क्या हिंदी नवजागरण स्त्री विरोधी था?

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विमल कुमार

क्या आपने 1908 में श्रीमती प्रियंबद देवी का उपन्यास ‘लक्ष्मी’ पढ़ा? शायद नही पढ़ा होगा। यह भी संभव है आपने इसका नाम भी नहीं सुना हो।

क्या आपने 1909 में श्रीमती कुंती देवी का उपन्यास ‘पार्वती’ और 1911 में श्रीमती यशोदा देवी का उपन्यास ‘सच्चा पति प्रेम’ और 1912 में श्रीमती हेमंत कुमारी चौधरी का उपन्यास ‘आदर्श माता’ और  1914 में श्रीमती ब्रह्मा कुमारी, भगवान देवी दुबे का उपन्यास ‘सुंदर कुमारी’ पढ़ा है। शायद आपने यह भी उपन्यास नहीं पढ़ा होगा और संभव है इसका भी नाम आपने नहीं सुना होगा।

जेएनयू से पढ़ी लिखी और वर्धमान विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर डॉक्टर रूपा गुप्ता की पुस्तक  ‘औपनिवेशिक शासन, 19वीं शताब्दी और स्त्री प्रश्न’ में पेज नंबर 377 पर इन उपन्यासों का जिक्र किया है। इसके साथ ही उन्होंने 1897 से 1920 के बीच प्रकाशित 135 उपन्यासों का भी जिक्र किया है जो किसी न किसी रूप से स्त्री की दुनिया से जुड़े थे। इनके लेखकों में राधाकृष्ण दास, पंडित बालकृष्ण भट्ट,  किशोरीलाल गोस्वामी, लाला श्रीनिवास दास, श्रद्धाराम फिल्लौरी, भुनेश्वर मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, मेहता लज्जाराम शर्मा, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, अमृतलाल चक्रवर्ती, जैनेंद्र किशोर, रामनरेश त्रिपाठी, नवाब राय उर्फ प्रेमचंद, श्रीधर पाठक, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, चन्द्र शेखर पाठक समेत अनेक लेखक है जिनमें कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो उनके नाम से भी आज लोग परिचित नही होंगे। उन्होंने अपनी पुस्तक में इन 135 में से करीब 70 उपन्यासों का थोड़ा-बहुत विश्लेषण भी किया है। मेरी जानकारी में यह हिंदी की पहली ऐसी पुस्तक होगी जिसमें इतनी उपन्यासों की चर्चा की गई होगी।

इन उपन्यासों का रचना काल 18 79 से लेकर 1920 तक तक का हैं। तब तक प्रेमचंद का न तो रंगभूमि और न ही शिवपूजन सहाय का देहाती दुनिया प्रकाशित हुआ था। ये दोनों उपन्यास 1925-26 में आये। रूपा गुप्ता द्वारा पेश इन उपन्यासों की सूची से जरूर लगता है कि तब साहित्य की दुनिया में स्त्री को लेखन का विषय जरूर बनाया जाता था। यह अलग बात है कि लेखकों की दृष्टि स्त्री को लेकर किसी थी। इस पर विचार करने से पहले जरा निम्नलिखित बातों पर थोड़ा गौर करना जरूरी है। हिन्दी नवजागरण को लेकर हमारे मन मे आज किस तरह के प्रश्न उठते हैं।

दुनिया का ऐसा कोई राजनीतिक या सामाजिक आंदोलन नहीं रहा जिसमें कुछ अंतर्विरोध न रहें हो या विश्व में कोई ऐसा लेखक भी संभवत नहीं रहा जिसमें कोई न कोई अंतर्विरोध न रहा हो या उसकी कोई  सीमा न रही हो लेकिन हिंदी साहित्य में अब यह प्रवृत्ति देखने को मिल रही है कि आलोचक किसी लेखक या किसी आंदोलन पर विचार करते समय वह उस युग की सीमा को नहीं देखते या उस दौर के लेखक के अंतर्विरोधों की पड़ताल न करके उसके लेखन का एक सरली करण कर देते हैं और अक्सर उससे खारिज कर देते हैं।

पिछले कुछ सालों से यह प्रवृत्ति जोर पकड़ती जा रही है और देखा जा रहा है कि आलोचक या शोधार्थी किसी एक लेखक को या तो खारिज करते हैं या उसका महिमामंडन करते हैं या एक लेखक को दूसरे लेखक के विरुद्ध खड़ा करते है। (मसलन भारतेंदु बनाम सितारे हिन्द और प्रेमचंद बनाम प्रसाद का विवाद खड़ा किया गया)। अगर वह लेखक अपनी विचारधारा का रहा हो या उसका सौंदर्य बोध आलोचक के सौंदर्य बोध से मेल खाता हो तो आलोचक उस लेखक का महिमामंडन करता है और उसके अंतर्विरोध  को नजर अंदाज करता है या फिर उन लेखकों खारिज करता चला जाता है जिससे उसकी वैचारिक सहमति नहीं है या उसका लेखन उसकी दृष्टि के अनुरूप न हो। भारतीय नवजागरण विशेषकर हिंदी नवजागरण के संदर्भ में भी यही बात दिखाई पड़ती है। प्रेमचंद और निराला को नायक बनानेवाले लोगों ने उनके अंतर्विरोधों पर गौर नही किया और प्रसाद पंत को खारिज किया। आलोचकों और इतिहासकारों का एक समूह अब हिंदी नवजागरण को हिंदू नवजागरण के रूप में देखता है और कहता है वह युग स्त्रियों और दलितों का विरोधी रहा और वह युग पूरी तरह समावेशी नही था। इस तरह यह हिंदी नवजागरण वास्तव में हिंदू नवजागरण है क्योंकि उसमें सांप्रदायिकता की गंध काफी है और वह अपने स्वरूप में मूलतः ब्राह्मणवादी है लेकिन एक तरफ डॉ रामविलास शर्मा जैसे लोग रहे जो हिंदी नवजागरण के प्रगतिशील और सकारात्मक पक्ष को सामने लाते है और हमारी प्राचीन प्रगतिशील मनीषा से उसे जोड़ते है।

वे भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद को अपना नायक बनाते हैं लेकिन दोनों पक्ष हिंदी नवजागरण का संतुलित मूल्यांकन या उसकी समग्र व्याख्या नहीं करते हैं।

हाल के वर्षों में हिंदी मेंअध्येताओं और शोधार्थियों ने अपने शोध कार्यों से ऐसे साहित्यिक तथ्य पेश किए हैं जिनसे हिंदी नवजागरण पर काफी नई रोशनी पड़ती है विशेषकर उस दौर के स्त्री विमर्श पर। डॉ. रामविलास शर्मा की किताब हिंदी में पहली आधारभूत किताब मानी जाती रही है लेकिन हिंदी नवजागरण के बारे में काफी अब काफी नयी सामग्री उपलब्ध हो गई है जिससे हिंदी नवजागरण के बारे में अब एक संतुलित राय बनाई जा सकती है। रामनिरंजन परिमलेंदु, मैनेजर पाण्डेय, वीर भारत तलवार और कर्मेंदु शिशिर ने इस क्षेत्र में काफी काम कर नयी सामग्री पेश की और नई व्याख्या भी की। लेकिन सुधा सिंह, गरिमा श्रीवास्तव, प्रज्ञा पाठक और रूपा गुप्ता जैसी अध्येताओं ने हिंदी नवजागरण का स्त्रीवादी पाठ किया जो पहले नही किया गया और नवजागरण की बहस को नयी दिशा दी, आगे बढ़ाया।

अब तक हिंदी नवजागरण में जो बहस चलती रही थी उसमें राष्ट्रवाद,  भाषायी प्रश्न साम्प्रदायिकता,  हिंदी उर्दू लिपि विवाद मुद्दे पर अधिक चर्चा होती रही लेकिन स्त्री और जाति के सवाल पर बहुत अधिक न तो अध्ययन हुआ पाया और न हीं वह बहस के केंद्र में रहा। लेकिन अब नवजागरण के बहस में स्त्री केंद्र में आई है। वर्धमान विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत रूपा गुप्ता ने चुपचाप रह कर हिंदी साहित्य की बड़ी सेवा की है और उन्होंने मौन रहकर अपने परिश्रम से कई महत्वपूर्ण काम किए हैं। इनमें  सुभद्राकुमारी चौहान की रचनावली का सम्पादक कार्य हो या फिर नजीर अकबराबादी रचनावली का  संपादन या राधामोहन गोकुल की अप्राप्य रचनाओं का संपादन या भारतेंदु: हिंदी तथा बांग्ला नवजागरण पर कार्य हो। इस बार रूपा गुप्ता एक बहुत ही महत्वपूर्ण पुस्तक ‘औपनिवेशिक शासन: 19वीं शताब्दी और स्त्री प्रश्न’ लेकर साहित्य की दुनिया में पेश हुई है। 400 पेज की यह किताब दरअसल उनके डी.लिट. कार्य का ही विस्तारित परिवर्धित रूप है। उन्होंने इस बात को भूमिका में स्वीकार किया है। इसलिए यह कोई नयी पुस्तक नही है। पर अपनी किताब के अंत में उन्होंने जो संदर्भ ग्रंथ सूची पेश की है उससे पता चलता है कि उन्होंने इस किताब को लिखते हुए व्यापक अध्ययन किया है और उनमें से अधिक प्राथमिक स्रोत को देखा है और करीब 16 दुर्लभ पत्र पत्रिकाओं की फाइलें भी उन्होंने देखी है। इसके अतिरिक्त अंग्रेजी में भी लिखी गई अनेक किताबें उन्होंने उधृत की हैं लेकिन उनके लेखन का अधिकांश स्रोत हिंदी में लिखी गई दुर्लभ किताब ही है। सबसे अधिक उद्धरण रामविलास जी की किताबों से है। दरअसल में भारतीय नवजागरण के बारे में अंग्रेजी के जिन इतिहासकारों ने नवजागरण पर जो पुस्तके लिखी है उनका आधारभूत स्रोत हिंदी की दुर्लभ किताबें और पत्रिकाएं नहीं रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने हिंदी की इन दुर्लभ ग्रंथों को ठीक से परायण नहीं किया है या उसका अध्ययन नहीं किया है और उन्होंने जो राय बनाई है, वह मुख्यता अंग्रेजी में प्रकाशित पुस्तकों और पत्रिकाओं के आधार पर बनाई है।

शायद कारण रहा है कि हिंदी नवजागरण के बारे में अंग्रेजी के अध्यापकों ने या उनको फॉलो करने वाले हिंदी के शोधार्थियों की वह राय नही और उन लेखकों की राय से अलग है जिन्होंने मूल दुर्लभ हिंदी ग्रंथों को देखा मनन किया और उसका विश्लेषण किया। नवजागरण के बारे में एक समग्र और संतुलित राय बनाने की जगह एक अतिशयोक्तिपूर्ण अतिरंजित या पूर्वाग्रह से ग्रस्त राय और दृष्टि बनी है जिससे हिंदी नवजागरण की सही तस्वीर अब तक पेश नहीं हो पाई है लेकिन रूपा गुप्ता ने हिंदी नवजागरण के बारे में खासकर उस दौर की स्त्री पर एक संतुलित और समग्र राय विकसित की है और उन्होंने अपने सारे तर्कों को तथ्यों के आधार पर पेश किया है। 

पुस्तक की भूमिका में रूपा ने लिखा है- “उन्नीसवीं सदी के सहित्यय का पुनर्पाठ आवश्यक है। हमने इस कॉल के देश हितैषियों द्वारा अतीत के महिमामंडन की भूलों पर अनेक प्रश्न उठाए हैं किंतु स्वयं वर्तमान के दृष्टिकोण से अतीत के मूल्यांकन की भूल कर रहे हैं। यह गलती तब और बड़ी हो जाती है जब हम इन साहित्यकारों का सम्यक अध्ययन और विश्लेषण किए बिना ही इन्हें निम्न श्रेणी का रचनाकार विचारक और इतिहासकार मान बैठते हैं।”

उन्होंने आगे लिखा— “द्विवेदी युग, छायावाद युग एवं छायावादोत्तर अन्य युगों के साहित्य और पत्रकारिता के संदर्भ में सामाजिक उन्नति और राष्ट्रवाद के विकास के साथी स्त्री संबंधी विषयों पर साहित्यकारों के बीच हुई व्यापक चर्चा के पर्याप्त सूत्र और आधार भारतेंदु युग में मिलते हैं। 19वीं सदी में अनमेल विवाह वर्णन या विक्रय स्त्री दासता, स्त्री शिक्षा, गृह कलह, स्त्री परित्याग, स्त्री की असहायता,  पुरुष अनाचार और सामंती व्यवस्था में छुआछूत से भरी सामाजिक व्यवस्था पर कुठाराघात करना अमूल्य साहित्य रचा गया है। यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि प्रेमचंद के साहित्य में इन्हीं प्रवृत्तियों के विरोध की प्रौढ़ता  लक्षित होती है। इस परिप्रेक्ष्य में भारतेंदु युगीन विचारधारा में स्त्री के प्रश्नों के महत्वपूर्ण बिंदुओं पर या कहा जाना आवश्यक है कि सामान्यत: भारतीय नवजागरण और विशेष हिंदी नवजागरण उतना प्रतिक्रियावादी नहीं है जितना की प्रमाणित किया जाता रहा है।”

उन्होंने यह भी लिखा है, ” डॉ रामविलास शर्मा जैसे अप्रतिम विद्वान ने जितनी सामग्री में हिंदी नवजागरण का तटस्थ मूल्यांकन करने का प्रयास किया उसकी तुलना में अधिक सामग्री उपलब्ध है  भारतेंदु युगीन साहित्य से सावधानी से हटाए गए कुछ उदाहरण के आधार पर इस काल के साहित्यकारों को स्त्री विरोधी और हिंदूवादी प्रमाणित किया जाता रहा है, उसकी एक पड़ताल आवश्यक है। यह देखा जाना आवश्यक है कि अगली शताब्दी के आलोचक उनका मनमाना मूल्यांकन तो नहीं कर रहे हैं।” 

रूपा ने यह भी लिखा है— 19वीं सदी के हिंदी साहित्यकारों को आज बहुत तेरे ज्ञाना अभिमानी विद्वान प्रतिक्रियावादी कह रहे हैं किंतु यह विद्वान यह नहीं देख पाते हैं इन्हीं मनुष्यों ने हिंदी समाज के शिक्षित वर्ग में धर्म के स्थान पर साहित्य को प्रतिष्ठित किया। अपना और समाज का मुख्य विमर्श धर्म में नहीं सहित्य की परिधि में खोजा। सहित्य को दरबार से निकालकर जन आंगन में ला खड़ा करने का दुष्कर कार्य इन्होंने ही न साधा था। सहित्य की जिस प्रगतिकामी भूमिका पर आज हम मुग्ध हैं वह या इन्हीं की देन है। स्वयं सामंती वर्ग के होते हुए भी अनेक विचारों ने उनके अपने वर्ग से आगे बढ़कर सोचा। उनका सहित्य उनके विचारों में हो रहे इस क्रांतिकारी परिवर्तन का साक्षी है।”

पुस्तक में रूपा गुप्ता ने 19वीं सदीके उत्तरार्ध में प्रकाशित तमाम उपन्यासों की सूची दी है जिससे पता चलता है कि उस दौर में कितनी लेखिकाएं थी जिन्होंने कई उपन्यास लिखें और उसमें उन्होंने स्त्री को लेकर कई सवाल उठाए। इसके समानांतर पुरुषों ने भी स्त्री को नायक बनाकर ऐतिहासिक पात्रों को नायक बनाकर कई उपन्यास लिखें लेकिन पुरुषों द्वारा लिखे गए उपन्यासों को देखा जाएतो उसमें एक खास तरह की पितृसत्तात्मक दृष्टि दिखाई देती है।

रूपा गुप्ता ने इस पुस्तक में अपनी परंपरा चाहे वह हिंदी साहित्य की परंपरा हो यह बंगला साहित्य की परंपरा हो दोनों परंपराओं में निहित अंतर्विरोध को भी उजागर किया है। उन्होंने इस संदर्भ में बंकिमचंद्र को भी नहीं छोड़ा है और यहां तक की तुलसी और कबीर में निहित स्त्री विरोधी मानसिकता को भी रेखंकित किया है। लेकिन उनकी किताब मुख्यतः भारतेंदु काल मे लिखी गयी रचनाओं के आधार पर स्त्री प्रश्नों की व्यख्याया पर आधारित है।

उन्होंने पुस्तक में 5 अध्याय विभक्त किए हैं जिनमें पहला अध्याय भारतेंदु युग 19वीं शताब्दी और औपनिवेशिक परिस्थितियां हैं तो दूसरे अध्याय में औपनिवेशिक आर्थिक शोषण हिंदी नवजागरण और भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं तीसरे अध्याय में धर्म खंडित आधुनिकता और स्त्री की चर्चा है तो चौथे अध्याय में स्त्री और 19वीं सदी के उत्तरार्ध का हिंदी साहित्य है पांचवा अध्याय में 19वीं सदी के अंतिम डेढ़ दशक और स्त्री प्रश्न पर चर्चा है। चूंकि यह किताब डी.लिट. की थीसिस है,  इसीलिए इस किताब का ढांचा शोध का ढांचा है। यह उस तरह से आलोचना की किताब नहीं है फिर भी उन्होंने आलोचना के कई सूत्र इस किताब में दिए हैं। भारतेंदु से लेकर राधाचरण गोस्वामी, गोपाल राम गहमरी किशोरी लाल गोस्वामी, देवकीनंदन खत्री, लज्जाराम मेहता, बालकृष्ण भट्ट,  श्रद्धाराम फिल्लौरी, श्रीधर पाठक, राधामोहन गोकुल, भुवनेश्वर मिश्र, अमृतलाल चक्रवर्ती,  रामनरेश त्रिपाठी, ईश्वरीप्रसाद शर्मा,  ब्रजनंदन सहाय के उपन्यासों का जिक्र किया है तो तो दूसरी तरफ कई महिला उपन्यासकारों की भी चर्चा है जिसमें श्रीमती यशोदा देवी, हेमंत कुमार चौधरी, ब्रह्मकुमारी भगवान, देवी कुंती देवी, प्रियम्वदा देवी भी शामिल हैं। इन महिला उपन्यास कारों का जिक्र इतिहास की किताबों में नही मिलता था या उनपर चर्चा नही होती रही है।

रूपा गुप्ता ने अपनी इस किताब में वैदिक भारत से लेकर भक्ति काल में स्त्रियों की दशा और उसके बाद अंग्रेजों के काल में स्त्रियों की स्थिति को चित्रित किया है और बीसवीं सदी के आरंभ में स्त्रियों को लेकर उठाए गए प्रश्नों को भी रखा है। लेकिन उन्होंने शुरू में ही स्प्ष्ट कर दिया है कि सभ्यता के निर्माण काल से ही स्त्री के साथ भेदभाव पितृसत्तात्मक समाज ने किया। यूनानी विचारक भी स्त्री विरोधी रहे। तेरहवीं सदी की एक फ्रांसीसी महिला क्रिस्टीन (1364-1430) से लेकर मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट (1759–1837) तक स्त्रियाँ अपनी किताबों में अपनी आवाज़ उठाने लगी। 18वीं सदी में जॉन स्टूअर्टमिल पहले विचारक रहे जिन्होंने स्त्री समानता की बात की अन्यथा रूसो भी स्त्री विरोधी थे।

पुस्तक में मोटे तौर पर भारतेंदु, सितारे हिंद, राधामोहन गोकुल, बंकिम, कबीर, तुलसी के अलावा रमाबाई और रखमाबाई के स्त्री संबंधी विचारों और दृष्टिकोण को ही अपना आधार बनाया गया है लेकिन उसके साथ ही उन्होंने अन्य लेखकों और उपन्यासकारों की साहित्यिक कृतियों को भी अपने विश्लेषण का आधार बनाया है। रूपा गुप्ता ने नवजागरण पर अपनी जो राय पेश की है उसके साहित्यिक साक्ष्य भी उन्होंने रखे हैं इसलिए उनके मूल्यांकन में एक तरह की वस्तुपरकता और निष्पक्षता भी है जबकि नवजागरण के अधिकतर अध्येता साहित्यिक कृतियों का मूल्यांकन को आधार बनाकर अपनी बात कम कहते हैं बल्कि उस दौर में प्रकाशित लेखों के आधार पर ही अपनी राय बनाते हैं मसलन अगर प्रेमचंद के लेखों और कहानियों को आधार बनाया जाए तो संभव है उनमें दो तरह की बातें दिखाई पड़े यही नहीं प्रेमचंद की कई कहानियों में स्त्री का स्वरूप भी अलग है।गोदान की धनिया और बड़े घर की बेटी की नायिका के तेवर बिल्कुल अलग है। उसने कहा था कहानी का प्लाट तक आते-आते उन्नीसवी सदी की स्त्रियां बदल गयी थी और जैनेंद्र यशपाल और भगवती बाबू की स्त्रियां वह नही रही जो प्रेमचंद काल की थी।

नवजागरण के चार चरण रामविलास जी ने बताए हैं और इन चार चरणों में स्त्री के रूप का क्रमिक विकास साहित्यिक रचनाओं में दिखाई देता है लेकिन अगर आज हम उनकी तुलना वर्तमान स्त्रियों से करें तो संभव है कि वह थोड़ी कम सचेत और जागरूक दिखाई दे लेकिन इस आधार पर हम उनकी आलोचना नहीं कर सकते बल्कि हमें यह देखना चाहिए इतिहास के विकास के साथ-साथ साहित्यिक कृतियों के पात्रों का भी किस रूप में विकास हुआ है और वह पात्र अपने समय यथार्थ को किस रूप में व्यक्त करते हैं इसलिए नवजागरण के पूरे काल को केवल एक ही दृष्टि से देखा नहीं जा सकता है।

रूपा गुप्ता ने जिन उपन्यासों का जिक्र किया है अगर आज वे सहज रूप से उपलब्ध हैं और उन सभी उपन्यासों का अध्ययन कर नवजागरण काल में स्त्री प्रश्न को को रेखांकित किया जाए तो शायद नवजागरण की एक सही तस्वीर दिखाई पढ़ सकती है लेकिन हम मोटे तौर पर नवजागरण की प्रवृतियां को रेखांकित कर सकते हैं लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उस युग में स्त्रियों को लेकर पूरे समाज में कैसी मानसिकता काम कर रही थी रूपा ने पहले ही इस बात का जिक्र कर दिया है कि तुलसी कबीर और बंकिम भी स्त्री को लेकर कोई बहुत अच्छी राय नहीं रखते थे शायद इसका एक कारण यह रहा हो कि भारतीय संस्कृति में संस्कृत सहित्य से लेकर भक्तिकाल तक स्त्रियों को सही परिप्रेक्ष्य में रखा नहीं गया। असल मे हिंदी नवजागरण को एक सतत विकास मान वैचारिक उपक्रम के रूप में देखना चाहिए। शायद इस से हम नवजागरण को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकते हैं।


औपनिवेशिक शासन, 19वीं शताब्दी और स्त्री प्रश्न : रूपा गुप्ता [आलोचना], मू. 895 रुपये मात्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली। इस पुस्तक को आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर के मँगवा सकते हैं।


विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com


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