विमल कुमार
कहा जाता है कि ‘उपन्यास’ की अवधारणा दरअसल औद्योगिक क्रांति के बाद पश्चिम में विकसित हुई थी और वहां से यह भारत में आई थी लेकिन भारत में ‘गल्प’ और ‘वृतांत’ या ‘आख्यान’ की परंपरा में यह उपन्यास मौजूद रहा। आज हम जिस रूप में उपन्यास की चर्चा करते हैं उस उपन्यास शब्द का प्रचलन सबसे पहले बांग्ला में अट्ठारह सौ सत्तावन के समय हुआ जब बंगाल के भूदेव मुखर्जी ने पहली बार इस शब्द का एक प्रयोग किया और एक ऐतिहासिक उपन्यास लिखा जिसका नाम ही ‘ऐतिहासिक उपन्यास’ था। वैसे मराठी में उपन्यास लिखे जाने की परंपरा उससे पहले की है और उसे ‘कादम्बिरी’ कहा जाता था। मलयालम में तो 1918 में ही पहला उपन्यास ‘इन्दुलेखा’ लिखा गया जो सम्भवततः भारतीय भाषाओं का पहली उपन्यास है। हिंदी में 1917 के आसपास माधवप्रसाद मिश्र नामक एक लेखक ने ‘सुदर्शन’ पत्रिका में उपन्यास विधा पर पहला लेख लिखा।
रामचन्द्र शुक्ल ने लाला श्रीनिवास दास के उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ को पहला उपन्यास माना था लेकिन मैथिलीशरण गुप्त बिहार के आरा के लेखक ब्रजनन्दन सहाय ब्रजवल्लभ जी के उपन्यास ‘सौन्दर्योपासक लालचीन’ को हिंदी का पहला उपन्यास मानते थे जिसका अंग्रेजी संस्करण पिछले साल राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने छापा है। यह सच है कि हिंदी में उपन्यास को आधुनिक स्वरूप प्रदान करने का काम मुंशी प्रेमचंद ने किया था। वैसे, उनसे पहले देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी और किशोरीलाल गोस्वामी ने कई उपन्यास लिखे थे और वे उस जमाने में काफी लोकप्रिय भी हुए थे। कहा तो यह भी जाता है कि देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों को पढ़ने के लिए लोगो ने हिंदी भी सीखी थी और चंद्रकांता संतति को खरीदने के लिए लाइन लगती थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है उपन्यासों को लेकर हिंदी समाज में कितनी गहरी उत्सुकता और दिलचस्पी रही है लेकिन यह भी सच है कि हिंदी के उपन्यास विधा में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है और उन्होंने खत्री काल से लेकर आजादी के बाद भी अपना दबदबा बनाये रखा।
किशोरीलाल गोस्वामी और प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र ने ‘परख’, ‘सुनीता’ और ‘त्यागपत्र’ जैसे उपन्यासों से हिंदी में उपन्यास लेखन की एक नई धारा विकसित की जो प्रेमचंद की यथार्थवादी उपन्यास परंपरा से अलग थी और हिंदी में उपन्यास यथार्थवादी रंग से अलग हटकर व्यक्ति के अंतर्मन और समाज से उसके संबंधों पर केंद्रित हो गया। इस तरह देखा जाए तो जैनेंद्र के बाद भगवतीचरण वर्मा, यशपाल और इलाचन्द्र जोशी ने उपन्यास विधा को समृद्ध किया। फिर अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर ने विविध रंगों के उपन्यास दिए। उपन्यास विधा में एक तरफ प्रेमचंद की परंपरा आगे बढ़ती रही तो दूसरी परम्परा प्रसाद की भी थी। आजादी के बाद नागार्जुन, रेणु, भीष्म साहनी, श्रीलाल शुक्ल, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मनोहरश्याम जोशी, विनोदकुमार शुक्ल, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, संजीव, मंजूर ऐहतशाम, असग़र वजाहत, पंकज बिष्ट, सुरेंद्र वर्मा आदि ने लेकिन पहली बार पुरुषों के वर्चस्व को कृष्णा सोबती ने तोड़ा। फिर मन्नू भंडारी और मृदुला गर्ग ने। मन्नू भंडारी ने ‘महाभोज’ जैसा उपन्यास लिखकर पुरुषों को एक नई चुनौती पेश की क्योंकि तब तक किसी पुरुष लेखक ने भी इस तरह का कोई राजनीतिक उपन्यास नहीं लिखा था। मृदुला गर्ग ने तो ‘चितकोबरा’ लिखकर हिंदी की कथित यौनशुद्धता को ही ध्वस्त कर दिया। आमतौर पर धारणा यह रही है कि लेखिकाएं राजनीतिक सवालों से बचती रही है लेकिन मन्नू जी ने इस उपन्यास से यह साबित कर दिया वह भारतीय राजनीति के अंतर्कथाओं को भी बड़े गौर से देखती रही हैं।
असल में हिंदी में लेखिकाओं ने उपन्यास में ‘अस्मिता विमर्श’ अधिक किया और स्त्री की आजादी पर ध्यान अधिक केंद्रित किया। कई उपन्यासों में उसकी यौन इच्छाओं की अभिव्यक्ति को भी स्थान दिया गया। इसमें मृदुला गर्ग और प्रभा खेतान प्रमुख हैं जिन्होंने हिंदी में उपन्यास लिखे जरिए एक नया विमर्श खड़ा किया लेकिन साहित्य की मुख्यधारा में उन्हें शामिल नही किया गया। हिंदी में एक ऐसा दौर आया जबकि ममता कालिया, शशिप्रभा शास्त्री, दीप्ति खंडेलवाल जैसी लेखिकाओं कई उपन्यास लिखें और उन्होंने हिंदी उपन्यास को समृद्ध किया लेकिन यह दुर्भाग्य है कि हिंदी में उपन्यासों के आलोचक कम हुए, यहां तक कि जिन बड़े आलोचकों की चर्चा हिंदी में होती रही है चाहे वह नंददुलारे वाजपेई हो या रामविलास शर्मा या नामवर सिंह, इनमें से किसी ने अपनी आलोचना को उपन्यास विश्लेषण का आधार नहीं बनाया।
तारसप्तक के कवि नेमीचंद जैन ने जरूर उपन्यासों की आलोचना में दिलचस्पी दिखाई और आज तक उनकी ही एकमात्र ऐसी किताब है जिसमें अपने समय के महत्वपूर्ण उपन्यासों का विश्लेषण किया गया लेकिन उन्होंने भी महिला उपन्यासकारों की कृतियों को आधार नहीं बनाया। उनके बाद भी इन महिलाओं के उपन्यासों पर कोई विशेष चर्चा नही हुई और उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया हिंदी में कृष्णा सोबती और मन्नू भंडारी को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर महिला उपन्यासकार की पर्याप्त चर्चा नहीं हुई या उनपर पर्याप्त ध्यान ही नहीं दिया गया। मृदुला गर्ग, चित्रा मुदगल, ममता कालिया, प्रभा खेतान जैसी अनेक महिला रचनाकार वर्षों से लिखती रहीं लेकिन वामपंथी खेमे ने उनकी उपेक्षा की और साहित्य की मुख्यधारा में उन्हें पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया। आज साहित्य का यह दौर हिंदी में लेखिकाओं के उपन्यास के रूप में जाना जाएगा। सुना है कि अलका सरावगी का नया उपन्यास ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिये’ आ रहा।
प्रकाशक का कहना है कि, ” इतिहास, भूगोल, साहित्य, मनोविज्ञान, संस्कृति, प्रेम, द्वेष, साम्प्रदायिकता, परिवार, समाज-किस्सागोई की लचक, कथानक की मज़बूती से रेखांकित यह कहानी हमें कुछ अटपटे किरदारों से परिचित कराएगी। अपने भीतर बसे झूठे, प्रेमी, रंजिश पालने वाले, चिकल्लस बखानने वाले अलग-अलग किरदार हमें कुलभूषण की दुनिया में यूँ ही चलते फिरते मिलेंगे। तैयार रहिएगा, यदि इनमें से किसी की बातों में आ गये, तो फँसे! और बात नहीं मानी, तो कुलभूषण के जीवन-झाले में कभी घुस ही नहीं पाएंगे।
‘वह पहले भी कई उपन्यास लिख चुकी हैं उनके उपन्यासों में एक किस्सागोई रही है। उनके पास एक कथा है जिसे वह सुनाना चाहती है। इस साल अनामिका, वन्दना राग, योगिता यादव, रजनी मोरवाल, अंजू शर्मा, प्रज्ञा, भूमिका द्विवेदी के साथ अणुशक्ति सिंह और अंजू शर्मा का भी उपन्यास आया है। मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘मल्लिका’, किरण सिंह की ‘शीलवाहा’, प्रत्यक्षा का ‘बारिशघर’, अल्पना मिश्र का ‘अस्थिफूल’ और गीतांजलिश्री का ‘रेत समाधि’, सुजाता का उपन्यास ‘एक बटा दो’ पहले से ही चर्चा में है।
मधु कांकरिया, रजनी गुप्त और कविता के उपन्यास पहले आ चुके है। जयश्री राय का भी। सपना सिंह का भी। गीताश्री के दो उपन्यास ‘हसीनाबाद’ और ‘वाया मीडिया : एक रोमिंग कोरेस्पोंडेंट की डायरी’ प्रकाशित हैं। सोनाली मिश्र का शिवाजी पर उपन्यास भी पठनीय रहा। इस तरह हिंदी में उपन्यास की दुनिया मे महिलाओं ने झंडा गाड़ा है। मन्नू भण्डारी, ममता कालिया, चित्रा मुदगल, मृदुला गर्ग, मृणाल पण्डेय, नासिरा शर्मा और मैत्रेयी पुष्पा के बाद इन नयी लेखिकाओं ने उपन्यास में जगह बनाई है। यह नयी परिघटना है। इसे रेखंकित किया जाना चाहिए। इस पर विचार होना चाहिए कि ये लेखिकाएं इन उपन्यासों में क्या कहना चाहती है। अनामिका और वन्दना राग ने उपन्यास में नया प्रयोग भी किया है। उनके इन उपन्यासों में इतिहास और वर्तमान की आवाजाही है तो अणुशक्ति सिंह की ‘शर्मिष्ठा’ में इस पौराणिक पात्र की पुनर्रचना और नए व्यख्याया है तथा इसे सिंगल मदर की व्यथा कथा के रूप में पेश किया गया है।
अनामिका के कई उपन्यास पहले भी आये हैं लेकिन वन्दना राग और प्रत्यक्षा के ये पहले उपन्यास अलग अलग कारणों से ध्यान खींचते है और उनकेरंग अलग है। प्रत्यक्षा अपनी कहानियों में जिन सूक्ष्म ऑब्जरवेशन के लिए जानी जाती है वह उनके उपन्यास में भी है और निर्मल वर्मा के उपन्यासों की याद आती है। विषय की दृष्टि से वन्दना का उपन्यास बिल्कुल अलग है और उसका वितान बड़ा है। प्रज्ञा रोहिणी का उपन्यास धर्मपुर लॉज कपड़ा मिलों के बन्द पर मजदूरों की हालत पर लिखा गया है।सम्भवततः इस विषय पर यह पहला उपन्यास होगा। ञयी आर्थिक नीति के बाद देश मे सैकड़ों मिले बन्द हुई पर किसी लेखक ने नही लिखा। नयी आर्थिक नीति के बाद जिस तरीके से भारत का निर्माण हो रहा है उसने उपन्यास के लिए काफी रचनात्मक सामग्री प्रदान की है पर क्या इन लेखिकाओं की दृष्टि जा रही है?
इन सारी लेखिकाओं के उपन्यासों पर एक साथ चर्चा हो तो हिंदी उपन्यास का एक नया वितान देखने को मिलेगा पर आज हम जिस भूमण्डलीकरण के दौर में जी रहे है हर रोज अमानवीय और क्रूर होती सत्ता के सामने हमारा जीवन कितना नरकमय होता जा रहा है क्या उसकी वेदना ये लेखिकाएं कर रही है? स्त्रियों पर घरेलू हिंसा और सामाजिक हिंसा बढ़ी है, क्या उसकी वेदना इन लोगों ने व्यक्त की है?
हिन्दी में उपन्यास आलोचक भी कम हैं। नेमिचन्द्र जैन के बाद वीरेंद्र यादव और अमिताभ राय तथा वैभव सिंह युवा आलोचकों को इस परिघटना पर लिखना चाहिए। रोहिणी अग्रवाल, अरुण होता, पल्लव, राकेश बिहारी आदि कथालोचकों को भी उपन्यास की आलोचना की ओर ध्यान देना चाहिए। इस पर बहस होनी चाहिए। यह आवश्यक है कि उनके लिखे को अलक्षित मत करें भले ही उनकी आलोचना करें।
विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com
Comments
इधर लिखे सभी उपन्यासों का जिक्र हो गया है, बाकी काम आलोचकों का है…शोधार्थी के लिए यह लेख मददगार है…
अच्छा आलेख और सुंदर प्रस्तुति। विमल कुमार जी और पुस्तकनामा को बधाई।
#पुस्तकनामा इस आलेख के लिए बधाई का पात्र है। जैसा कि मनोज मोहन जी ने लिखा है यह हिन्दी उपन्यास विषय के शोधार्थियों के लिए उपयोगी आलेख है। स्त्रियों के लेखन को हमेशा हाशिए पर रखकर आंका गया है। ऐसे में उन्हें केंद्र में रखकर लिखा जाना बहुत ज़रूरी है। एक बात थोड़ी सी खटकने वाली है कि इसमें सुप्रसिद्ध लेखिका गीताश्री जी का नाम काफी बाद में उल्लेखित है। वरिष्ठता की दृष्टि से भी उनका उल्लेख पहले होना चाहिए। शोध करने वालों को भी इस वरीयता क्रम से परिचित होना चाहिए, तभी वह सही दिशा में सही तथ्यों के साथ शोध कर सकेंगे। इन उपन्यासों में से दो उपन्यास मैंने हाल ही में पढ़े हैं। पहला, मनीषा कुलश्रेष्ठ का ‘मल्लिका’। दूसरा , गीताश्री का ‘वायामीडिया’। दोनों ही कमाल की कृतियां हैं। जहां मनीषा जी ने मल्लिका के पात्र को प्रमाणिकता प्रदान की है वहीं गीताश्री जी ने बिल्कुल आधुनिक परिवेश में एक बेहद आधुनिक विषय पर कलम चला कर इस समय का महत्वपूर्ण उपन्यास साहित्य को दिया है। मीडिया में काम करती स्त्रियां इस उपन्यास को जरूर पढ़ना चाहेंगी और वे इसमें खुद को ढूंढ भी लेंगी। यह निश्चित रूप से उपन्यासकार की सफलता है।
यह बेहद महत्वपूर्ण आलेख है। ऐसे दस्तावेज साहित्य का इतिहास होते हैं जिनका समय-समय पर शब्दबद्ध होते रहना ज़रूरी है।
लेकिन इस आलेख को पढ़ते वक्त मैंने गौर किया कि हाल फिलहाल में बेहद चर्चा में रहने वाले जयंती रंगनाथन के उपन्यास ‘एफ ओ ज़िन्दगी’ का कहीं उल्लेख नहीं है वहीं गीताश्री के उपन्यास ‘वायामीडिया’ और मनीषा कुलश्रेष्ठ के उपन्यास ‘मल्लिका’ पर बेहद संक्षिप्त या खानापूर्ति जैसी चर्चा की गई। जबकि ये इस समय की महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं और किसी भी आलोचना के इतिहास में इन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कृतिकार को एक बार भूल भी जाया जाए तो भी उसकी कृति को नकारना अनुचित ही नहीं बल्कि अन्याय भी होगा। इसे साहित्य की भाषा में आलोचना लेखन का ग़लत ट्रेंड भी कहा जा सकता है।
एक पाठक की हैसियत से मैंने इन उपन्यासों को पढ़ा है और पाया है कि उपन्यासकार ने अपने समय के साहित्य को अविस्मरणीय कृतियाँ दी हैं।
बहरहाल ‘स्त्री लेखन’ को हाशिए से उठाकर केन्द्र में रखने वाली सभी लेखिकाओं को मेरा नमन और साधुवाद।