सारंग उपाध्याय
एक रचना अपने में संपूर्ण है. एक सृजन हर प्रतिक्रिया से परे. एक सुंदर फूल खिलने में पूर्ण है तो एक बहती नदी का सौंदर्य उसके होने में. स्वयं में पूर्ण. एक कविता संपूर्ण जीवन को लेकर अभिव्यक्त हुई. जीवन से भरा मन और भावों से भरा जीवन.
जीवन किताबों में कहां?
कविता जीवन के बिना कहां..!
वाल्टेयर ने कहा था–बहुत सारी पुस्तकें हमें अज्ञानी बनाती हैं। जबकि प्लेटो ने कहा था– “प्रेम के स्पर्श से सभी कवि बन जाते हैं।”
सोच रहा हूं— किताबों से दूर जीवन के स्पर्श से मनुष्य क्या होता होगा? कलाकार या संपूर्ण मनुष्य?
युवा कवयित्री रश्मि भारद्वाज का कविता संग्रह ‘मैंने अपनी मां को जन्म दिया है’’ जीवन से भरी कविताओं की गठरी है. एक बगिया जिसमें स्त्री जीवन की कविताएं हैं. वह जीवन जो एक स्त्री के हिस्से आया है, उसकी आंखों से देखा गया है.
इस संग्रह की कविताएं पढ़ने के बाद एक जीवन पाठकों के भीतर भी आकार लेता है. ऐसा जीवन जो कविताओं में ढलता हुआ है और एक स्त्री के जरिए इस समाज, व्यवस्था से सवाल पूछता है, उनकी चिंताओं को सहेजता है, प्यार भी बांटता लेकिन विद्रोह के साथ चुनौती भी देता है.
वैसे किसी कवि के जीवन और कविताओं पर क्या कहा जाए?
जीवन और कविताओं के बारे में रश्मि क्या कहती है देखिए–
कविता जीवन की अभिव्यक्ति है. जीवन अनंत अंधकार के बीच भी अपनी अस्मिता को बचाए रखने का संघर्ष है. इस जटिल और अराजक जीवन में कविता में हर पल आशा और रौशनी की बातें करना बेमानी ही नहीं समाज के साथ अन्याय भी है.
रश्मि के अनुसार कविता जीवन की अभिव्यक्ति है और जीवन अनंत अंधकार के बीच भी अपनी अस्मिता को बचाए रखने का संघर्ष, किंतु इस जीवन और अभिव्यक्ति के भी तो कई पाठ हैं. फिर अभिव्यक्ति के केंद्र में तो इस समय जीवन से ज्यादा उसकी गतिविधियां हैं. कार्य व्यापार हैं. यांत्रिकता है और बने रहने की गैर जरूरी कवायद भी है. दुख यहां उत्पाद बन गए हैं तो सुख उत्सव. हर हरकत एक इवेंट और हर आदत एक शो.
तो प्रश्न है जीवन यहां कहां?
कविता और जीवन पर रश्मि की एक और बात देखिए.
कहने दीजिए कविता को जैसा है जीवन. कितनी धूप छांव है और कितना अंधेरा. जबरन की सकारात्मकता संशय में डालती है कविता के लिए. लेकिन जीवन लिखना नकारात्मक होना भी नहीं है.
सोच रहा हूं– अनगिनत दृश्य, असंख्य दृष्टियां और सभ्यता की सर्वाधिक अभिव्यक्तियां. फिर इसमें कविता कहां?
रश्मि कहती हैं– जो अव्यक्त है वही सुंदर..!
यानी अभिव्यक्ति और जीवन के बीच जो शेष है वही कविता है?
फिर रश्मि के हिस्से क्या शेष है..
यह कविता देखिए
मैं शेष रही..!
अपने सभी संशयों के मध्य भी मेरे पास शेष रहा
प्रेम का विश्वास
किसी ईश्वर के आगे नहीं झुकने पर भी
मेरे पास शेष रही प्रार्थना की उम्मीद
सभी सांसारिक अनुष्ठानों के बीच भी
शेष रहा मेरे आत्मा का एकांत
मैं बहुत कठोर हुई
फिर भी निष्ठुर नहीं हो सकी
तमाम नफरतों के बीच भी
मेरे पास शेष रहा क्षमा भाव
छल कम नहीं हुए
फिर भी बची रही टूटकर भरोसा करने की प्रवृत्ति
मेरे लिए तय थी समझौतों की सीमा
हर अभाव के बीच भी
शेष रहा एक मनुष्य का स्वाभिमान
मैं थोड़ी कम दुनियावी रही
थोड़ी कम सफल
पर मैंने बचाए रखी
अपने अंदर की कविता..!
तो जो रश्मि का शेष है वह प्रेम का विश्वास है. इस विश्वास का स्पर्श ही तो हर मनुष्य को कवि बनाता है.
आइए रश्मि के कविता संग्रह में प्रवेश करते हैं-/
युवा कवयित्री रश्मि भारद्वाज की कविताएं संवेदना, सहानुभूति, चिंता, आत्मवेदना और स्वाभिमान से भरी हुई हैं. जीवन में गहरे धंसी, उसके ताप से दमकती, अपनी विराटता में सघन, सधी, संश्लेषित और गहरे मानवीय बोध से भरी हुईं.
कविताओं और जीवन के संदर्भ में रश्मि की अभिव्यक्ति हमें एक कवि की दृष्टि और जीवन अभिव्यक्ति के प्रति गहरी आश्वस्ति से भरती हैं. यकीनन कविता जीवन की अभिव्यक्ति है. अनंत अंधकार के बीच अस्मिता को बचाए रखने का संघर्ष. कविता को वही कहने दीजिए जैसा जीवन है. चाहे कैसा भी अंधेरा हो और कैसी भी छांव हो.
एक ऐसे में समय में जबकि कविताओं की प्रोडक्शन यूनिट दिखने लगी हो. सोशल मीडिया वह वह बल्क की बल्क और लॉट की लॉट उतारी जा रही हो. डिक्शनरियों से शब्द छांट-छांटकर उत्पादन किया जा रहा हो तो वहां रश्मि की कविताएं एक झटका देती हैं. आभास की दुनिया से उठाकर यथार्थ में ले आती हैं. ये कविताएं स्त्री जीवन के पेंचिदा, जटिल और संघर्ष भरे यथार्थ के बीच से उठकर हमारे पास आती हैं.
इनमें जीवन झांकता है. स्त्री मन की वेदना में डूबे दृश्य जीवंत हो उठते हैं. कस्बे और गांव में कैद एक स्त्री की बेचैनी और अकेलापन झांकता है, महानगरीय जीवन में एक स्त्री की उठापटक, उहापोह और उसके साथ हुए छल, छद्म दिखाई पड़ते हैं.
रश्मि इन कविताओं के जरिए अपना जीवन रचती दिखाई पड़ती हैं. उनके तेवर, उनकी मंशाएं और इरादे कविता के जरिए बेहद स्पष्ट और सीधे दिखाई देते हैं, लेकिन उनकी सार्थकता दूर तक और देर तक गूंजती है. वे इस मायने में खास हो उठती हैं क्योंकि वे जो कहती हैं, सीधे कहती हैं. उनके पास कोई दुराव-छिपाव नहीं है. दृष्टि भ्रम नहीं है. दिशाहीनता नहीं है. एक विचार समानांतर है जिसमें मनुष्यता का बोध सर्वोपरि है.
यह कविता देखिए
हर तरफ से आती चीखों के बीच
मौन हो जाना कायरता नहीं
शब्दों को बेहतर तरीके से बोले जाने की कवायद भर है
एक तुम्हारा सच था
उसका सच कुछ और हो सकता था
चुनाव के उन कठिन क्षणों में
अक्सर मैंने अपनी आत्मा की सुनी
सच को बचाने से कहीं बेहतर लगा मुझे
एक इंसान को बचा लेना
निर्भयता, संदेह से परे रहना और सीधी मुठभेड़ करना उनकी कविता का सबसे आकर्षक पक्ष है.
रश्मि की कविताएं किसी काव्य सौंदर्य, बिंबों की ठगी, कलात्मक माया से दूर, अपने तेवरों में सपाट, खुरदुरी और पथरीली लेकिन जीवन की आंच में इतनी रची-पगी हैं की उसका सौंदर्य, जीवन के यथार्थ से ही खूबसूरत हो उठा है.
कहीं ये कविताएं इस व्यवस्था में एक स्त्री के सपनों और उन तक पहुंचने की जद्दोजहद में ठगी गई महत्वकांक्षाओं और सपनों की व्यथा है, तो वहीं एक बेटी, पत्नी, दोस्त और नागरिक के रूप में खड़ी औरत की भी कथा है.
दो शहरों में खोजती हूं मैं
एक बीत गई उम्र
एक ने मुझे नहीं सहेजा
दूसरे को मैंने नहीं अपनाया
मैं दोनों की गुनहगार रही
रश्मि की कविताओं में एक ऐसा पाठ गूंजता है जिसकी एक ध्वनि स्त्री के भीतर है तो एक आवाज पुरुष के ह्दय में. जीवन, स्त्री और पुरुष द्वारा ही तो रचा गया है. जीवन जिसकी आदिम गंध है. आदिम सौंदर्य भी.
इन कविताओं में स्त्री जीवन के सुख-दुख, यंत्रणाएं, उपेक्षाएं, धोखा, प्रेम, अपेक्षाएं इतने विराट और सघनता के साथ आए हैं कि यह कविताएं स्त्री-पुरुष जीवन की न हीं बल्कि मनुष्य जीवन का पाठ हो उठी हैं.
लाल पत्थरों के उस फर्श पर अक्सर आ बैठती हैं वे सभी औरतें
औरतें जो प्रेम में हैं
औरतें जो पिटकर आई हैं
कुछ ने धोखा खाया और अंतिम बार प्रणाम कहने चली आई हैं
कुछ को गर्भ में मन्नतें संजोनी हैं
कुछ बेटे की रात को दी हुई गालियां याद कर आंखें पोंछती हैं
कुछ आस से सामने खेलते शिशु को निहारती हैं
और अपनी बच्चियों के सिर पर हाथ फिरा देती हैं
कुछ नहीं पता उन्हें कहां जाना है
पैरों को बस यहीं का पता सूझता है
घर से निकाल दिए जाने के बाद..
ऐसे ही
रिक्त स्थान/वह तुम ही हो पिता/महानगर में औरत/एक स्त्री का आत्म संवाद/ 80 का दौर और एक अव्यक्त रिश्ते से गुजरते हुए/ कितने बचे हैं आदमी/ एक अभिशप्त पीढ़ी सहित कई ऐसी कविताएं हैं जिन्हें जीवन यथार्थ काव्य सौंदर्य से भर रहा हैं.
यह कविताएं अतीत से प्रश्नों को उठाती हुई अपने समय से टकराती हैं. उससे लोहा लेती नजर आती है. इन कविताओं के भीतर छिपी कथात्मक लय से सवाल उठाती हुई रश्मि एक स्त्री के अधिकारों की शक्ति से भी परिचित कराती हैं.
यहां दुख, वेदना है तो वहीं इसके समानांतर चुनौतियां और अधिकार के प्रश्न भी हैं. कविताएं केवल विनती या याचना का भाव प्रस्तुत नहीं करतीं वरन् अंत में जाकर सीधे सवाल दागती हैं और अपना हिस्सा मांगती हैं.
वह तुम ही हो पिता जैसी कविताएं एक अलग दृष्टि की कविता है. जो कई दायरे तोड़कर एक बेटी से पहले एक स्त्री के सवाल हैं जो पिता से पहले एक पुरुष से अधिकारपूर्वक पूछे गए हैं. यह कविता इन मायनों में बेहद मारक और प्रभावी बनती दिखाई देती है. बेटी और स्त्री की विभाजक रेखा में सवाल, प्रेम और सहानुभूति दोनों ही सामने दिखाई देते हैं.
इस कविता को देखें– यह मेरी प्रिय बन पड़ी है.
मां के लिए लिखी हर कविता में
तुम एक अघोषित खलनायक थे पिता
तुम्हारी बोली के कई शब्दों को
मैंने अपने शब्दकोश से बहिष्कृत कर दिया है
क्योंकि वे मेरे भाषा घर में नहीं समाते थे
और तन कर खड़ी हो गई हूं
तुम्हारे उस पुरुष के खिलाफ
जो अक्सर अपनी स्त्री के आंसुओं का कारण बन जाता है
ना तुम्हारे पीछे छूट गए कदमों के निशान
नापने की मेरे कोई उत्कंठा है
तुम्हारे ईश्वर ने पहले से ही तय कर रखी है मेरी सीमा रेखा
और तुम्हारे घर में मेरे लिए सुरक्षित कर दिया गया है एक अतिथि कक्ष
तुम्हारे उपनाम, तुम्हारी जाति की शुद्धता, तुम्हारे दंभ
मैं सबसे दूर भागती रही
और मेरे बचपन के पिता कहीं पीछे छूटते गए
लेकिन फिर भी मेरी धमनियों में
जो रक्त बन दौड़ रहा है
वह तुम ही थे
मेरे चेहरे की जिद में जिसे पढ़ा जाता रहा
वह तुम्हारा ही चेहरा था
मैं इनसे कभी नहीं भाग सकी
और हर बार तुमसे मिलकर लौटने पर
तुम्हारे थोड़े से और झुक आए कंधों
चेहरे पर बढ़ आईं कुछ और लकीरों को याद कर
जो मेरी आंखों से बह आता है
वह तुम ही हो पिता..!
एक स्त्री एक कवि के रूप में अपने समय, समाज, राजनीति, संस्कृति के कितने करीब और कितनी दूर तक देख सकती हैं यह कविताएं उसकी बानगी हैं. पितृसत्ता की शोषणमूलक प्रवृत्ति, राजनीति व व्यवस्था के छल व समाज- परिवार के बीच अपनी स्वतंत्रता, नियति और अस्मिता व अस्तित्व के प्रश्नों को रश्मि व्यापकता और कठोरता के साथ उठाती हैं. उनके ये सवाल निज अनुभूति व संवेदना से उठकर वैश्विक हो उठते हैं.
स्त्री अपनी योनि में रहती है
यह नानी ने अपनी मां से सुना था
उन्होंने पहले मां और फिर मुझे
इतने कपड़ों में लपेटा
कि धूप, हवा, बारिश सबसे अछूती रही वह
मालिश के दौरान भी
भले ही खुली रही देह
योनि को ममता स्पर्श नहीं मिला..!
या फिर संग्रह की वह कविता जो सारी कविताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं.
मैंने अपनी मां को जन्म दिया है.
उन्हें मेरे लिए वह सब कुछ चाहिए था
जो जीवन से उनकी ख्वाइशें थीं
एक लड़की तयशुदा परिभाषा के बीच वह अंटा देना चाहती थीं
मेरी अराजक स्वतंत्रता
ना मैं कभी पढ़ पाई उनका अनकहा भय
और चिंताएं
ना उन्होंने समझा
कि कितना आवश्यक था मेरा विद्रोह
हम मित्र तो क्या
ठीक से मनुष्य भी ना हो सके एक–दूसरे के लिए
लेकिन अब जब खुद एक बेटी की मां हूं
अनायास ही आरोपित हो गए मुझमें उनके सारे दु:स्वप्न
और वह दुहराने लगी हैं मेरी विद्रोह की बारहखड़ी
मैंने अपनी बेटी को जन्म देने के साथ
अपनी मां को भी जन्म दिया है..!
मां से सीधी बातें करतीं ये कविता एक ओर तो कई मान्यताओं को तोड़ती है तो वहीं ममत्व को भी सहेजती हैं. उस वात्सल्य को भी जिसके आगे एक मां अपने सारे विद्रोह, सारी मान्यताओं को संतान की सुरक्षा, प्रेम के आगे बौना समझती है.
दरअसल, पिता और मां के लिए लिखी गई दोनों ही कविताओं के जरिए किया गया ये संवाद रश्मि को बनी-बनाई पाटी से जुदा कर देता है. पिता के प्रति बेटी का प्रेम अलग है और बेटी में रह रही स्त्री का विद्रोह अलग. ऐसे ही मां से संवाद के स्तर पर बेटी विद्रोही है तो वहीं मां बनकर अपनी बेटी के प्रति चिंता में वह बेहद अलग. पिता के पुरुष के प्रति विद्रोह और मां से संबंध की नई शर्तें, रश्मि को एक स्त्री के रूप में एक अलग खड़ा करती हैं. वे अलग दृष्टि के साथ दिखाई देती हैं.
घर, परिवार, रिश्ते-नाते, शहर, गांव की संवेदना के स्तर पर रश्मि की कविता के तेवर अलग हैं तो वहीं इस व्यवस्था और समाज से सवाल पूछते हुए अलग. रश्मि कई जगह वैश्विक हो उठती हैं. भूगोल की सीमाओं को लांघकर, परंपराओं को, वर्जनाओं को तोड़कर एक नई दुनिया रचती दिखाई देती हैं.
कितना साम्य है एक स्त्री की देह और देश में
जमीन को बांध दो और देश बन जाता है
स्त्री को चारदीवारी में बांध दो
उस पर एक घर बन जाता है
अपने हिस्से की देह
घर
देश तलाशती
मैं दुनिया की सभी औरतें
अब समवेत स्वर में
संपूर्ण पृथ्वी की नागरिकता चाहती हैं..
रश्मि की कविताओं को केवल एक दुखयारी, छली गई स्त्री की दुखभरी भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता, बल्कि वह निज दुख से निकलकर एक विराट संवेदना को स्पर्श करती हैं. उनके स्त्री मन के दुख, उनकी हताशा और संवेदना को वे हर स्त्री के दुखों के साथ जोड़ती हैं. उनकी पीड़ा को महसूस करती हैं.
जैसा की पहले कहा- एक स्त्री की वैश्विक होती संवेदना बोध से भरी ये कविताएं दूर तक जाती दिखलाई पड़ती हैं. रश्मि की कविताओं में निर्वासन, पलायन का दुख भी है. यह दुख केवल एक स्त्री का नहीं बल्कि अपना शहर, गांव छोड़ हर एक उस व्यक्ति का हो जाता है जो अपने ही शहर में लौटने पर भी पराया है.
लौटना सिर्फ एक शब्द मात्र नहीं है
इसके उच्चारण भर से लौटता है एक इतिहास
अव्यवस्थित हो जाता है एक भूगोल
संग्रह में कविताओं का अलग-अलग शीर्षक से विभाजन रश्मि की इसी दृष्टि को स्पष्ट भी करता है. एक गांव, शहर और महानगरीय जीवन के बीच से गुजरती उनके भीतर की कवि की नजर किसी सैटेलाइट की तरह है. हर स्तर पर जूझती और संवेदनाओं को सहेजती. कई मौलिक प्रश्न वे उठाती हैं तो कई चिंताओं को सहेजती हैं. लिंग भेद, स्त्री विमर्श, पर्यावरण और आसपास की शोषण से बनी दुनिया के प्रति रश्मि संवेदनशील हैं और उसे अपनी तरह से रिएक्ट भी करती हैं. ये रिएक्शन उनकी कविताओं की ताकत है और व्यक्तित्व की भी.
अपने पहले ही कविता संग्रह ‘’एक अतिरक्त अ’‘ (ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार में अनुशंसित) से चर्चा में रही रश्मि का यह दूसरा संग्रह उनके काव्य कर्म की गंभीरता और सार्थकता के प्रति भी आश्वस्त करता है. इस महानगर में कविताओं से झांकता उनका संघर्ष से भरा जुझारू जीवन अपनी रचनात्मकता में भी ऊर्जा से लबरेज है. टूटकर बिखरने वाला नहीं बल्कि चुनौती देने वाला. कविता की ताकत से उठ खड़ा होने वाला. जीवन के एकाकीपन में तप से दमकने वाला.
सेतु प्रकाशन से प्रकाशित उनका यह दूसरा संग्रह मैंने अपनी मां को जन्म दिया है, प्रेम, जीवन, संघर्ष और एकांत से भरी कविताओं के बीच है. किताब के अंत में कुछ नोट्स बेहद सुंदर बन पड़े हैं.
यह नोट्स इन कविताओं के बीच एक ठहराव की वह आवाजाही है जहां रश्मि जीवन के प्रति एक विचार के साथ मौजूद हैं. इन विचारों में जीवन की स्वीकृति तो है ही बल्कि अपने अनुसार बदलाव के लिए तैयारी भी है.
इस सार्थक कविता संग्रह के लिए रश्मि को बहुत-बहुत बधाई इस उम्मीद के साथ की कविता की परछाई बनें ये नोट्स उनकी कहानियों की आहट है..!
मैंने अपनी मां को जन्म दिया है… : रश्मि भारद्वाज [कविता संग्रह], मू. 130 रुपए, सेतु प्रकाशन, दिल्ली। आप इस पुस्तक को अमेज़न से भी ऑनलाइन ऑर्डर कर मँगवा सकते हैं।
सारंग उपाध्याय : युवा पत्रकार और लेखक. पिछले 13 सालों से मीडिया में. इंदौर, मुंबई, भोपाल, नागपुर, औरंगाबाद जैसे शहरों में पत्रकारिता. वेबदुनिया, दैनिक भास्कर, लोकमत-समाचार, नेटवर्क-18 और अमर-उजाला जैसे मीडिया संस्थानों में नौकरी. इस समय दिल्ली/नोएडा राष्ट्रीय समाचार पत्र अमर-उजाला की वेबसाइट में डिप्टी न्यूज एडिटर. कविताएं कृति ओर, अक्षर-पर्व, वागर्थ में. कहानियां, परिकथा, वसुधा, साक्षात्कार, मंतव्य, चिंतन-दशा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित. शीघ्र नई कहानी कथादेश में. साल 2018 में कहानियों के लिए म.प्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का ‘माधुरी अग्रवाल स्मृति’ ‘पुनर्नवा’ नवलेखन पुरस्कार. 2013 में डॉ. राममनोहर लोहिया के साथी समाजवादी चिंतक, लेखक/पत्रकार बालकृष्ण गुप्त के लेखों पर आधारित किताब “हाशिए पर दुनिया” ( पुस्तक राजकमल प्रकाशन से) का संपादन. समसामयिक विषयों पर लेख और फिल्म समीक्षाएं लगातार अखबारों और वेबसाइट में प्रकाशित. इनसे आप इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— sonu.upadhyay@gmail.com