विमल कुमार
हिंदी साहित्य में इतिहास और पुराणों के आधार पर उपन्यास लिखना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य है, लेकिन उससे भी अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य यह है कि किसी रचना में उस दौर के इतिहास का इस्तेमाल करते हुए हैं उसमें एक नए पात्र और नये नायक का निर्माण करना जो इतिहास में वर्णित नहीं है या वह उपेक्षित या अलक्षित है। इस वर्ष हिंदी साहित्य में कुछ ऐसे उपन्यास आए जिन्होंने अपने ऐतिहासिक और पौराणिक थीम के कारण पाठकों का ध्यान खींचा और यह सोचने पर विवश किया कि आखिर क्या कारण है कि आज भूमंडलीकरण के दौर में हम अपने इतिहास और पुराणों को एक बार फिर से टटोल रहे हैं? आखिर हम ऐसा कर क्या कुछ हासिल करना चाहते है या वर्तमान की व्याख्याया या विश्लेषण उस बीते हुए काल खंड के आईने में कर रहे है? ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि लेखकों ने अपने वर्तमान की व्याख्या करने के लिए इतिहास और पुराणों का सहारा लिया हो, उसका इस्तेमाल न किया हो। हिंदी साहित्य में इसके अनेक उदाहरण यहां दिए जा सकते हैं। दो एक वर्ष पूर्ण मनीषा कुलश्रेष्ठ का उपन्यास ‘मल्लिका’ इसकी एक बानगी है लेकिन पिछले दिनों हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका अनामिका, वरिष्ठ लेखिका वन्दना राग और युवा लेखिका अणुशक्ति सिंह तथा सोनाली मिश्र ने अपने उपन्यासों का आधार इतिहास और पुराण को बनाया और पाठकों का ध्यान खींचा।यहां पर जिस उपन्यास का जिक्र किया जा रहा है, वह ऐतिहासिक परिस्थितियों और काल खण्ड को चित्रित करते हुए पूरी तरह से न तो ऐतिहासिक उपन्यास है और नहीं कोई सांस्कृतिक उपन्यास है जैसा कि हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों को एक सांस्कृतिक बोध का उपन्यास बनाया था।
भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी और दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिक शास्त्र के छात्र रहे मृत्युंजय ने ‘गंगा रतन बिदेसी’ उपन्यास लिखा है जो मूलतः भोजपुरी में रचा गया लेकिन अब उसका हिंदी रूप भी सामने आया है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 356 पृष्ठों के इस बृहत उपन्यास ने भोजपुरी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है क्योंकि मेरी जानकारी में भोजपुरी साहित्य में अब तक शायद ही ऐसा कोई उपन्यास लिखा गया हो लेकिन अब चूंकि यह उपन्यास हिंदी में आ गया है और भोजपुरी से हिंदी में रूपांतरण खुद लेखक ने किया है, इसलिए इस उपन्यास की मीमांसा हिंदी उपन्यास के रूप में ही की जाएगी और इस उपन्यास की आलोचना करते हुए हिंदी उपन्यासों की परंपरा को ध्यान में जरूर रखा जाएगा। तब शायद इसका समुचित एवं संतुलित मूल्यांकन हो पाएगा।
मृत्युंजय ने इस उपन्यास में एक ऐसे गिरमिटिया परिवार को केंद्र में रखा है जिसकी दो पीढियां भारत में जीवन बसर करती हैं। असल में गिरमिटिया समाज को लेकर अब तक कोई उल्लेखनीय प्रयास हिंदी में नहीं लिखा गया था हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक गिरिराज किशोर ने ‘पहला गिरमिटिया’ नामक उपन्यास लिखा था जो मूलत महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर केंद्रित किया गया था लेकिन मृत्युंजय उपन्यास की खासियत यह है इसका नायक भले ही गिरमिटिया मजदूर रहा हो लेकिन उसके जीवन की कथा भारत में आकर ही पूरी होती है।
रतन दुलारी नामक पात्र दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी के साथ रहता है और जब गांधीजी 1917 में भारत आते हैं तो यह पात्र भी उनके साथ ही देश की सेवा करने के लिए भारत में आता है। उस समय उसकी उम्र 17 साल की होती है जाहिर है उसके भीतर देश की आज़ादी की पुकार उसे भारत आने के लिए उद्वेलित कर रही है और वह गांधी जी के आदर्शों से प्रभावित होकर उनका हाथ बंटाने भारत आता है जबकि उसके माता-पिता दक्षिण अफ्रीका में ही रह जाते हैं। रतन दुलारी भारत आकर गांधी जी के साथ वह बनारस भी जाता है और चंपारण भी जाता है। लेखक ने उपन्यास की भूमिका में न तो यह बताया है कि गांधी जी के साथ आने वाला यह पात्र क्या इतिहास में कोई वास्तविक व्यक्ति था या वह लेखक की कल्पना मात्र है। लेकिन इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह प्रतीत होता है कि लेखक ने इस पात्र की रचना खुद की है और वह कोई वास्तविक रूप से ऐतिहासिक पात्र नहीं है पर लेखक ने इस उपन्यास में जिस तरह इस पात्र की रचना की है वह इतना जीवंत है कि लगता है कि वास्तव में रतन दुलारी नामक कोई व्यक्ति था जो वाकई गांधी जी के साथ 1917 में भारत आया था।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार मुंशी प्रेमचंद और कई बार रेणु की भी याद आती है। प्रेमचंद की याद इस रूप में आती है इस उपन्यास के मुख्य पात्र रतन दुलारी और उसका बेटा गंगा रतन बिदेसी दोनों बहुत ही निम्न वर्ग के ऐसे पात्र हैं जिन्हें अपने जिंदगी के संघर्ष के लिए वैसे ही जूझना पड़ता है जैसे गोदान के होरी और गोबर को करना पड़ा था। असल में इस उपन्यास के मुख्य पात्र रतन दुलारी के व्यक्तित्व का पूरा विकास उसी दौर में होता है जिस दौर में प्रेमचंद ने गोदान को लिखा था यह अलग बात है कि होरी अवध इलाके का एक किसान था जबकि रतन दुलारी एक ऐसा गिरमिटिया मजदूर था जो दक्षिण अफ्रीका के साथ महात्मा गांधी के साथ भारत आया था और उसके भी कुछ आदर्श थे, कुछ जीवन मूल्य थे और आजादी को देखने का एक सपना था जब कि होरी खुद अपने ही जीवन के संघर्ष में फंसा था और वह रतन दुलारी की तरह महात्मा गांधी के साथ आजादी की लड़ाई में भाग नहीं ले पाया था। लेकिन इस उपन्यास में लेखक ने न तो रतन दुलारी को एकल नायक बनाया है और न ही उसके पुत्र गंगा रतन बिदेसी को एकल नायक बना पाया है।
यह उपन्यास वस्तुत: दो नायकों की कहानी का उपन्यास है जिसमें जिसमें पिता और पुत्र की कथा साथ-साथ चलती है। अगर इस उपन्यास के मुख्य पात्रों को देखा जाए तो इस उपन्यास में रतन दुलारी और उसकी पत्नी गंग झरिया एवं उसका पुत्र गंगा रतन बिदेसी एवं उसकी पत्नी लछीमिया के अलावा उसका पुत्र दीपू और ऋतिक मजूमदार और उसकी पुत्री डोना ही मुख्य पात्र हैं जिसके सहारे इस उपन्यास का वितान खड़ा होता है।
इस उपन्यास में महात्मा गांधी की लड़ाई के बाद आजादी मिलने की भी कथा है लेकिन आजादी मिलते ही रतन दुलारी का इस से मोहभंग होता है और वह कहता है क्या इसी आजादी के लिए इतनी लंबी लड़ाई लड़ी गई थी। सच पूछा जाए तो यह उपन्यास आजादी के मोहभंग की ही कहानी है और रतन दुलारी का पुत्र एक कुली बन जाता है और उपन्यास के उत्तरार्ध में वह अपनी आजीविका के लिए ऋतिक मजूमदार एक बंगाली परिवार के पास रहने लगता है जिसका चाय बागान भी है। मजूमदार की बेटी डोना से उसका स्नेहपूर्ण संबंध भी विकसित होता है। उपन्यास के उत्तरार्ध में गंगा रतन बिदेसी अपने बेटे दीपू के भरण पोषण के वास्ते मजूमदार साहब को अपनी पत्नी की हत्या के आरोप से बचाने के लिए इस हत्या का इल्जाम अपने ऊपर ले लेता है और जेल की सजा काटता है। वह यह समझौता अपने पुत्र दीपू के लिए करता है। यह सुनने में थोड़ा विचित्र लग सकता है और फिल्मी अंदाज भी लग सकता है लेकिन मनुष्य की गरीबी उसे यह सब करने के लिए मजबूर भी करती है। लेखक की इस कथा में एक फिल्मी तत्व है जिसे हम आमतौर पर हिंदी फिल्मों में देखते हैं। इस उपन्यास में भी डोना गंगा रतन बिदेसी को अदालत में बचाने के लिए काफी प्रयास करती हैं।
मृत्यंजय ने इस उपन्यास में रत्न दुलारी और गंग झरिया, गंगा रतन बिदेसी और लछमीय के अलावा गंगा रतन तथा डोना के सम्बन्धों के कई मानवीय प्रसंगों का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है खासकर तब जब रतन दुलारी बनारस में गंग झरिया जैसी विधवा स्त्री से मिलता है और उससे वह प्रेम करने लगता है। बाद में वह उससे विवाह भी कर लेता है। लेकिन यह उपन्यास शुरू में एक बड़ी सम्भवना जगाता है। लगता है रतन दुलारी ही इस उपन्यास का मुख्य नायक बनेगा और वह पूरी कथा व्यक्त करेगा। यह उपन्यास आजादी के मोहभंग का उपन्यास बनेगा पर इसकी कथा शिफ्ट होकर गंगा रतन बिदेसी की तरफ मुड़ती है। दरअसल लेखक के पास कथा रस तो है वह एक वितान वितान भी खड़ा करता है और उपकथाओं का अध्याय भी खूबसूरती से निर्मित करता है और ग्रास रुट के पात्रों को सृजित करता है। तब रेणुजी की याद आती है लेकिन जिस बड़े उद्देश्य की उम्मीद लेखक से थी वह पूरी नही हो पाती। एक बड़े उपन्यास की सारी सम्भवना लिए यह एक सामान्य उपन्यास बनकर रह जाता है। पहले उपन्यास के रूप में मृत्युंजय ने सुंदर प्रयास किया है। उनके पास इतना सुंदर वृतांत है वह उसका सुंदर इस्तेमाल कर भविष्य में वह निसंदेह एक बड़ा उपन्यास लिखेंगे। जब हिंदी उपन्यास नीरस हो चले है उसमे यह उपन्यास एक रोचक कथा कहता है। हिंदी साहित्य में यह एक वंचित समाज की दुखभरी के रूप में याद किया जाएगा।
गंगा रतन बिदेसी : मृत्युंजय [भोजपुरी उपन्यास का हिन्दी रूपान्तरण], मू. 300 (पेपरबैक), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली। यह पुस्तक आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं।
विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com