ओम निश्चल
जैसे जैसे कविता कला व संगीत में लोकतांत्रिकता का प्रसार हुआ है, स्त्री की महत्ता को संज्ञान में लिया गया है, वह सार्वजनिक क्षेत्र में अपने सामर्थ्य के ज्ञापन के साथ सामने आई है। वह अन्य सार्वजनिक सेवाओं की तरह ही कविता कला की दुनिया में भी हस्तक्षेप के साथ दर्ज हो रही है तथा आज सोशल मीडिया के जरिए उसके गुणसूत्र किसी से छिपे नहीं रहे। पुरुष कवियों की ही तरह आज स्त्री कवियों की खासा संख्या है तथा उनके बौद्धिक तंत्र का लोहा स्वीकार किया जा रहा है। जब से सामाजिक विमर्शों का बोलबाला बढ़ा है, स्त्री मामलों को सामाजिक विमर्श के केंद्र में जगह मिली है। जैसे समाज में सामाजिक राजनीतिक विमर्शों में, कविता में भी स्त्री विमर्श दलित विमर्श किन्नर विमर्श को खासा स्पेस मिला है तथा आज ये आवाजें हाशिए में नहीं रहीं, ये मिल कर अपनी केंद्रीयता निर्मित कर रही हैं। कवयित्रियों ने हाल के दशकों मे अपने लिए महत्वकारी जगह बनाई है तथा पुरुषवर्चस्व के अहाते से बाहर आकर अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़ रही हैं।
यों तो पिछले दो दशक कवयित्रियों के लिए खासा महत्व के हैं पर पिछले एक दशक में उनकी केंद्रीयता को सहजता से स्वीकार किया गया है। वे केवल स्त्री के सुखदुख की अनुगायक नहीं रहीं बल्कि कविता की व्यापक चिंता के विषय उनकी कविताओं में आ रहे हैं। पहले उन्हें रच कर पुरुषों से एक समव्यथी संवेदना की अपेक्षा रहती थी आज वे पुरुषों के मंतव्य या निश्यायक सम्मतियों का मोहताज नहीं रहीं। वे प्रगतिशीलता के मोर्चे पर डटी हैं, वे एनजीओ से जुड़ कर नागरिक के तौर पर अपने कार्यभार सँभाल रही हैं, वे शुद्ध कविता में सर्वथा नए की आविष्कार के रूप में सम्मुख आ रही हैं तथा जीवन जगत के सभी प्रासंगिक सवालों के सम्मुख उनकी कविताओं का दायरा उत्तरोत्तर विस्तृत हो रहा है। वे केवल स्त्री जाति की संवेदना की वाहिका नहीं वरन् पूरी मनुष्य जाति की संवेदना का वहन कर रही हैं।
एक दौर था हमारे समाज में कवयित्रियों का अभाव था। वे पर्दे के पीछे थीं। ‘ तुम हो यह पर्दा हिला कर बता दो’ –देवीप्रसाद मिश्र के इस वाक्य की तरह वे पहचान के अभाव में नेपथ्य में सिर धुनती रहती थीं। पर जब से समाज कुछ लोकतांत्रिक हो चला; खास कर स्त्रियों के मामले में –वे अनेक माध्यमों से अपनी अभिव्यक्ति के खतरे से खेलने लगीं। अभिव्यक्ति के खतरे अब उठाने ही होंगे तोडने होंगे गढ़ और मठ सब– वे महादेवी वर्मा के रूप में श्रृंखला की कड़ियाँ तोड़ रहीं थीं, वे सुभद्रा कुमारी चौहान के रूप में झॉंसी की रानी की वीरगाथा लिख कर युद्ध में एक वीरांगना का स्वाभिमान चित्रित कर रही थीं तथा मीराबाई बन कर राज परिवार के बंधन से मुक्त होकर विद्रोहिणी नारी का प्रतिबिम्ब रच रही थीं। कौन जानता था, कभी ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ लिख कर स्त्री के सतत दुखवाद की शरण में जाने वाली स्त्रियों में आज सवाल पूछने की हिम्मत आ जाएगी और वे याज्ञवल्क्य से बहस की उस पुरानी परंपरा का आवाहन करते हुए समाज और पुरुष वर्चस्व को कटघरे में खड़ा कर देंगी। हालांकि इस नव चेतना के उभार के पीछे स्त्री आंदोलनों का भी अपना इतिहास रहा है तथा स्त्री नवजागरण की दिशा में कार्य करनेवाली स्त्रियों का भी। दलित स्त्रियों के वर्ग से आगे आई स्त्रियों के कारण भी आज की स्त्री में जागरूकता आई है और वे समाज की नियामक शक्ति बन कर उभर रही हैं। यही नहीं, वे कविता में नए विषयों और अर्थ का उन्मेष कर रही हैं।
मेरा दुख बेडौल गठरी का दुख है
(कविता का नवां एवं दसवां दशक)
नवें दशक की कवयित्री के रूप में अनामिका, निर्मला गर्ग, कात्यायनी, गगन गिल और अजंता देव लगभग साथ साथ आईं। इसके बाद इस समवाय में कुछ देर से सविता सिंह भी शामिल हुईं। ये सभी कवयित्रियॉं अपने कवि मिजाज़ में अलग अलग थीं। अनामिका की कविताओं में एक कस्बाई कलरव गूँजता था–बतकहियों का एक अनवरत संसार और स्त्री के अभावों व पुरुष वर्चस्व के बीच रहती हुई स्त्री कैसे अपने अंत:संसार की बंदिशों से धीरे धीरे बाहर आती है, उनकी कविताएं इसका उदाहरण हैं। ‘बीजाक्षर’ और ‘अनुष्टुप’ उनके शुरुआती संग्रह हैं किन्तु कविता में उनकी पैठ ‘खुरदुरी हथेलियां’ से और दूब धान से बनती है। हाल में आए संग्रह पानी को सब याद था तक उन्होंने कविता में अपनी एक पैठ अपनी एक छवि निर्मित कर ली है। अपनी कविताओं के जरिए समाज के मनोविज्ञान को पढऩे का यत्न करती अनामिका की कविताएं न एकरसता की मारी हैं न ऊबाऊ नैरेटिव की। एक ‘कान्तासम्मित बोध’ उनकी कविताओं में लक्षित होता है। गांव मुहल्ला देस परदेस प्रेमी प्रेमिका बात बात पर धमक उठती बातचीत की लय सब कुछ ‘चटख विलसित’ भाव से हमारे चित्त पर गहरा असर डालती है। यह स्त्री न तो स्त्री विमर्श की लय में लय मिलाती है न पुरुष को परुष मान कर कविताओं में उसका विलोम चरित्र गूँथती है। एक गांधी उसके भीतर हँसता खिलखखिलाता नजर आता— पृथ्वी की असंगतियों के धागे सुलझाता। गगन गिल की नवें दशक में आई काव्यकृति ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ स्त्री प्रजाति की उदासियों का एक संसार उद्घाटित करने के कारण एक महत्वपूर्ण कृति मानी गयी थी। उसके बाद उनके कई संग्रह आए। अँधेरे में बुद्ध, यह आकांक्षा समय नहीं; पर कुल मिला कर उनकी कविताओं में एक अव्यक्त किस्म की उदासी दिखती रही जो अभी तक उनके विन्यास में कायम है। महानगरीय चाकचिक्य में रहने वाली स्त्रियों के बीच ये कविताएं सराही भी गयीं किन्तु ये कविताएं कस्बाई व गँवई स्त्रियों के संसार को ठीक तरीके से उद्घाटित करने वाली न थीं। उन में कुछ बुद्ध कुछ जे कृष्णमूर्ति कुछ ओशो और कुछ कुछ अस्तित्ववादी प्रवृत्तियां दीख पड़ती थीं। ये गांव-कस्बे की सताई हुई स्त्रियों की कविताएं न थीं। उनके नवीनतम संग्रह का मिजाज भी बहुत बदला नहीं है–उदासियों के एक कल्पित कवच के भीतर जैसे कोई अपने ही भीतर के अंधेरों को रोशन करता हो। उदासी इस कदर स्त्री कवियों में दिखता है जैसे यह कोई स्थायी काव्यमूल्य हो। इसे पढ़ते हुए शिरीष ढोबले का संग्रह ‘यह जो विरह’ याद हो आता है–इस विरह का रंग उजला है–जैसे एक प्रमेय हो जिसे सिद्ध करना हो। किन्तु कविता को आंदोलन के अचूक टूल्स के रूप में अपनाने वाली कात्यायनी जैसी कवयित्री के यहां अपने समय के राजनीतिक यथार्थ के सापेक्ष स्त्री संसार को समझने की कोशिश दिखती है। हमारे समय के राजनीतिक यथार्थ की काव्यात्मक परिणति सर्वाधिक कात्यायनी में मिलती है। वे राजनीतिक तौर पर जरा लाउड अवश्य दिखती हैं पर स्त्री के स्वाभिमान को कहीं आहत नहीं होने देतीं। वे कविता में वाम चेतना को केंद्र में रखतीं हैं तथा कविता को सामाजिक परिवर्तन का एक हथियार भी मानती आई हैं। 1992 में आए यह हरा गलीचा और इस सदी के दो दशकों में आए संग्रहों कबाड़ी का तराजू व सफर के लिए रसद के साथ कवयित्री निर्मला गर्ग में कविता के प्रति एक्टीविज़्म तो है बेशक वह कात्यायनी जैसा न हो। वे जीवन मूल्यों से कतरा कर निकल नहीं जातीं बल्कि उनमें कमजोर तबके के पक्ष में उन तत्वों की तलाश करती हैं जिनसे उनका जीवन बाधित होता है। उनके बोलों में उनकी कविता की तेजस्विता देखी जा सकती है–
मुझमें हवाएं आसमान और सौरमंडल हैं
इस धरती पर जो कुछ है वह सब है
खाली है अभी बहुत सी जगह मुझमें। (कबाड़ी का तराजू)
राख का किला के साथ पहचान में आई कवयित्री अजंता देव की कविताएं अपने समकालीनों से अलग हैं। वे भूमंडलीकरण से मर्माहत दिखती हैं जिसकी बानगी उनके दूसरे संग्रह घोडे की आंखों में आंसू में दिखती है। उनकी कविता पिछली फसलों का नमूना पढ़ कर ज्ञानेंद्रपति की कविता बीज व्यथा जैसी कविता ध्यान में आ जाती है। यह नई जैव इंजीनियरिंग से उगाई जाने वाली फसलोंकी व्यथा का इजहार है। अपना ही बीज न बो सकने की पीड़ा का बोध अजंता समझती हैं। युद्धबंदी जैसी कविता में युद्ध के दौरान घोड़े की आंखों में बची रह गयी नमी को जिस तरह वे लोकेट करती हैं वह उनके कवि सामर्थ्य का परिचायक है।
दसवें दशक की दो महत्वपूर्ण कवयित्रियों में नीलेश रघुवंशी ने घर निकासी से कविता परिदृश्य में हस्तक्षेप किया। हंडा जैसी कविता लिख कर उन्होंने कविता में अपनी एक अलग छवि निर्मित की। उसके बाद के उनके संग्रह पानी का स्वाद, अंतिम पंक्ति में व खिड़की खुलने के बाद गए दो दशकों की उपलब्धियां हैं। एक स्त्री संसार उनके यहां जिस तरोताज़ा रूप में आया था, फिर हलफ उठा कर स्त्रीपर लिखने की होड़ ने इस विषय को जैसे बाज़ार में उतार दिया। हर दूसरा व्यक्ति स्त्री विमर्श पर जोर आजमाने लगा। पौरुषेय शक्तियां यथार्थ में स्त्री को शोभाधायक बनाने में मशगूल रहीं वहीं उसकी दशा दिशा पर कातर कविताओं की भीड़ लगती गयी। नकली प्रेम कविताओं का पुरुष प्रदत्त संसार नकली-सा लगने लगा। नीलेश रघुवंशी, सविता सिंह, अनामिका, गगन गिल ने इस रूढ़ि को तोड़ा। नीलेश रघुवंशी के संग्रह घर निकासी में जो ताजगी थी वह पानी का स्वाद तक बरकरार रही। अंतिम संग्रह में नीलेश का यह स्वीकार कि हमारे समय में कविता जनरल बोगी में यात्रा कर रहे यात्री की तरह है, कविता को आम आदमी के सरोकारों से जोड़ना है। भाषा के स्तर पर भले ही नीलेश में सादगी नजर आती हो पर इस सादगी के बावजूद वे अब तक अपना स्थान बनाए हुए हैं।
इसी दौर की एक महत्वपूर्ण कवयित्री के रूप में सविता सिंह का आगमन कविता परिदृश्य में हुआ। सविता सिंह की कविताएं कुछ बाद में यानी दशवें दशक के उत्तरार्ध में आनी शुरु हुईं तथा पहला संग्र्रह ‘अपने जैसा जीवन’ इस दशक के शुरुआत में यानी 2001 में आया। वे कविता में मुखरता का काम नहीं लेतीं। अपने अहसास को महीन से महीन कथ्य में पिरोती हुई वे स्त्री की त्रासद पटकथा लिखती हैं। उनके यहां नीले रंग की प्रमुखता है तो स्वप्न जैसे शब्द की बारंबारता भी जिसकी रंगत अनेक रूपों, आशयों, प्रतीतियों में डिकोड की जा सकती है। नीला रंग दर्द का रंग है तो स्वप्न स्त्री-आकांक्षा के सपनों का प्रतीक। वे गांव व महानगरीय प्रभामंडल में स्त्रियों के हालात से वाकिफ़ हैं तथा उनकी कविताओं में बौद्धिक चेतना से लैस स्त्री की आभा भी दिखती है जो चिंतन के धरातल पर सजग नजऱ आती है। उनकी कविताओं को पढना आधुनिक मध्यवर्ग की स्त्रियों के अलक्षित अंत:संसार और वैश्विक फलक पर स्त्री-हालातों से होकर गुजऱना है। उनकी कविता अनुगूंजों की कविता है, अहसासों और निश्शब्दताओं में परिणत होती कविता है। कविताओं में उनकी हल्की-हल्की थाप गूंजती है मार्मिकता को अपने अर्थ की कोशिकाओं में भरता हुआ। हालांकि कभी कभी लगता है सविता सिंह को इस ठहर-से गए संसार और अनुभव के अंत:पुर से बाहर निकलना चाहिए कि उनकी कविताओं की फिजॉं कुछ बदले।
सदी के दो दशक
इस दशक की शुरुआत में ही अनीता वर्मा की कविताओं ने पहचान बनानी शुरु की । उनके दोनों संग्रह एक जन्म में सब (2003) व रोशनी के रास्ते पर(2008) 2000 के पहले दशक में आए किन्तु न तो वे स्त्रीवाद के चौखटे में फिट होने वाली हैं न स्त्री सरोकारों से पल्ला झाड़ कर तटस्थ रहनेवाली। उनके यहांस्त्री जैसे एक असाध्य वीणा सी नजर आती है। एक खास तरह का मौन व दुख की हिलकोर उनकी काव्य पंक्तियों में सांस लेती है। प्रेम में विफल होती स्त्री की पीड़ा भी उनके यहां झॉंकती है तथापि उन्हें पढ़ते हुए लगता है हम महादेवी वर्मा की अग्रगण्य पीढ़ी की आवाज सुन रहे हैं जिसका स्थापत्य भले बदला है, उसकी पीड़ा व व्यर्थ होते जीवन की नियति नहीं। दुख व हताशा का ऐसा विन्यास पुरुष कवियों में मंगलेश डबराल के यहां ही दिखता है। यह अवश्य है कि यहां व्यर्थ का स्त्री विमर्श नहीं है, तथा ये स्त्री विमर्श के कोलाहल में अपना स्वर समाहित कर देने की किसी होड़ में शामिल नहीं हैं, बल्कि ये एकांत और अकेलेपन की उपज लगती हैं। पर अपने समय, पारिस्थितिकी, मानवीय नियति, स्त्रीपथ के अवरोधकों पर कारुणिकता से अपनी बात रखती हैं। बारीक से बारीक हृदयसंवेद्य तंतुओं को जैसे करघे पर रेशे रेशे बुनती हैं और भूल नहीं जातीं कि यह कविता भी जैसे मानवीय त्रासदियों का श्वेतपत्र है। स्त्री पर सोचते हुए उन्हें उसकी पछतावेभरी हँसी और मायूसीभरी उम्मीद दिखती है और सहसा झुक जाने वाली सरलता नजर आती है तो बेजुबान पेड़ों में जैसे मनुष्य की लाचारी को वे पढ़ती हैं:
कठिन है पेड़ को पेड़ की तरह जानना
अब उसकी एक जाति है और एक नाम
और लकड़ियाँ की है खास कीमत
वे कितनी भी पुरानी मजबूत और जीवित हों
काट दी जा सकती हैं किसी भी समय (रोशनी के रास्ते पर, पृष्ठ 55)
इस कविता से उनकी कविता के भीतर व्याप्त हताशा को मानवीय हताशा में डिकोड किया जा सकता है। अनीता वर्मा के बहुत पहले से कविता में एक स्वर और अपनी धीमी पदचाप के साथ सुना जाने लगा वह था निर्मला गर्ग का। कबाड़ी का तराजू में उनका कवित्व प्रगतिशीलता की आंच में मंद मंद पक कर तैयार हुआ लगता है। यद्यपि कविता की महीन बुनावट की दृष्टि से उनमें सविता सिंह जैसा स्थापत्य व अनीता वर्मा जैसी सांद्रता न थी पर उनमें सांसारिक बंदिशों को विदा कहती एक स्त्री का क्रिटीव अवश्य मिलता है। एक ऐसा ही स्वर दिवंगत मधु शर्मा की कविताओं में दीख पड़ता है। शमशेर की अध्येता मधु शर्मा की कविताओं का क्राफ्ट सुथरा रहा है तथा अपने कथ्य में वैसा ही नुकीलापन दिखाने की त्वरा उनमें नजर आती थी हालांकि अपने को सिद्ध करने का समय उन्हें नियति ने नहीं दिया। जहां रात गिरती है की उनकी कविताएं ध्यातव्य हैं।
इस सदी के दो दशक स्त्री कविता के लिए महत्वपूर्ण हैं। इन दो दशकों में पहले से ही प्रतिष्ठित अनामिका, सविता सिंह, गगन गिल, कात्यायनी, सुमन केशरी, अनीता वर्मा व तेजी ग्रोवर के कई संग्रह आए। इससे स्त्री कविता संसार के कथ्य, शिल्प व संवेदना की परिधि विस्तृत हुई। गए दो दशकों में तमाम कवयित्रियों का समवाय सामने आया है। सदी के पहले दशक में ज्योति चावला ,प्रज्ञा रावत, विपिन चौधरी, लीना मल्होत्रा राव, जया जादवानी की कविताएं पहचानी गयीं तो सदी के दूसरे दशक में कवयित्रियों की संख्या में तेजी से बृद्धि हुई। सोशल मीडिया के उभार के साथ ही स्त्रियों का अभिव्यक्ति की मुखरता के मामले में संकोच टूटा कि लोग क्या कहेंगे। वे अपने प्रेम, विफलताओं, जीवन की दुश्वारियों, पुरुष वर्चस्व व अन्य सांसारिक समस्याओं पर टो टूक होकर अपनी कविताओं के साथ सामने आईं। पहले जहां कविता के क्राफ्ट पर कुछ कम ध्यान दिया जाता था, इधर कवयित्रियां अपनी अभिव्यक्ति को लेकर कांशस हुई हैं। वे देश विदेश के कविता संसार के ज्यादा निकट हुई हैं तथा सिल्विया प्लाथ, फहमीदा रियाज़, सिमोन द बोउवा, वर्जीनिया वुल्फ, पंडिता रमाबाई, साबित्री फुले, ताराबाई शिंदे जैसे कवि चिंतकों की प्रेरणा से इन कवयित्रियों की कविताएं स्त्री चेतना के स्तर पर सबल हुई हैं। कवयित्रियों के अनुभव कोश में नए क्षेत्र शामिल हुए हैं।
वरिष्ठ कवयित्री किन्तु कविता में कुछ देर से आई सुमन केशरी के पहले ही संग्रह ‘याज्ञवल्क्य से बहस’ ने यह सिद्ध किया कि स्त्री अब अपने सुपरिचित अंत:संसार से बाहर आ रही है। वह अब बहसतलब भूमिका में है। सुमन केशरी की कविताओं का दायरा अन्य समकालीन कवयित्रियों से अलग और बहुआयामी है। वे मिथकीय चरित्रों के साथ यात्रा करती हुई अपने दौर की आधुनिकी व समकालीनता से उसे जोड़ती हैं। यहां उनका मिथकीय पुनरवलोकन भी मिलता है व शुद्ध कवि चित्त भी। वे यह बहुत खामोशी से यह जताती है कि वे कविता में भी केवल पुरातन याज्ञवल्क्य से बहस करने के लिए नहींआई हैं बल्कि हमारे समय की समस्याओं और सत्तावानों के चरित्र से उलझने के लिए आई हैं।कहें कि वे श्रृंखला की कड़ियाँ तोड़ कर कविता लिखने का व्रत ठानती हैं जो उनके नए संग्रहों में महसूस भी होता है। स्त्री मन के भीतर का एक कलात्मक संसार वरिष्ठ कवयित्री संगीता गुप्ता के यहां भी दिखता है। उनके कई संग्रह गए दो दशकों के भीतर आए हैं ।
कविता में ज्योति चावला का आगमन उनके पहले संग्रह ‘मॉं का जवान चेहरा’ के जरिए हुआ। मध्यवर्गीय कवयित्रियों जैसे अमूर्तनों में न फँसते हुए उनकी कविताऍं समाज में रहने और उसकी चिंताओं से जूझने वाली कविताऍं हैं। कवयित्री एक ऐसी दुनिया का खाका यहॉं खींचती दिखती है जिसमें खुद उसके भीतर की स्त्री का वैविध्यपूर्ण चेहरा नजऱ आता है। इन कविताओं से यह लगता है कि कवयित्री जीवन से भागने की नहीं, उससे गुजरने और उसे बदलने की प्रतिश्रुतियों से लैस है। ज्योति चावला की काव्य भाषा में काफी चहल-पहल है। वह बनावटी उदासियों का कवच नहीं धारण करती, अपने भीतर की खिन्नताओं की चादर ओढ़ कर कविता में पड़ नहीं जाती बल्कि उन तमाम वजहों की तलाश करती हैं जो एक स्त्री केवल स्त्री होने के कारण भुगतती या महसूस करती है। यों तो आज के बाजारवाद और उपभोक्ता-उपयोगितावादी समय में क्या कुछ ‘अनफिट’ हो रहा है– हमारे बुजुर्ग, बूढ़ी औरतें, अपने जीते जी ही क्यों हाशिए पर चले गए हैं, उनकी कविताऍ इन चिंताओं में शरीक़ हैं। यह हाशिये पर फेंक दिए जाते लोगों, स्त्रियों, बुजुर्गों, मनुष्यों और चीज़ों की दुनिया है जिसके लिए कभी कथाकार अखिलेश ने लिखा था ‘मनुष्य खत्म हो रहे हैं, वस्तुऍं खिली हुई हैं।’ ‘जैसे कोई उदास लौट जाए दरवाज़े से’ भी उनकी कविता यात्रा का विस्तार मात्र है– उनके नैरेटिव की प्रकृति न अनीता वर्मा से मिलती है न अनुराधा सिंह से–वह लगभग वहीं ठिठकी है तथा पहले संग्रह के मिजाज से अलग नहीं हैं।
प्रज्ञा रावत देर से कविता में आईं खास तौर पर संग्रह को प्रकाशन की दृष्टि से । पर अपने कवि पिता भगवत रावत के संरक्षण में उन्होंने कविता से जो लगाव पैदा किया है वह उनके संग्रह ‘जो नदी होती’ में बखूबी द्रष्टव्य है। उनके यहां स्त्री विमर्श का दबाव नहीं है। मेरी कोशिश है कि नदी का बहना मुझमे हो जैसी अनुभूति है। उनके यहां उदासियों की एकाधिक लकीरें भी हैं पर वे उनकी प्रतिज्ञाओं और प्रतिश्रुतियों पर भारी नहीं पड़तीं। इसी के आसपास आया सविता भार्गव का पहला संग्रह प्रेम और कुछ कुछ वासनाओं से भीगा संग्रह अवश्य था पर अपने हाल के संग्रह ‘अपने आकाश में’ तक आकर अब वाकई उन्होंने कथ्य, शिल्प और संवेदना की दृष्टि से कविता में यथार्थ की छवियां भी दर्ज की हैं। लीना मल्होत्रा राव के अब तक दो संग्रह आ चुके हैं। मेरी यात्रा का जरूरी सामान और नाव डूबने से नहीं डरती। एक परिपक्व समझ के साथ कविता मे दाखिल लीना की कविताएं आज के तमाम नए संदर्भों से टकराती हैं। उन्हें भी किसी स्त्री विमर्श या पुरुष वर्चस्व के प्रति मुहिमबद्ध कवयित्री के रूप में देखना उन्हें कमतर आंकना है। यद्यपि प्रेम और उदासियों की प्रतीति इस कवयित्री का भी स्थायी भाव है। ‘बनारस में पिंडदान’ जैसी कविता से कवयित्री की संवेदना को आंका व परखा जा सकता है जैसे अनुराधा सिंह की ‘वृंदावन की विधवाएं’ पढ़ कर। जहां वे स्त्री् के दुख के विवर में प्रवेश करते हुए स्त्रीवाद को भी सच्ची स्त्रींवादी चींटियों के मनोबल से परिभाषित करती हैं; मधुमेहग्रस्त साथी हो या प्रेमपत्र पाने व पढने वाला सहचर, वे सहानुभूति के आयुध से अपनी कविता को शस्त्र में बदलती हैं। उनके यहां कविता कुछ रच देने की नियमित दिनचर्या की तरह नहीं, कुछ कहने की अपरिहार्यता में ही संभव होती है। कुछ कविताओं के नाम गिनाऊँ यह उनके कवि व्यक्तित्व की तौहीन होगी—पर भीमबेटका, ईएमआई, नाव डूबने से नहीं डरती, मधुमेह, जाति के जूते, कर्क रेखा, आषाढ का एक दिन, ओ कविता रहस्यमयी, जादू नहीं था जीवन और क्या आप ओएलएक्स पर कविताएं बेच सकती हैं—-सारी कविताएं दो तार की-सी चासनी वाली हैं—-परिपक्व , मार्मिक और संवेद्य । मोहक प्रेम कविता का सत्व कैसे इन तीन पंक्तियों की कविता में उतर आया है:
तुमने दिया ही नहीं
कभी कोई फूल
नहीं तो मैं भी रखती
पंखुड़ियाँ
किताबों में सँभाल-सँभाल कर।
विपिन चौधरी के भी एकाधिक संग्र्रह आ चुके हैं। एक गहरी समझ उनमें है कविता को लेकर किन्तु हाल के संग्रह ‘नीली आंखों में नक्षत्र’ से वे कोई नई जमीन तोड़ती नजर नही आतीं। न कथ्य न भाषाई स्थापत्य के स्तर पर। हॉं, उनके भीतर कविता को लेकर गहरी चिंताएं अवश्य झॉंकती हैं।
सदी के दो दशक
कविता में व्याप्त रूढयि़ों और प्रतीकों को तोडऩे वालों में एक मजबूत आदिवासी स्वर निर्मला पुतुल का भी था। आदिवासी इलाके की यह पहली विश्वसनीय आवाज थी जिसने कविता के सौंदर्यशास्त्र का रुख बदल दिया। स्त्रियों के अभिजात से लगते दुखों को निर्मला पुतुल और अब जसिंता केरकेट्टा व अन्ना माधुरी तिर्की जैसी आदिवासी कवयित्रियों ने जैसे पीछे धकेल दिया। इस मुहिम में आदिवासी कवयित्रियों की नई पीढ़ी हाल के तीन चार वर्षों में आई है जो कविता में आदिवासी विमर्श को नया स्वर तो दे ही रही है, कविता में कविता का आस्वाद भी। पुतुल ने उस स्त्री के चित्त की गाथा लिखी जो अभी तक हिंदी की दुनिया में अजानी थी। उसका लोक साधारण लोक से अलग था। उसके भूखंड, उसकी जमीन औरोंसे अलग थी। निर्मला पुतुल की राह को अग्रसर करती हुई जसिंता केरकेट्टा कहीं ज्यादा राजनीतिक रूप से मुखर कवयित्री हैं तथा उनकी कविताओं में आदिवासी इलाकों पर दृष्टि जमाए सरकार और कारपोरेट घरानों की लपलपाली सर्वग्रासी जीभ दिखती है। शोषण के विरुद्ध तीखे प्रतिकार की कविताएं लिख रही हैं जसिंता केरकेट्टा। उनके साथ अन्य कवयित्रियों की भी पीढ़ी सामने आई है यथा –ज्योति लकड़ा, यशोदा मुर्मू, शांति खलखो, दमयंती सिंकु, ग्रेस कुजूर, फांसिस्का कुजूर, रोज केरकेट्टा, सुषमा असुर आदि। इनमें सबसे सीधी मार करने वाली कविताएं निर्मला पुतुल व जसिंता केरकेट्टा की हैं। आदिवासी इलाके कैसे कारपोरेट घरानों की निगाह में हैं कैसे उनके वानस्पति वैभव पर कुल्हाडयि़ों की छाया पड़ रही है, कैसे उन पर हमले हो रहे हैं, कैसे उन पर अपराध आरोपित किए जा रहे हैं, कैसे उनकी भाषाएं मर रही हैं, जसिंता केरकेट्टा की कविताएं इसकी बारीक पड़ताल करती हैं। जहां अपराध की बाबत पूछने पर धॉंय धॉय गोलिया चतती हों, जहां मॉं के मुंह में ही मातृभाषा को कैद कर दिया जाता हो, जसिंता कहती हैं : वे पेड़ों को बर्दाश्त नहीं करते/ क्योंकि उनकी जड़ें जमीन मांगती हैं। (जड़ों की ज़मीन)। आदिवासी कवियों के सरोकारों को पहचाननेके लिए जसिंता के ये कवितांश अविस्मणीय हैं :
मेरा पालतू कुत्ता सिर्फ इसलिए
मारा गया/ क्योंकि ख़तरा देखकर वह भौंका था
मारने से पहले उन्होंने
उसे घोषित किया पागल
और मुझे नक्सल…जनहित में। (जड़ों की जमीन, पृष्ठ 158)
जसिंता की क्रिटिकल सेंस भी काफी गौरतलब है जब वे बौद्धिकों पर यह तंज करती हैं–
मैं नहीं जानता / अपने पड़ोस को भी ठीक से/
मेरी कल्पना में रहता है ‘समाज’
जिसके लिए मैं लड़ता हूँ । (जड़ो की ज़मीन, पृष्ठ 160)
ऐसे सामाजिक सरोकार कम कवयित्रियों के यहां दिखते हैं। कुछ कुलीन कवयित्रियों में दुखों का अभिजात किस्म प्रभामंडल दिखता है जिससे लगता है कि वे जीवन के उस सॉंवले यथार्थ से नहीं होकर नहीं गुजरी हैं जिससे होकर कविता वाकई सताई हुई स्त्रियों की पीड़ा का इज़हार बन जाती है। आदिवासी समाजों की अपनी अपनी भाषाएं और बोलियां हैं । उन्हें विकास की राह पर अग्रसर करने की मुहिम में उनकी परंपराओं और संस्कृति के साथ साथ आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा पर खतरा मंडरा रहा है। उनकी इस पीडा को महसूस करते हुए कुंवर नारायण ने एक कविता लिखी थी, ‘मुझे मेरे जंगल ओर वीराने दो’ । आदिवासी युवाओं में अपने पारंपरिक अधिकारों को बचाने के प्रति उत्तरोत्तर जागरूकता आई है। उन्हें अपनी मिट्टी से कितना प्यार है इसे व्यक्त करते हुए ग्रेस कुजूर लिखती हैं — पगडंडियों से होकर चलते वक्त/पॉंवों से लिपटी/ गॉंव की मिट्टी ने कहा था बेटे ! / रहने देना चरणों में यह धूलि / शहर की कोलतार भरी सड़कों पर / चलते वक्त यह बचाएगी तुम्हें— कालिख चिपकने लगे।(कवि मन जनी मन, पृष्ठ 70) हालांकि आदिवासी कविताओं की विषयवस्तु प्राय: अपने पर्यावरण को बचाने, उनकी जमीनों पर लगी कारपोरेट घरानों की कुटिल निगाह पर केंद्रित है, तथापि, कविताओं का स्तर कुछ एक कवयित्रियों को छोड कर अभी साधारण ही दिखता है।
कहॉं खड़ी हैं प्रवासी कवयित्रियां?
हिंदी कविता में स्त्री प्रत्यय का विवेचन तब तक अधूरा रहेगा जब तक प्रवासी कवयित्रियों की भी इसमें चर्चा न हो। इन दिनों विदेश में अनेक कवयित्रियां कविता कर्म में संलग्न हैं। शैल अग्रवाल, अचला शर्मा, सुधाओम ढींगड़ा, पुष्पिता अवस्थी, इला प्रसाद, अंजना संधीर आदि किन्तु जिस तरह प्रवासी साहित्य की दुंदुभि बजाई गयी है—उत्सवतापूर्वक कि हिंदी की काव्य संपदा को कुछ नए अनुभव संवेदना के नए स्रोत उपलब्ध होंगे, कथा साहित्य को छोड़ कर कविता में कुछ खास उपलब्धि नहीं रही है। हालांकि वहां का कथा साहित्य भी हिंदी की मुख्यधारा के कथा साहित्य से बहुत पीछे है। कथा साहित्य में भी जो स्थिति उषा प्रियंवदा की है, अभिमन्यु अनत की है, रामदेव धुरंधर की है, सुषम वेदी, दिव्या माथुर, अचला शर्मा, सुधा ओम ढींगड़ा, इला प्रसाद या कुछ कुछ तेजेंद्र शर्मा की है वह स्थिति हिंदी कविता में नहीं दिखती। एक औसत से नीचे का काव्याभ्यास सर्वत्र प्रतिबिम्बित होता दिखता है— कम से कम स्त्री लेखन की दृष्टि से। कुछ हद तक पुष्पिता अवस्थी का काव्यसंसार अवश्य उद्धाटित है। उनके अनेक संग्रह आ चुके हैं, पर वहां भी प्रेम कविताओं का क्षितिज ज्यादा व्यापक है –वह भी निज मन मुकुर वाली शब्दावली में। एक समर्पित स्त्री का एकांत वहां ज्यादा दिखता है, स्त्री और मनुष्य जाति की सच्ची पीड़ा या प्रवासी जीवन की वेदना कम मिलती है। नास्टैल्जिया और नकली प्रवासी दुख ने कवयित्रियों को अपनी औसत संवेदना की परिधि लॉंघने में जैसे रुकावट पैदा की है। जिस तरह पूरे विश्व में विस्थापन और मानवाधिकारों के दमन का विदेशी कविता में तीव्र प्रतिफलन समय समय पर देखाा जाताा रहा है, जिससे क्षुब्ध होकर ब्रेख्त जैसे कवि को भी कहना पड़ा था, ‘मैंने जितने जयादा जूते नहीं बदले, उससे ज्यादा मुल्क बदले’ वैसा कुछ इन स्त्री कवियों में नहीं दिखता। जैसे कि ये कवयित्रियां विश्व के हालात, मानवाधिकारों के हनन व पाश्चात्य स्त्रीवादी चिंतकों की मनोभूमि से अनवगत हों।
अचरज नहीं कि अपने एक लेख ‘प्रवासी साहित्य में परंपरा, जड़ें और देश भक्ति’ में संस्कृति चिंतक मनोज श्रीवास्तव ने लिखा है कि ”प्रवासी हिन्दी लेखकों की त्रासदी यह नहीं है कि वे विदेशी धरती पर पैर रखकर लिख रहे हैं, त्रासदी यह है कि जब इतने बरसों बाद वे भारत भूमि पर पैर रखते हैं तो वहाँ कुछ विदेशी-सा हो गया है, वहाँ कुछ पराया-सा हो गया है। प्रवासी हिंदी लेखक एक तरह की दोहरी जिम्मेदारी में, रहता है। वह कहीं भी यात्री नहीं है। वे कहते हैं कि प्रवासी की मुश्किल है कि वह यात्री नहीं है, वासी है, हालाँकि एक खास तरीके का वासी है जिसके चलते ‘प्र’ उपसर्ग अपने तरह से सार्थक होता है। इसलिए प्रवासी लेखक की दृष्टि पर्यटक-निगाह नहीं है। यात्री की तरह प्रवासी भी सरहदें पार करता है, लेकिन उसके साथ साथ वह अपने आवरण भी तैयार करता चलता है।”
सच कहें तो यह लेखन कुल मिला कर कुछ अपवादों को छोड़ प्रवासी परिस्थितियों का लेखन नहीं है। लेखकों का यह अभिजात वर्ग प्रवास की तुलना में भारत को मैला-कुचैला व पिछड़ा देश मानता है और प्रवास में रह कर भारत प्रेम का झंडा भी बुलंद करता रहता है। हिंदी लेखन की त्रासदी यह है कि मुख्य धारा में न अॅटने वाले साहित्य को विशेषत्व देने के लिए उसने विमर्श की राहें ईजाद कीं। इस तरह साहित्य की लड़ाई को भी जैसे सामाजिक न्याय की लड़ाई में तब्दील कर दिया है। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श की तरह ही अब प्रवासी लेखन जे़रे बहस है। इससे एक हद तक ऐसे लेखक एक कोटि के उल्लेखनीय लेखकों में शामिल तो हो जाते हैं किन्तु उन्हें वह दर्जा हासिल नहीं होता जो मुख्य धारा के कवियों लेखकों को होता है। यहां तक कि निर्मल वर्मा ने प्रवास में रहकर जिस तरह का लेखन किया है,वैसा लेखन प्रवासी लेखकों के पास कहां है। यही वजह है कि संस्कृति चिंतक मनोज श्रीवास्तव यह पूछते हैं कि ”क्या प्रवासी साहित्य हिन्दी के अभिजन का, एलीट का साहित्य है? हिंदी की लीज़र-क्लास का, विश्रांति-वर्ग का? जिसके लिए यह एक फुरसत का शगल है? क्योंकि अब यह साहित्य अपना वर्ग-चरित्र परिवर्तित कर चुका है। अब यह गिरमिटियों का साहित्य नहीं है।”
स्त्री कविता ने पश्चिम के स्त्री आंदोलनों से प्रेरणाएं तो ली हैं, पश्चिम की नारीवादी लेखिकाएं सिमोन द बोउवा, वर्जीनिया वुल्फ, सिल्विया प्लाथ आदि भी स्त्री-प्रेरणाओं का स्रोत रही हैं। भारत के स्त्रीवादी आंदोलनों ने भी यहां के स्त्री कवियों को झकझोरा है और इस मुहिम ने स्त्री की स्वाधीनता, पुरुष वर्चस्व से मुक्ति, देहमुक्ति के साथ स्त्री विमर्श को एक आधार देने की कोशिशें भी की हैं। किन्तु जहां तक भारत जैसे महादेश की स्त्री समस्याओं और वर्तमान ढांचे में स्त्री अस्मिताओं का प्रश्न है, अनेक शहरी कवयित्रियॉं इन स्त्रीवादी विचारकों से वैचारिक खुराक तो लेती हैं पर उन्हें कविता में ठीक से पिरो नहीं पातीं। विश्व के अनेक देशों में लिख रही कवयित्रियों का स्तर बहुत उन्नत नहीं है। हिंदी की मुख्यधारा में जिस तरह हिंदी कवयित्रियों ने अब धीरे धीरे जगह बना ली है, प्रवासी हिंदी कवयित्रियों के यहां अनुभव व संवेदना का नया और सार्थक विस्तार नहीं दिखता। आज संचार साधनों के वृहत्तर संजाल और प्रवासी साहित्य के तमाम संचयनों के आने के बावजूद प्रवासी हिंदी कवयित्रियों का स्तर बहुत ही साधारण पाया गया है। वे प्रवासी साहित्य के इतिहासों और संचयनों में शामिल होकर गौरवान्वित होती रहें, हिंदी कविता को उनकी देन नगण्य ही मानी जाएगी।
आती हुई पीढ़ी: कविता के कई रंग
जैसा कि मैंने कहा उत्तरोत्तर कवयित्रियों की संख्या में इजाफा हुआ है। पहले जहां आठवें दशक में बहुत कवयित्रियॉं थीं नवें दशक में कुछ अधिक, किन्तु 2000 के बाद यह संख्या तेजी से बढी है। इसमें सोशल मीडिया का हाथ ज्यादा है। फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टाग्राम, ब्लाग, बेवसाइट्स पर कवयित्रियों की उपस्थिति और आमद बढ़ी है। इस सदी के दूसरे दशक में कविता के प्रति समर्पित और नए अर्थों का संधान करने वाली पीढ़ी की कवयित्रियां सामने आईं। यह दौर चूंकि स्त्री विमर्श और स्त्री जागरूकता के सवालों का भी रहा है इसलिए स्त्रीविमर्श का असर कविताओं पर भी पडऩा लाजिमी था। ऐसी कवयित्रियों में आज के सवालों के साथ स्त्री हालात पर सवाल उठाने की प्रश्नाकुलता भी देखी जाती है। बाबुषा कोहली, शैलजा पाठक, रश्मि भारद्वाज, पंखुरी सिन्हा, भावना शेखर, लवली गोस्वामी, सुजाता, शेफाली फ्रास्ट, शुभम श्री, मोनिका कुमार, अनुराधा सिंह, पूनम अरोड़ा, आभा बोधिसत्व ने हाल के वर्षों में कविता के क्षेत्र में एक जगह बनाई है।
बाबुषा कोहली अपने संग्रह ‘प्रेम गिलहरी दिल अखरोट’ की नरमदिल कविताओं से पहचानी गयीं तथा भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित हुईं। अपनी अभिव्यक्ति में प्रखर, जीवन को सकारात्मकता से लेने वाली बाबुषा की इन कविताओं में एक अलग किस्म का नवाचार व ताजगी थी गोकि इनका स्वर रोमैंटिकता की छोर को छूता हुआ भी लगता था। परन्तु अभी हाल में आए संग्रह ‘बावन चिट्ठियाँ‘ में बाबुषा ने अपने कविता के स्थापत्य का अंदाजेबयां बिल्कुल बदल दिया। मुझे नहीं लगता इस वक्त की कोई कवयित्री उस स्तर के नवाचार को संभव कर पा रही है। खास कर कविता में बाबुषा का गद्य एक रोमांच सा जगाता है। उसमें ऐंद्रियता भी है, शिल्प भी चुस्त है व भाषा की चूड़ियाँ भी कसी दिखती हैं और दृष्टि में ‘यूरेका’ का देदीप्यमान बोध:
सोते हुए मैं आर्किमिडीज हूँ
नींदें मेरा एथेंसनगर
स्वप्न मेरे पानी पर शोध हैं
मेरी कविताओं को पढ़ा नहीं जाना चाहिए
वह जो सुन सकता है, सुन ही लेगा
इन अक्षरों की देह में धुकधुकाता
धरती से आकाश तक गूंजता
”यूरेका! यूरेका! ” (बावन चिट्ठियाँ, पृष्ठ 24)
जिस प्रेम की दुंदुभि आज भी चहुंओर बजती दिखाई देती है—कविताओं में सर्वाधिक; उसके बारे में कवयित्री का यह कहना मामूली नहीं कि ‘प्रेम के अवसर बढे हैं इस दौर में, प्रेम नहीं।’ रिल्के, बाशो, वाल्ट ह्विटमैन, आइंस्टीन, मिलेवा भर्तृहरि, ओशो सबको घोखने वाली इस कवयित्री का सात्विक क्रोध जब उबलता है तो भी वह यही सीख देता हुआ दिखता है –
भूख से मर रहे कितने बच्चे
छाती में भरी है जितनी मवाद
उसे दूध बनाओ
रोओ तो धूप झरे आंखों से
हँसो तो बारिश हो जाय
फट जाये छाती तो बह निकलें दूध की नदियां
खुलने दो मन का मैदान
सन जाओ हवा धूल मिट्टी में
छिले घुटने पर बॉंधो बादल
लहू सोखने दो
पृथ्वी को बदल दो नीली गेंद में
खेलो, खिलो, खुलो, खलो
जाओ! (बावन चिट्ठियाँ, पृष्ठ 204)
शैलजा पाठक के एकाधिक संग्रह आ चुके हैं पर हाल में आए संग्रह जहां चुप्पी टूटती है—में शैलजा की कवि संवेदना काफी अग्रसर दिखती है। फेसबुक पर पोस्ट हुई अनेक कविताओं में वे जिस तरह स्त्री-समस्याओं को सामने रखती हैं वे पढऩे वालों की आंखें नम कर देती हैं। उनकी कविता का नैरेटिव उबाऊ नहीं लगता। उनका कवि मन स्त्री दुख को बॉंचने वाला संवेदी कविमन है। रश्मि भारद्वाज ने कविता में जीवन को जैसे बहुत नजदीक से देखा है। पुरुष वर्चस्व के पेंचोखम को उधेड़ कर रखने में वे और सुजाता एक पायदान पर दिखती हैं। पुरुषवर्चस्व के प्रति रश्मि के यहां उलाहने और तंज भी बहुत हैं चाहे वह अपने पिता पर ही क्यों न लिख रही हो। वह अपने तीखे सवालों से कविता में एक नया क्रिटीक पैदा करती हैं। स्निग्धता की बानगी उनके यहां हैं तो पीछे छूट गए कालखंड में जी हुई जिंदगी का लेखा भी। रश्मि और सुजाता दोनों के भीतर अपरिमित दृढता है परिस्थितियों से जूझने और लडऩे की तथा तमाम नफरतों के बीच भी इस दुनिया को शुभाशा की निगाह से देखने की अनूकूलता भी। वे उन बौद्धिकों पर बरसती हैं जो दर्प के मारे हैं तो उन किताबों से शिकायत भी जिन्होंने दुख को पढऩा सिखाया। इन कविताओं में रश्मि का आत्म भी दिखता है एक कवि की दिनचर्या भी। पर समाज से उलाहने भी कम नहीं। एकल मां का संघर्ष भी तो यह बोध भी कि सुख बच्चों की हँसी में था पर वे यातनाओं व दुश्वारियों से घिरे थे। स्वयं मां बन कर मॉं को समझ पाना भले ही उनकी काव्यकृति का शीर्षक हो, सबसे बड़ी बात यह कि ये शब्द नहीं जैसे आत्मा की रोशनाई से लिखी गयी निश्शब्द प्रार्थनाएं हों। ‘मैंने अपनी मां को जन्म दिया है’ में अनुभव व संवेदना के कैप्सूल दिखाई पड़ते हैं—अपने पहले संग्रह से अधिक साफ और स्पष्ट किन्तु भावप्रवण इन कविताओं के किसी भी अंश पर निगाह पड़ते ठिठक जाती है यह इनकी एक अचूक विशेषता है। उनका संग्रह पुराने से निश्चित ही आगे का संग्रह है। सुजाता बोल्ड अनुभवों और अभिव्यक्ति की कवयित्री हैं जिसकी मुहर उनकी अनेक कविताओं में दर्ज दिखती है।
लवली गोस्वामी के भीतर सूक्तिमयता का विन्यास है। उनके भीतर का आत्मसंशय खुद को भी निगरानी पर रखता है और इस दुनिया को भी। उदासी मेरी मातृभाषा है–सचमुच कवयित्री की ललित भाव-दशाओं का ज्ञापन हैं। कुछ सपनों के मर जाने के बावजूद जिन्दगी को बट्टेखाते में डाल देने से असहमत लवली गोस्वामी असाध्य प्रमेयों को जस का जस छोड़ देने पर मुतमइन दिखती हैं। लवली प्रेम के प्रमेयों को समझने सुलझाने में यकीन रखती हैं तथा उसे जीवन की धारावाहिता में अनुस्यूत करते हुए उसे अपने काव्य कौशल का विषय बनाती हैं। उनके हाल के संग्रह में ऐसी अनेक कविताऍं हैं यथा, कविता में अर्थ, एक प्रेम कविता का सच, रस गंध स्वाद और आंच का कोरस है प्रेम, अंत में, होने की बातें, प्रेम पर फुटकर नोट्स-एक व दो, बतकही और कविता की अंसख्य परिभाषाएं हैं –जहां प्रेम की प्रतीतियां स्नेह निर्झर में बहे जाने का सुख देती हैं। वह बेफिक्री जो प्रेम को पा लेने के बाद आती है, अधिकांश कविताएं इस तृप्ति में डूबी हैं। फिर भी कवयित्री कहती है : उदासी मेरी मातृभाषा है। बात कुछ समझ में नहीं आती। प्रेम की तमाम कविताएं लिखने वाली कवयित्री प्रेम को इतना साध्य भी नहीं मानती न असाध्यवीणा ही। पर वह जरूर कहती है :
फूलों की एक बड़ी माला में
पूरे बगीचे का वसंत कैद होता है
इसलिए किसी कवि से कभी मत पूछना
कि वह फिर से प्रेम कविता कब लिखेगा
प्रेम की एक कविता ताल्लुक के
कई सालों का दस्तावेज़ है। (उदासी मेरी मातृभाषा है, पृष्ठ 13 )
प्रेम के अहसास को इन शब्दों से ज्यादा और कैसे समेटा जा सकता है, कहना मुश्किल है —
तुम्हें चूमने से पहले अपनी नाक की नोक से मैं
तुम्हारी नाक की नोक दबाती हूँ
मुझे वह दबाव महसूस होता है
जो कविता का पहला शब्द लिखने से पहले
कलम की नोक कागज पर डालती है
थोड़ी झिझकती –सी उत्सुक दाब। (वही, पृष्ठ 100 )
दूसरे दशक की बौद्धिक चिंता की आभा से भरी अनुराधा सिंह के यहां जरा नफासत है। किसी चोट किसी कचोट किसी तीखे अनुभव की बानगी वे कविताओं में इतने सलीके से रखती हैं जैसे कोई दुख तहा कर रखे। आसानी से यदि आप कविताओं के अभ्यस्त नहीं हैं तो कवयित्री की ठीक ठीक मनोदशा आप न जान सकेंगे। यह बारीकी उनके व्यक्तित्व में भी है। ‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ की कविता ‘क्या सोचती होगी धरती’ पढ़ कर देखिए–आप पाश्चाताप से भर उठेंगे। हम किससे क्या क्या छीन रहे हैं तब भी हमारा पुरुषार्थ थकता नहीं, शर्मश्लथ नहीं होता। ‘लिखने से क्या होगा’ और ‘क्या चाहते हो तुम स्त्री से’ —जैसी कविताएं हमें अवाक कर देती हैं। अनुराधा के यहां स्त्री विमर्श के दुहराये गए पहाड़े नहीं हैं बल्कि वे मूलगामी चिंताओं की जड़ें उधेड़ती हैं जहां से सारी समस्याएं पैदा होती हैं। एक कविता में वे लिखती हैं :
दुनिया हिली तो / नींव थामे रही तुम्हारी/ बादल फटे मजबूत छाता बन गयी/ भीगती रही अपनी ही देह के नीचे/नहींछोड़ी खुद के लिए एक आश्वस्ति/ तुमने भी कट्टा और बीघा में नापी उसकी कोख।(ईश्वर नहीं नींद चाहिए, पृष्ठ 22) यहीं पर वे पग पग पर स्त्रीसूक्त लिखने का दावा करने वाले प्रेमी पुरुष पर क्या तीखा कटाक्ष करती हैं: जिन्होंने प्रेम और स्त्री पर बहुत लिखा/दरअसल उन्होंने ही किसी स्त्री से प्रेम नहीं किया।(वही, पृष्ठ 12)
जबकि अनुराधा सिंह से बहुत अलग, तीक्ष्ण और संवेदी बाबुषा के यहां जो बेफिक्री है और अर्थ को असंभाव्य से भी दुहने की कला है, वह नायाब है। तथापि अनुराधा का बौद्धिक कविचित्त संयमी पाठकों के लिए आक्सीजन की तरह है। वे स्थूलता की कवयित्री नहीं हैं जैसे पंखुरी सिन्हा, शेफाली फ्रास्ट, शुभमश्री, संध्या नवोदिता या आभा बोधिसत्व जिनकी सामाजिक संलग्नताएं कविताओं में कहीं अधिक द्रष्टव्य है।
कुछ बोल्ड विषयों को लेकर शुभम श्री की कविताएं चर्चा में अवश्य रहीं पर स्थायी काव्यमूल्य एक झटके में नहीं बनते। उन्हें बनने में समय लगता है। कुछ उम्रदराज किन्तु कविताओं में नवागत भावना शेखर के यहां नज़्मों की सी सादगी मिलती है। ‘मौन का महाशंख’ उनकी संवेदना और वेदना को सलीके से सम्मुख रखता है किन्तु वे कविताओं में पुरुष को प्रतिलोम में न खड़ा कर स्त्री को महाकविता के एक अनन्य छंद के रूप में देखे जाने का आग्रह करती हैं। यहीं उनके ही समतुल्य चित्रा देसाई में कुदरत का सौंदर्य मिलता है और जीवन के कुछ उल्लसित प्रसंग जो जीवन को दुख से उबरना सिखातेहैं। चर्चित कथाकार जया जादवानी के भी तीन कविता संग्रह आ चुके हैं। ”उठाता है कोई एक मुट्ठी ऐश्वर्य” में भीतर बसी ऐंद्रिकता उनकी कहानियों में रची बसी संवेदनासिद्ध दुनिया की याद दिलाती है। जीवन की बारीक धड़कनों और मानवीय चित्तवृत्तियों के पराग को कुशलता से सहेजने के लिए उन्होंने कविता को उर्वर वसुंधरा का वरण किया है। सांसारिक और आध्यात्मिक रागात्मकता दोनो का प्रवल साहचर्य उनकीकविताओं में दीखता है, यद्यपि उनकी भाषा में लंबे आलाप व आरोह अवरोह कम दीखते हैं। प्रज्ञा रावत देर से कविता में जरूर आईं किन्तु ‘जो मैं नदी होती’ के जरिए की कविताओं में उनके कथ्य का जादू तो बोलता ही है जैसे सविता भार्गव की कविताओं में प्रेम का जादू। हालांकि नए संग्रह ‘अपने आकाश में’ वे ऐद्रियता और दैहिकता से काफी दूर निकल आई हैं। उनके सार्थक समाजोपयोगी विषय अब जगह बनाने लगे हैं। प्रकृति करगेती शहर और शिकायतें में अपना कुछ रंग बिखेरती हैं पर अभी वह प्रभाव नहीं बन पा रहा है जैसी उनसे अपेक्षाएं हैं।
ठहर जाओ कामनाओ! उर्फ एक कामनाहीन पत्ता
‘समास’ की कुछ कविताओं से चर्चा और चिंतन में आई पूनम अरोड़ा के भीतर कविता के प्रति आश्वस्तिकारी जुनून दिखता है। उनके पहलेसंग्रह कामनाहीन पत्ता पर लिखती हुई ख्यात कवयित्री अनामिका इनमें स्त्री अवचेतन की गहन अंत:सलिलाओं का अस्फुट महदोच्चार गझिन आवर्तों में अनुभव करती हैं। सो इनमें प्रेम के लिए सहज स्पेस है बल्कि अनामिका के ही शब्दों में कहें तो यहां प्रेम की कहीं अधिक जनतांत्रिक लय सामने आती है। पूनम अरोड़ा के यहॉं बिम्बों का सघन अंतर्भाव है। उसका निज इन कविताओं में स्वयं के अवचेतन में बसे पन्नों पर रोशनी डालता चलता है। हर पन्ना कविताओं का जैसे जीवन के नए अनुभवों से साक्षात्कार हो। वह सौंदर्य प्रेम पुलक प्यास तृप्ति नमी प्रार्थना, निर्भीकता, ऐंद्रियता और आस्तित्विक प्रश्नों की कवयित्री हैं। उनकी कविताओं को पढते हुए लगता है उनके पोर पोर में निर्मल वर्मा कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम और ओशो जैसे महीन संवेदना के लेखकों के अध्ययन का सत्व समाया हुआ है। पूनम अरोड़ा कामनाहीनता को किस रूप में देखती हैं यह कविता देखें —
तुम इतने बोधगम्य हो जैसे समाधिस्थ बुद्ध के पास पड़ा एक कामनाहीन पत्ता
मैं तुम्हारे प्रेम में अपनी सब कोमल कविताएं वो विनम्र पत्ते बना दूंगी जो
अपने पतन को पूर्व से जानते हैं
मैं खुद को क्षमा कर दूंगी। (कामनाहीन पत्ता, पृष्ठ 51)
प्रेम मेरे पुरखों की आंखों का आंसू था
जो बिना गिरे ही उनकी चिताओं में जल गया
तब से मेरा किया तर्पण शापितहै
और मेरा शरीर
मेरी मौन प्रार्थनाएं। (वही, पृष्ठ 139)
नींद सबसे कामुक पल है प्रेमी को चूमने का
और सबसे कोमल समय है
उसके अधउगे सपनों को हौसला देने का (वही, पृष्ठ 174)
मुझे प्यास थी
मैं निर्वात बढ़ रही थी तुम्हारी नमी में
मेरा कौमार्य बीथोवन के संगीत पर
पारदर्शी नृत्य करता था
उसी समय तुमने थोड़ी नींद ली
और तब हम जान लिए गये
अपने-अपने इतिहास से (वही, पृष्ठ 176)
कुछ कुछ बुद्ध मुद्राओं के बावजूद पूरी पुस्तक ऐसे ही अनुभवों से अनुस्यूत है। यह कवयित्री का जैसे प्रणयपर्व भी हो। जीवन के इस प्रसंग को अनुष्ठानूपर्वक जीने रचने की चाहतों से भरी पूनम के यहां यत्र तत्र सुभाषित भी बिखरे हैं जैसे स्त्री का मन एक बांसुरी होता है; स्त्री की काया में एक विष भी होता है; कामना भी एक व्यर्थ का फूल है; ऊपर स्त्री अवचेतन की बात कही गयी है। पूनम एक कविता में कहती हैं कविता की मेरी अपनी आत्मा है/ अपनी गंध और नशा/ कच्ची शराब सा; मन भिक्षुणी होना चाहता है; और इस राग और गैरिकवसना के बीच झूलते हुए कवयित्री का यह कहना रोमांचित कर देता है कि –स्पर्श चुंबन आलिंगन देह का समागम ऐसा कुछ नहीं मिलेगा मेरे प्रेम में तुम्हे/ हां, एक फूल दे सकती हूँ/ बुद्ध की चेतना से लिया था एक दिन/ क्या् ले पाओगे उसे?(पृष्ठ 76) यह सब लिख कर फिर एक कवयित्री ने सिद्ध किया है कि कुछ इन्सटिंक्स ऐसे होते हैं जिनसे मनुष्य मुक्त नहीं हो सकता जैसे राग, ऐंद्रियता और यह बोध सदैव नवागत कवि-कवयित्रियों को आंदोलित करता रहेगा।
नई पदचाप : कविता की आधुनिकी
नई कवयित्रियों में ज्योति शोभा में एक विस्मयता है। कोलकता के गल्प को पढ़ते हुए कल्पनाओं की असीम दुनिया में ले जाने वाले चरित्रों जैसे आख्यान और नैरेटिव उनकी कविताओं में मिलते हैं। एक चिंतनशीलता उनके यहां दिखती है पर भाषा को पढ़ते हुए हिंदीतर भाषा की मौजूदगी वे छिपा नहीं पातीं। ‘चांदनी के श्वेत पुष्प’ में जैसे उनके एकालाप बिखरे हैं। उनके यहां निज की चित्त्वृत्ति को उजागर करने वाली कविताएं मिलती हैं। कल्पना के सुदूर रोमांचकारी वृत्तांत गढऩे में उनका कवि कुशल प्रतीत होता है। इस कवयित्री की कविताएं अंतश्चेतना की अलख जगाती हैं, विजुअल्स और चाक्षुष दृश्यों के बिम्ब रचने में वे कुशल हैं। एक सबसे अच्छी बात यह कि उसकी कविताओं में स्थानीयता झॉंकती है। कोलकाता दिखता है। हुगली, मैदान शोभा बाजार विद्यासागर सेतु, आउटरम घाट दृश्यमान हो उठते हैं। एक प्रेम करती स्त्री की कोमलताएं आंशकाएं प्रतीक्षाएं आकुलताएं मीठे उलाहने सब यहां भाषा के लालिल्य में पगे दिखते हैं। कहना न होगा कि कोलकता प्रेमियों का शहर है। यह बेघर को भी प्यार करने की जगहें और विपन्न को भी जीवन जीने की मस्ती सिखाता है। इन कविताओंमें एक स्वप्नमयता है शुभ्रता है हृदय के कोरोंको भिगो देने वाली। कवयित्री जैसे अतीत वर्तमान को अपने हाथों मे थामे भविष्य की इबारत लिख रही है। तुम्हारा प्रेम मुझे जीन नहीं देता के अहसास के बावजूद वह यह मान कर बैठी है कि प्रेम इस दुनिया का सबसे बड़ा मानवमूल्य है। यह प्रेम ही तो है जो अपने रास्ते में कविता को भी बाधक मानता है–
गुड़ के साथ चने लाना
कैरी और साथ नमक की पुड़िया लाना
इस बार आते सिंघाड़े लाना जल से भीगे
कविता मत लाना कवि
न बिछा सकूंगी न ओढ़ सकूंगी।(चांदनी के श्वेत पुष्प, पृष्ठ 117)
ज्योति शोभा की ही तरह जोशना बनर्जी आगरा में बैठ कर कविताएं कर रही हैं। पर बांग्ला कनेक्शन उनमें भी प्रकट है–कुछ मीठे स्वप्न कुछ उनींदापन यानी अपने स्वप्न अपनी प्रज्ञा और अपने एकांत को कविताओं में सिरजती हुई । एक बारगी लगता है यह कहीं ज्योति शोभा का पुनरवतरण तो नहीं। पर नहीं, जोशना बनर्जी की कविताएं धीरे धीरे निखर रही हैं और अपनी मौलिकता ज्ञापित कर रही हैं। उदाहरण के लिए उनकी कविता ‘कामना’ –
उभर के उठ आओ रसखान के छन्दों से
कवित्त की तरह
धँस जाओ मुझमें
मैं सोलह ऋंगार कर चुकी हूँ
नवेली दुल्हन की तरह
भर लो एक बूढ़े शमशान का गौरव ख़ुद में
एक लाकड़ की तरह
दो मुझे मुखाग्नि
मैं मर चुकी हूँ
एक अतृप्त प्रेमिका की तरह
निकलो उस पुराने भारतेन्दु युग से
उन्नायक की तरह
उठाओ मुझे
मैं गिर चुकी हूँ भाषा मे
अप्रचलित शब्द की तरह (जोशनी बनर्जी)
कविता–सु-लोचना
यहीं मैं सुलोचना वर्मा की कविताओं का जिक्र करना चाहूंगा। सुलोचना की कविताएं ज्यादा सम्मुख नहीं आ सकी हैं शायद इसके पीछे उनका संकोच हो। पर मेरे आग्रह पर उन्होंने कभी अपनी पांडुलिपि भेजी थी : ‘बचे रहने का अभिनय’ । उसे पढ़ कर लगा था कि मैं कविता के संसार की किसी परिपक्व स्त्री की कविताएं पढ़ रहा हूँ। चेन्नै में हुई मुलाकात में ममता कालिया जी के सान्निध्य में उनकी कविताएं सुनने का मौका भी मिला था। कुछ हडबड़ी में पढ़ी कविताओं में बाद जब इस पांडुलिपि को पलट रहा हूँ तो यह देख कर अच्छा लग रहा है कि सुलोचना ने, जिसका कोलकाता से भी खासा जुड़ाव है, इन कविताओं में जैसे अपने हृदय का छंद उड़ेल दिया है। शरतचंद्र के ‘चरित्रहीन’ की किरणमयी से बतियाती हुई कवयित्री ऐसे समव्यथी संसार से कैसे तो सघन रिश्ता कायम कर लेती है। मधुमेह, कोलकता के बाबूघाट पर, नदी की आत्मकथा, जैसी कविताओं से गुजरते हुए कभी कभी ऐसा लगता है शरतचंद्र के उपन्यास की नायिका अपने चित्त का भाष्य व्यक्त कर रही हो। संबंधों को जीने, निबाहने और जीवन में कुछ नया रचने के अनुभवों से गुजरती कवयित्री किसी हरे भरे पहाड़ की गोद में एक ठिकाना बनाने निकलती है जिसकी ख्वाहिश आखिरी कविता में कुछ यों दर्ज होती है :
यदि तुम मौसम होते
ऋतुओं में होते बसंत
माघ-सा होते महीनों में
जहाँ प्रेम करता कल्पवास
यदि तुम वृक्ष होते
तो होते आम का पेड़
जिस पर प्रेम डालता झूला
और सावन गाता कजरी
यदि तुम रंग होते
अवश्य ही होते आसमानी
प्रेम के माथे पर
एक आकाश-सा तन जाते
सुलोचना की कविताओं में एक अदम्य चाहतों का संसार है जो हर तीसरी चौथी कविता में बड़े संयम से छलकता है। उससे भी बड़ा संयम तो यह इस कवयित्री ने अपना कवि व्यक्तित्व अब तक वाकई ओझल कर रखा है। कोलकता की निर्मला तोदी के यहां सधी हुई काव्य-भाषा व बारीकियां बेशक नहीं हैं तो भी एक कवि का प्रशस्त अवलोकन तो उनके पास है ही।
कवयित्री रंजना मिश्र कविता कला में प्रवीणता के साथ संगीत में भी पारंगत है। इसलिए उनकी कविताओं में संगीत साधना के अनुभव बोलते हैं। जिस तरह से यह दुनिया उत्तरोत्तर आधुनिक और सभ्य हुई है इसकी भौतिक लिप्साएं बेलगाम हुई हैं। इसीलिए इस स्त्रीपूजक देश में सबसे ज्यादा सताई जाने वाली इकाई यदि कोई है तो वह है स्त्री जाति। रंजना मिश्र कविता के बहाने स्त्री के समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में सूक्ष्मता से प्रवेश करती हैं और इतिहास व अतीत में विचरण करती हुई स्त्री के अलक्षित संसार की अकथनीय पीड़ा का भाष्य उपस्थित करती हैं। दूसरी दुनिया से पहले व मुंबई व इनकार जैसी कुछ बहुत अच्छी कविताएं रंजना के पास हैं। कवि बनने की राह पर अग्रसर राजस्थान की ऊषा दशोरा में काव्यात्मक संभावनाएं झॉंकती हैं। जिन विशेषणों के चुंबन जहरीले होते हैं,फिर एक दिन ये सारे लड़के पिता हो जाते हैं,उदास बच्चा है विश्व मानचित्र जैसी अनेक कविताएं उनके तत्वचिंतन का प्रमाण हैं।
मऊ की देहाती और कस्बाई धरती से सोनी पांडे की कविताएं जन्म लेती है। उनके संग्रह ‘मन की खुलती गिरहें’ पर गौर करें तो वहां स्त्री जीवन किस तरह छोटी-छोटी बातों पर पौरुषेय शक्तियों से लोहा लेते बीत जाता है इसकी मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है। बदनाम औरतें,विस्थापित औरतें, कैसी होगी दुनिया, ताला जैसी कुछ कविताएँ भरोसे से उनके संभावनाशील कवि-परिचय के बतौर रखी जा सकती हैं। यहां चीजें बिना भाषाई कलफ़ के और तफसील में ज्यादा हैं–हालाँकि यह तफसील रुचि भल्ला में कहीं अधिक है– हर तह को खोल देने की प्रवृत्ति जो कभी-कभी कविता में नागवार भी लगती है।
रूपम मिश्र के काव्य प्रयत्न भी एक नयी कवयित्री की आमद की मुनादी करते जान पड़ते हैं। गांव कस्बे में रह कर वे एक ऐसे जीवन को निरूपित कर रही हैं जिसमें कविता की नई आधुनिकी बोलती है। रूपम में भाषा और अभिव्यक्ति का अनूठापन है जैसे दूर फलाटन में लिख रही कवयित्री रुचि भल्ला अपने लंबे नैरेटिव में अपने चाक्षुष अनुभवों को पिरो रही हैं। उनकी कविताओं में कविता रिपोर्ताज जैसी आभा है। सघन ब्यौरों के बावजूद उनके यहां कविता की कौंध पहचानी जा सकती है। देरागत प्रतिमा सिन्हा ने प्रेम कविताओं को एक नया पैरहन दिया है अपने नए संग्रह ‘दिल दरवेश’ में। उन पर नज्मों का असर दीख पड़ता है। नताशा का आगम भी कविता में पिछले छह सात साल से हुआ है। वह धीरे धीरे परिपक्व हुई हैं। बिहार के जीवनानुभवों ने उन्हें एक संवेदी भाषा दी है तो अध्ययन-अध्यापन ने लोक को समझना बूझना भी सिखाया है। इस लोक में लोकतंत्र कितना कम होता गया है, नताशा इसे अपनी कविताओं में लोकेट करती हैं तथा प्रकृति की लय पर प्रहार करती ताकतों पर कवयित्री शरसंधान करने में नहीं चूकती। संध्या नवोदिता पीछे ‘सुनो जोगी’ सीरीज की कविताओं के साथ सामने आई थीं जिनमें उनका कवित्व उड़ानें भरता हुआ दिखता था। प्रगतिशील चेतनासंपन्न संध्या में समाज की नैतिक चेतना से मुठभेड़ करने का रचनात्मक साहस नज़र आता है। एक कवि का ऐक्टीविज्म भी उनके भीतर बखूबी मौजूद है। उपासना झा का कवि भी परिपक्व होता दिखता है। ‘दूसरी स्त्री’ को लेकर उनकी कविता क्या खूब है –यथार्थ की धूल में दूसरी स्त्री के रोमांस को लथेड़ती कवयित्री पुरुष के आईने में स्त्री की कीमत कूतती है। साधारण भाषा के बीच कुछ तत्सम-सी टँकाई दिखती है पर एक कविता ‘ओ रात’ में ‘वर्षों से जैसे विनिद्रित मैं’ में ‘विनिद्रित’ (शायद कवयित्री अनिद्रित कहना चाहती है) का प्रयोग अखरता है। पूनम विश्वकर्मा वासम, स्मिता सिन्हा ने भी गए दिनों कुछ अच्छी कविताएं लिखी हैं तथा आज वे कविता के क्षितिज पर अज्ञातकुलशील नहीं रहीं।
विगत कविता परिदृश्य में रश्मिरेखा(दिवंगत) के काव्यप्रयत्नों को भी भूला नहीं जा सकता। अपने अकेले संग्रह के बावजूद उन्हें कविता के मानचित्र पर अपनी छाप छोड़ी है। साथ ही, कुछ और कवयित्रियों को हम विस्मृत नहीं कर सकते जो कविता की सतत् साधना में संलग्न हैं, यथा वर्तिका नंदा, वाजदा खान, संगीता गुंदेचा, रेखा चमोली, निर्मला तोदी, मनीषा झा, उषा रानी राव, मृदुला शुक्ला, अंजु शर्मा, सुधा उपाध्याय, रमा भारती, पूनम शुक्ला, अंजू ढढ्ढा मिश्र,प्रतिभा कटियार,रंजना जायसवाल, देवयानी भारद्वाज, पारुल पुखराज, रीता दास राम, मंजुला चतुर्वेदी, रचना शर्मा, रजनी अनुरागी एवं अनीता भारती आदि। मैं जानता हूँ, किसी भी दौर में कुछ अच्छे कवियों के साथ एक पूरी भीड़ कवियों की चल रही होती है, उसका योगदान भी कविता का माहौल बनाने में कम नहीं माना जा सकता। उसी तरह इन कुछ कवयित्रियों के अलावा अनेक कवयित्रियॉं कविता के क्षेत्र में कार्यरत है। उनमें से अनेक के कई संग्रह तक प्रकाशित हैं। इतनी बड़ी संख्या में हिंदी परिदृश्य में कवयित्रियों की उपस्थिति वाकई उल्लेखनीय है। जिस तरह सृष्टि के मूल में वह ‘शतरूपा’ है, कविता की जड़ों को भी सींचने में वह किसी से पीछे नहीं। यों भी कविता और स्त्री की प्रकृति में ज्यादा विभेद नहीं है।
अंतत:
हिंदी में कवयित्रियों की तादाद बहुत है। प्रवाह है, भीड़ है, रेला है, ठेलमठेला है ; पर कम हैं जिनमें स्थिरता है, ऊष्मा है, गति है, यति है, लय है, प्रतीति है, जीवन है, जीवनानुभव और अनुभूतियों का विरल सहकार है, जिनके यहां रोमैंटिकता तो है पर रोमांस के तट पर बिछलन और काई कम है, जिनकी कविताएं न तो गंभीरता का कवच ओढे हुए मिलती हैं न उच्छल जलधि तरंग-सी इठलाती अस्थिर स्वभाव वाली हैं। जो उच्छवास और मध्यवर्गीय शिकायतों में स्थगित नहीं होतीं और पौरुषेय शक्तियों पर भी टूट कर गिर नहीं पड़तीं और न कविताओं में केवल क्रांति के परचम लहराती हुई दिखती हैं। स्त्री विमर्श ने कविता में पुरुष वर्चस्व के खिलाफ एक मुहिम तो शुरु की किन्तु धीरे-धीरे समूची स्त्री कविता इसी राह पर चल पड़ी। वह पौरुषेय शक्तियों के विरोध के कोरस में तब्दील होती गयी। उसके यहां कोई मध्यमार्ग या समरसता का विमर्श न था। ऐसी स्थिति में कुछ कवयित्रियों ने एक अलग राह चुनी।
2000 से 2020 का समय राजनीति व सांप्रदायिकता को लेकर काफी उथल पुथल भरा रहा है तो इस सदी का दूसरा दशक सत्ता परिवर्तन का साक्षी भी है। भूमंडलीकरण की तेज होती गति, कारपोरेट घरानों का आगमन, नए राष्ट्रवाद का उदय, तमाम नए विमर्शों के आगम के कारण यह दशक कविता में कई मोड़ों का गवाह है। इस दशक की कवयित्रियों के यहां कहीं ब्यौरों की सघनता है, कही लालित्य है, कहीं निजी प्रेम है, कहीं विचार के धरातल पर नए उन्मेष हैं, कहीं संकीर्णतावादी दृष्टियों से मुठभेड़ करती कवि चेतना है। यह सारा काम आज की कवयित्रियां अपनी कविताई की सीमा में रह कर करती हैं। यद्यपि वे भूल नहीं जातीं कि हमारा समय हमारा समाज हमारा तंत्र भ्रष्ट और विपथ हो सकता है, कविता नहीं। पर राजनीतिक तौर पर कवयित्रियां जोखिम नहीं उठातीं। सांप्रदायिकता, विस्थापन, हिंसक होते समाज को लेकर वे चुप चुप सी रहती हैं तथा अक्सर स्त्री विमर्श की सुरक्षित प्राचीर में घिरे रहना पसंद करती हैं। कात्यायनी, अनामिका, निर्मला पुतुल, जसिन्ता केरकेट्टा और शुभा को छोड़ कर बहुत कम कवयित्रियां ऐसी हैं जिनकी चिंताओं में हमारे समय के राजनीतिक प्रत्यय हैं, विरोधाभास हैं, विसंगतियां हैं। अधिकांश तो कविताई का काफी समय प्रणय के प्रकथनों में गुजार देती हैं। किन्तु अपने-अपने कम्फर्ट जोन में आश्वस्त इन कवयित्रियों को चाहिए कि वे निज की चित्तवृत्तियों से बाहर आएं और केवल स्त्री प्रजाति ही नहीं, मनुष्य प्रजाति पर हावी होते संकटों पर भी प्रहार करें।
डॉ. ओम निश्चल : हिंदी के सुपरिचित कवि आलोचक एवं भाषाविद् हैं, दो दर्जन से ज्यादा कृतियों के लेखक हैं तथा हिंदी संस्थान उ.प्र. के आचार्य रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्नेअदब के शान ए हिंदी खिताब एवं विचार संस्था, कोलकाता के प्रो.कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से विभूषित हैं। आप समीक्षक से इस ईमेल पर संपर्क कर सकते हैं— dromnishchal@gmail.com