उमा शंकर चौधरी
हिन्दी कविता में जिन कवियों के यहां राजनीतिक चेतना बहुत मुखर रूप में आयी है वरिष्ठ कवि मदन कश्यप का नाम उनमें प्रमुख है। राजनीति उनकी कविता का मुख्य स्वर है। इसलिए जिन कविताओं में वे बहुत मुखर होकर राजनीतिक चिंताओं को नहीं पकड़तें हैं वहां भी राजनीतिक दुष्परिणाम प्रकारान्तर से जरूर आए हैं। ‘पनसोखा है इन्द्रधनुष’ मदन जी का छठा संग्रह है। इस संग्रह में राजनीतिक और गैर राजनीतिक कविताओं को अलग करने की कोशिश की गई है। संग्रह में कविताएं तीन भागों में बंटी हुई हैं। पहले भाग का यूं कोई नाम तो नहीं दिया गया है परन्तु ये वे कविताएं हैं जो राजनीतिक रूप से बहुत मुखर नहीं हैं। दूसरे भाग में चैट कविताएं हैं जिसमें वैसी कविताओं को संकलित किया गया है जो आकार में छोटी हैं और भाव में त्वरित जैसी हैं। तीसरे भाग को ‘डपोरशंख’ नाम दिया गया है। इस भाग का नाम इसी भाग में संकलित एक कविता ‘डपोरशंख’ के नाम पर है। इस भाग में वे कविताएं हैं जो वास्तव में राजनीतिक रूप से बहुत ही मुखर हैं। इन पिछले कुछ वर्षों में हमारे समाज में राजनीतिक रूप से जो भी तब्दीलियां हुई हैं, ये कविताएं उनकी गवाह हैं।
पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर जो बड़े बदलाव हमारे समाज में हुए हैं उसमें किसी कवि की खामोशी या फिर कविता के रास्ते में बदलाव कवि को शक के दायरे में रखता है। यह जो समय है उसमें एक कवि की तटस्थता, कविता को पॉलीटिकली करैक्ट रखने की कोशिश उत्कृष्ट कविता को द्योतित नहीं करती है। हिन्दी कविता का इतिहास गवाह है कि सत्ता के निरंकुश चेहरे के सामने कविता ने हमेशा अपनी आवाज बुलंद की है और अपने को सत्ता के प्रतिरोध में हाशिये की आवाज बनकर उभारा है। कबीर, भारतेन्दु, निराला से लेकर मुक्तिबोध, नागार्जुन तक की पूरी परम्परा हमें धरोहर के रूप में मिली है। मदन कश्यप उसी परम्परा में मुखर रूप से रहने वाले ऐसे कवि हैं जिन्होंने इस बदलती हुए राजनीतिक, सामाजिक समाज को अपनी कविता में बहुत जोर-शोर से उठाया है। राजनीतिक कविताएं वे लगातार लिखते ही रहे हैं परन्तु इस संग्रह की कविताओं को उनके पिछले संग्रहों से इस आधार पर अलगाया जा सकता है कि यहां मिलने वाला समाज और परिस्थितियां भी उन परिस्थितियों से अलग थीं।
समाज में बढता साम्प्रदायिक तनाव एक कवि को सोचने और लिखने पर मजबूर करता है। इधर के वर्षों में सामाजिक सहिष्णुता में काफी कमी आयी है और साम्प्रदायिक तनाव लागातार समाज में देखने को मिले हैं। मदन कश्यप की कविता ‘क्योंकि वह जुनैद था’ इसी साम्प्रदायिक तनाव को अपने यहां रेखांकित करती हुई कविता है। यह कविता यूं तो एक खास साम्प्रदायिक घटना को केन्द्र में रखकर लिखी गयी है और यही कारण है कि जब यह कविता सार्वजनिक हुई तो काफी चर्चित भी हुई लेकिन इस कविता को सिर्फ उस घटना विशेष से जोड़कर देखा नहीं जा सकता है। यह कविता वास्तव में दो अर्थों में बंटी हुई है। एक तो यह कविता इस हत्या को एक खास मकसद से जोड़ती है और इसे एक खास अस्मिता विमर्श में तब्दील कर देती है। वहीं दूसरी ओर अपने दूसरे भाग में कविता इस हत्या को सत्ता के षड्यंत्र, निरंकुशता और नाकामियों से भी जोड़ देती है।
‘क्योंकि वह जुनैद था’ का कोरस पूरी कविता में व्याप्त है और यही कोरस इस कविता की आत्मा भी है। इस कविता में ‘क्योंकि’ इस हत्या के पीछे के रहस्य को उदघाटित करता है। यहां इस ‘क्योंकि’ के द्वारा ही इस समय के इतिहास की दरारों को एक साहित्यकार ने पढने की कोशिश की है। यह ‘क्योंकि’ इस हत्या को एक सामान्य हत्या में सिमटने नहीं देता है। वहीं एक सत्ता के पास कैसे-कैसे हथियार हो सकते हैं हाशिये की आवाज को कुचलने के लिए, विवेक को मारने के लिए, प्रतिरोध की आवाज को दबाने के लिए यह कविता सत्ता के उस षड्यंत्र को भेदने का प्रयास भी बखूबी करती है। ‘सारी समस्याओं का रामबान समाधान था/जुनैद को मारो/ज्ञान के सारे दरवाजों को बन्द करने पर भी/जब मनुष्य का विवेक नहीं मरा/तो उन्होंने उन्माद के दरवाजे को और चौड़ा किया/ जुनैद को मारो।’ यह साम्प्रदायिक उन्माद कहीं बाहर से नहीं आ रहा है बल्कि यह हमारे अन्तस में सदियों से कुंडली मारकर बैठा हुआ है। सत्ता का नाकामयाब चेहरा अपनी कमियों को छुपाने के लिए कई रूप लेता है। जाति, धर्म, सम्प्रदाय आदि-आदि सब इन्हीं कमियों को छुपाने का हथियार है। इतिहास इस घटना को तो दर्ज कर सकता है परन्तु इसके अंतस में बैठे यथार्थ को नहीं। इसलिए यह कविता इस समय का एक ऐसा अंतर्पाठ बन गया है जिसके बिना इस समय को ठीक-ठीक समझा नहीं जा सकता है।
डपोरशंख वाले खंड में दस कविताएं हैं और दसों कविताएं आज की राजनीति से उपजे हालात पर बहुत ही मुखर होकर लिखी गई हैं। जिस तरह जुनैद कविता किसी एक घटना को स्पष्ट करते हुए लिखी गई है उस तरह अन्य कविताएं तो नहीं हैं परन्तु अन्य कविताओं को पढते हुए उसे आज के राजनीतिक हालात से आसानी से जोड़ा जा सकता है। ‘पिता का हत्यारा’ जिस हत्या पर लिखी गई कविता है उसे हम सब जानते हैं। कवि उस बेटे की तरफ से यह कविता लिख रहे हैं जो इस न्याय व्यवस्था के यथार्थ को देखते हुए बाहर आकर कहता है कि नहीं उसके पिता की हत्या नहीं हुई थी। ‘चौदह वर्ष का था जब पिता की हत्या हुई थी/पिछले तीन वर्षों से बस यही सीख रहा हूं/कि जीने के लिए कितना जरूरी है मरना।’ यह एक लोकतंत्र का नग्न यथार्थ है जहां एक बेटा अपने पिता की हत्या को हत्या सिर्फ इसलिए नहीं कह रहा है क्योंकि वह बाकी जिन्दगी को जीना चाह रहा है। मदन कश्यप अपनी कविताओं में खबरों की तह में उतरते हैं और एक भयावह सच खोज लाते हैं। मदन कश्यप की कविताएं लोकतंत्र की कलई खोलने का प्रयास हैं। हम एक भयावह स्थिति में रह रहे हैं। एक ऐसी स्थिति जहां हत्या को हत्या क़हना सबसे बड़ा अपराध है। यह एक ऐसा लोकतंत्र बन चुका है जहां ‘सबसे सस्ता बिकता है धर्म/लेकिन उससे मिलती है इतनी प्रचुर राशि/कि कुछ भी खरीदा जा सकता है/यानी लोकतंत्र भी।’
मदन कश्यप अपनी कविताओं के माध्यम से इस समय का समानान्तर इतिहास लिखते हैं। जब वर्षों बाद इस समय को समझने का प्रयास किया जाएगा तब यह साहित्य यथार्थ को मुकम्मल बनाएगा। लोकतंत्र का यह एक ऐसा यथार्थ है जहां भूख, गरीबी, डर ये सब बहुत ही आम और प्रचलित शब्द हो गए हैं। फुटपाथ पर सोने वाले आम इंसान जब कीडे-मकोड़े की तरह मारे जाते हैं तब क्या मतलब है उनके लिए लोकतंत्र का। ‘जब मारे गए तभी पता चला कि वे थे/अन्यथा क्या प्रमाण था उनके होने का।’ मदन कश्यप के यहां चूंकि राजनीतिक समझ बहुत साफ है इसलिए उनके यहां अपने समय को लेकर कोई उलझाव नहीं है। उनकी कविताओं को पढकर ऐसा लगता है जैसे समय का इतिहास और उसके दुष्परिणाम साथ चल रहे हों। ऐसा हुआ इसलिए ऐसा हुआ। प्रतिरोध की आवाज को सत्ता के द्वारा दबाने की कोशिश हमेशा से होती आयी है लेकिन इसे किस कदर भीड़ के हाथ में थमा दिया गया है इसे नई परिघटना के रूप में यहां लाया गया है। ‘यह डरी हुई भीड़ तुम्हें कहीं भी घेर सकती है/और कभी भी ले सकती है तुम्हारी खामोशी का इम्तेहान।’ क्योंकि अब सत्ता सिर्फ यह नहीं चाहती है कि उसका प्रतिकार बंद हो इसलिए अब सिर्फ खामोशी से काम नहीं चलता। खामोश जनता सत्ता के सामने डरी तो रहती है परन्तु उस सत्ता को स्वीकार नहीं करती है, उसे लोकप्रिय नहीं बनाती है। डर उसे पगलाई हुई भीड़ में तब्दील करती है और यह भीड़ उसे जननायक घोषित करती है। इसलिए ‘चुपचाप चुप रहना अब बचने का आसान तरीका नहीं रह गया है/लाजिम है तुम्हारा भीतर तक डर जाना/यानी डरी हुई पगलाई भीड़ में शामिल हो जाना।’ अब ‘चुप्पी के मायने’ कविता की ये पंक्तियां अपने समय का एक तरह से समानान्तर पाठ है जो मुख्यधारा के इतिहास के समानान्तर चल रहा है। यहां पर आकर इतिहास और साहित्य एक दूसरे के पुरक बन जाते हैं। दोनों का ही एक दूसरे के बिना कोई वजूद नहीं है।
राजनीति के बाद मदन कश्यप का सबसे प्रिय विषय है स्त्री। स्त्री का प्रेम, स्त्री से प्रेम, स्त्री का दुख-दर्द। इस राजनीतिक और सामाजिक निकृष्टता ने स्त्रियों को सबसे अधिक उत्पाद में बदलने का काम किया है। यहां स्त्रियां मारी जा रही हैं और सिर्फ मारी नहीं जा रही हैं बल्कि उनके वजूद को कुचला जा रहा है। ‘कब कितनी मारी गयीं/लड़कियों का तो कुछ पता ही नहीं चला/इतने तरीके हैं उनको मारने के।’ मदन कश्यप अपनी कविताओं में स्त्रियों के दुख को पकड़ने की कोशिश करते हैं। ‘एक स्त्री रो रही है चुपचाप/यह अकेला रोना सन्नाटे को और गहरा कर रहा है/रात ज्यादा अंधेरी लग रही है/और समय ज्यादा खामोश।’ इसी खामोश समय की खामोशी को तोड़ने के लिए कवि कविता लिख रहा है।
इस संग्रह में कुछ बहुत ही कोमल सी प्रेम कविताएं हैं। इस संग्रह को राजनीति और प्रेम की कविताएं खास बनाती हैं। ‘रेत नहीं मुट्ठी में बन्द गुलाल की तरह है/हमारा प्यार/झड़ जाएगा पूरा का पूरा/ तब भी छोड़ जाएगा निशान/ काल की हथेली पर।’ यह अलग बात है कि प्रेम की कविताएं भी राजनीति से अलग कहां हैं। यह प्रेम बहुत ही जमीनी प्रेम है जहां कोई सपने में आने वाला राजकुमार नहीं है बल्कि संघर्ष झेलता हुआ आम इंसान है। यह यथार्थवादी प्रेम है। ‘मेरे बालों में रूसियां थीं/तब भी उसने मुझे प्यार किया/मेरी कांखों से आ रही थी पसीने की बू/तब भी उसने मुझे प्यार किया।’ और इस यथार्थवादी प्रेम में जकड़न नहीं मुक्ति है। ‘जब हमने कसा था एक दूसरे को बांहों में/तो वह जकड़न नहीं/मुक्ति थी देह और आत्मा की/अचानक झरने की शक्ल में फूट पड़ा था/चट्टानों के बीच सदियों से ठहरा जल।’ यह प्रेम जो सामंती सोच, समाज की जकड़नों से हमें मुक्त करता है वह अपनी हदबंदियों में जकड़ता चला जा रहा है। सत्ता बदलती है और सत्ता के साथ सोच भी बदलती है। रूढिवादी सोच हमें इन जकड़नों में जकड़ती जा रही है। ये कविताएं यूं तो गैर राजनीतिक कविताएं हैं परन्तु जब इनके अंतस में बैठकर इसे हम देखेंगे तो पायेंगे कि हम धीरे धीरे एक ऐसे समाज में तब्दील होते जा रहे हैं जो हमें एक-दूसरे से नफरत करना सिखाता है।
समाज का विकास अगर सर्वांगीण नहीं होगा तब उसमें एक खास तरह की विषमता पैदा होगी। यह समाज चमकती हुई जिन्दगी हमारे सामने रख रहा है बिना यह सोचे कि अगर हम अपने भीतर की इंसानियत को नहीं बचायेंगे, बच्चों की मासूमियत को नहीं बचायेंगे तो इसका दुष्प्रभाव भी कहीं दूर जाकर नहीं बल्कि यहीं आकर पड़ेगा। होना तो यह चाहिए था कि इस समस्या पर हमसब मिल बैठकर विचार करते। लेकिन इस लोकतंत्र को जब भीड़ में तब्दील कर दिया गया तब यह भीड़ तब तक विचार नहीं करती जब तक उसकी गर्दन खुद ना फॅस जाए। इन कविताओं में हमारे समाज की वह तस्वीर है जिसे हम देखना नहीं चाहते हैं। अगर हमने इस तस्वीर को देखा तो हमें सोचने पर मजबूर होना होगा और पूरी दुनिया इसी सोच के खिलाफ है। संग्रह में ‘सात साल का प्रद्युम्न’ एक बहुत ही मार्मिक कविता है। प्रद्युम्न, एक सात साल का बच्चा जिसे स्कूल के भीतर बेरहमी से मार दिया गया। कविता ‘सात साल का प्रद्युम्न/केवल सात साल का ही रहेगा’ इस टेक के साथ शुरू होती है और हमारे भीतर एक घनघोर निराशा भर देती है। सबकुछ बदल जाएगा लेकिन वह प्रद्युम्न सात साल का ही रहेगा। यहां वक्त ठहर गया है। इस ठहराव, इस जकड़न को हमने चुना है। हमने इसे स्वीकार किया है। यहां हत्या हुई है लेकिन कोई एक हत्यारा नहीं है। हत्यारा है हमारा विकास का बहुत ही बेढब चुनाव। हमारी संस्कृति, संस्कार, हमारी धरोहर हमसे छूट गयी तो हम अंदर से रीत गए। और तब हमारे भीतर से इंसानियत गयी, बच्चों की मासूमियत गयी। यह हत्या महज एक हत्या नहीं है। ‘हत्यारे तुम्हें एहसास भी नहीं होगा/तुमने एकसाथ कितनी हत्याएं की हैं/एक मां एक पिता और एक बहन के साथ/तुमने समय के एक हिस्से को भी मार दिया है।’
मदन कश्यप इसी मर रहे समय को अपनी कविताओं में जगह देते हैं। उसे अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं। मदन कश्यप की कविताओं में हमारे समय की धड़कन है। समय है लेकिन उस तरह खबर नहीं है। किसी एक खबर को लेकर कविता नहीं लिखी गयी है। लेकिन इस समय की जो विडम्बनाएं हैं वह भिन्न भिन्न कविताओं में अलग अलग तरीके से अपनी जगह बनाती हैं। उनकी कविताओं को मुकम्मल रूप में पढना होगा। यह सिर्फ एक संग्रह से संभव भी नहीं है। उनके अन्य संग्रहों को जब हम क्रम में रखकर पढेंगे तो हमें हमारे समय का अंधकार दिखेगा। और इस अंधकार को देखे बिना हम अपने समय के इतिहास को बखूबी समझ नहीं सकते।
पनसोखा है इन्द्रधनुष : मदन कश्यप [कविता-संग्रह], मू. 105 रुपए, सेतु प्रकाशन, दिल्ली। आप इसे सेतु प्रकाशन से ऑनलाइन ऑर्डर करके भी मँगवा सकते हैं.
उमा शंकर चौधरी : चर्चित लेखक उमा शंकर चौधरी कविताएँ और कथा में समान रूप से लेखन कर रहे हैं। अभी तक तीन कविता-संग्रह हैं—कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे, वे तुमसे पूछेंगे डर का रंग और चूँकि सवाल कभी ख़त्म नहीं होते। दो कहानी-संग्रह हैं—अयोध्या बाबू सनक गए हैं और कट टु दिल्ली और अन्य कहानियाँ। यह तीसरा कहानी-संग्रह—दिल्ली में नींद। एक उपन्यास—अँधेरा कोना। आलोचना की भी दो-तीन पुस्तकें हैं—कविताओं, कहानियों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कविता-संग्रह कहते हैं तब शहंशाह सो रहे थे का मराठी अनुवाद साहित्य अकादेमी से म्हणे तव्हा राजाधिराज झोपेत होते शीर्षक से प्रकाशित है। कुछ कविताएँ भारत के अलग-अलग विश्वविद्यालयों के स्नातक-स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों का हिस्सा हैं। कहानियों और कविताओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोध हुए और हो रहे हैं। हिन्दी कहानी के कई चुनिन्दा संकलनों में कहानियाँ शामिल हैं। साथ ही कई कहानियों का विभिन्न शहरों में नाट्य-मंचन भी हो चुका है। साहित्य अकादेमी युवा सम्मान, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन सम्मान, रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार और अंकुर मिश्र स्मृति कविता पुरस्कार जैसे महत्त्वपूर्ण सम्मानों से सम्मानित हैं।दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महाविद्यालय में अध्यापनरत हैं। समीक्षक से आप इस मेल पर संपर्क कर सकते हैं—umashankarchd@gmail.com