दिल्ली के दिल का एक रास्ता यहां से भी गुजरता है…!

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सारंग उपाध्याय

मनुष्य सभ्यता के पास विस्थापन के दर्द पुराने हैं और पलायन के घाव आज भी हरे. जो उजड़कर बसे उनकी जमीन खो गई और जो बसे-बसाए थे वे अपने ही घर में बंजारे हो गए. यह बंजारापन आज भी बदस्तूर है. कोई आपसे ये पूछे की आप कहां से हैं—तो बेधड़क कह देना हम जहां हैं वहां हमारी जड़ें नहीं हैं और जहां हमारी जड़े हैं वह जमीन हमारी नहीं. 

दरअसल, दुनिया के हर महानगरों-शहरों का इतिहास विस्थापन और पलायन का इतिहास है. कई गांवों को समेट लेने की कहानी. कई परिवारों के सपनों, इच्छाओं,  ख्‍वाहिशों को निगल जाने की दास्तां. 

युवा लेखिका, कथाकार योगिता यादव का उपन्यास ख्‍वाहिशों के खांडववन देश की राजधानी दिल्ली की ऐसी ही दास्तां है जो कभी सामने नहीं आई. मौलिक दिल्ली की कहानी. असली राजधानी की.

यह उन गांवों की कथा है जिनसे दिल्ली बनती है और जो विकास के विकराल मुंह में समाकर गुम हो गए. जो अपनी पहचान हमेशा के लिए खो चुके हैं. यह उपन्यास उन बस्तियों, मोहल्लों की सिसकियों को दर्ज करता है जिन्हें आज तक किसी ने नहीं सुना. इसमें उन कुचली हुई पगडंडियों की आह दर्ज है जो चमकते हाईवे में जाकर कहीं गुम हो गई.  

अंग्रेजी के प्रसिद्ध लेखक सुकेतु मेहता अपनी लोकप्रिय किताबमैक्सिमम सिटी बॉम्बे लॉस्ट एंड फाउंडके मुंबई चैप्टर में बड़े महानगरों के बारे में एक अलग संदर्भ में कहते हैं— हर शहर के इतिहास में कोई भयावह घटना होती है, उसी तरह जैसे हर व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना होती है जिसके ईर्द-गिर्द उसके जीवन का ताना-बाना बुनता है.

सुकेतु की बात को केंद्र में रखें तो मुंबई की तुलना में दिल्ली का इतिहास कोई एक घटना नहीं बल्कि इतिहास के कई कालक्रमों की श्रृंखला है. ऐसी रेखा जिसके भीतर कई सभ्यताएं और संस्कृति सांसे ले रही हैं. करोड़ों की आबादी को पालने वाले एक महानगर के भीतर रचा-बसा जीवन इतिहास के कई हिस्सों से प्रभावित है. इसी रंग-बिरंगे अतीत के कई हिस्से दिल्ली के चरित्र की कई तरह से व्याख्या करते हैं.

ख्‍वाहिशों के खांडववन पर बात आगे शुरू करें इस पर स्वयं लेखिका क्या कहती है समझते हैं-

मैं चाहती थी कि मैं उस दिल्ली की बात करूं जिसको मैं जानती थी, जो मेरी दिल्ली है. अमूमन हम नारों में सुनते हैं दिल्ली अभी दूर है,  दिल्ली के पास दिल नहीं है, लेकिन दिल्ली अलग है. यदि आप इलेक्शन के टिकट के लिए दिल्ली जाएंगे तो भई बड़ी पेचिदा दिल्ली है, शादी की शॉपिंग के लिए जाएंगे तो

बड़ी महंगी दिल्ली है, बड़ी ठगी दिल्ली है.

ऐसे ही यदि आप पढ़ाई करने या करियर बनाने दिल्ली आएंगे तो आप कहेंगे दिल्ली ने आपके सपने छलनी कर दिए. आपकी ऊर्जा, आपका स्वर्णिम समय दिल्ली ने छीन लिया.

इसी बात को कहते हुए दिल्ली पर सैंकड़ों, कहानियां और कविताएं लिखी जा रही हैं. लेकिन यह दिल्ली नहीं है. दिल्ली कुछ और. मैं यह नहीं कह रही कि यह गलत है या झूठ है, लेकिन ये आपका सच है.

योगिता कहती हैं- दिल्ली मेरी मां है. उसने मुझे सपने दिए. संघर्ष के बीच जीना सिखाया इसलिए मैंने उसी दिल्ली की बात की. उसकी अपनी पीड़ाओं और संघर्ष की बात की. हर एक के लिए दिल्ली अलग है. एक नई दिल्ली है, एक पुरानी दिल्ली है और एक बाहरी दिल्ली है. तो आप बताइए इनमें मौलिक दिल्ली कौन सी है.

तो वह जो दिल्ली है वह दिल्ली के गांव हैं. उन गांवों की अपनी संस्कृति है. वह मौलिक दिल्ली है. और मैंने उसी की बात की है. उस दिल्ली की बात की है जो भीतर भी है और बाहर भी. यानी की हम जैसे लोग जो राजधानी के भीतर भी हैं और बाहर भी हैं.

लेखिका की इस बात पर गौर करें तो यह बात राजधानी के भीतर और बाहर की बात है. और इस उपन्यास पर आगे बात हो लिहाजा पाठक इस बात का ध्यान रखें कि भीतर और बाहर केवल शब्द नहीं है बल्कि एक रचना यात्रा के विस्तार की अनूठी उपकथा है जो इस महाकथा के समानांतर चलती है.

दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक लेखक के लिए इस बात से बढ़कर कोई पाठकीय प्रतिक्रिया क्या होगी कि उसकी एक कहानी, पढ़ने वालों के भीतर इतनी उथल-पुथल मचाए की उसके अंत में एक उपन्यास का सिलसिला शुरू हो. लेखक से बार-बार आग्रह हो कि वह इस कहानी के असली अंत तक उन्हें पहुंचाए. उस सिरे को थमा दे जहां उनके हाथ एक चरित्र का पूरा चित्रण और जीवन हाथ लगे. हमारे सामने ख्‍वाहिशों के खांडववन जैसी रचना हाथ लगे.

सूचनार्थ ये कि उपन्यास ख्‍वाहिशों के खांडववन लेखिका योगिता यादव की वह कहानी है जो साल 2016 में हंस कथा सम्मान से सम्मानित हुई. कहानी की मुख्य पात्र सुनीता अपने साथ जीवन की संघर्षपूर्ण यात्रा पर निकलती है लेकिन अंत में कुछ छूटता है जो छूटता है वही ख्‍वाहिशों के खांडववन में हमारे यानी की पाठकों के हिस्से आता है.

बहरहाल, व्यवस्था के अंधेरे में इतिहास अपने हिस्से की रौशनी नहीं छोड़ता. घटनाएं दूर घटती हैं लेकिन उसके प्रभाव जीवन को अलग आयाम देते हैं.

सामयिक प्रकाशन से साल 2018 में प्रकाशित उपन्यास ख्‍वाहिशों खांडववन अपने सामाजिक संदर्भों और रचना प्रक्रिया में इसलिए भी महत्वपूर्ण उपन्यास है क्योंकि वह वर्तमान में एक महानगर के बनने की कहानी कहता है. विस्थापन, पलायन की पीड़ा और दर्द को सामने लाता है. यह उपन्यास अपने दौर के महत्वपूर्ण प्रश्नों के साथ सामने है. जो दिल्ली को जानना चाहते हैं वे उस खांडववन में प्रवेश करें.

यह वही खांडववन का इलाका है जिसका संबंध महाभारत काल से है. इसकी कथा में प्रवेश ना भी करें और तो ये इस समय वे गांव हैं जिन्हें बाहरी दिल्ली कहा जाता है. उपन्यास उन्हीं गांवों की अस्मिता, संस्कृति, जीवन संघर्ष,  संकट, त्रासदियां,  शोषण और उपेक्षाओं को सामने लाता है जो बाहरी दिल्ली में समेट दिए गए.

उपन्यास के इस अंश से इस यात्रा की गहराई मापिए-

किराड़ी, मुंडका, घेवरा, नरेला, कंझावला, पूठ, कराला, बेगमपुर, सुल्तानपुर, माजरा, रिठाला….

थोड़ा और आगे बढ़ों तो समेपुर, बादली, देवली, हैदरपुर…..

और इस तरफ उत्तम नगर से नजफगढ़ निकल जाओ तो खैरा, छावला, झटीकरा, पण्डवाला खुर्द, कांगनहेड़ी…हरजोकड़ी

खेतों खेतों में से गुजरें तो आगे घूमनहेड़ा, डूंडा हेड़ा, रजोकड़ी… गांवों का तो क्रम भी याद नहीं रहता इतने हैं गांव. पर राजधानी की भीड़ से जैसे बुहार दिए गए हैं. सब के

सब. यह बाबुओं की दिल्ली. यह शॉपिंग करने आने वालों की दिल्ली. यह टिकट की जोड़तोड़ करने वाले नेताओं की दिल्ली. यह देश को प्रगति का रास्ता दिखाने वाले

युवाओं की दिल्ली और हम दिल्ली के भीतर भी बाहर भी…..

तो उपन्यास की कथा यहीं हैं. पात्र यहीं है और उनके जीवन संघर्ष भी यहीं. इन्हीं गांवों के. राजधानी से भीतर बाहर होते हुए. यही वह खांडववन हैं जिसकी ख्वाइशें विकास की आग में असमय जल गई. फैलते महानगर में गुम हो गईं. यहां सुनीता है. एक लड़की जिसके अपने जीवन संघर्ष हैं. यहां उसकी छोटी बहनें सोनू है, श्वेता है. यह तीन बहनें हैं, उनका जीवन है और उनके जीवन के कई आयाम हैं.

एक बूढ़ी कमजोर मां है जो कई बंधनों से जकड़ी है, जिसके हिस्से में केवल बेटियों को ब्याहना है, एक पिता हैं जो मेरे प्रिय कवि नवीन सागर की एक कविता की पंक्ति जीवन बचे रहने की कला है कि तरह इस जीवन में बचा हुआ है. बिरादरी के मकड़जाल में तीन बेटियों के साथ बोझ बनती नाक उनके दिल को भारी कर रही है. एक बना-बनाया पुरातन ढांचा है जो सड़ रहा है, गल रहा और जगह-जगह से टूट रहा है.

यह उपन्यास ग्रामीण जीवन में लड़की/स्त्री होने के संघर्ष, सड़ चुकी परंपराओं के ढांचे में बने रहने का आख्यान है. रस्म-रिवाज, जातीय-अस्मिता, जातिवाद, अशिक्षा, लिंगभेद, गरीबी, शोषण और विकास की दौड़ में कहीं अंधेरे पीछे छूटते अस्तित्व खोते गांवों की दांस्ता है.

स्त्रियां यहां मुख्य पात्र हैं और जो अपने जीवन की त्रासदी का आख्यान रचती हैं. यह तीन लड़कियां बदलती, आगे बढ़ती दिल्ली के बाहर हैं लेकिन उतना ही भीतर है. दिल्ली इनकी आंखों में सपनों की रौशनी भरती है लेकिन रोजाना गांव तक आते-आते वह रौशनी एक अंधेरे में गुम हो जाती है.

आत्मकथात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास का एक अंश देखिए-यह बताता है कि सुनीता जैसी लड़कियां एक बदलते शहर के कितने भीतर हैं और कितनी बाहर. उनके संघर्ष क्या हैं और बचे रहने की जिजिविषा कितनी जीवटता से भरी है.

मैं सुबह शहर को निकलती और रात में गांव लौट आती. कुछ किलोमीटर के फासले पर दो ध्रुवों की अलग-अलग दिल्ली. एक में सब कुछ अलाउड था, एक में बहुत कुछ की वर्जना थी. कोचिंग इंस्टीट्यूट में मैं सबसे कम उम्र की लड़की थी और गांव में मैं सबसे ज्यादा उम्र की लड़की. जिसकी अब बुआबनने की नौबत आ गई थी. गांव भर के ताजा ताजा जवान हो रहे लड़के-लड़कियां मेरी पहचान यूं करते, “वहीं सुनीता दीदी, जिन्होंने ब्याह नहीं किया है.

उपन्यास की भाषा बेजोड़ है. लोक की ध्वनि यहां जगह-जगह अपने सौंदर्य के साथ बिखरी पड़ी है. हरियाणा अपने लोकरंग के साथ यहां दिखाई देता है. गीत-संगीत, शोर आपसदारियां, शादी-विवाह, रिश्ते-नाते और इसमें महकता जीवन. खांडववन की दिल्ली जितनी खूबसूरत है उतनी ही जटिल विरोधाभासों व संघर्षों से भरी भी.

शोषण यहां दबे पांव पड़ोसी के घर से प्रवेश करता है कब आंगन में कब्जा कर लेता है उसकी खबर ही नहीं लगती. स्त्रियां यहां बच्चे पैदा करने की मशीन बनी हुई है तो जन्म लेने से पहले ही मौत के घाट उतार देने के लिए भी. पाबंदियां उनकी दम घोटती हैं और अफवाहें जहर बनकर उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर करती हैं. काम-धंधे, रोजगार, आमदानी के छोटे-छोटे रास्ते कैसे संकरे होते हैं और कैसे महानगर की प्रगति उन्हें लील जाती है, योगिता की नजर वहां भी है. एक विशाल फलक देखती उनकी आंखें बहुत कुछ ऐसा देख पाई है जो कभी सामने नहीं आ पाया.

आत्मकथात्मक शैली में योगिता भाषा के प्रवाह में हमें दिल्ली की असली यात्रा पर ले चलती हैं. योगिता दिल्ली में जन्मी और पली-बढ़ी हैं. जैसा की उन्होंने कहा-दिल्ली की उनकी मां है. उपन्यास में मातृत्व का वह नेह दिखलाई पड़ता है. इतने करीब से दिल्ली को देखने की यह दृष्टि उस रिश्ते को सच साबित करती है.

एक अंश देखिए-

हमारे गांव का अलग संविधान था. अपनी मान्यताएं थीं. यहां जाट, यादव सब सत्ता थे. नाई, धोबी, कुम्हारों के पांच सात घर यानी बिना खेत या थोड़ी जमीनों वाले लोग. ब्राह्मण संभले-संभले, नरम नरम से लोग. गांव के किसी फैसले में इनकी हां-ना की कोई जरूरत नहीं होती. मसालेदार खाना खाने वाले वजनदार लोग बनिये. और पंजाबी यानी सारी जातों से बाहर, फैशनेबल लोग. गांव वालों की मानसिकता से ऐसा लगता था कि दुनिया में जितने भी ऐब होते हैं, सब पंजाबियों में होते हैं. शराब, मांस से लेकर तलाक और इंटरकास्ट मैरिज तक. पॉकेट मनी मांगने पर मुझे सारी जातों से बाहर का यानी पंजाबी कहकर सबसे नीच साबित कर दिया गया था. जबकि वास्तविकता यह थी कि हम जिन डॉक्टरों से इलाज करवाते उनमें से अधिकांश पंजाबी होते. जिन स्कूलों में हमने पढ़ाई की वहां की अधिकांश टीजीटी, पीजीटी पंजाबी ही थीं. इसके बावजूद जब किसी पर लानत भेजनी होती तो कह दिया जाता, ‘आपने तो जी बिल्कुल पंजाबियों वाली कर दी.

बहरहाल, योगिता बातों ही बातों में उस व्यवस्था का चित्र खींचती है जो उसके आसपास शोषण के तंत्र से ऊपजी है. जहां उपेक्षाएं और भेदभाव नियति है. जहां जाति यथार्थ है और एक हरे-भरे जीवन को सुखाने के लिए पूरी ताकत से काम करती है. कई गांव, कई कुनबे और उनके अपने नियम कायदे. योगिता ने सुनीता का कैरेक्टर बाहरी दिल्ली से बुना है जो भीतर आकर व्यवस्था के इस ढांचे को तोड़ती है. पंचायत का दृश्य हो या फिर शौकीन से बातचीत के दृश्य ये सबकुछ गांव की एक लड़की में उसी दिल्ली से आते हैं.

एक लड़की के लिए गांव, एक लड़की के लिए शहर और फिर समाज व उसके विरोधाभास क्या होते हैं यही खांडववन की ख्वाइशें हैं.

कुछ छूटी

कुछ अधूरी

बहुत कुछ थोड़ी-थोड़ी

फिलहाल बहुत कुछ नहीं. इस अपील के साथ की यह किताब नजर से गुजरे जरूर. इधर नये रचनाकारों में योगिता यादव ने प्रभावित किया है. उनकी एक कहानी उपन्यास बन गई जबकि मैं इस उपन्यास की एक और यात्रा की अपील उनसे कर रहा हूं. एक यादगार किताब के लिए लेखिका को बहुत-बहुत बधाई


ख्वाइशों के खांडववन : योगिता यादव [उपन्यास], मू. 150 (पेपरबैक], सामयिक प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से भी मँगवा सकते हैं।


सारंग उपाध्याय : युवा पत्रकार और लेखक. पिछले 13 सालों से मीडिया में. इंदौर, मुंबई, भोपाल, नागपुर, औरंगाबाद जैसे शहरों में पत्रकारिता. वेबदुनिया, दैनिक भास्कर, लोकमत-समाचार, नेटवर्क-18 और अमर-उजाला जैसे मीडिया संस्थानों में नौकरी. इस समय दिल्ली/नोएडा राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर-उजाला की वेबसाइट में डिप्टी न्यूज एडिटर. कविताएं कृति ओर, अक्षर-पर्व, वागर्थ में. कहानियां, परिकथा, वसुधा, साक्षात्कार, मंतव्य, चिंतन-दशा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित. शीघ्र नई कहानी कथादेश में. साल 2018 में कहानियों के लिए म.प्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘माधुरी अग्रवाल स्मृति’ ‘पुनर्नवा’ नवलेखन पुरस्कार. 2013 में डॉ. राममनोहर लोहिया के साथी समाजवादी चिंतक, लेखक/पत्रकार बालकृष्ण गुप्त के लेखों पर आधारित किताब “हाशिए पर दुनिया” ( पुस्तक राजकमल प्रकाशन से) का संपादन. समसामयिक विषयों पर लेख और फिल्म समीक्षाएं लगातार अखबारों और वेबसाइट में प्रकाशित.  इनसे आप इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— sonu.upadhyay@gmail.com 


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