लीलाधर मंडलोई
“इतना भी कवि नहीं मैं कि तुझमें ढूंढूं
अपनी प्रागैतिहासिक प्रेमिकाएं
न इतना अंधविश्वासी कि बांधू तुझे
किसी पिछले जन्म के उत्तरीय से
मगर कुछ तो है कि स्वयं को
देह और इतिहास के बाहर देखने लग जाता हूँ” (यक्षिणी पृ.18)
हे कवि! यह चेतनावस्था के उदगार हैं न? देह और इतिहास से बाहर तुम इतने भीतर कैसे हो?
“और मेरी आंखें हैं तुझे निहारतीं”
“तुम्हे देखते ही कानों में नदी का उदगम बज उठता है”
”तुम्हे देखते ही हृदय के भीतर बारिश होने लगती है”
“मगर कुछ तो है” का यह रेटरिक चेतन का तो क़तई प्रतीत नहीं होता। बारहां अपनी चेतनावस्था से अवचेतनावस्था और चेतनाशून्यता का रहस्य क्या है? इतिहास और देह से बाहर होकर भी इतनी देहासक्ति की वजह? कहीं इस पंक्ति का सच तो नहीं “और मैं भी तो पत्थर नहीं” और ‘जीवित आंखें’ और ‘मोद-विह्रल मन’ में उठती ‘चेतन कौंध’।
हे कवि (बिहारी) मैं इस समय चेतन में हूँ और पढ़ रहा हूँ—
“मगर तुम तो विचित्रा निकलीं
एक कवि को
कितनी और कैसी-कैसी कामनाओं से भर दिया”
“कवि हूँ
किसी भी शिशिर के वसंत
और किसी भी मुसकान के ठहाके के लिए
कहीं भी जा सकती है मेरी भाषा”
निसंदेह वह युगों की परिक्रमा करती है लेकिन सजीव यक्षिणी है। पत्थरों में अतिकोमल देहपुष्पों में यात्रा करती। एक कवि भाषा में ही व्यक्त-अभिव्यक्त होती है। उसका अवचेतन, चेतन में अनुभव करता है। यही आशय तो है इस पंक्ति के पाठ में—
“अगर आ जाए तुझमें इतनी लोच
जितनी मेरी सोच में
और हम बोलते-बतियाते
सचमुच निकल जाएं बाहर
तो इस जेल के पहरुओं को क्या पता चलेगा”
हे कवि आप तो मनोचिकित्सक हैं। जानते और पढ़ते हैं प्यार में दीवानगी की हदों तक छूते प्रेमियों को। मैं आपके मनोविज्ञान को आपकी तरह कैसे पढ़ूँ? भला क्यों उसे देखते हुए तुम्हारे वक्ष में शिल्पी का हृदय धड़क उठता है।उसके काम सृजन के अनंत पलों को हमने नहीं देखा।तुम ही हुए जाते हो शिल्पी में रूपांतरित। इस स्वीकार को अपनी चेतना से उठाकर कहां रख दूं—
“मैंने भी किया था प्यार
नहीं करता तो कैसे देखता कि
मेरे हृदय की कांपती मूर्ति
सामने पड़ी शिला के भीतर कुलबुला रही है”
हे कवि! कहीं उस प्यार और उसी कांपती मूर्ति की पुनर्रचना तो नहीं है यक्षिणी? यह यक्षिणी तो नूतन अवतार प्रतीत होती है। अपने काल में प्राचीन की आपके चेतन की प्रतिमूर्ति। आपके शब्दों में कहूं तो ‘क्या ख़ुदा और क्या सनम’। सो बिना सनम के तो संभव नहीं लगता। लो फिर अवचेतन से चेतन के रास्ते यह कौन आ खड़ा हुआ—
“कोई जीव तो ज़रूर है
जो मेरे जल में डूबता-उतराता सांसें ले रहा है”
“मेरी इच्छाएं धधक उठती हैं”
“मैं अपने सिरहाने सुगंधित हवा की तरह
उनका होना महसूस करता रहता हूं”
हे कवि! ‘महसूस करते रहना’ वर्तमानकाल में जारी क्रिया है। इसका सिरा बीते हुए काल के विशेषणों के जादू में है, कवि आज में याद करता लिखता है—
“पीन पयोधरा पृथुल नितम्बनी अलंकार वस्त्रा”
कविता के आर-पार, समय में और उससे पार, यहां तक इतनी स्पंदित यक्षिणी किसी और कवि के भीतर तो दृष्टिगोचर नहीं है। और इस दृढ विचार की तरह—
“मगर इच्छाएं कभी मरती नहीं
विस्मृति की शिला फाड़़कर अंकुरित होती है
और पूरी होने पर आ जाएं तो
निर्वात में भी
परियां, पहरुए, कल्पतरू और देवता रच लेती हैं”
हे कवि! और आपने हृदय में कांपती मूर्ति को काव्य यक्षिणी में मूर्त कर दिया। इस मूर्ति सजीवीकरण में तो तुम ही हो न कवि? यह सच है कि इतिहास, मिथक और धर्म के गलियारों में भ्रमण करते हुए आपने एक वृहत वृतांत संभव किया है। कथाओं-उपकथाओं के साथ यक्षिणी को उसके काल में, उस काल के पात्रों में स्थिर करने का यत्न किया। उन आलंबनों के मध्य रहते हुए यक्षिणी तो आपके साथ प्रेम की काम लहरों का अनुभव कराती आज में स्थिर हो गयी़ं है।यह प्रस्तर भाषा के बाद की भाषा में रची गयी आज की यक्षिणी का सौंदर्य सत्य है। इसे रचना तुम्हारे अपने शब्दों में—
“पत्थर जैसे लोगों से भरे संसार में
पत्थर की एक मूर्ति को मनुष्य की तरह
पुकारना कलाप्रेम का ढोंग नहीं है”
हे कवि! यह कविता मनुष्य की तरह पुकार रही है। यह आज मनुष्य, आज का कवि है। यह कला ढोंग नहीं, कविता में कला प्रेम है, जो “इस चंवरधारिणी के साथ। आदिम गुफ़ाओं की ठंडक के रहस्य जानना चाहती है!” और यह इच्छा अशेष को शेष करने की प्रबल आकांक्षी नहीं है? देह-सदेह की अनेक कविताओं से गुज़रा हूँ।बरास्ते प्रस्तर यक्षिणी किसी जीवित स्त्री देह की कामाग्नि और सौंदर्य के पाठ का यह दिव्य अनुभव है। मैं पढ़ रहा हूँ कवि कि “और ये भी तुम्हारी कामनाएं हैं। जो तुम्हें अपार संसार को पाने के लिये दौड़ाती रहती हैं।”
हे कवि! मैं लिख सकता था अकादमिक अथवा पारंपरिक ढंग से।मैं कविता में आये तमाम प्रसंगों, संदर्भों, आख्यानों के बारे में लिख सकता था नये विश्लेषण के साथ-एक प्रीतिकर समीक्षा। मैं तो डूब गया प्रेम में। मैं काव्य कथा के उदगम से निकल ही न सका। अंततः प्रेमकथा में प्रेम ही अंतिम है। क्योंकि कवि में— “कामनाएं निःशब्द गुनगुनाती हैं। और जाग उठता है उनका कवि कालिदास।” जो अब भी याद कर रहा है—
” प्रथम छवि अंतिम
प्रथम स्पर्श अंतिम
और मात्र एक आधा-अधूरा अभिसार”
यक्षिणी : विनय कुमार [कविता-संग्रह], मू, 295, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर भी मँगवा कर सकते हैं।
लीलाधर मंडलोई : डायरी की तीन किताबें— ‘दाना-पानी’, ‘दिनन दिनन के फेर’ और ‘राग सतपुड़ा’। 10 कविता-संग्रह। गद्य की 6 कृतियां। अनुवाद, बच्चों के लिए लेखन, संपादित किताबें आदि। लंबे समय तक साहित्यिक पत्रिका ‘नया ज्ञानोदय’ का सम्पादन। भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक। आप इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— leeladharmandloi@gmail.com