क्या मृत्यु भी एक कला है?

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विमल कुमार

प्रसिद्ध गांधीवादी पत्रकार एवं गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने पिछले दिनों रजा फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर बोलते हुए कहा था कि जिस तरह गांधी जी का जीवन अपने में आप में एक संदेश था, उसी तरह उनकी मृत्यु भी एक संदेश थी।

गांधी जी का यह वाक्य बहुत मशहूर रहा है— “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है”। उन्होंने यह कभी नही कहा कि मेरा विचार ही मेरा ‘संदेश’ है। दुनिया के तमाम दार्शनिकों और विचारकों ने ज्ञान बुद्धि और दर्शन को अपना ‘सन्देश’ माना है चाहे वे अरस्तू हो या कार्ल मार्क्स लेकिन गांधी ने अपने जीवन को ही अपने ‘संदेश’ के रूप में पेश किया और प्यारेलाल ने इस शीर्षक से उन पर चार खंडों में एक पुस्तक भी लिखी थी।

हम आज तक गांधीजी के जीवन को एक ‘सन्देश’ के रूप में देखते रहे लेकिन उनकी मृत्यु को एक ‘संदेश’ के रूप में देखने का काम कम हुआ है और उस ‘संदेश’ पर चर्चा तो और भी कम हुई है।

आखिर गांधी जी की मृत्यु के पीछे क्या संदेश था? वैसे डगलस ने लिखा है कि मोहनदास गांधी ने मरने की कला अट्ठारह सौ नब्बे के दशक में दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा आयोजित किए गए पहले आंदोलन के जोखिमों के माध्यम से सीखी थी जब उनकी मरने की समझ गहरी हो गई तो उन्होंने लिखा था— जिस तरह हिंसा के प्रशिक्षण के दौरान आपको हत्या करने की कला सीखना अनिवार्य होता है, उसी तरह अहिंसा के प्रशिक्षण में आप को मरने की कला सीखनी चाहिए।”

आखिर गांधी जी की मृत्यु के पीछे क्या संदेश था? वैसे डगलस ने लिखा है कि मोहनदास गांधी ने मरने की कला अट्ठारह सौ नब्बे के दशक में दक्षिण अफ्रीका में उनके द्वारा आयोजित किए गए पहले आंदोलन के जोखिमों के माध्यम से सीखी थी जब उनकी मरने की समझ गहरी हो गई तो उन्होंने लिखा था— जिस तरह हिंसा के प्रशिक्षण के दौरान आपको हत्या करने की कला सीखना अनिवार्य होता है, उसी तरह अहिंसा के प्रशिक्षण में आप को मरने की कला सीखनी चाहिए।”

जाहिर है, गांधी जी के लिए मृत्यु भी एक ‘कला’ थी। जीवन को एक कला के रूप में पेश करने की बात तो दुनिया के कई दार्शनिक और मनीषियों ने की है लेकिन मृत्यु को एक ‘कला’ के रूप में मानने वाले गांधीजी संभवत पहले  दार्शनिक होंगे। हिंदू मान्यताओं में मृत्यु को ‘मोक्ष’ के रूप में जरूर देखा गया है पर ‘कला’ के रूप में मृत्यु को देखने का काम दार्शनिकों ने कम किया है। यह काम कलाकारों ने अधिक किया हैं। शायद इसलिए साहित्य और कला में मृत्यु का ‘सेलिब्रेशन’ भी किया गया है लेकिन गांधी जी का यह कहना कि मृत्यु एक ‘कला’ है उसमें सेलिबरेशन की जगह ‘लिबरेशन’ (केवल मोक्ष नही) का भाव अधिक था।

अंग्रेजी के प्रसिद्ध इतिहासकार जेम्स डगलस ने 2011 में ही गांधी पर ‘गांधी एंड अनस्पीकेबल’ किताब लिखी थी और वह किताब पिछले 10 वर्षों में दुनिया भर में काफी लोकप्रिय हुई और इस किताब को विश्व शांति के एक नए  अनिवार्य वैचारिक दस्तावेज के रूप में देखा जा रहा है। इस किताब का 2018 में गुजराती में अनुवाद हुआ और गत वर्ष हिंदी के प्रसिद्ध लेखक एवं आलोचक मदन सोनी ने हिंदी में इसका अनुवाद किया है। रजा फाउंडेशन ने ‘गांधी और अकथनीय’ नामक यह किताब प्रकाशित की है। इस किताब के छपने से हिंदी समाज में गांधी को लेकर एक एक नई बहस शुरू होने की संभावना नजर आती है। डगलस ने 2 13 पन्ने की इस किताब में कुल 3 अध्याय लिखे हैं और हिंदी पाठकों के लिए एक नई प्रस्तावना भी लिखी है।

प्रस्तावना में डगलस ने थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है— “गांधी की हत्या को लेकर बहुत कम समझ क्यों बनी हुई है?  गांधी की हत्या ईशा को सूली पर चढ़ाए जाने से मिलती-जुलती है। ईसा ने जिस तरह अपने शत्रुओं को प्रेम और क्षमा करते हुए सलीब पर अपने प्राण दिए थे। उसने रोमन साम्राज्य द्वारा विद्रोहियों को दी जाने वाली फांसी की सजा के भयावह प्रतीक सलीब को अहिंसा के रूपांतरकारी प्रतीक में बदल दिया था।”

“गांधी की मृत्यु उसी तरह हुई थी जिस तरह ईसा की हुई थी। अपने शत्रुओं में नहीं ईश्वर को प्रणाम करते हुए जिसके लिए उन्होंने अपने जीवन के बहुत बड़े हिस्से के दौरान ईसा की सलीब चली पर चिंतन करते हुए तैयारी की थी।

इस पुस्तक में डगलस ने गांधी की हत्या और जॉन एफ. केनेडी, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, मेलकॉम और रोबर्ट एफ. केनेडी की हत्या के बीच समानता देखी है और उसके आधार पर एक सूत्र खोजने का प्रयास किया है। असल में गांधी को जान से मारने के लिए उनके पूरे जीवन काल में उन पर कुल छोटे बड़े 9 हमले हुए थे और पहला जानलेवा  हमला तो दक्षिण अफ्रीका में हुआ। तब से लेकर भारत मे आजादी से पहले करीब सात हमले हुए लेकिन अन्ततः 30 जनवरी 1948 को उनकी  हत्या कर दी गई। इसके 14 दिन पहले एक जानलेवा हमला हो चुका था जिसमें मदनलाल पाहवा गिरफ्तार हो चुका था। गांधी जी को अच्छी तरह अपनी हत्या का आभास था लेकिन जिस व्यक्ति के जीवन काल में 9 बार छोटे-बड़े हमले हुए हो, उन हमलों को देखते हुए क्या सरकार और तत्कालीन समाज इस से इस तरह बेखबर और लापरवाह रह सकता है। अगर ऐसा हुआ तो इसे भूल चुक या लापरवाही कह कर पर्दा नही डाला जा सकता है। इस हमलों को उतना गंभीरता से क्यों नहीं लिया गया। इस हमले के पीछे छिपे संदेश को जानने और समझने की कोशिश क्यों नहीं की गई।पुस्तक में डगलस का सारा जोर इसी बात पर है और उनकी पुस्तक की मुख्य चिंता भी यही है।शायद इसलिए अब लोग धीरे धीरे यह  मानने लगे  है कि गांधी का जीवन ही नहीं उनकी मृत्यु भी एक बहुत बड़ा संदेश थी।

डगलस ने अपनी इस किताब में इस संदेश का बहुत ही बारीकी से विश्लेषण किया है और तमाम घटनाओं और प्रसंगो के साथ तथ्य पेश कर इस बात को प्रमाणित करने की कोशिश की है कि गांधी की हत्या भारत के आधुनिक इतिहास की ही नहीं बल्कि उसके संपूर्ण इतिहास की एक अत्यंत प्रमुख घटना है जिसने भारतीय राष्ट्र के स्वरूप और समाज की दिशा ही बदल दी । इस से इस देश के मनोविज्ञान मानसिकता और सत्ता विमर्शकारों की सोच और सरोकार को भी समझा जा सकता है।

डगलस ने अपनी इस किताब में इस संदेश का बहुत ही बारीकी से विश्लेषण किया है और तमाम घटनाओं और प्रसंगो के साथ तथ्य पेश कर इस बात को प्रमाणित करने की कोशिश की है कि गांधी की हत्या भारत के आधुनिक इतिहास की ही नहीं बल्कि उसके संपूर्ण इतिहास की एक अत्यंत प्रमुख घटना है जिसने भारतीय राष्ट्र के स्वरूप और समाज की दिशा ही बदल दी । इस से इस देश के मनोविज्ञान मानसिकता और सत्ता विमर्शकारों की सोच और सरोकार को भी समझा जा सकता है।

डगलस लिखते हैं जॉन एफ. कैनेडी की तरह गांधी की हत्या भी एक ऐसे षड्यंत्र के तहत हुई थी जिसमें एक लोकतंत्र के विनाश का खतरा निहित था। गांधी की हत्या के पीछे सक्रिय शैतानियां तो को बहुत कारगर ढंग से छिपा दिया गया था जैसा कि अमेरिका में हुई इस तरह की हत्या के संदर्भ में भी सही था। मैंने गांधी की मृत्यु की पड़ताल की शुरुआत किंग और मेंलकम की दास्तानों की पृष्ठभूमि के तौर पर लिखे जा रहे आरंभिक अध्याय के लिए की थी लेकिन अमेरिकी भविष्यकर्ताओं की हत्याओं का पूर्वाभास देती गांधी की हत्या की विकसित होती दास्तान अंततः गांधी की अपनी पुस्तक बन गई।”

डगलस आगे लिखते हैं— “इसलिए मैं पाठक को पहले से ही यह चेतावनी दे दूं कि यह पुस्तक मरने का जश्न मनाती है कुछ खास ढंग से मरने का जिसके लिए गांधी ने अहिंसा के मार्ग पर अपनी यात्रा के उद्गम स्थल से लेकर अपने पूरे जीवन भर खुद को तैयार किया था। गांधी के साथ चलने का अर्थ है मृत्यु के रास्ते ईश्वर की बाहों की दिशा में, सत्य और प्रेम की बाहों की दिशा में चलना। यह उम्मीद का मार्ग है क्योंकि उन्होंने प्रार्थना की थी और प्रेम के साथ स्वयं को मारने के लिए तैयार किया था। इसीलिए गांधी अपने हत्यारे की विनाशक साजिश का उम्मीद से सामना कर सकें।”

डगलस ने इस किताब को लिखने के लिए अनेक पुस्तकों को आधार बनाया है जिनमें तुषार गांधी द्वारा द्वारा लिखित पुस्तक लेट्स कील गांधी-ए क्रॉनिकल ऑफ हिज लास्ट डेज द कॉन्सपिरेसी मर्डर, इन्वेस्टिगेशन एंड ट्रायल से लेकर  अमेरिकी लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस में उपलब्ध वे सारे दुर्लभ दस्तावेजों और किताब भी शामिल है। इनमें एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक किसी समय नाथूराम गोडसे के पास हुआ करती थी।

इसके अलावा उन्होंने कपूर आयोग से जुड़ी रिपोर्ट का भी अध्ययन किया है। इसलिए उनकी किताब मैं वर्णित तथ्यों को अविश्वसनीय नहीं माना जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि उन्होंने इस पुस्तक में जो निष्कर्ष निकाले हैं, उसके  ठोस ऐतिहासिक आधार है।

डगलस ने पुस्तक के दूसरे अध्याय “जीवन और मृत्यु के बीच” में साफ लिखा है— “गांधी की हत्या में एक हत्यारे राष्ट्रवाद, सत्ता की महत्वकांक्ष और घृणा का संयुक्त योगदान था। हिंदुस्तान की स्वाधीनता की उपलब्धि ने गांधी की हत्या को और भी ज्यादा संभव बना दिया था। राष्ट्र के नए नेताओं ने इसके संस्थापक पिता के अहिंसक सिद्धांतों की जगह एक राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र की बुनियाद से विस्थापित कर दिया। स्वाधीनता के लंबे होते सायो में गांधी अकथनीय के समक्ष एक शहीद थे।”

डगलस ने तीसरे अध्याय गांधी और उनके हत्यारे की पहली पंक्ति में लिखा है-गांधी अपने हत्यारे को जानते थे,।डगलस ने लिखा है गांधी जी गांधीजी भविष्य में उन पर हमला करने वाले व्यक्ति से भी मिल चुके थे और उस हिंदू राष्ट्रवादी विचारधारा से भलीभांति परिचित है जिसके षड्यंत्रकारी पूरे जी-जान से उनकी हत्या करने की योजना रच रहे थे। उनका गिरोह उस उभरते हुए आंदोलन का कट्टरपंथी तत्व था जो हिंदुस्तान को तब तोड़ने वाला था और आज भी उस पर वर्चस्व कायम करने का खतरा बना हुआ है।

गांधी से सावरकर की मुलाकात 1906 में इंग्लैंड में हुई थी जब वह कुछ दिनों के लिए इंग्लैंड हाउस में ठहरे थे। वह सावरकर की प्रभावशाली पुस्तक द फर्स्ट इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस से परिचित थे। गांधी इंडियन हाउस में रहने वाले नौजवानों पर सवारकर के नियंत्रण से भी वाकिफ थे।यही से गांधी और सावरकर के दृष्टिकोण का अंतर और वैचारिक संघर्ष शुरू हुआ जो इतना विषयुक्त हो गया कि सावरकर के शिष्य गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी। पुस्तक में डगलस ने इन सारी परिस्थितियों का तथ्यों के साथ जिक्र किया है और कानूनी रूप से भले गांधी की हत्या में सावरकर का हाथ होना सिद्ध न हुआ हो पर इस किताब ने सिद्ध कर दिया कि सावरकर ही गोडसे के मास्टरमाइंड थे।

गांधी से सावरकर की मुलाकात 1906 में इंग्लैंड में हुई थी जब वह कुछ दिनों के लिए इंग्लैंड हाउस में ठहरे थे। वह सावरकर की प्रभावशाली पुस्तक द फर्स्ट इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस से परिचित थे। गांधी इंडियन हाउस में रहने वाले नौजवानों पर सवारकर के नियंत्रण से भी वाकिफ थे।यही से गांधी और सावरकर के दृष्टिकोण का अंतर और वैचारिक संघर्ष शुरू हुआ जो इतना विषयुक्त हो गया कि सावरकर के शिष्य गोडसे ने गांधी की हत्या कर दी। पुस्तक में डगलस ने इन सारी परिस्थितियों का तथ्यों के साथ जिक्र किया है और कानूनी रूप से भले गांधी की हत्या में सावरकर का हाथ होना सिद्ध न हुआ हो पर इस किताब ने सिद्ध कर दिया कि सावरकर ही गोडसे के मास्टरमाइंड थे।

डगलस ने एक रोचक वाक्य यह लिखा है— गांधी ने सरकार के साथ ऐसा निश्चित कर रखा था कि उनकी प्रार्थना सभाओं के दौरान किसी को गिरफ्तार न किया जाए। एक मुसलमान आया जो महात्मा से प्रभावित था उसने महात्मा का गला पकड़ लिया और उससे उनका दम घुटने और चेहरा नीला पढ़ने तक दबाए रखा इस सबके बीच गांधी मुस्कुराते रहे बल्कि हंसते रहे प्रतिरोध और असंतोष तक के उस अभाव ने हमलावर को इस कदर हतोत्साहित कर दिया कि उसने उनका गला छोड़ दिया बाद में हुआ आया और महात्मा के पैरों पर गिर पड़ा और अपने उसके लिए माफी मांगने लगा।

यह घटना बताती है कि गांधी कितने उदार व्यक्ति थे। उनकी मृत्यु की कला को इस रूप में देखा जा सकता जो अकल्पनीय है और वर्णातीत भी है। लेकिन इस किताब का मुख्य जोर इस बात पर है कि गांधी की हत्या में सावरकर का भी हाथ था और सरकार में बैठे लोग उसका एक तरहः से बचाव कर रहे थे क्योंकि हिन्दू साम्प्रदायिकता की लपटों के बढ़ने का खतरा था। प्रधान मंत्री नेहरू और गृह मंत्री पटेल की चुप्पी और अप्रत्यक्ष मौन समर्थन ने असली हत्यारे को सज़ा नही दिलाई।डगलस ने इस सम्बंध में तुषार गांधी की पुस्तक के उद्धरण को पेश किया है।

डगलस ने लिखा है कि गांधी की हत्या से और उनके हत्यारे के मुकदमे से हमें यह सीख मिलती है कि गांधी की हत्या का किस्सा अभी खत्म नहीं हुआ है। मुकदमे के दौरान बचाव पक्ष ने इस बार उनके चरित्र और उनकी विश्व दृष्टि की हत्या करते हुए एक बार नए सिरे से उनकी हत्या करने की कोशिश की थी। यह प्रक्रिया 6 दशकों तक जारी रही। गांधी के हत्यारों का पोषण करने वाले संगठन उनके और उनकी दृष्टि के खिलाफ प्रचार करते रहे और इसी के साथ उनकी हत्या की उपेक्षा करते रहे हैं।

इस 21वीं सदी में वे पूरे हिंदुस्तान के लोकतंत्र के लिए खतरा बने हुए हैं। उनकी निरंतर शक्ति गांधी के जीवन और उनकी शहादत की सच्चाई को कुचलने की उनकी कामयाबी का पैमाना है।

डगलस अभी लिखते हैं हत्या की राजनीति दुनिया के विपरीत हिस्सों में लोकतंत्र ओं की परीक्षा ले रही है। अकथनीय  हमारे बीच बना हुआ है। अगर सत्य और प्रेम के बल पर उसे वैसा मुकाबला करने का साहस हमें है जैसा कि गांधी ने किया था, तो उम्मीद की जीत होगीl

इस से यह सिद्ध होता है कि गांधी की शारीरिक हत्या में भले ही गोडसे और सावरकर जैसे लोग शामिल है उनकी वैचारिक हत्या में देश के शासक भी शामिल रहे है। गांधी ने जिस हिन्दू साम्प्रदायिकता का मुकाबला किया उसका विष बेल आज लोकतंत्र के रास्ते होता हुआ फासीवाद के रूप में लहराने लगा है। गांधी के हत्यारे आज मौजूद ही नही है बल्कि वे अब नायक भी नायक बनाये जा रहे है। गांधी की मृत्यु का यही संदेश था जिसने हम सबको 1948 में ही आगाह किया था लेकिन हम लोगों ने वह संदेश ठीक से पढ़ा नही।


गाँधी और अकथनीय सत्य के साथ उनका अन्तिम प्रयोग : जेम्स डब्ल्यू. डगलस। रज़ा फाउंडेशन व राजकमल प्रकाशन, मू. 250 रुपये [पेपरबैक]। इस पुस्तक को आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर के मँगवा सकते हैं।


विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com


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