अंकित नरवाल
‘आलोचना को हर हाल में गलत बनाम सही, झूठ और अपर्याप्त सच बनाम सच का रूप ग्रहण करना ही चाहिए।’–विजयदेव नारायण साही
हिन्दी आलोचना के इतिहास में किसी भी तरह की ‘पक्षधरता’ के सवालों को दरअसल पार्टीगत व दलगत समीकरणों के मार्फत ही समझने की परंपरा रही है। व्यापक अर्थों में उसे सत्यान्वेषण की निर्मम कार्यवाही की तरह नहीं देखा गया है। समीकरणों, सारणियों और बहुत हद तक काव्यशास्त्रीय पद्धतियों को लकीर की तरह प्रयोग में लाने की जिद से भरी आलोचना का लंबा इतिहास सभी के सामने उपस्थित है। इससे इतर यदि कहीं ध्यान गया भी है, तो वह उधार की प्रणाली द्वारा ही परिचालित है। बाहर से आए तमाम आलोचकीय शास्त्र अपनी ज़मीन की आबोहवा में रची-बसी जातीय रचनाओं के मूल्यांकन में आँख बँद करके प्रयुक्त किए गए हैं। इससे दोहरा नुकसान हुआ है। एक तो हम अपनी आलोचना के अपने कहे जा सकने वाले ‘टूल’ निर्मित करने से बचते आए हैं, दूसरा हम अपनी रचनात्मक ऊर्जा के प्रति उपेक्षणीय भाव से भरते चले गए हैं। गोया अब तो हमें अपनी साहित्यिक सृजनात्मकता का बाजारवादी मानसिकता में चले जाना भी कोई भयानक षड्यंत्र नहीं लगता। आलोचनात्मक ‘स्पेस’ का लगातार कम होते जाना भले ही ‘स्टेट’ के लिए उपयोगी व जरूरी चीज़ हो, किंतु सभ्यता और संस्कृति के विकास के लिए खतरे की घंटी होता है। इससे आलोचना के प्रतिरोधी स्वर की दिशा भी मोड़कर समाज की ही ओर कर दी जाती है, जिससे तमाम नाकामियों के वाबजूद ‘स्टेट’ आसानी से अपना बचाव कर लेता है। नामवर सिंह की माने तों, ‘आलोचना के प्रतिरोध का स्वर अंततः ‘साहित्यिक’ होगा, पर उसका लक्ष्य सभ्यता को हर तरह की बर्बरता और दमन से बचाए रखने का है।’ खैर आज तो आवश्यता आलोचना के न केवल अधिक लोकतांत्रिक व ईमानदार होने की है, बल्कि उसके पक्षधर के रूप में अडिग बनकर खड़े रहने की भी है। हाल ही में विनोद तिवारी की सद्यः प्रकाशित पुस्तक ‘आलोचना की पक्षधरता’ इसी ईमानदार कार्यवाही का बिगुल बजाती दिखती है।
प्रखर आलोचक विनोद तिवारी के लिए आलोचना एक ऐसी दायित्वपूर्ण सजग आलोचनात्मक कार्यवाही है, जो साहित्य के परिप्रेक्ष्य से उन सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों-परिस्थितियों और उनको निर्मित करने वाली संरचनाओं को विवेचित करे, जिनमें हमारे समय-समाज के उन प्रश्नों और दबावों से उपजने वाली संघर्ष और तनावपूर्ण निर्मितियों के ‘ट्रेंडस’ मिलते हों। इसी अर्थ में आलोचना उनके लिए एक चुना हुआ बौद्धिक-अकादमिक दायित्व है, जिसे देवीशंकर अवस्थी ने भी ‘बौद्धिक व्यवसाय’ के रूप में रेखांकित किया है।
उनके लिए आलोचक के दायित्व का प्रश्न सर्वथा प्रमुख रहा है। वे आलोचना को केवल व्याख्या भर नहीं मानते और उसे न ही केवल एक टीका की तरह देखते हैं। दरअसल, उनका तो मानना है, ‘आलोचना के क्षेत्र में कुछ भी निर्णीत नहीं होता। उसे निर्णीत बनाने की जिद होनी भी नहीं चाहिए। वह जो लेनिन ने कहा है न कि ‘Nothing is Final’ कुछ वैसी ही बात है। नियत मानदंड और प्रतिमान वाली आलोचना का रूप स्थिर और जड़ होगा। ऐसी आलोचना में अमूर्त मूल्यों का बिना संदर्भ के निर्गुण भाषा में प्रत्याख्यान और उपदेश प्रमुख हो जाता है। आलोचना इस तरह की किसी भी यथास्थितिवादी प्रवृत्ति से संघर्ष करती है।’ मसलन, रचना में अन्तर्निहित लक्ष्य को लक्षित कर उसे सांस्कृतिक–विवेक के साथ मूल्यांकित करना आलोचना का अंतिम और व्यापक उद्देश्य है और अनिवार्य सरोकार भी। उनकी दृष्टि में समर्थ आलोचक वही होता है, जो किसी कृति के उन आशयों को, ‘इन्टेंशन्स’ को पकड़ने की कोशिश करता है, जो उस रचना में भी पूरी तरह रूपायित नहीं हो पाते। दरअसल, आलोचक तो दृश्य जगत् के अंदर विद्यामन गोपनीय अदृश्य जगत् को पहचानने की आँख और कला पाठक को उपलब्ध कराता है। प्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण के शब्दों में कहें तो वह रचना को केवल दायीं(दक्षिणपंथी) या बायीं(वामपंथी) आँख से नहीं देखता, बल्कि उसकी दोनों ही आँखें सजगता से रचना का मूल्य तलाशने की कोशिश करती हैं।
विनोद तिवारी की दो खण्डों के अन्तर्गत कुल पंद्रह आलेखों में विभक्त यह पुस्तक हिन्दी आलोचना के बुनियादी सवालों से टकराते हुए भारत-निर्माण और उसकी चुनौतियों से दो-चार होने के अनेक अवसर उपलब्ध कराती है। साहित्य और सामाजिक संरचना के ताने-बाने में ‘पोपुलर’ बनाम ‘क्लासिक’ की स्पष्ट रेखा भी यह पुस्तक खींचती है। इसका पहला भाग वर्तमान और हाशिये पर छिंटक गए साहित्यिक समाज को पुनः विश्लेषित किए जाने का रास्ता खोलता है और दूसरा भाग हिन्दी के कालजयी लेखकों की आलोचना-दृष्टि से मूल्य तलाशने की नायाब कोशिश करता है।
पुस्तक के पहले ही लेख में ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रवाद’ के नव-गढंत आख्यान और हिन्दी उपन्यास के देश-समाज को तार्किक ढंग से विश्लेषित किया गया है। यह लेख उपन्यास कहे जा सकने वाली रचनाओं की शिनाख्त तो करता ही है, साथ-साथ उनमें राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय अस्मिता के बीच पिसते निम्न जनों की लगातार गुम होती जा रही आवाज को भी बुलंद करता है। किसी भी औपन्यासिक रचना के संबंध में वे लिखते हैं, ‘उपन्यास एकवचनात्मक अथवा एकवाची कहानी-रूप नहीं है। वरन्, वह मानवीय-सभ्यता के सामाजिक और ऐतिहासिक प्रगति और अवरोधों का सांस्कृतिक सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर अनेकवाची विधा है। वह समाज और व्यक्ति के रिश्तों, विरोधों और अंतर्द्वन्द्वों को संपूर्णता के साथ पकड़ने की कोशिश करता है।’ तिवारी ने यहीं समकालीन हिन्दी उपन्यासों की दो कोटियों का भी जिक्र करते हुए लिखा है कि पहली कोटी में वे उपन्यास हैं जो बहुप्रचारित धारणाओं और विचारों की भाषा में लिखे जा रहे हैं, जिनमें सायास पहले से ही निर्धारित कथ्य और निष्कर्ष को उचित और यथार्थपरक दिखाने के लिए डाक्युमेंट्री की तरह तथ्यों, आँकड़ों, शोध आदि का दिखावा किया जा रहा है। दूसरी कोटि में सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अंतःप्रक्रिया के अनुभवात्मक आत्मवृत्तांत को व्यक्त करने का दावा करने वाले उपन्यास हैं। यहाँ ‘रेहन पर रग्घू’, ‘मुन्नी मोबाइल’, ‘निर्वासन’, ‘लौटना नहीं है’, ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूँ’, ‘अँधेरा कोना’, ‘अस्थि फूल’ नामक उपन्यासों के सहारे भारतीय राष्ट्रीय राजनीति और उसमें दूर तक फैलते अँधेरे की वजहों को टटोलने का प्रयास निहित है। एक कथा के उपन्यास बनने में कौन-से कारण बाधक व उपयोगी हो सकते हैं, को भी यह लेख बखूबी समझाता है। तिवारी मानते हैं, ‘एक उपन्यास के लिए यह जरूरी होता है कि उपन्यासकार ‘रियलिस्टिक सिचुएशंस’ को ‘फिक्शनल सिचुएशंस’ में रचने की कला जानता हो। पत्रकारिता और उपन्यास लेखन में यह एक बड़ा भारी अंतर है।…उपन्यास एक ऐसा शिल्प है जिसमें गल्प-तत्त्व की, आख्यानपरकता की जरूरत पड़ती है। यथार्थ के वास्तविक को रचने के लिए कई बार उस यथार्थ को उसकी परवशता और निराशा के साथ रचना पड़ता है। उसे बिना कल्पनाजन्य किसी घटना और पात्र के वास्तविक परिस्थितियों और घटनात्मकता में अपनी मूल रहन में प्रस्तुत करना पड़ता है। अनुभव की निजता के सहारे कहन को उपन्यासकार ‘फिक्शनल’ रूप और आकार देता है। दरअसल, इसे ही औपन्यासिक कला कहा जाता है।’(पृष्ठ-29) यहीं उन्हें समकालीन कहानीकारों की यह बात भी बड़ी खटकती है कि वे बाजार के नए प्रबंध-कौशल में उलझकर उपन्यास लेखन की ओर अंधाधुंध प्रवृत्त हो रहे हैं। आखिर क्यों वे उपन्यास-लेखन की और प्रवृत्त हो रहे हैं? ऐसे सवाल कहानीकारों के साथ-साथ उन तमाम कवियों से भी पूछे जा सकते हैं, जिनके लिए कविता अब किसी दिलचस्पी का विषय नहीं रह गई है। हिन्दी के उक्त चुनिंदा उपन्यासों के सहारे तिवारी ने सामाजिक विघटन की उन दरारों को पकड़ा है, जिसे कथा-साहित्य में तो दर्ज किया गया है, किंतु पाठकों से वह कहीं अलक्षित रह गया है।
अपने लेख ‘विकास की भूमंडलीय नीति, आदिवासी समाज का यथार्थ और उपन्यास’ में उन्होंने भूमंडलीकरण में पिसते आदिवासी समाज की मजबूरियों को समझने का प्रयास किया है। वे मानते हैं, ‘साम्राज्यवाद का यह नया ढंग है। सब कुछ को ग्लोबल बना देने के इस नए ढंग के साम्राज्यवाद में धरती, आकाश और पाताल में जो कुछ भी उपलब्ध है, उस पर एक खास वर्ग के लोगों का वर्चस्व कायम हो सके–इसकी हरसंभव कोशिश पिछले 25-30 वर्षों से जारी है। प्राकृतिक, जैविक, खगोलिय विविधताओं के साथ-साथ जातीय विविधताओं को तहस-नहस कर उसे एक रंग, एक गंध, एक रस, एक स्वाद में सब कुछ को एक पटरा कर देना ग्लोबलाइजेशन का मुख्य लक्ष्य है।’(पृष्ठ- 49) इस लक्ष्य को पूरा करने में सरकारें अबाध गति से सक्रिय हैं। यहाँ इस आलेख में रणेन्द्र के प्रसिद्ध उपन्यासों ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ और ‘गायब होता देश’ के सहारे इन स्थितियों को विश्लेषित किया गया है। एक उपन्यास में अंधाधुंध बाक्साइट खनन को केन्द्र में रखकर प्राकृतिक संसाधनों को राष्ट्रीय विकास का हवाला देकर किस तरह लूटा जाता है और पूँजीपतियों का विकास देश का विकास करार दे दिया जाता है, चित्रित हुआ है। दूसरे उपन्यास में दुमली बाँध परियोजना के सहारे लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर कर दिया जाता। ऐसी बाँध परियोजनाएँ देश का भविष्य करार दे दी जाती हैं और लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है।
पुस्तक के दो अध्याय क्रमशः दूधनाथ सिंह के उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ व असगर वजाहत के उपन्यास ‘सात आसमान’ को केन्द्रित करके लिखे गए हैं। तिवारी मानते हैं कि ‘आखिरी कलाम’ धर्म के फसाद के पर्याय के रूप में प्रस्तुत करने की एक खूबसूरत वैचारिक रचना और एक अर्थ में विरचना है।…यह व्यक्तिगत और राष्ट्रीय दोनों ही रूपकों में एक महा शोकगीत है। जीवन की निर्वसन निशा का चीत्कार। हुंकड़ते प्रजातंत्र की असलियत का क्रंदन। जीवन सत्य, समाज सत्य और तथाकथित दैविय सत्य, धर्म सत्य, पार्टी सत्य और भी जितने तरह के सत्य गिनाये जा सकते हैं, उन्हें निरर्थक करता हुआ, उनकी झूठी सत्ता, नाट्य और मायाजाल को काटता हुआ, उनसे अकेले निहत्था लड़ता हुआ, उन्हें विध्वंस करने की क्रिया में खुद ही लहुलुहान और ध्वंस होता हुआ – शोकगीत आख्यान।’(पृष्ठ- 69) बाबरी मस्जिद की घटना को केन्द्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास बर्बर होते समय की भयानक सच्चाइयाँ सामने लाता है। उपन्यास की मुख्य कथा- धर्मवाद और राष्ट्रवाद–की सत्ता-संरचना की समझ के लिए यह एक जरूरी पाठ की तरह है। क्योंकि इय ब्राह्मणवादी संरचना ने पोंगापंथ का, आस्था के नाम पर अंधत्व का, गुलामी का एक ऐसा अभेद्य साम्राज्य बना लिया है जिसको ढहाना मुश्किल है। यह उपन्यास ऐसी पोंगापंथी को भेदने की समझ देने वाला सशक्त पाठ कहा जा सकता है।
‘सात आसमान’ उपन्यास का विश्लेषण करते हुए तिवारी ने विभिन्न धर्म ग्रंथों में अभिव्यक्त सात आसमानों को याद किया है। किंतु यहीं उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यह कोई धार्मिक या दार्शनिक उपन्यास नहीं है, यह एक लेखक की अपने पुरखों या नवासों पर लिखा गया काल्पनिक संस्मरण है, जिसमें कहीं-कहीं इतिहास भी है। ‘इस उपन्यास में कोई एक मुकम्मल कथा बनती ही नहीं, कथा किसी एक सूत्र में विकसित ही नहीं होती है तो कथानक कहाँ से बनेगा। यह स्मृतियों का एक कोलाज है। लगभग 400 सालों के लंबे कालखंड को यह उपन्यास अपनी कल्पनाशक्ति और किस्सागोई का विषय बनाता है। इतनी लंबी कालावधि में एक ही कुल-परिवार की चार-पाँच पीढ़ियों के लोग पात्र के रूप में एक साथ चित्रित होते हैं, पर दुर्भाग्यवश एक भी पात्र चरित्र नहीं बन पाता।’(पृष्ठ- 82) यह उपन्यास चरित्र-निर्माण की दृष्टि में कहीं असफल हो जाता है।
अपने लेख ‘साम्प्रदायिकता के सवाल, युवा पीढ़ी और समकालीन हिन्दी कहानी’ में तिवारी ने साम्प्रदायिक ताकतों के लगातार सक्रिय होते जाने और हिन्दी की युवा पीढ़ी के कहानीकारों में इसे लेकर बरती गई समझ को यहाँ विश्लेषित करने का प्रयास किया है। तिवारी की मानें तो, ‘भूमंडलीकरण ने भारतीय राजनीति में दो तरह की प्रवृत्तियों को फलने-फूलने के लिए बहुत ही उर्वर जमीन मुहैया कराई। पहला, अकूत लूट-खसोट, बेईमानी और भ्रष्टाचार की संस्कृति का एक अबाध और निरापद तंत्र के रूप में विकास; दूसरा, धर्म और संप्रदाय आधारित कट्टर मानसिकता से संरचित साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद का उभार, विकास और उसका प्रबंधन।’(पृष्ठ- 86) ऐसा होने से हुआ यह है कि देश की राष्ट्रीय अस्मिता का सवाल खड़ा करके किसी भी समुदाय, जाति, वर्ग को देशद्रोही करार दे दिया जा सकता है और फिर हिंसक भीड़ से उसकी सजा तय कराई जाती है। यहाँ तिवारी ने छह कहानियों – यूटोपिया(वंदना राग), परिंदे के इंतजार सा कुछ(नीलाक्षी सिंह), चोर-सिपाही(मो. आरिफ), शह और मात(राकेश मिश्र), खाल(मनोज पांडेय), और दंगा भेजियो मेरे मौला(अनिल यादव) को आधार बनाकर इन साम्प्रदायिक मनोवृत्तियों की साहित्यिक प्रस्तुति को विश्लेषित किया है। इन कहानियों का विश्लेषण करते हुए तिवारी ने पाया है कि इन कहानिकारों ने साम्प्रदायिक मनोवृत्ति की तथ्यों, आँकड़ो और शोधों के ऊबाऊपन से तो बचाया है, किंतु कहीं-कहीं तय निष्कर्ष की प्रणाली ने उन्हें कमजोर भी किया है। हालाँकि इन कहानियों की खूबसूरती यह है कि ये साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के सघन तनाव को बड़े मानीखेज ढंग से उभारती हैं।
पुस्तक के दो अध्याय क्रमशः ‘अकबर इलाहाबादी के गांधीनामा’ और ‘गुरुदेव और महात्मा गाँधी के संवादों’ पर आधारित हैं। इन दोनों ही लेखों में भारतीय राष्ट्रीय राजनीति की तस्वीर साफ होती है। एक समय पर गाँधीजी के विरोधी भी उनसे आपसी संवाद के लिए तैयार रहते थे, किन्तु आज की राजनीतिक परिस्थितियाँ इतनी बदल गई हैं कि मतभेद कब मनभेद में परिणत हो जाता है, कुछ कहा नहीं जा सकता। अकबर इलाहाबादी का अपने पुत्र की उम्र के गाँधीजी को गुरु रूप में स्वीकार करना आज चाहे दूर की कौड़ी पकड़ना लगता हो, किन्तु उस समय एक सहज घटना जैसा ही था। गुरुदेव व गाँधीजी के मध्य अनेक कार्यक्रमों को लेकर चाहे असमंजस्य रहा हो, किंतु दोनों के बीच लगातार संवाद होता रहता था। गाँधीजी का अनशन शुरू करने से पूर्व गुरुदेव से अनुमति लेना विरोध के बावजूद भी लगातार जारी रहता था। दोनों के मध्य चरखे को लेकर चाहे जो विवाद रहा हो, किंतु उन दोनों के मध्य इसे लेकर कोई कटुता नहीं आई। सव्यसाची भट्टाचार्य के अनुसार, ‘गाँधी और टैगोर के बीच बौद्धिक संवाद की अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राजनैतिक बहसों को उन्होंने दार्शनिक उँच्चाइयों तक पहुँचा दिया। हद यह थी कि दोनों में से एक राजनीतिक सत्ता के सर्वोच्य शिखर पर था तो दूसरा बौद्धिक श्रेष्ठता की पराकाष्ठा पर, फिर भी दोनों एक-दूसरे से सीख लेने के लिए तत्पर रहते थे।’(पृष्ठ-142)
इस पुस्तक के तीन अध्याय क्रमशः ‘मुक्तिबोध’, ‘उभोक्तावादी दौर में कविता’ और ‘केदारनाथ सिंह की कविताओं’ पर केन्द्रित हैं। तिवारी मानते हैं, ‘प्रच्छन्नता का उद्घाटन कवि-कर्म का एक मुख्य अंग है। वह प्रच्छन्नता चाहे बाह्य सभ्यता की हो चाहे अंतर्मन की। बिना प्रच्छन्नता को उद्घाटित किए यथार्थ के नाम पर अयथार्थ और कृत्रिम वस्तुओं का सृजन संभव होगा, जिसे मुक्तिबोध निःसज्ञ सृजन कहते हैं। हिंदी में मुक्तिबोध अकेले कवि हैं जो पूँजीवादी सभ्यता और संस्कृति के बहुआयामी संकटों और उनसे उत्पन्न तनावों व अमानवीय परिस्थितियों से संघर्ष करते हैं, लड़ते हैं और उसके भ्रम छल-छद्म को उघाड़ते हैं।’…‘एक जीवन-विवेक संपन्न कवि के लिए तीन चीजें महत्त्वपूर्ण बातायी गई हैं – 1. मनुष्य की सामाजिक-सांस्कृतिक मनोवृत्ति की पहचान, 2. विश्व-दृष्टिm 3. जीवन-मूल्यों में आस्था
एक सही कविता यह तीनों ही कार्य करती है।’(पृष्ठ- 160)
विनोद तिवारी को आजकल की कविताओं में इन तीनों ही दृष्टियों का अभाव दिखाई देता है। वे कहते हैं, ‘पत्र-पत्रिकाओं में अधिकांशतः कवियों को पढ़ते हुए एक ही भाव, भाषा और भंगिमा की कविताएँ मिल रही हैं। यथास्थिति, एक ही प्रकार का विषय, एकआयामी और एकस्तरीय वर्णन, चालाक और भीतर से छद्म का आवरण, मारक जटिल यथार्थ से आँखमिचौनी पाठक में ऊब पैदा करने के साथ-साथ काव्य संवेदना से पाठक के जुड़ने की भावना को खत्म कर रहे हैं।’(पृष्ठ-161) यह समकालीन कवियों के सामने चुनौती है कि वे उक्त निष्कर्षों को समझते हुए अपनी कविता की अन्तःवस्तु पर काम करें। केदारनाथ की कविताओं के संबंध में तिवारी लिखते हैं, ‘केदार जी की कविताओं में शास्त्र बनाम लोक का, कृषि-सभ्यता बनाम औद्योगिक सभ्यता का जो द्वन्द्व है, वह शहर और गाँव के बीच फँसे हुए एक ऐसे मनुष्य के द्वन्द्व और तनाव की तरह आता है जिसके लिए शहर मजबूरी का चुनाव है स्वेच्छा का नहीं।’(पृष्ठ- 182) यहाँ केदार जी की प्रमुखतः चार कविताओं ‘कुदाल’, ‘फसल’, ‘दाने’ और ‘रोटी’ को केन्द्र में रखकर उनकी रचनात्मक उपस्थिति का मूल्यांकन किया गया है। तिवारी लिखते हैं, ‘पूँजीवादी व्यवस्था में पहले भी और आज भी बाजार अपने पक्ष में यह तर्क देता है कि वह नैतिक या अनैतिक नहीं होता, वह मूल्यनिरपेक्ष होता है। अपने कृत्य को ढंकने के लिए निरपेक्षता का इससे ढीठ तर्क दूसरा गढ़ा नहीं जा सकता। कविता का असल काम मूल्यनिरपेक्षता के पक्ष में गढ़े हुए इस ढीठ मनमाने तर्क से मूक्ति दिलाना है। स्वार्थी सत्ता का, उसके बाजारू आचरण का सामाजीकरण करने में कविता की भूमिका निःसंदेह है।’(पृष्ठ- 190) केदारनाथ सिंह की कविताएँ इस ढीठ मनमानेपन पर गहरी चोट करती हैं। उनकी कविताएँ सभ्यता और संस्कृति के मसलों पर सवाल बनकर खड़ी होती देखी जा सकती हैं।
पुस्तक के दूसरे खण्ड में नोबेल विजेता नदीन गोर्डिमर, राही मासूम रज़ा, कुँवर नारायण, नित्यानंद तिवारी, अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र कुमार और सत्यप्रकाश मिश्र की आलोचनात्मक समझ पर केन्द्रित आलेख हैं। अफ्रीकी मूल की लेखिका नदीन अश्वेत लोगों के अधिकारों के लिए निरंतर लिखती रहीं। उन्हें नोबेल के अतिरिक्त अपने उपन्यास ‘दि कन्ज़र्वेश्निस्ट’ के लिए 1974 में बुकर पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। रंगभेद की लड़ाई में नेल्सन मंडेला को उनका लगातार सहयोग मिलता रहा था। 1991 में जब नेल्सन मंडेला जेल से रिहा हुए तो नदीन से पूछा गया कि क्या आपका मोटिव पूरा हुआ तो उन्होंने कहा कि क्या सचमुच अफ्रीका की समस्याएँ खत्म हो गई हैं।’ बाद के दिनों में नदीन ने सेक्स और एड्स की समस्या, राजनीतिक दमन, भ्रष्टाचार आदि को आधार बनाकर अपना लेखन जारी रखा। लंबे साहित्यिक जीवन के बाद 14 जुलाई 2014 को वे हमसे अलविदा कह गईं। ‘इस धरती पर कहीं भी जब तक जाति, रंग या नस्ल के नाम पर भेदभाव, अन्याय, दमन और शोषण का साम्राज्य बना रहेगा, उनका साहित्य उससे लड़ने और मुक्त होने की प्रेरणा देता रहेगा।’
विनोद तिवारी ने राही मासूम रज़ा को ‘हमारे सेकुलर विधान की एक जीती-जागती अलामत’ की तरह याद किया है। देश में नफ़रत और हिंसा की हवाएँ जब भी गरम हुईं रज़ा के लिए वे दिन बड़ी हताशा में गुजरे। वे अपने लेखक मित्र कमलेश्वर को अक्सर कहते थे, ‘यार, ये मौसम कब बदलेगा? तिवारी लिखते हैं, ‘राही मासूम रज़ा इस महादेश की अदबी कौमियत के एक विश्वसनीय रचनाकार हैं। उनका समूचा लेखन, वह चाहे उपन्यास हों, चाहे जीवनी हो, कविता,नज़्में औ ग़ज़लें हों, चाहे सिनेमा और टीवी के लिए लिखे गए स्क्रिप्ट, संवाद और गीत हों, हमें एतबार से भर देते हैं।…रज़ा हर जगह, अपनी हर रचना में इस सियासी सांप्रदायिक खेल के विरुद्ध कभी अपने पात्रों के जरिए तो कभी खुद सामने आकर खड़े हो जाते हैं।’(पृष्ठ-213) एक बार बलराज मधोक द्वारा रज़ा को पागल कहे जाने पर उन्होंने उत्तर देते हुए कहा था, ‘हाँ, मैं पागल हूँ, मगर जी चाहता है कि सारा हिन्दुस्तान मेरी ही तरह पागल हो जाय। हिंदुस्तान को श्री बलराज मधोक से ज्यादा राही मासूम रज़ा जैसे पागलों की जरूरत है। मुझसे क बार किसी ने कहा था, ‘तुम तो नमाज-रोजा करते नहीं, धर्म को मानते नहीं, तुम मुसलमानों के लिए क्यों बिलखते हो?’ मैंने जवाब दिया था, ‘मगर मेरे पिता जी नमाज़-रोजा करते हैं। मेरी बहनें मुसलमान हैं; और मैं नहीं चाहता कि सती-सावित्री जैसी मेरी बहनें और मेरी भांजियाँ बलवाइयों के हाथों पड़ जाएँ। और चूँकी मैं अपनी बहनों की यह दुर्गत बनते देखना नहीं चाहता, इसलिए हर बहन मेरी बहन है, हर बहन मेरे लिए सुरैया, अफसरी, मुन्नी, बाजी और बड़ी बाजी है। हर भांजी मेरे लिए शक्को, सब्बों और निगार है। मैं न मुगल बागशाह हूँ और आरआरएस का सिपाही। ये बहनें और भांजियाँ तीर्थस्थान हैं और मैं इन तीर्थस्थानों की तबाही नहीं देख सकता। मैं पाकिस्तानी हिंदुओं के लिए बी बिलखता हूँ। मैं हर कातिल को बूरा कहता हूँ और तुम सिर्फ हिन्दू कातिलों को।’(पृष्ठ- 218) राही के लिए किसी भी तरह की साम्प्रदायिक हिंसा व्यक्तिगत नुकसान की तरह होती थी। वे निरंतर परेशान रहते और अपनी साहित्यिक रचनाओं में खुलकर विरोध करते, तर्क देते, दलिलें पेश करते और सद्भाव को सर्वपरि मानते। आज जब भी कोई साम्प्रदायिक घटना घटती है तो राही बेसाख्ता याद हो आते हैं। राही का पुनः याद हो आना, उनकी साहित्यिक उपलब्धि ही है
तिवारी के लिए कुँवर नारायण के साथ होना दरअसल ‘कविता और समीक्षा के एक खुले सांस्कृतिक परिवेश से जुड़ने’ जैसा है। वे लिखते हैं, ‘समकालीनता का बोध, वास्तविक देशकाल की पहचान, चेतना की सक्रिय संलग्नता, रचनाकर्म की नित्यता और बेहतर मनुष्यता की आस्था कुँवर नारायण की काव्य भावना के मूल में है – सर्वभूतहितेरतः की औपनिषदिक भावना की तरह।…कुँवर नारायण के लेखन का मूल स्वर यह है कि सांस्कृतिक परिवर्तन और विकास की दिशाएँ भौतिकतावाद से संचालित नहीं हो सकतीं वरन् मनुष्य-केन्द्रित आधुनिक अध्यात्मवाद से अनुशासित होंगी। इसलिए वे साहित्य को विचारधाराओं या राजनीतिक आशयों का चित्रण नहीं मानते, उसे व्यापक मानवीय प्रश्नों और आशयों के साथ एक रचनात्मक संवाद और संश्लेषण मानते हैं।’(पृष्ठ- 221-227) साहित्य में अपनी व्यास-दृष्टि के लिए प्रयासरत कुँवर नारायण के लिए साहित्य कोई व्यावसायिक प्रयोजन नहीं, बल्कि एक नैतिक-दृष्टि है।
पुस्तक के अंतिम चार लेख क्रमशः नित्यानंद तिवारी, अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र कुमार और सत्यप्रकाश मिश्र के आलोचनात्मक कर्म पर आधारित हैं। ये लेख इन चारों ही आलोचकों की आलोचकीय समझ को समाने लाते हुए हिंदी में अपने ढंग की एक ईमानदार आलोचकीय कार्यवाही को उभारते हैं। जहाँ नित्यानंद तिवारी की आलोचना में इतिहास और आधुनिकता का योग प्रमुखतः उभरता दिखाई देती है, वहीं अशोक वाजपेयी की आलोचना साहित्य के बहुलतावादी सत्य को सत्यापित करती दृष्टिगोचर होती है। राजेन्द्र कुमार एक भाववादी आलोचक की तरह उभरते हैं। उनमें एक सच्चे लोहियावादी और एक सच्चे मार्क्सवादी की अन्तर्दृष्टि काम करती दिखलाई पड़ती है। वे आर्थिक मनुष्य की अपेक्षा सांस्कृति मनुष्य को पाने की लिए रचना और रचनाकार से संघर्ष करते नजर आते हैं। तिवारी के लिए सत्यप्रकाश मिश्र ‘समाजवादी धारा की सान पर चढ़ी आलोचना की धारदार आवाज’ हैं। वे लोहिया की समाजवादी धारा से प्रभावित लेखक थे। ‘मान’, ‘मूल्य’, ‘नीयत’ जैसे पद जिस तरह से राजनीति में अनिवार्य बन गए थे, उसी तरह उन्हें साहित्यिक महत्त्व दिलाने का प्रयास मिश्र की आलोचना करती नज़र आती है। हिन्दी की आलोचना पट्टी में इन उक्त लेखकों की उपस्थिति को कम करके नहीं आँका जा सकता।
संक्षेप्ततः यह पुस्तक आलोचना और रचना से एक पाठकीय संवाद तो कायम करती ही है, साथ-साथ रचना के इंटेंशन को पहचाने और उसके पक्ष या विरोध में एक स्पष्ट राय निर्मित करने की ईमानदार सीख भी देती है। तिवारी ने यहाँ ऊपरी तौर पर आलोचना के लिए भले ही कोई शास्त्रीय पद्धति न अपनायी हो, किंतु रचना के मूल्य, सत्य और हाशिये के प्रति स्पष्ट दिखाई देने वाली विवेकपूर्ण समझ एक नए टूल की तरह यहाँ साफ देखी जा सकती है। वे रचना के चुनाव और उसकी व्याख्या को भले ही लंबे उदाहरणों और निष्कर्षों से बचाते आए हों, किंतु अंततः सत्य के पक्ष में खड़ी रचना ही उन्हें सटीक और उपयोगी नजर आती है। बशर्ते वह कोई कोरी शोध-सामग्री, आँकड़े या दस्तावेजी गजेटियर होने से अपने को मुक्त रखे हो। दरअसल, जिस रचना में रियलिस्टिक सिचुएशंस से फिक्सनल सिचुएशंस की यात्रा करने का मादा है, वही रचना लंबे समय तक याद की जाती है।
आलोचना की पक्षधरता : विनोद तिवारी [आलोचना], मू. 295 रुपये, आधार प्रकाशन, पंचकुला। आप इस पुस्तक को आधार प्रकाशन से भी ऑनलाइन ऑर्डर कर सकते हैं।
अंकित नरवाल : लगभग चार वर्षों तक हरियाणा शिक्षा विभाग में रिसोर्स पर्सन के रूप में कार्य किया और फिर अध्ययन-अध्यापन हेतु वहाँ से स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। पुस्तकें : ‘अठारह उपन्यास : अठारह प्रश्न’, ‘हिन्दी कहानी का समकाल’, ‘यू.आर. अनंतमूर्ति : प्रतिरोध का विकल्प’। नया ज्ञानोदय, हंस, वागर्थ, कथादेश, पल प्रतिपल, बनास जन, पाखी, परिशोध, समावर्तन, देस हरियाणा, कथन, पुस्तक वार्ता, अनुसंधान, जनसंदेश टाईम आदि हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के लिए निरंतर लेखन। सम्प्रति : विधि विभाग, रिजनल सेंटर, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी)। समीक्षक से इस ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है— ankitnarwal1979@gmail.com