हिमयुगी चट्टाने : यहाँ से फ़िनलैंड को देखो

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राकेश मिश्र

प्रो. जी. गोपीनाथन की पहचान एक वरिष्ठ भाषा वैज्ञानिक, अनुवादक और नवोन्मेषी शिक्षाशास्त्री की रही है । महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के दूसरे कुलपति के रूप में उन्होंने भाषा प्रौद्योगिकी और अनुवाद प्रौद्योगिकी जैसे विषय शुरू कर हिन्दी भाषा के परंपागत अध्ययन-अध्यापन को जैसे एक नई उड़ान दी थी । एक अनुवादक के तौर पर भक्त कवयित्री मीराबाई की कविताओं का मलयालम में अनुवाद कर उन्होंने भारतीय साहित्य को मूल्यवान थाती सौंपी है । शिवराम कारंत के प्रसिद्ध उपन्यास ‘मृत्यु के बाद’ तथा पी.के. बालकृष्णन के उपन्यास ‘अब मुझे सोने दो’ का हिन्दी अनुवाद कर उन्होंने हिंदी जगत की संवेदनाओं को भी समृद्ध किया है । यह अन्यथा नहीं है कि हिंदी और मलयालम में लगभग दर्जन भर किताबें लिख चुके प्रो. गोपीनाथन को भारत सरकार के राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार भारतीय अनुवाद परिषद के ‘नाताली पुरस्कार’ समेत अनेक सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। इतने गंभीर और अकादमिक कार्यों के अतिरिक्त प्रो. गोपीनाथन ने कुछ छोटी-छोटी कहानियाँ भी लिखी है, जो समय-समय हंस, कथादेश जैसी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रही है । लेकिन लगभग 75 वर्ष की उम्र में हिमयुगी चट्टाने नाम से उनका पहला उपन्यास उनके पाठकों और प्रशंसकों के लिये चौंकानेवाले उपहार की तरह है। यह उपन्यास अपने आप में इस बात का सबूत है कि रचनात्मकता किसी उम्र की मोहताज नहीं।

फिनलैंड के प्रवासी जीवन पर हिंदी में यह पहला मौलिक उपन्यास है जो एक साथ दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंधों और एकता के नाजुक संतुलन को आश्चर्यजनक तरीके से साधे रखता है। प्रेम की एक अविरल धारा इस उपन्यास का मुख्य कथानक है जो तमाम विवरणों, डायरियों के ईंदराज, यात्रा संस्मरणों की कोलाज जैसी लगने वाली कृति को मुकम्मल उपन्यास का दर्जा देता है।

उपन्यास का नायक अजितसिंह है जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में इतिहास का छात्र है । गोवा में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय समाज विज्ञान सम्मेलन में उसकी मुलाकात फिनलैंड की लूमी हालोनेन से होती है जो हेलेंस्की से आई होती है । पहली मुलाकात में ही अजित सिंह और लूमी में एक तरल-सा रिश्ता बन जाता है, जो बाद में अजित सिंह के हेलेंस्की पहुँचने का एक प्रमुख कारण बनता है। यह बात और है कि घोषित तौर पर अजित सिंह वहाँ भारत और फिनलैंड के सांस्कृतिक संबंधों पर शोध के लिये आमंत्रित है लेकिन पाठकों को लूमी का यह शरारत पूर्ण आमंत्रण सहज बोधगम्प है—

            “अजित, क्या तुमने वात्स्यायन का कामसूत्र पढ़ा है ।”

            “थोड़ा-बहुत पढ़ा है।” झेपते हुए अजित सिंह ने कहा था ।

            मैं अब उस ग्रंथ का अध्ययन कर रही हूँ, पढ़ते समय मुझे कुछ बातें समय में नहीं आती लूमी की मुस्कुराहट में एक नटखटपन था।

उपन्यास का एक बड़ा हिस्सा इस तरह मुस्कुराहट और शालीन नटखटपने से भरा है। स्त्री-पुरुष संबंधों पर आपसी चर्चा या दूतावास में जमा हुए प्रवासी भारतीयों के बीच कामसूत्र की टेक्नोलॉजी की चर्चा या केरल में नम्बूदरी ब्राह्मणों की संबंध नामक प्रथा की चर्चा तो संस्कृतियों के आपस में बेतकत्लुफ होने मे टेक्निक के तौर पर इस्तेमाल की की गई है।

उपन्यास के शिल्प का एक बड़ा हिस्सा अजित सिंह की डायरी के पन्नों से पूरा होता है । डायरी शिल्प में होने के कारण पाठक बड़ी आसानी से फिनलैंड की रोज़मर्रा के जीवन से परिचित होते जाते है । फिनलैंड के लोगों का रहन- सहन उनकी आदतें उनका स्वभाव उनमे शिष्टाचार के तरीके उनकी मेहमान नवाजी सब इतनी सहजता से हमारे सामने पृष्ठ-दर-पृष्ठ खुलने लगते है कि पाठक बड़ी जल्दी एक अजनबी परिवेश में रच-बस जाता है और उपन्यास में घट रही घटनाएँ पाठकों को अपने आस-पास की घटनाएँ लगने लगती है। फिनलैंड जैसे नितांत अपरिचित देश के माहौल को इतनी सहजता से बिल्कुल कम पन्नों में सहज और सरल बना देने का कौशल किसी सिद्धहस्त उपन्यासकार से ही अपेक्षित है और यह शिल्पगत कौशल देखकर यकीन करना मुश्किल है कि यह लेखक की पहली कथात्मक कृति है और वे उम्र के पचहत्तरवें वर्ष में हैं ।

नायक अजीत सिंह और लूमी के बीच बन रहे इस तरल संबंधों के बीच अचानक सुभाष और सुमा का प्रवेश होता है । सुभाष राय एक प्रवासी भारतीय कारोबारी है और सुमा उसकी पत्नी है। सुभाष के निर्बंध जीवन से परेशान सुमा जल्द से जल्द फिनलैंड छोड़ना चाहती है । वह सुभाष राय की बिना जानकारी में आये चुपचाप वहाँ से भाग जाना चाहती है। वह अजीत सिंह से इसरार करती है कि वह भारत जाते समय सुमा को भी वहाँ से निकलने में मदद करें । अजीत सिंह इस स्थिति के दुष्परिणाम को भाँप रहे थे लेकिन फिर भी वे सुमा की मदद को तत्पर हो गये । इस मानवीय मदद के अलावा अजीत सिंह और सुमा में कुछ भी नहीं घटता लेकिन यह स्थिति अजीत सिंह के जीवन में विस्फोट की तरह घटती है । लूमी समेत तमाम भारतीय दोस्त अजीत सिंह को धोखेबाज, फरेबी और लंपट मान बैठते हैं ।

अजीत सिंह अपनी स्थिति पर हैरान और परेशान होते हैं खासकर लूमी की ऐसी प्रतिक्रिया उन्हें तोड़ डालती है । यहाँ इस उपन्यास का शीर्षक ‘हिमयुगी चट्टाने’ सही अर्थों में व्यंजित होता है, जब अजीत सिंह महसूस करते हैं कि उनके और लूमी के संबंधों के बीच यही हिमयुगी चट्टाने खड़ी हो गई है जिसे हटाया नहीं जा सकता। अजीत सिंह का टूटा दिल भारत से आई योगिनी अम्मा के आशीर्वाद से श्यामा से जुड़ता है। दोनों की शादी होती है और दो बच्चे भी होते हैं, लेकिन आर्थिक दबावों का सामना न कर पाने के कारण यह शादी टूट जाती है, उपन्यास में श्यामा का यह वचन शब्दों में जितना ठंढापन लिये है अजीत सिंह के लिये उतनी ही झुलसाने वाले— “अब हम अलग रहें, यही अच्छा है। मैं हेललिंकी में नहीं रह सकती। यूही तोरिनया में मुझे बहुत काम है। बच्चों की परवरिश सरकार करेगी । हमारा संबंध यहीं पर समाप्त हो रहा है।”

इस टूटन के बाद अजीत सिंह लगभग बिखर जाते हैं । उन्हें दिल का दौरा भी पड़ता है, लेकिन फिर वे संभलते हैं और अंतत: खोज शुरू होती है अपने आपको पाने की अपने आनंद को पाने की अपनी वास्तविक खुशी को पाने की और वह अंतत: ‘शांतिग्राम’ की अवधारणा में खत्म होती है। प्रकृति की ओर लौटो के धोषवाक्य से शांतिग्राम की परिकल्पना वस्तुत: इस उपन्यास का नया प्रस्थान बिंदु है, जहाँ से एक नये उद्देश्य, एक नये जीवन की शुरूआत होती है। लेखक ने वर्षों तक फिनलैंड में अध्यापन किया है। इस लिहाज से फिनलैंड की प्रकृति वहाँ का जीवन वहाँ का सौंदर्य उनका र्फस्ट हैंड अनुभव है। भाषा में किसी प्रकार का बनावटीपन नहीं है और समूचा उपन्यास नामालूम तरीके से बिना किसी गहमा गहमी और धमाके के खत्म हो जाता है । लेकिन अपने पीछे हिमयुगी चट्टानों का सा ठंडा- सर्द अहसास छोड़ जाता हैं ।

अंत में एक बात अभी-अभी सना मरीन फिनलैंड की प्रधानमंत्री निर्वाचित हुई हैं। अपनी उम्र, अपने विचार और जीवन शैली को लेकर वे समूची दुनिया के आकर्षण का केन्द्र हैं । उपन्यास में लूमी का चरित्र न जाने क्यों बार-बार आपको सना मरीन से मिलता जुलता लगेगा। यदि आपको सना मरीन को ठीक से जानता है. तो आप इस उपन्यास को जरूर पढ़े खासकर लूमी को।  


हिमयुगी चट्टाने : जी. गोपीनाथन [उपन्यास], मू. 200 रुपये मात्र, वाणी प्रकाशन, दिल्ली। इस पुस्तक को आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर के मँगवा सकते हैं।


राकेश मिश्र : युवा कथाकार। ‘बाकी धुआँ रहने दिया’, ‘लालबहादुर का इंजन’ और नागरी सभ्यता’ प्रकाशित कहानी-संग्रह। इन दिनों उपन्यास लेखन में संलग्न। प्रबोध मजुमदार स्मृति सम्मान, कृष्ण प्रताप स्मृति पुरस्कार। संप्रति अहिंसा एंव शांति अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वंविद्यालय, वर्धा में अध्यापन। लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है— rakeshmishramgahv@gmail.com


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