगी कैसी। ये कौन जान सकता था। सहरा में रात हुई। रात की फिर सुब्ह न हुई।
29
हम सहराओं में जनमे हैं। अपने दरियाओं के साथ। तेरी मशक के भरोसे नहीं काटा है …यह तवील सफ़र।
30
सारे शैतानों, सारे शहंशाहों से बलवान निकला। इतना चालाक़ कि काया को कोई पकड़ न सके। जिस सम्त चाहे उधर का रास्ता कर ले। मौत का साया है हरेक घर में फैला हुआ। न जीने देता है। न मरने का वक़्त बताता है।
31
कितने नहीं थे दायरे। कितनी नहीं थीं दूरियां। इस नयी के साथ बची उम्मीद ही जाती रही।
32
जिनने उगाया वे जन्मना ग़रीब थे। उनका हक़ कभी था ही नहीं। वे हक़दार हो न सके। उनका सब छीनकर रखा है अन्न जहाँ -तहाँ। वह गल रहा है,सड़ रहा है। मरते हुओं को यह सड़ता हुआ भी नसीब नहीं। यह सरकार है कि व्यापारी।
33
आवाज़ खो गयी है। कहीं पेट में कबकी। अब जो सुनना है। इन डूबती आंखों में सुनो।
34
न देव थे, न गंधर्व। न ऋषिमुनि और आप तो बिलकुल न थे। न करो हमारे जीवन का ख़याली तज़किरा। बंद करो झूठी रुदादें।
35
एक मुट्ठी राख़, वतन की लिए चलते हैं हम। रास्ता है और पाँव और हम। और मंज़िल दूर है, दूर सही।
लीलाधर मंडलोई : डायरी की तीन किताबें— ‘दाना-पानी’, ‘दिनन दिनन के फेर’ और ‘राग सतपुड़ा’। 10 कविता-संग्रह। गद्य की 6 कृतियां। अनुवाद, बच्चों के लिए लेखन, संपादित किताबें आदि। लंबे समय तक साहित्यिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ का सम्पादन। भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक। आप इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— leeladharmandloi@gmail.com