सौ वरियाँ दा जीवणा

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पल्लव

आत्मकथा की कसौटी क्या है? आत्मकथा कोई क्यों पढ़े? क्या उस सम्बंधित व्यक्ति के जीवन में ऐसा कुछ है जो पाठक को अपने लिए जानना आवश्यक लगता है इसलिए वह आत्मकथा पढ़े? आत्मकथा के मूल्यांकन में ये सभी सवाल खड़े होते हैं। और इनका कोई सर्वसम्मत जवाब नहीं खोजा जा सकता। जवाब कोई है तो वह यह कि श्रेष्ठ आत्मकथा व्यक्ति का ‘मैं’ नहीं होती। भीष्म साहनी की आत्मकथा ‘आज के अतीत’ इसका प्रमाण है। हिंदी भाषा में लिखी गई कुछ श्रेष्ठ आत्मकथाओं में अग्रगण्य। मनुष्य अपने जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव और परिवर्तन देखता है। जीवन के प्रति उसकी दृष्टि कैसी है और वह दृष्टि क्या मनुष्य के जीवन के उन्नयन में कोई सहयोग देने में समर्थ है? यह एक कसौटी ऐसी है जिस पर आत्मकथा साहित्य का मूल्यांकन किया जा सकता है।जीवन में सफलता-असफलता इसकी कसौटी नहीं हो सकती। क्यंकि सफल रहे मनुष्य को भी अपनी आत्मकथा लिखने का हक़ है और वह लिखता भी है। भीष्म साहनी का जीवन इस दृष्टि से किसी भी पाठक के लिए रोचक हो सकता है। विभाजन की मार, इप्टा और सिनेमा के बड़े कलाकार बलराज साहनी के छोटे भाई होना, सोवियत संघ के अच्छे दिनों में वहां का लंबा प्रवास, श्रेष्ठ कथाकार और संपादक के रूप में अपना जीवन, प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव के रूप में लंबी सक्रियता इत्यादि कारणों से किसी भी पाठक की रुचि भीष्म साहनी के जीवन में होना स्वाभाविक है।

इस आत्मकथा की पहली बड़ी खूबी यह है कि यह भीष्म साहनी के जीवन के बहाने स्वातन्त्र्योत्तर भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य का प्रभावी अंकन करती है और इस अंकन में कोई पूर्वाग्रह नहीं है। लेखक अपनी बात विनम्रता से कहकर मूल्य निर्णय की त्वरा नहीं दिखाते अपितु अक्सर मूल्य निर्णय पाठक पर ही छोड़ देते हैं। दूसरी बात यह है कि दुनियावी सफलताओं की परिभाषाओं में भी साहनी का जीवन आकर्षक है। दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन, सांस्कृतिक क्षेत्र में शीर्ष नेतृत्त्व की भूमिका और अनेक महत्त्वपूर्ण सम्मान। तब भी वे जैसे इन सबका प्रदर्शन करने से बचते हैं। जहाँ आवश्यक हुआ तथ्यात्मक बातें कह दीं और कोई आवश्यक टिप्पणी लगी तो वह भी। फिर जैसे झोली फटकार दी और आगे बढ़ गए। इतनी निस्संगता दुर्लभ है। यह निस्संगता भरपूर उष्मा से भरे जीवन के केंद्र से निकल आई है इसलिए इसका अधिक महत्त्व होना चाहिए। 

भीष्म जी अपनी आत्मकथा की शुरुआत उलझन से करते हैं— ‘कहाँ से शुरू करूँ?’ यह उलझन आगे नहीं है। अपने परिवार के प्रसंगों में रमते हुए वे पाठक को रावलपिंडी से लाहौर, फिर अम्बाला से मुम्बई और अंतत: दिल्ली से सोवियत संघ तक ले जाते हैं। इस सबके मध्य नितांत आत्मीय चित्रों का रेला है जिससे गुजरना एक उपन्यास सी मिठास पाना है। 

आश्चर्य यह कि इतने सुदीर्घ और विविधताओं से भरे कार्यक्षेत्रों में रहने पर भी कोई कड़वाहट नहीं। कोई खल पात्र इस किताब में नहीं है। अगर कोई चिंता है तो सामूहिकता के लोप हो जाने की है, सांप्रदायिक कलुष की चिंता है और मनुष्य के जीवन की बेहतरी की चिंता है। विभाजन के पूर्व के तनाव भरे दिनों में साम्प्रदायिकता के फैलने का उल्लेख यहाँ मिलता है— ‘सामान्य जीवन बाहर से ज्यों का त्यों चल रहा था पर अन्दर ही अन्दर से दूरियां बढ़ने लगी थीं। जगह-जगह छोटे साम्प्रदायिक विस्फोट होने लगे थे। हमसायों के व्यवहार में भी अब औपचारिकता का स्वर बढ़ने लगा था।’ भीष्म जी रावलपिंडी में रहते हुए भारतीयों की सामासिक संस्कृति को खूब जानते थे। धीरे धीरे उसका तिरोहित होना उन्हें खल रहा था। उनका कथन है—’हमारे देश की संस्कृति, मेल-मिलाप की ही संस्कृति रही है। गाँवों,कस्बों में तो विशेष रूप से। दीपावली के अवसर पर— मिलन एक अनिवार्य शर्त होती है। सभी त्योहारों का आधार ही मेल-मिलाप है, शादी-गमी पर उपस्थित होने की अनिवार्यता पर जरूरत से ज्यादा बल दिया जाता है। फिर भी इसके संबंधों से जो अपनेपन की गर्माहट,स्निग्धता मिलती है, उसका कोई मूल्य नहीं।’ 

अपनी रचना प्रक्रिया के कुछ सूत्रों को भीष्म जी आत्मकथा में पाठकों से साझा करते हैं— ‘मैं विश्वास के साथ तो नहीं कह सकता पर मुझे लगता है कि बाद में जो पात्र मेरे उपन्यासों–कहानियों में आए, उनमें अक्‍सर दो गुण थे– वे गरीब भी थे और निर्भीक भी। जैसे तमस का जरनैल। उनके चरित्र चित्रण के पीछे मेरी अपनी मानसिकता ही रहीं होगी, बहुत साल बाद जब मैं कांग्रेस में काम करने लगा जो वहां भी ऐसे ही लोगों के संपर्क में आया जो अपने तई महत्वाकांक्षी नहीं थे, अपने लिए कुछ नहीं माँगते थे, न पद, न पैसा, पर जो स्वतंत्रता संग्राम में जान की बाजी लगाकर उतरे हुए थे।’ कहना न होगा कि यह बात खुद भीष्म जी पर भी लागू होती है। महत्वाकांक्षा उनमें नहीं थी यह कहना तो उचित न होगा लेकिन वे इसी स्वतंत्रता आंदोलन से निकले गांधी के सैनिक थे जिन्हें पद या पैसा लुभाता नहीं था। 

इस आत्मकथा में तनाव के अनेक प्रसंग आए हैं और ये पारिवारिक तथा सामाजिक दोनों हैं। एक मार्मिक प्रसंग है बड़े भाई बलराज साहनी के घर छोड़कर जाने का। अचरज यह है कि वे घर छोड़ते हुए नहीं जानते थे कि उन्हें कहाँ जाना है, क्या करना है। बस यह तय था कि पिता का पुश्तैनी व्यापार नहीं करना। भीष्म जी इसे कुछ इस तरह समझते हैं—’यह असंतोष उस कालखंड की देन था। दिल में उठने वाली बलवती अभिव्यक्ति के लिए आतुर थे। साथ ही साथ किसी बड़े ध्येय के साथ जुड़ने की छटपटाहट थी। वह व्यक्तिगत जीवन के तंग घेरे में नहीं बने रहना चाहते थे। यह असंतोष किसी बड़े क्षेत्र में…अभिव्यक्ति के लिए छटपटा रहा था।’ लेकिन वे यहाँ अपने पिता की व्याकुलता छिपाते नहीं और लिखते हैं—’कभी पिताजी अपने सफेद बालों का वास्ता डालते, कभी अपनी कमाई के बही खाते खोलकर दिखाते पर बलराज पर कोई असर नहीं हो रहा था पिताजी बड़े व्याकुल थे। एक बार तो उन्‍होंने अपने सिर पर से पगड़ी तक उतार कर उसके सामने रख दी। हर बार मैं उनका वार्तालाप सुनता तो मेरा दिल बैठ जाता। ’ऐसे मौकों पर अक्सर स्त्रियां अधिक परिपक्वता दिखाती हैं। यहाँ भी भीष्म जी की माँ ने समझाइश की—‘जब पंछी पंख निकालते हैं तो क्या घोसले में बने रहते हैं? वे तो फुर्र से उड़ जाते हैं इसे खुशी-खुशी विदा करो।’ और फिर पिता ने पिन्नियां बनवाईं। एक हजार का चेक दिया और बेटे को विदा किया। उनकी माँ कहा करती थीं— सौ वरियाँ दा जीवणा ते ओड़क मरना। अर्थात मर तो हम क्षण भर में जाते हैं पर जीते सौ वर्ष तक हैं। भीष्म जी की आत्मकथा इस सौ वर्ष के जीवन की साधना ही है। 

ऐसे ही भारत विभाजन का प्रसंग है। रावलपिंडी में उनके मोहल्ले से एक एक कर सभी हिन्दू परिवार जा चुके थे। बलराज जी पहले ही बम्बई में थे तो भीष्म जी भी आजादी का जलसा देखने दिल्ली आ गए थे। हालात ऐसे कि अब उनका लौटना सम्भव न था। पिताजी रावलपिंडी में अकेले रह गए थे और घर छोड़कर आने को तैयार न होते थे। उनका सहज विश्वास था— ’इन्हें कोई कैसे समझाएं! अमलदारियां तो बदलती रहती है। आज एक अमलदारी है तो कल दूसरी होगी। पर क्या अमलदारी बदल जाने पर रियाया अपना घर बार छोड़कर चली जाती है? कभी यो भी हुआ है?’  भीष्म जी आगे यह भी लिखते हैं— ‘और पिताजी  का यह विश्वास बहुत दिनों तक बना रहा।’ परिवार के विरुद्ध संघर्ष कर अपने व्यक्तित्व को निखारने जैसा आत्मकथाओं का सरलीकरण भीष्म जी नहीं करते। पिता के व्यापार को संभालने में उन्हें अनेक खट्टे-मीठे अनुभव मिलते हैं और पिता से उनकी असहमतियां भी हैं लेकिन जैसे वे इन सबके साथ जीवन का संधान करना चाहते हैं।टकराकर नहीं। कानपुर रेलवे स्टेशन पर एक अंग्रेज से हुई मुठभेड़ भी उन्हें बेचैन करती रही और एक मामले में कोर्ट में गवाही देने के प्रसंग अतिरंजना से रहित सादगी से बने उनके व्यक्तित्व की झांकी देते हैं। चाहे इसमें उनकी कमजोरी ही क्यों न दिखाई दे? सोवियत संघ में अनुवाद का काम करते हुए जब पांच-छह साल निकल गए तब शीला जी ही थीं जो भीष्म जी को दो टूक कहती हैं— ‘यहां तुम क्या कर रहे हो? छह साल यहां रहते हो गए. तुमने केवल एक कहानी लिखी, वह भी मरियल सी। तुम्हें यहां क्या मिल रहा है? प्रकाशन गृह वाले साहनीजी-साहनीजी कहकर तुम्हारी तारीफ़ कर देते हैं और तुम फूले नहीं समाते। उधर तुम्हारे माँ-बाप बैठे हमारी राह देख रहे हैं।’         

भीष्म जी घोषित रूप से वामपंथी विचारधारा को मानते थे। आत्मकथा में उन्होंने लिखा है— ‘कम्‍यूनिस्‍ट विचारधारा से प्रभावित व्यक्ति की दृष्टि निश्चय ही सामाजिक स्‍तर पर अधिक स्पष्ट और सटीक होती है। वह साम्‍प्रदायिक नहीं होता, जातिभेद में विश्वास नहीं करता, न रंगभेद में। हमारे समाज में, इस दृष्टि में सबसे विश्वसनीय लोग वाम विचारधारा को मानने वाले लोग रहे हैं और आज भी हैं। उनमें चिंतन का धरातल ही जनहित होता है इसमें उनकी गहरी निष्ठा होती है।’ देखा जाए तो आदर्श के रूप में भले भीष्म जी यह कह रहे हों तथापि वे अपने लेखन और जीवन में गांधी जी की सादगी और नेहरू जी के समाजवाद से कहीं अधिक प्रभावित लगते हैं। आत्मकथा में अपने प्रिय संस्कृत मन्त्रों का उल्लेख भी बताता है कि कैसी भी कट्टरता जैसे उन्हें छू भी नहीं गई थी और कुछ भी छिपाना उनके जाने पाप जैसा था। आर्य समाज के संस्कारों ने उन्हें नैतिकता और अनुशासन सीखाया। वहीं परिश्रम के प्रति उनके मन में गहरा आदर भाव था जो अनेक बार उनके लिए परेशानी पैदा करने वाला भी रहा। ‘साहित्यकार’ जैसी लघु पत्रिका निकालने और मोटर मैकेनिक के साथ काम करने वाले प्रसंग यही बताते हैं।  

इस सुदीर्घ सामाजिक यात्रा में भीष्म जी के संपर्क और परिचय के दायरे में जाने कितने बड़े लोग आये होंगे। वे ऐसी किसी सूची के निर्माण से बचते हैं। आत्मकथा के अंत में वे अपने अनुभव के दायरे में आए दो तीन लोगों की सादगी और सौजन्यता को याद करते हैं जिनका उनके व्यक्तित्व पर भी असर है। ये महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री थे। जिन दिनों बलराज साहनी सेवाग्राम में थे भीष्म वहां गए। उन्होंने गांधी जी से प्रात: भ्रमण पर हुई संक्षिप्त भेंट का विवरण लिखा है— ’आखिर हम कदम बढ़ाते कुछ ही देर में उनसे जा मिले। गांधी जी ने मुडकर देखा। भाई ने आगे बढ़कर मेरा परिचय कराया- ’मेरा भाई है कल ही रात पहुंचा है।’

‘अच्‍छा इसे भी घेर लिया’, गांधी जी ने हंस कर कहा। 

यहाँ बीच में भीष्म जी का उहापोह है। गांधी जी से क्या कहें? क्या बात करें? तभी उन्हें याद आता है कि एक बार गांधी जी रावलपिंडी आए थे। 

‘आप बहुत साल पहले हमारे शहर रावलपिंडी आये थे।’ मैने कहा। 

गांधी जी रूक गये, उन्‍होंने मेरी ओर देखा, उनकी आंखों में चमक सी आई और मुस्‍कराकर बोले, ’याद है मैं कोहाट से रावलपिंडी गया था… मिस्टर जॉन कैसे हैं?’ 

नेहरू जी से भेंट के प्रसंग आत्मकथा में एकाधिक हैं। एक प्रसंग में नेहरू जी द्वारा अनातोले फ्रांस की कहानी सुनाने का वर्णन है। वहीं एक प्रसंग में भीष्म जी सुबह सुबह अखबार पढ़ रहे हैं और जान चुके हैं कि सीढ़ियों पर नेहरू जी आ गए हैं। नेहरू जी भी अखबार पढ़ना चाहते थे। भीष्म जी ‘बचकाना’ हरकत सूझी कि अखबार नेहरूजी मांगेंगे तभी दूंगा ताकि इस बहाने छोटा से वार्तालाप हो जाएगा। ’नेहरू आये, मेरे हाथ में अख़बार देखकर चुपचाप एक ओर खड़े रहे। वह शायद इस इंतजार में खड़े रहे कि मैं स्वयं अख़बार उनके हाथ में दे दूंगा। मैं अख़बार की नजरसानी क्या करता, मेरी तो टाँगे लरजने लगी थीं, डर रहा था कि नेहरू जी बिगड़ न उठें। फिर भी अखबार को थामे रहा। कुछ देर बाद नेहरू जी धीरे से बोले, ‘आपने देख लिया हो तो क्या मैं एक नजर देख सकता हूं ?’ सुनते ही मैं पानी पानी हो गया और अख़बार उनके हाथ में दे दिया।’ 

आत्मकथा में एक स्थान पर भीष्म जी प्रेमचंद से न मिल पाने का संस्मरण लिखते हैं जो सम्भवत: प्रेमचंद से उनकी मुलाक़ात हो जाने पर भी उतना मार्मिक नहीं बन सकता था। इसकी मार्मिकता भीष्म जी की ईमानदारी की ताकत में निहित है। वे लिखते हैं—’एक दिन चन्द्रगुप्तजी ने बताया कि मुंशी प्रेमचन्द कुछ दिन के लिए लाहौर आ रहे हैं और हमारे ही निवास स्थान पर रहेंगे। यह बहुत बड़ी सूचना थी पर मुझ पर उसका ज्यादा असर नहीं हुआ। प्रेमचन्द की विशिष्टता से तो मैं अनभिज्ञ नहीं था, पर जाड़ों की छुट्टियों में मैं घर जाने के लिए एक-एक दिन गिन रहा था। इसमें भी सन्देह नहीं कि उन दिनों मेरे मस्तिष्क पर अंग्रेजी साहित्य हावी था और मैंने उस अवसर के महत्व को गौण समझा। चन्द्रगुप्तजी ने बहुत समझाया कि ऐसा अवसर बहुत कम मिल पाता है, तुम मेरे साथ रहोगे तो हम दोनों मिलकर उनकी देखभाल भी कर सकेंगे। पर मैं नहीं माना और यह कहकर कि भविष्य में भी ऐसा अवसर मिल सकता है, मैं रावलपिंडी के लिए रवाना हो गया।
प्रेमचन्द आये, उसी घर में पाँच दिन तक ठहरे, और जब मैं छुट्टियों के बाद लाहौर लौटा तो वह जा चुके थे। तब भी मुझे कोई विशेष खेद नहीं हुआ।’ 

लेकिन अभी बात खत्म नहीं हुई है।  भीष्म जी सम्भवत: अब तक प्रेमचंद का महत्त्व न जान सके थे और जब जाने तब जो हुआ वह अंश ही संस्मरण को मार्मिक बनाता है।  उन्होंने आगे लिखा—’खेद तब हुआ जब कुछ ही महीने बाद पता चला कि प्रेमचन्द संसार में नहीं रहे और भी गहरा दुख तब हुआ जब एक लम्बे रेल-सफर में ‘गोदान’ पढ़ता रहा और पुस्तक समाप्त हो जाने पर अभिभूत-सा बैठा रह गया। तब इस बात का और भी शिद्दत से अहसास हुआ कि मैं कितना अभागा हूँ जो उस सुनहरे अवसर को खो बैठा।’ 

भीष्म जी प्रसंगवश आत्मकथा में अपना मूल्यांकन करने की भी कोशिश करते हैं। यह इतना निर्मम है कि कोई खोल या आवरण की तलाश नहीं करता। वे लिखते हैं— ‘कभी-कभी सोचता हूँ कि जिन्दगी में मैंने अपनी इच्छाओं से विवश होकर कोई भी दो टूक फैसला नहीं किया। मैं स्थितियों के अनुरूप अपने को ढालता रहा हूँ। अन्दर से उठने वाले आवेग और आग्रह तो थे, पर मैं उन्हें दबाता भी रहता था। मैंने किसी आवेग को जुनून का रूप लेने नहीं दिया। मैं कभी भी यह कहने की स्थिति में नहीं था कि जिन्दगी में यही एक मेरा रास्ता है, इसी पर चलूँगा।’ ऐसा सच्चा आत्मस्वीकार दुर्लभ है। भीष्म जी के कथन की गांधीवादी सादगी इसे मूल्यवान बनाती है। इस आत्मकथा का महत्त्व इस सादगी में भरा है। निर्लिप्त और अकुंठ स्वर। आडंबरहीनता भीष्म जी के स्वभाव का अंग है और उनकी आत्मकथा की शक्ति इस आडंबरहीनता में है। यह हिंदी भाषा की अनुपम कृति इसलिए बन सकी है कि यहाँ लेखक भारतीय जीवन की सादगी, मानवीय गरिमा और उदात्तता का निर्वाह इस अकृत्रिमता से करता है कि विश्वास करना मुश्किल हो जाता है। सादगी का यह मूलमंत्र उनके लेखन में जीवन से ही आया है और वे इसे ग्रहण करने की बात भी इस सच्चाई से लिखते हैं कि साहित्य की सामाजिकता का मंत्र घटित होता दीखता है – ‘यदि साहित्य सृजन जीवन की सच्चाई की खोज है तो जीवन के अनुभव इस खोज में सहायक ही होते होंगे। इस तरह जीवन के अनुभवों को गौण तो नहीं माना जा सकता। इस अनुभवों से दृष्टि भी मिलती है, सूझ भी बढ़ती है, लेखक के सम्वेदन को भी प्रभावित कर पाते होंगे। मैं इस तरह की युक्तियाँ देकर अपना ढाढ़स बँधाता रहता था।’  कला के जादू के बरक्स जीवन की जय में उनका विश्वास इतना गहरा था कि वे यह तक कहने में संकोच नहीं करते— ‘मेरी समझ में साहित्यिक कृति में विश्वसनीयता का होना नितांत आवश्यक है : शायद एक अच्छी कृति की यही सबसे अच्छी कसौटी है कि वह विश्वसनीय हो, जिंदगी पर खरी उतरे। …साहित्य जिंदगी की कोख में से निकल कर आए तभी विश्वसनीय हो पाता है।’    

इसी तरह एक जगह उन्होंने लिखा है—’मेरा सारा बचपन और बहुत हद तक लड़कपन भी अपने लिए हीरो बनाने में बीता है। इससे मेरे स्वतन्त्र चिंतन, स्वतन्त्र दृष्टि का विकास, सभी को नुकसान पहुंचा।’ यह वाक्य भीष्म जी पर स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों और संस्कारों से आया है। अन्यथा क्या कारण है जिस दौर में उनके समक्ष गांधी, नेहरू, भगतसिंह और शास्त्री जैसे नेता हों तब भी वे नायकत्व की अवधारणा पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। कार्यकर्ता का सा भाव उनके व्यक्तित्व से अभिन्न है। वे प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा से जुड़े रहे बल्कि उनके शीर्ष पदों पर भी पहुंचे तथापि यह बात उनके जाने एक तथ्य से अधिक महत्त्व नहीं रखती। वस्तुत: भीष्म जी की आत्मकथा ‘आज के अतीत’ हिन्दी भाषा में लिखी गई बहुत थोड़ी श्रेष्ठ आत्मकथाओं में है जहाँ लेखक स्थितियों और घटनाओं का विवरण देता गया है और मूल्य निर्णय का अधिकार पाठकों को दे देता है। यह किताब बताती है कि कोई व्यक्ति कितना निस्संग और निरभिमानी हो सकता है और कहना न होगा कि यह वाकई हमारे बड़बोले समय में अनुकरणीय है। आत्मकथा में भीष्म जी का एक रूप शीला साहनी के पति का भी है। व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए छटपटाती और संघर्ष करती शीला जी के वे हमकदम हैं। उनके फैसलों का सम्मान करते हुए और बहुधा स्वीकार करते हुए। 


आज के अतीत : भीष्म साहनी [आत्मकथा], मू.600 रुपये (सजिल्द), राजकमल प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से भी ऑनलाइन ऑर्डर कर मँगवा सकते हैं।


पल्लव : राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी परिवार में 2 अक्टूबर को जन्म। गद्य आलोचना में विशेष रुचि। ‘कहानी का लोकतंत्र’ और ‘लेखकों का संसार’ शीर्षक से दो पुस्तकें। ‘मीरा: एक पुनर्मूल्यांकन’, ‘गपोड़ी से गपशप’, ‘एक दो तीन’ और ‘अस्सी का काशी’  शीर्षक से संपादित पुस्तकों का प्रकाशन। असगर वजाहत के सम्पूर्ण रचना संसार से चुनकर तीन खंडों में असगर वजाहत रचना संचयन का संपादन। ‘ मैं और मेरी कहानियां ‘ शीर्षक से हिंदी के दस प्रतिनिधि युवा कथाकारों के कहानी संग्रहों का चयन और संपादन। साहित्य-संस्कृति के विशिष्ट संचयन ‘बनास जन’ का विगत दस वर्षों से सम्पादन। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में आलेख, आलोचना और समीक्षा लेखों का लगभग दो दशकों से निरन्तर प्रकाशन।  भारतीय भाषा परिषद्, कोलकाता का युवा साहित्य पुरस्कार, वनमाली सम्मान, आचार्य निरंजननाथ सम्मान, राजस्थान पत्रिका सृजन पुरस्कार सहित कुछ और पुरस्कार-सम्मान। सम्प्रति-दिल्ली के हिन्दू कॉलेज में अध्यापन।  आप इनसे निम्न ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— pallavkidak@gmail.com


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