राकेश कुमार
कलाएँ मानव सभ्यता की समृद्धि का पैमाना होती हैं और समय को जाँचने-परखने वाली आँख भी। अक्सर आलोचक-समीक्षक अपनी सुविधा की दृष्टि से कलाओं को चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, साहित्य आदि विभिन्न विधाओं और उपविधाओं में बाँट देते हैं, पर कला और साहित्य तो जीवन की भाँति सीमाओं और रूढ़ियों का अतिक्रमण करते हैं और अक्सर एक विधा दूसरी और दूसरी विधा तीसरी में इस प्रकार घुल-मिल जाती है कि उसे विलगाने के लिए आप कितनी भी रासायनिक, शास्त्रीय क्रियाएँ क्यों न कर लें, वे अलग हो ही नहीं पातीं; क्योंकि जीवन में भी इसी प्रकार की विभिन्न भूमिकाओं के बीच हमारी आवाजाही होती रहती है।
साहित्य में कब एक कविता एक कहानी में तब्दील हो जाती है और कब रेखाचित्र, संस्मरण में, अक्सर पता ही नहीं चलता। अकाल्पनिक गद्य वृत्त में आत्मकथाओं को जितना महत्त्व मिला है उतना रेखाचित्र और संस्मरणों को नहीं। इसका प्रमाण यह है कि संस्मरणों और रेखाचित्रों को अन्य विधाओं की श्रेणी में रखा जाता है और कहानी, उपन्यास को मुख्य श्रेणी में। पर रेखाचित्रों और संस्मरणों को जो बात महत्त्वपूर्ण बनाती है वह है उसकी वास्तविक जीवन से प्रगाढ़ता।
शिवना प्रकाशन से कथाकार गीताश्री के सम्पादन में रेखाचित्रों का एक महत्त्वपूर्ण संग्रह इस वर्ष प्रकाशित हुआ है- ‘रेखाएँ बोलती हैं’। अपने सम्पादकीय में गीताश्री ने रेखाचित्र को ‘बीते हुए लम्हों की फोटोकॉपी’ कहा है। एक यायावर की डायरी की फोटोकॉपी। इस संग्रह में सत्रह रेखाचित्रों को संकलित किया गया है। अपनी प्रकृति की दृष्टि से इन सभी आलेखों को संस्मरणात्मक रेखाचित्र या फिर रेखाचित्रात्मक संस्मरण कह सकते हैं। इन सभी में सामान्य जीवन जीने वाले व्यक्तित्व अपने छोटे-छोटे कामों से बहुत अधिक बड़े दिखाई देते हैं। इनकी ओर हम अपनी भागती-दौड़ती ज़िंदगी में शायद ही ध्यान दे पाते हों; पर जैसे ही हमारी ज़िंदगी के कुछ पल इनके साथ जुड़ते हैं वे अपनी विशिष्ट जीवन दृष्टि से रचनाकारों को भी प्रभावित कर देते हैं। अक्सर यह कह दिया जाता है कि मजबूरियाँ मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देतीं, पर ये सामान्य जन अपनी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में भले ही बहुत अधिक नीचे हों पर मनुष्यता के पायदान पर ऊँचे खड़े दिखाई देते हैं। वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि मनुष्यता का बीज असंवेदनशीलता, उपेक्षा और असमानता की बंजर चट्टानों को भी तोड़ कर उग आता है। इन सामान्य जनों में साहित्यकार हैं, बच्चे हैं, सड़क पर रेहड़ी लगाने वाले बुज़ुर्ग हैं, घरों मे काम करने वाली स्त्रियाँ हैं, वाहन चालक हैं, शारीरिक रूप से विकलांग हैं, पर एक जज़्बा उन्हें विशिष्ट बनाता है, वह है हमेशा दूसरों के लिए कुछ न कुछ करते रहना। यह बात भी तय है कि ये सभी सामान्य जन शायद ही कभी किसी इतिहास की किताब में जगह पाएँ पर वे शायद जीते ही इस तरह से हैं। साहित्य का काम यही तो है।
वरिष्ठ कथाकार नासिरा शर्मा का रेखाचित्र ‘उड़ान भरने को तैयार एक लड़की’ पाठकों का परिचय बचपन से ही संघर्षों को अपनी जिजीविषा से परास्त करती एक लड़की वफ़ा से कराता है जिसे प्यार से नासिरा जी काली चींटी कहती हैं। शाँत और परिश्रमी। उनके शब्दों में- पहली मुलाकात में ही ‘काली चींटी’ से मेरी दोस्ती हो गई। लगा कितनी प्यारी है अपने काम से काम रखती है, किसी दूसरे को दुख नहीं देती है। ‘अम्मा जान के लिए, टीवी को धोने और कीमती ज़ेवर को गंदे कपड़ों में रखकर भूल जाने वाली वफ़ा की मासूम कारगुज़ारियाँ उनके प्यार को कम नहीं करतीं। एक बेगाने घर में वफ़ा काली चींटी की तरह मेहनत से अपना घर बना लेती है। लेखिका के घर में वफा और अमन की मौजूदगी भले ही आम लोगों को परेशान करती हो कि न जाने किसके बच्चे हैं? फोन पर मम्मी पापा से बात करते हैं और यहाँ अम्मीजान और अब्बू मौजूद हैं। यह उचित ही है कि लेखिका अपने घर को गुरुकुल कहती हैं जहाँ कुछ समय परिवार की तरह रहने के बाद बच्चे आगे अपने जीवन को बनाने के लिए घर से निकल जाते हैं। यह गुरुकुल निराला है जहाँ-हिंदी, भोजपुरी, शिया-सुन्नी, काला गोरा, बिहार-दिल्ली का कोई अड़ंगा नहीं लगा।’’ (पृ.-23) यह किस्सा वफ़ा और अम्माजान के बीच अनाम रिश्ते की गहराई को रेखांकित कर देता है।
‘उनकी ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए’ राजेंद्र राव का वरिष्ठ कथाकार कामतानाथ पर लिखा एक बेहतरीन रेखाचित्र है। सारिका पत्रिका के चहीते रचनाकार कामतानाथ रिज़र्व बैंक की यूनियन के पदाधिकारी भी थे। राजेंद्र राव न केवल कामतानाथ के साहित्यकार व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बल्कि उनकी मज़दूरों-कर्मचारियों के संघर्ष के प्रति निष्ठा और भाषाओं के ज्ञान के भी वे मुरीद हुए। यह रेखाचित्र कामतानाथ जी के व्यक्तित्व के कई आयामों से पाठकों को परिचित कराता है। राजेंद्र जी कामतानाथ के व्यक्तित्व के विषय में लिखते हैं-‘शिष्ट,संयम और सहज होना आज साहित्य की दुनिया में इतना मुश्किल क्यों हो गया है। यह हिम धातु से निर्मित सर्जक है, उसका अकाल क्यों पड़ गया है।’ (पृ.-32)। मार्क्सवादी कामतानाथ के व्यक्तित्व की यह सरलता और दृढ़ता सभी को प्रभावित करती थी।
कथाकार-नाटककार ऋषिकेश सुलभ का ‘अम्मा’ माँ के संघर्षों के प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि है। यह बात हम सभी जानते हैं कि इतिहास हमेशा उन नायकों को जानता है जिन्होंने बड़े सामाजिक-राजनीतिक मोर्चों पर काम किया पर उनके पीछे निरंतर अपने निजी सुखों का त्याग करने वालों को इतिहास में कभी स्थान नहीं मिलता। स्वतंत्रता सेनानी पति की अनुपस्थिति में अपने परिवार को अकेले पालना अत्यंत कठिन है। अम्मा यह काम करती हैं। सुलभ जी, अम्मा के अकेलेपन और संघर्षों को लोकगीतों के माध्यम से उभारते हैं। सुलभ जी लिखते हैं, ‘वे जब स्त्री जीवन के दुखों को टेरतीं…राग भरतीं… गातीं तो दसों दिशाएँ स्तब्ध हो जातीं।… वे जीवन भर उन गीतों को चुनती रहीं, जिन गीतों में सवाल होते।’ (पृ.-36-37)। इस संस्मरण को पढ़ते समय सुलभ जी के नाटक अमली की कई बार याद आती है।
वरिष्ठ कथाकार तेजिंदर भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वाधिक संवेदनशील मुद्दे; हिंदू-मुस्लिम विभाजन और साम्प्रदायिकता को ‘गोश ए नेमत और बूढ़ा’ नामक आलेख में बड़ी गम्भीरता के साथ उठाते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप को यह विभाजन लगातार मथता रहा है। लाखों लोग इस विभाजक मानसिकता की बलि चढ़ चुके हैं पर ऐसा क्या है जो यह कभी न बुझने वाली प्यास में तबदील हो चुका है। समस्या यह है कि इस प्यास की वजह से कोई महज़ इसलिए मारा जा सकता है कि उसका नाम आपके नाम की तरह नहीं है। उसका पहनावा, खान-पान, उसकी बोली आपके जैसी नहीं है। अगर यहीं तक मानव सभ्यता ने तरक़्क़ी की है तो माफ कीजिएगा इससे बर्बर तरक़्क़ी कोई हो नहीं सकती। साम्प्रदायिकता के रग-रेशे हमारे समाज की जड़ों को खोखला कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता मनुष्य को धर्म विशेष और धर्म विशेष को पहचान में तब्दील कर देती है जिसके आधार पर हम किसी के मनुष्य होने न होने की पहचान करने लगते हैं। लेखक को इस बात का गहरा अनुभव पाकिस्तान यात्रा के दौरान होता है। जब उसे खालिस्तानी आंतकवादियों का प्रतिनिधि माना जाता है और उसके जवाब न देने पर कुछ युवा भद्दी-भद्दी गालियाँ देते हैं। इसी तरह से सामान्य-सा ऑटोवाला महज़ इसलिए उनसे किराया नहीं लेता क्योंकि वह लेखक को खालिस्तान का समर्थक मानता है। वह कहता है ‘सरदार जी अल्लाह कसम तबीयत तर हो जाती है जब ख़बरों में सुनते हैं कि सरदारों ने आज पच्चीस पंडितों को हलाक् कर दिया…। मैं वहीं खड़ा रह गया। मैं जैसे अपनी जगह पर जम गया था। मुझे लगा कि ज्यों किसी ने सैकड़ों कील एक साथ मेरे सिर में और मेरे पैरों में ठोक दिए हों।’’(पृ.-45) अपनी जड़ों की तलाश में आए लेखक को यह सबकुछ बहुत अधिक बेचैन कर देता है। इस पूरी यात्रा में नकारात्मकता और निराशा के घने अंधकार के बीच मुनष्यता की दो रजत रेखाएँ लेखक को दिखाई देती हैं। पहली होटल के बाहर रेहड़ी पर चिकन सूप बेचने वाला बूढ़ा जो बड़े खुले दिल से लेखक का स्वागत करता है। उसका अपनापन लेखक को भावुक कर देता है। दूसरी लेखिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता किश्वर नाहिद। अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में ये दोनों विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं पर इंसानियत का एक धागा दोनों को जोड़ता है। लेखक को बूढ़े में विभाजन के दौरान अपने बिछड़े हुए परिजन मिलते हैं। वह अनुभव करता है कि वह बूढ़ा रेहड़ी वाला कबीर, नानक, बुल्लेशाह की साझी विरासत को थामे हुए है। भले ही वह यह स्वयं भी नहीं जानता। यह आलेख भारतीय उपमहाद्वीप की साम्प्रदायिक राजनीति के सच को दिखाता है और वर्तमान के लिए भी आईने का काम करता है कि कहीं हम फिर से उसी दौर में तो नहीं जा रहे।
मानवीय रिश्तों की तासीर ठंडक देने वाली होती है। वह अहसास कराती है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी भी विपरीत क्यों न हो जाएँ पर कोई है जो आपका हाथ कभी नहीं छोड़ेगा। यही गुण साधारण मनुष्य को असाधारणता प्रदान करता है। इस पुस्तक के दो आलेख-वरिष्ठ कथाकार सुधा ओम ढ़ीगरा का ‘शल्या मौसी’ और चर्चित कथाकार पंकज सुबीर का ‘बुआ’; रिश्तों के इंद्रधनुष को आकार देते प्रतीत होते हैं। जहाँ शल्या मौसी लेखिका की सगी मौसी हैं तो बुआ से लेखक पंकज सुबीर का रक्त का कोई सम्बंध नहीं हैं। पर दोनों अपने प्रेरणादाई व्यक्तित्वों से जीवन को परिवर्तित करने की भाक्ति रखते हैं। शल्या मौसी अपनी दृष्टिहीनता को अपने रास्ते की बाधा नहीं बनने देतीं। वे नवजात सुधा को उस समय सहारा देती हैं जब उसकी माँ बीमार होने के कारण उसे अपने पास नहीं रख सकती थीं। बचपन में पोलियो का प्रकोप झेलने वाली सुधा का सहारा भी शल्या मौसी ही बनती हैं। अक्सर विकलांगता को बुरी किस्मत के साथ जोड़ दिया जाता है। बचपन में सुधा को जब किसी रिश्तेदार ने मनहूस कहा शल्या मौसी रिश्तेदार को घर से बाहर जाने का रास्ता दिखा देती हैं और भविष्यवाणी भी कर देती हैं कि एक दिन मुन्ना यानी सुधा ज़रूर कुछ बड़ा काम करेगी। यह भविष्यवाणी सच भी होती है। लेखिका की माँ जब तपेदिक का शिकार होती हैं तो शल्या मौसी अकेले ही लेखिका को पालती हैं। शल्या मौसी का व्यक्तित्व लेखिका की जीवन दृष्टि को प्रभावित करता है।
पंकज सुबीर का रेखाचित्र ‘बुआ’ महादेवी वर्मा के रेखाचित्रों की याद दिलाता है। बुआ से लेखक का सम्बंध परिवार या रक्त का न था क्योंकि बुआ सिर्फ उनके लिए बुआ न थी बल्कि पूरे क़स्बे की बुआ थी। अस्पताल में आया का काम करने वाली बुआ के परिवार में शराबी पति और सौतेले बहू-बेटे के अतिरिक्त कोई न था। निःसंतान बुआ के लिए तो जैसे पूरा क़स्बा ही परिवार था। मीठे पानी के सोते की तरह जो किसी के लिए अपनी तरफ़ आने वाले रास्ते नहीं बंद करता। बुआ अपनी कमाई या तो लोगों को जलेबी खिलाकर खर्च करती थीं या फिर धर्म-कर्म के काम में। सबको प्यार बाँटने वाली बुआ को जो गुण विशिष्ट बनाता है वह है उनकी क्षमाशीलता। वह किसी से भी द्वेष नहीं रखतीं। बूढ़ी बुआ हर किसी को खुशी और सुकून बाँटती हैं। पंकज सुबीर इस रेखाचित्र में न केवल बुआ के चरित्र को बहुत बारीकी से उकेरते हैं बल्कि पूरा क़स्बा उनकी लेखनी से जीवंत हो उठा है।
हम सभी कभी न कभी, किसी न किसी पूर्वाग्रह से अवश्य ग्रसित होते हैं। अक्सर ये पूर्वाग्रह वर्गीय होते हैं। हम अपने जीवन के अनुभवों को सामान्य सत्य की भाँति प्रयोग करना शुरु कर देते हैं। जैसे हम यह मानते हैं कि पुरुष हमेशा ही स्त्रियों का फ़ायदा उठाना चाहता है। या फिर यह कि ग़रीबी किसी भी आदमी को चोर बना सकती है। या फिर शिक्षा ही मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है। पर समस्या तब पैदा होती है कि जब हम इन पूर्वाग्रहों को सामान्य सत्य की तरह प्रयोग करने लगते हैं तब हमारी मनुष्यता की कसौटियाँ भी छोटी होती चली जाती हैं। कथाकार प्रज्ञा के रेखाचित्र ‘रेत की दीवार’ की नैना के साथ कुछ ऐसा ही घटित होता है। शिक्षित और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नयना अपने बूढ़े माता-पिता और बच्चों को लेकर पहाड़ पर सैर-सपाटे के लिए आती है तो वह ऐसे ही अनेक पूर्वाग्रहों का बोझ लेकर चलती है। हालाँकि यात्रा के पहले दिन का अनुभव उसके पूर्वाग्रहों की कुछ पुष्टि करता है जिसके बाद अगले दिन आने वाले ड्राइवर बलदेव के विषय में भी नयना की धारणा बनी रहती है। वह कहती है, ‘अरे सीधेपन का नाटक है। अभी करेगा चिकचिक, कभी घुमाने को लेकर, कभी देरी को लेकर, कभी पैसों को लेकर।…औरत साथ बैठी है यही सोचकर खुश हो रहा होगा। इनके लिए क्या पढ़ी-लिखी, क्या अनपढ़ सब बराबर।… कहीं किसी सुनसान-सी जगह पर इसने हमला कर दिया तो क्या होगा?’ (पृ.-83) इन सब ख्यालों से हम सभी कभी न कभी रू-ब-रू होते हैं। नैना के मन में चल रहे ये सवाल शहरी मध्यवर्गीय चरित्र का हिस्सा हैं। इन्हीं के कारण नयना बहुत देर तक बलदेव की सहजता, मानवीयता और ईमानदारी को नज़रअंदाज़ करती है। परंतु बलदेव का व्यक्तित्व नयना को अपनी धारणा बदलने के लिए मजबूर कर देता है। प्रज्ञा इस रेखाचित्र के माध्यम से मनुष्यता पर पड़ी स्वार्थ, कपट और शंकाओं की अनेक परतों को उजागर करती हैं। वे इस तथ्य को रेखांकित करती हैं कि मनुष्यता के बीज हर जगह बिखरे हुए हैं ज़रूरत है तो बस उन्हें आँख खोल कर देखने की।
इस संग्रह में कलावंती का रेखाचित्र ‘कमला’ अत्यंत मर्मस्पर्शी बन पड़ा है। कमला जो परिवार के लिए अपने जीवन की हर खुशी न्यौछावर कर देती है को जीवन कुछ नहीं देता। जब तक कमला अपने दम पर परिवार को चलाती है तब तक उसकी ज़रूरत बनी रहती है पर उसकी अपनी ज़रूरतों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। यह त्याग और परिवार के लिए समर्पण की भावना उसे असाधारण बना देती है। इसके अतिरिक्त शिखा वार्ष्णेय का ‘वोदका भरी आँखों वाली लड़की’ एक ताज़गी से भरा संस्मणात्मक रेखाचित्र है। रंगकर्मी असीमा भट्ट का संस्मरण- ‘और हाँ मैंने इस शाम खुद को बेचा…’ रेणु मिश्रा का ‘और आख़िर में हम दोनों ही बचेंगे’ और प्रज्ञा पांडे का ‘वह लीक छोड़कर चलता था’ अच्छे हैं। कृष्ण बिहारी, रूपा सिंह, इरा टाक, सीरज सक्सेना, शिखा वार्ष्णेय, रेणु मिश्रा और सोनाली मिश्र के रेखाचित्र भी किताब में शामिल हैं।
आज के समय में जब मनुष्यता पर धर्म, जाति, सम्प्रदाय और पूँजी की बहुत गहरी परतें चढ़ चुकी हैं। आज जब हमारी आँखों पर स्वार्थों के बहुत गहरे रंग के चश्मे चढ़ चुके हैं ऐसे में यह संग्रह हमें हमारी ही दुनिया से परिचित कराता है। आज जब हम तुरंत यह मानने लगते हैं कि इस दुनिया में जीना है तो छल, स्वार्थ और शोषण के बिना नहीं रहा जा सकता। वहाँ यह संग्रह सहजता, परोपकार, और प्रेम को मनुष्य का मूल गुण बताता है। विभिन्न रचनात्मक उपकरणों से रचे गए विभिन्न आलेख अपनी रोचकता और विविधता से पाठकों को प्रभावित करते हैं।
रेखाएँ बोलती हैं : संपादक गीतश्री [रेखाचित्र], मू. 200 रुपये, शिवना प्रकाशन, सीहोर। आप इसे यहाँ shivna.prakashan@gmail.com मेल करके भी मँगवा सकते हैं.
डॉ. राकेश कुमार : ‘समय, संस्कृति और मीडिया’ विषय पर हिंदी विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय से पोस्ट डॉक्टोरल शोध। ‘नवलेखन और मलयज का सृजन कर्म’, ‘हमारा समय, संस्कृति और मीडिया’, ‘सूरदास’ (सम्पादन), ‘अपनी बात अपनों के साथ’ (सम्पादन) आदि प्रकाशित पुस्तकें। हंस, पाखी, परिकथा, अनहद, वसुधा, कथन, वागर्थ, बहुवचन, मंतव्य, मीडिया नवचिंतन, कादम्बिनी, बनासजन, सबलोग, अपेक्षा जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं में लेख, साक्षात्कार और समीक्षाएं प्रकाशित। नयी दुनिया और जनसत्ता में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लेखन। भारतीय किसान और कृषि संकट नामक पुस्तक (सम्पादन-संज्ञा उपाध्याय) में ‘किसानों का लान्ग मार्च और मीडिया’ विषय पर लेख। वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर द्वारा संपादित पुस्तक ‘दलित राजनीति की समस्याएं’ नामक पुस्तक में लेख। नएपन की अवधारणा (संपादक-रमेश उपाध्याय, संज्ञा उपाध्याय) पुस्तक में प्रेमचंद की कहानी ‘मंत्र’ पर शोध लेख। हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए आधुनिक हिंदी कविता और काव्य सुमन नामक पाठ्य-पुस्तकों का संपादन। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के विभिन्न पाठ्यक्रमों के निर्माण में भागीदारी। दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद् के लिए दो बार निर्वाचित। आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रम शब्द संसार और पुस्तक चर्चा में नियमित भागीदारी। सम्प्रति: रामलाल आनंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी एवं हिंदी पत्रकारिता विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर। आप समीक्षक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— rakeshpragya@gmail.com