डॉ. केदारनाथ सिंह के कक्षा-व्याख्यान के आलोक में ‘उषा’ कविता

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प्रस्तुतकर्ता : उदयभान दुबे

[‘उषा’ शमशेर बहादुर सिंह की एक छोटी किन्तु महत्वपूर्ण और बहुचर्चित कविता है। मैंने हाल ही में फेसबुक पर इस कविता पर एक चर्चा सुनी जिसमें डॉ. गोपेश्वर सिंह, डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ. सुरेश शर्मा और डॉ चंद्रा सदायत भाग ले रहे थे। यूट्यूब पर भी इस कविता के संबंध में कई विद्वान शिक्षकों के व्याख्यान उपलब्ध हैं। उन सबको सुनने के बाद यह जरूरी लगा कि इस कविता के संबंध में महत्वपूर्ण कवि एवं उत्कृष्ट प्राध्यापक डॉ. केदारनाथ सिंह के कक्षा-व्याख्यान के आधार पर एक झलक प्रस्तुत की जाए। केदार जी ने वह कविता दिनांक 17.11.1981 को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अपने एम.ए. (हिन्दी) के छात्रों को (जिनमें मैं भी शामिल था) पढ़ाई थी।] 

शमशेर का काव्य- फलक विस्तृत है। 1930-31 उनका प्रारम्भिक रचना-काल है जो छायावाद का अंतिम काल है। वे मुक्तिबोध के पहले से लिखते रहे हैं।शमशेर एक बहुभाषी कवि हैं। उनका संबंध अंग्रेजी और उर्दू भाषा के साथ रहा है। उन्हें हिन्दी की विधिवत शिक्षा नहीं मिली थी। हिन्दी में वे एक आउट साइडर की तरह आए। उर्दू से इतना निकट संबंध हिन्दी के किसी कवि का नहीं रहा है। उनपर उर्दू कविता का प्रभाव है। खास कर दाग देहलवी का, जो गालिब के बाद के एक प्रमुख कवि थे। देहलवी ने कविता में बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया। उनमें शब्दों से खेलने की प्रवृति दिखाई देती है। शमशेर मार्क्सवादी भी हैं, किन्तु आदर्श बनाते हैं दाग को, जो एक पारंपरिक कवि हैं और 19 वीं शताब्दी की ह्रासशील प्रवृतियों से जुड़े हैं। 

शमशेर पर यूरोपीय कविता का भी गहरा प्रभाव है । वे 19 वीं शताब्दी के दौर में लिखी गयी फ्रांस की प्रतीकवादी कविता से प्रभावित हैं; म्लार्में आदि से। म्लार्में ने कविता में संगीत तत्व पर ज़ोर दिया तथा माना कि कविता विचारों से नहीं, शब्दों से लिखी जाती है। शमशेर पर अंग्रेजी कविता का भी प्रभाव है, खासकर अंग्रेजी की आधुनिकतावादी कविता का। अमेरिकी कवि ई.ई. कमिंग्स की चर्चा उन्होंने ‘दूसरे सप्तक’ की भूमिका में की है। शुक्ल जी ने कमिंग्स का विरोध किया। उनको एक खास तरह का प्रभाववादी बताया। किन्तु,  शमशेर ने आदर के साथ इनकी चर्चा की है। प्रयोगशीलता के स्तर पर इनसे प्रभावित रहे हैं। एजरा पाउंड की भी चर्चा शमशेर ने की है।

डॉ. केदारनाथ सिंह

शमशेर पर पश्चिम की आधुनिकतावाद विरोधी कविता का भी प्रभाव है। उन्होंने केदारनाथ अग्रवाल के साथ नेरुदा की कविताओं अनुवाद भी किया।

इस प्रकार अनेक विलक्षण एवं एक हद तक विरोधी प्रभाव शमशेर पर काम करते हैं।उनकी काव्य यात्रा लंबे, जटिल और टेढ़े-मेढ़े रास्ते से चलती है। शमशेर का काव्य व्यक्तित्व दो भागों में विभाजित है। एक तरफ वे प्रगतिशील कवि है। मार्क्सवाद को अपने लिए ऑक्सीज़न बताते है। ‘वाम वाम वाम दिशा समय साम्यवादी’ लिखते हैं। ग्वालियर के मजदूरों से संबंधित गोली कांड को लेकर ‘ये शाम है’ जैसी कविता लिखते हैं। तो, दूसरी तरफ वे आधुनिकतावादी, प्रयोगशील और सौन्दर्य मूलक रचनाएँ करते हैं।   

मुक्तिबोध ने शमशेर एक प्रभाववादी कवि कहा है। ऐसा उनकी चित्रकला की प्रवृति के कारण कहा होगा। सौंदर्य को देखना, आत्मसात करना और मानसिक प्रभाव का चित्रण करना– ऐसा चित्रकला में होता है। किसी वस्तु का कॉन्क्रिट वर्णन या चित्रण ये कलाकार नहीं करते। वस्तु को संपूर्णता में चित्रित करने की प्रवृति प्रभाववादी कवि में नहीं होती बल्कि वह वस्तु के प्रभाव को चित्रित करता है।

शमशेर को सौंदर्यवादी कवि भी कहा गया है, क्योंकि प्रभाववादी प्रवृति सौंदर्यग्राही होती है।

इसलिए शमशेर के काव्य व्यक्तित्व में अनेक मिलावटों के बावजूद वे इन सारे प्रभावों के पूंजीभूत रूप नहीं हैं, बल्कि सबको आत्मसात करते हुए अपना एक अलग व्यक्तित्व रखते हैं। वे एक चिर युवा कवि हैं, गतिशील एवं नवीनतम फॉर्म अपनानेवाले कवि हैं। 

शमशेर मूलतः सौंदर्य के कवि हैं– मानव सौंदर्य और प्रकृति सौंदर्य के कवि। ‘उषा’ कविता का विषय भी प्राकृतिक है और वर्णन भी प्राकृतिक है।                    

[“प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे/ भोर का नभ/ राख़ से लीपा हुआ चौका/ (अभी गीला पड़ा है)/

बहुत काली सील जरा-से लाल/ केशर से/ कि धुल गयी हो/स्लेट पर या लाल खड़िया चाक/

मल दी हो किसी ने/  नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो/ और… / जादू टूटता है इस उषा का अब/ सूर्योदय हो रहा है।”] 

उषा पर बहुत कविताएं लिखी गयी हैं। यह छायावादियों का तो प्रिय विषय है। शमशेर समकालीन चेतना से युक्त कवि हैं किन्तु विषय छायावादियों जैसा चुनते हैं। देखना है कि दोनों में अंतर क्या है। छायावाद से वे अलग कहां होते हैं।

इस कविता में प्रभात काल के एक खास सौंदर्य का वर्णन है। आकाश, जिसके भीतर से लालिमा फूट रही है। इसके लिए एक उपमा सामने रखी– प्रात नभ। अर्थात प्रभात वेला का आकाश। प्रभात वेला का आकाश थोड़ा गीला होगा। अतः सामान्य आकाश से यह भिन्न होगा।

शमशेर कविता को देखते हैं और इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि वह दिखाई पड़े। एक आकार खड़ा करते हैं और ऐसा जो इंद्रिय संवेदना को प्रभावित करे।

प्रभात वेला के आकाश के लिए एक नयी उपमा– नीला शंख। पुराना कवि अपने वर्ण्य विषय को पूरा प्रस्तुत कर देता था। समकालीन कविता पाठक की कल्पना के लिए बहुत कुछ छोड़ देती है।

शंख समुद्र से उत्पन्न होता है। इसलिए ताजे शंख में एक गीलापन या ताजगी होगी। ऐसा ही ताजा है यह आकाश। (शंख नीला होता है या नहीं–यह महत्वपूर्ण नहीं है। यह कल्पना की जा सकती है कि यह आकाश नीले रंग के ताजे, भींगे शंख की तरह दिखाई देता है। कविता में बहुत कुछ अनुमान कर लेना पड़ता है।) इसमें नीले आकाश की व्यंजना है। सूर्योदय का लाल रंग आकाश के एक खंड को हल्का लाल कर रहा है। जैसे, नीले शंख में लाल-लाल धारियाँ। तो, नीला शंख, जिसमें लाल धारियाँ हैं और वह समुद्र से ताजा-ताजा निकला है, ऐसी है यह प्रभात वेला।

‘प्रात नभ’ के बाद ‘भोर का नभ’ कहने में आवृति है। अर्थात, आकाश की अपनी विशेषता पर ज़ोर दिया गया है। प्रभात वेला का आकाश उपमेय है तथा नीला शंख उपमा है।

एक वस्तु के लिए अनेक उपमाओं को लाना सौंदर्य प्रेमी कवियों में अधिक पाया जाता है। जैसे पंत में। निराला में ऐसा नहीं है। वे एक वस्तु के लिए दो से ज्यादा उपमाएं प्रायः नहीं देते। शमशेर इस मायने में पंत के निकट हैं। मानों, ऐसा लग रहा है कि एक उपमा से वस्तु का कोई पक्ष छूटा जा रहा है। मानों उनको संतोष नहीं होता। अतः अनेक उपमाएँ देते हैं, चित्रण को समेटने के लिए। शमशेर उपमा के लिए वह क्षेत्र चुनते हैं, जहां ठोस जीवन दिखाई देता है, छायावादियों की तरह नहीं। इस कविता में कवि निम्नवर्गीय जीवन से उपमान ले रहा है। ‘राख से लीपा हुआ चौका’ –इसमें शहरी व्यंजना है; क्योंकि शहरों में मिट्टी नहीं मिलती। इसलिए वहाँ चुल्हे राख़ से लिपे जाते हैं। बात यह आकाश के लिए कही जा रही है। आकाश एवं राख से लिपे चुल्हे का रंग भी समान है। दोनों में ताजगी है। चुल्हे या चौके को लिपने के बाद उसमें आग जलेगी। वैसे ही, आकाश में सूरज जलेगा। अद्भुत साम्य है- उपमा और उपमेय में। ये सारी व्यंजनाएँ इसमें भरी पड़ी हैं।

छायावादी कवि उपमा के लिए दूर जाता था। आज का कवि निकट आता है। परिचित जीवन से उपमा लेता है। यह उपमा छायावादी कवि नहीं दे सकता था।

[बहुत काली सील जरा-से लाल/ केशर से/ कि धुल गयी हो/स्लेट पर या लाल खड़िया चाक/

मल दी हो किसी ने/ नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो/ और…/ जादू टूटता है इस उषा का अब/ सूर्योदय हो रहा है।

सील पर मसाला पीसा जाता है। यह बोलचाल का शब्द है। लग रहा है कि कवि घरेलू सामान्य ज़िंदगी का यथार्थ प्रस्तुत कर  रहा है। इसलिए शब्दों में घरेलूपन है। इस उपमा के सारे उपकरण ज़िंदगी से लिए गए हैं। काले प्रस्तर खंड पर लाल केशर का पिसना। इससे काले में लाल उद्भासित हो रहा है। ऐसे ही आकाश में उषा की हल्की किरणें उद्भासित हो रही हैं। यह तीसरी उपमा है। पहला शंख, दूसरा लिपा चूल्हा, तीसरा सील और चौथा स्लेट।

स्लेट पर किसी ने मल दी हो लाल खड़िया— स्लेट और खड़िया का नाम लेते ही किसी बच्चे का स्वरूप सामने आता है। वैसे ही, उषा कहने में एक खास भोलापन है, अबोधता है, जो प्रभात के सौंदर्य को बढ़ाता है।भोलेपन में ज्यादा सौंदर्य होता है। 

[नील जल में या किसी की/ गौर झिलमिल देह/ जैसे हिल रही हो/ और…/ जादू टूटता है इस उषा का अब/ सूर्योदय हो रहा है।] 

पाँचवी उपमा– मानो कोई व्यक्ति नीले पानी में स्नान कर रहा हो और उसके खुले, सुंदर, पुष्ट शरीर से  सौंदर्य उद्भभासित होता हो।

(कुछ लोग एक बनी बनाई परिपाटी के अनुसार इन पंक्तियों में किसी सुंदर, गौर वर्ण स्त्री के स्नान करने का अर्थ लेते है। केदार जी ने किसी सुंदर शरीर वाले पुरुष के स्नान करने का अर्थ बताया था। वैसे भी इतनी भोर वेला में किसी पुरुष का ही नदी या तालाब में स्नान करना समीचीन है, न कि स्त्री का। नारी शरीर का सौंदर्य तो सभी देखते हैं किन्तु पुरुष शरीर का भी सौंदर्य होता है जिसे चित्रित करना शमशेर की विशिष्टता है। उल्लेखनीय है कि तुलसीदास ने अनेक बार राम के शारीरिक सौंदर्य का कमनीय वर्णन किया है। उदाहरण के लिए—“कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा॥ ”xxxxx“ कोटि मनोज लजावनहारे। सुमुखि कहहु को अहहिं तुम्हारे।”) 

अंतिम उपमा स्पष्ट शरीर दिखायी देने की है। अर्थात सूर्य धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा है। यह ठोस उपमा है। मूर्तता ज्यादा है। इससे सूर्य के स्पष्ट होने का भान हो रहा है।

यह कविता अंतिम पंक्तियों में आधुनिक बनती है। प्रारम्भ में प्रकृति–निरीक्षण है। अंतिम पंक्ति कविता को अचानक तोड़ती है। पूरी कविता लय में है। अंतिम पंक्ति में लय तोड़ दी गयी है। ऐसा करना अचानक नहीं है। ‘सूर्योदय हो रहा है’ –यह गद्य की पंक्ति है। तात्पर्य यह कि उषा वेला, संधि काल समाप्त हुआ। दिन का आरंभ हो रहा है। यह व्यंजना दूर तक जाती है। इसमें दिन के साथ बढ़नेवाला जीवन संघर्ष व्यंजित होता है। इसलिए कहा कि जादू टूटता है। सौंदर्य में, भोर में जो एक जादू होता है, मोह और आलसपन होता है, वह दिन में टूटता है। ‘गद्य जीवन संघर्ष की भाषा है’ –निराला। शमशेर के गद्य रखने का एक खास अभिप्राय है। यही शमशेर की विशिष्टता है। सारी कविता सौन्दर्य वर्णन में चलती है किन्तु अंत में उसे तोड़ दिया गया है। अंत में जीवन का संघर्ष है। अंतिम पंक्ति सौंदर्य को तोड़ देती है। इसमें न कोई उपमा है, न रूपक। सीधी बात कह दी गयी है।


डॉ. केदारनाथ सिंह जी का यह क्लासरूम लेक्चर सिनेपत्रकार और उदय भान दुबे जी के सहपाठी अजय ब्रह्मात्मज जी केसौजन्य के प्राप्त हुआ है शीघ्र ही हम शीर्ष स्थानीय आलोचक नामवर सिंह के क्लासरूम लेक्चर प्रकाशित करेंगे।


उदय भान दुबे : जन्म- 1958 में। जन्म स्थान : ग्राम लोहटी, जिला गोपालगंज, बिहार। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली से हिंदी में एम.ए. एवं एम.फिल.। केंद्रीय हिंदी संस्थान,  दिल्ली केंद्र से भाषा विज्ञान एवं अनुवाद में डिप्लोमा। फिलहाल युनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, प्रधान कार्यालय, कोलकाता से मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) पद से सेवानिवृत्त होने के बाद कोलकाता में निवास।प्रस्तुतकर्ता से आप इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— udaybhandubey.1958@gmail. com                


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Comments

  1. Dr Braj Mohan Singh

    आदरणीय केदारनाथ जी के कक्षा व्याख्यान की सुंदर प्रस्तुति…सहपाठी उदयभान जी को हार्दिक बधाई

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