[स्त्रीवाद, स्त्री-चिंतन और कविता के आयाम]
कविता में स्त्री प्रत्यय-भाग 2
ओम निश्चल
‘कविता में स्त्री प्रत्यय’ जहां स्त्री कविता का एक विहंगम अध्ययन अनुशीलन था वहीं उसके पीछे स्त्रीवाद की वैचारिकी और स्त्री चिंतन की अपनी सुचिंतित भूमिका रही है। केवल भारतीय स्त्रीचिंतकों के बलबूते आज की कविता में स्त्रीवाद इतना मुखर नहीं हुआ होता। इसलिए कविता में स्त्री चिंतन की बुनियादी ताकतों और उत्प्ररेक तत्वों की पड़ताल के लिए यह अनुशीलन प्रकियाधीन रहा है। यह उस आलेख का अंगीभूत होते हुए भी एक स्वतंत्र आलेख के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्त्री कविता के सभी गवाक्ष खुल सकें।
‘कविता में स्त्री प्रत्यय’ जहां स्त्री कविता का एक विहंगम अध्ययन अनुशीलन था वहीं उसके पीछे स्त्रीवाद की वैचारिकी और स्त्री चिंतन की अपनी सुचिंतित भूमिका रही है। केवल भारतीय स्त्रीचिंतकों के बलबूते आज की कविता में स्त्रीवाद इतना मुखर नहीं हुआ होता। इसलिए कविता में स्त्री चिंतन की बुनियादी ताकतों और उत्प्ररेक तत्वों की पड़ताल के लिए यह अनुशीलन प्रक्रियाधीन रहा है। यह उस आलेख का अंगीभूत होते हुए भी एक स्वतंत्र आलेख के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जिससे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिंदी की स्त्री कविता के सभी गवाक्ष खुल सकें।
हिंदी कविता में स्त्रियों की अभिव्यक्ति खास तौर पर आधुनिक दुनिया में पूरी दुनिया के हो रहे स्त्रीचिंतन और स्त्रीवादी विचारणा से अलग नहीं है, कमोवश वैश्विक स्तर पर स्त्री अधिकार आंदोलनों, लैंगिक असमानता को लेकर चलाई गयी बहसों, स्त्री अध्ययन, औपनिवेशिक परिवेश में स्त्री व उसकी लैंगिक भूमिकाओं पर होने वाली चर्चाओं से अलग नहीं है। हमारे यहां भी नव जागरण के साथ-साथ स्त्री जागरण के लिए चलाए गए अभियानों ने स्त्री शिक्षा के महत्व को रेखांकित किया तथा वे धीरे धीरे तालीम और अपने बुनियादी अधिकारों को लेकर सचेत हुईं। ऐसी सचेत महिलाओं में से अनेक ने औपनिवेशिकता से मुक्ति के अभियान में भी हिस्सेदारी की। तमाम अंधप्रथाओं का अंत स्त्री-चेतना के उन्नयन की दिशा में एक बड़ा कदम था। स्त्री होने के कारण वह अबला थी व सामाजिक अन्याय का शिकार थी।
स्त्रीवाद का उद्देश्य महिलाओं के लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक स्तर पर समान अधिकार और कानूनी सुरक्षा स्थापित करना है। समय के साथ, नारीवादी कार्यकर्ताओं ने महिलाओं के कानूनी अधिकार जैसे मुद्दों के लिए अभियान चलाया है, खासकर अनुबंध, संपत्ति और मतदान के संबंध में; देह की अखंडता और स्वायत्तता; गर्भनिरोधक और प्रसव पूर्व देखभाल सहित गर्भपात और प्रजनन अधिकार; घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और बलात्कार से सुरक्षा; मातृत्व अवकाश और समान वेतन सहित कार्यस्थल अधिकार; और भेदभाव के सभी रूपों के खिलाफ जिनसे महिलाओं का वास्ता पड़ता है।
वैश्विक स्तर पर स्त्रीवादी वैचारिकी का उद्भव और विकास तीन लहरों में माना जाता है। स्त्रीवाद की पहली लहर मुख्य रूप से महिलाओं के मतदान के अधिकार से संबंधित थी। महिलाओं के लिए समान अनुबंध और संपत्ति के अधिकारों को बढ़ावा मिला तथा विवाहित महिलाओं पर उनके पतियों के स्वामित्व का विरोध हुआ। स्त्रीवाद की दूसरी-लहर समानता, समान कानून और भेदभाव के मुद्दों व सामाजिक अधिकारों के लिए महिलाओं के मुक्ति आंदोलनों पर केंद्रित थी। दूसरी लहर के दौर में उभरे “पर्सनल इज पॉलिटिकल,” ने महिलाओं की सांस्कृतिक और राजनीतिक असमानताओं की पहचान की और महिलाओं का ध्यान इस बात पर केंद्रित किया कि कैसे उनके निजी जीवन में यौनवादी सत्ता संरचनाएं परिलक्षित होती हैं। बेट्टी फ्रेडन स्त्रीवाद की की एक प्रमुख नियामक थीं। 1963 में, उनकी पुस्तक ‘द फेमिनिन मिस्टिक’ ने इस विचार की आलोचना की कि महिलाओं को केवल बाल-बच्चों और घर-गृहस्थी के कामों से जुड़े रह कर ही संतुष्टि मिल सकती है। कहा जाता है कि उनकी पुस्तक ने तत्कालीन स्त्री आंदोलनों की मुहिम को तेज करने में अहम भूमिका निभाई, फलस्वरूप संयुक्त राज्य अमेरिका और दुनिया भर के देशों का सामाजिक ताना-बाना बहुत हद तक प्रभावित हुआ और इसे बीसवीं सदी की व्यापक रूप से सबसे प्रभावी कथेतर पुस्तकों में से एक माना जाता है। 1990 के दशक के साथ आई स्त्रीवाद की तीसरी लहर दूसरी लहर के नारीवादी विमर्शों की प्रतिक्रियाओं और वैचारिक नैरंतर्य का प्रतिफलन है। यह वैचारिकी दूसरी लहर में विकसित स्त्रीत्व की परिभाषाओं को चुनौती देने के लिए उभरी, इस तर्क के साथ कि दूसरी लहर ने उच्च मध्यम वर्ग की अभिजात महिलाओं के अनुभवों पर कहीं अधिक फोकस किया है। जबकि तीसरी लहर स्त्री जीवन की अंतर्विरोधी स्थितियों की पड़ताल में नस्लवाद, जातीयता, वर्ग, धर्म, लिंग, और राष्ट्रीयता सभी को महत्वपूर्ण घटक मानती है।
ध्यातव्य है कि स्त्रीवाद की पहली लहर के बाद से अब तक काफी कुछ परिवर्तन समाज में आया है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। समानता और महिलाओं के अधिकारों के लिए पूरी दुनिया में लोग लामबंद हुए हैं। फलस्वरूप, स्त्रीवाद की एक चौथी लहर भी तट से टकराने लगी है। यही वजह है कि ये मुद्दे अब सभी स्त्रियों के लिए अपरिहार्य और प्रासंगिक हो उठे हैं।
पश्चिम के स्त्रीवाद के प्रभावों के फलस्वरूप भारत में भी स्त्रीवाद का स्फुरण होना शुरु हुआ तथा स्त्री अधिकारों को लेकर अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाएं सक्रिय हुईं। स्त्री अस्मिता पर चर्चा और विमर्श का दौर ’80 और ’90 के बीच पनपा और स्त्री की पहचान व अस्मिता को लेकर बहसें शुरु हुईं। सीमान द बोउवा, वर्जीनिया वुल्फ व पश्चिम के अन्य स्त्री चिंतकों के विचार भारतीय स्त्रीवादी लेखकों, कवियों को खासा प्रभावित कर रहे थे और उसके आधार पर भारतीय संदर्भ में स्त्री के हालात में परिवर्तन के लिए विमर्श शुरु हुए। स्त्रीवाद, पुरुष वर्चस्व, लैंगिक आक्रमणों और पितृसत्ता के दमन के विरुद्ध आवश्यक प्रतिरोध के रूप में सामने आया। वर्जीनिया वुल्फ ने स्वीकार किया कि यदि औरत कहानियां लिखती है तो उसके पास अकूत धन और अपना एकांत होना चाहिए। एक स्त्री चिंतक का यह भी कहना है कि स्त्रीवाद एक ऐसे अस्तित्व का प्रतिरूप है जिसमें एक स्त्री परनिर्भरता के सिंड्रोम से मुक्त हो सके। इस तरह स्त्रीवाद स्त्री-समानता और स्त्री उत्पीड़न से मुक्ति के लिए किया जा रहा अनवरत संघर्ष है। इस स्त्रीवाद के भी अनेक रूप माने गए। उदार स्त्रीवाद, समाजवादी मार्क्सवादी स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, मनोविश्लेषणात्मक स्त्रीवाद, आस्तित्विक स्त्रीवाद, वैयक्तिक स्त्रीवाद, सांस्कृतिक स्त्रीवाद और उत्तर आधुनिक स्त्रीवाद आदि। सीमान द बोउवा का यह कथन आज भी स्त्रीवादी महिलाएं भूल नहीं जाती कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। इसीलिए उन्होंने अपने ‘स्वत्व’ के पक्ष मे औरतों से कलम उठाने को कहा था। कहना न होगा कि सीमोन के ‘द सेकंड सेक्स’ से पश्चिम और पूरे विश्व में स्त्रीवादी अवधारणाओं पर किया जा रहा चिंतन प्रभावित हुआ। दुनिया भर के नारीवादी आंदोलनों को सीमोन, सिल्विया प्लाथ एवं वर्जीनिया वुल्फ के स्त्रीवादी चिंतन ने प्रेरणा दी। स्त्रियों को अपने बारे में सोचने के लिए अग्रसर किया। स्त्रीवाद की पहली लहर में नागरिक अधिकारों को लेकर वैश्विक आंदोलन शुरु हुए। इस दौरान स्त्रियों ने निजी अनुभवों को लेकर बड़े पैमाने पर आत्मकथाएं और स्वीकारोक्तियॉं लिखनी शुरु कीं। मार्क्सवादी स्त्रीवाद ने मार्क्सवादी विचारधारा के तहत श्रम के विभाजन, जन्म नियंत्रण प्रविधियों और लिंग के बदले वर्ग की प्रमुखता पर बल दिया। यह स्त्रीवाद का ही परिणाम है कि स्त्रियों को गर्भपात और खुद की देह पर अधिकार देने की हिमायत की गयी तथा घरेलू हिंसा को जेरेबहस लाया गया।
नब्बे के दशक के साथ आई स्त्रीवाद की तीसरी लहर में स्त्रियों के राजनीतिक अधिकारों और स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दों को प्रमुखता दी गयी। अनेक सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप स्त्रियों के मामले में कुछ उदारताएं बरती गयीं किन्तु भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रीवाद ने कुछ अलग भूमिकाएं निभाईं। स्त्री अधिकारों की सजगता को लेकर भारतीय भाषाओं और हिंदी में बहुत सा लेखन शुरु हुआ। यों तो बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही भारत में स्त्री सुधार के आंदोलन नवजागरण के अंतर्गत आकार ले रहे थे किन्तु बीसवी सदी के मध्य और उत्तरार्धा में हाश्वेता देवी, अरुंधती राय और सारा जोसेफ जैसे लेखक आगे आए। कथा साहित्य में नई स्त्रियों का अवतरण हुआ। बंकिम, टैगोर,शरत, इस्मत चुगताई, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, नासिरा शर्मा, गीता हरिहरन, शशि देशपांडे, और शोभा डे के उपन्यासों में नई स्त्रियों के किरदार सामने आए जो नई स्त्री की अंतश्चेतना को नए रूप में परिभाषित कर रहे थे। स्त्री-आकांक्षाओं का क्षितिज विस्तृत हो रहा था।
कृष्णा सोबती ने अपने लेखन में जिस तरह स्त्री पात्रों की बुनियाद रखी और मजबूत की वह आज के स्त्री विमर्श का आधारभित्ति है इसमें संशय नहीं। वे सदैव लेखकों के उस नजरिए की आलोचना करती रही हैं जो स्त्री को सिर्फ पकवान बनाने और परोसने की विशेषज्ञ के रूप में ही समझती आई है। ‘शब्दों के आलोक में’ —में डॉ. अनामिका के साथ एक बातचीत में वे कहती हैं ‘मैं उस स्पेस में पली बढी हूँ जिस स्पेस में पुरुषों का पालन पोषण होता है पर मुझे स्त्री होने पर गर्व है।’ उनके स्त्री चरित्र हाड़ मांस से बनी धड़कती हुई जीवित इकाइयां हैं। वे केवल शारीरिक इकाई ही नहीं, बल्कि वे चैतन्य का प्रमाण भी हैं। वे शोषित हैं या पौरुषेय शक्तियों के अधीन ; पर वे आजादी की खिड़की खोलने को अपराध नहीं मानतीं। कहीं कहीं ‘बुभुक्षित: किं न करोति पापम्” की सीमा तक भी उनके स्त्री चरित्र अपने कृत्य पर क्षुब्ध नहीं होते। कथा साहित्य या लेखन में स्त्री विमर्श के लांच होने के पहले वे अपने आख्यानों में तेज तर्रार नायिकाओं की जननी बन चुकी थीं। नैतिकता के कागज़ी प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए मित्रो मरजानी (1967) लिखा तो ऐ लड़की (1991) उनके विद्रोही तेवर की एक और मिसाल बन कर सामने आई। स्त्री विमर्श के नाम पर जिस तरह की कहानियां इधर कुछ दशकों में लिखीं गयीं हैं या जैसे मिथ स्त्री को लेकर रचे गए हैं वे अनुभूत नहीं बल्कि प्रयत्नपूर्वक गढ़ी गयी स्त्रियों का संसार है। सोबती गढ़ने में नहीं, रचने में रुचि लेती हैं। इसीलिए उनकी स्त्रियां प्रगतिकामी और स्वतंत्रता की हामी होकर भी गढ़ी गयी नहीं, रची गयी लगती हैं। मैत्रेयी पुष्पा के ‘चाक'(1997) के स्त्री चरित्र अपनी बोल्डनेस और स्वीकार में कितने प्रकृत हैं। ‘चाक’ की सारंग गांव की स्त्री होकर भी जिस तरह तरह यौन शुचिता की पुरातन धारणाओं को तोड़ती है, वह समाज के नियामकों की नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त है। स्त्री-आकांक्षाओं की रोशनी में पाप-पुण्य सब स्वाहा कर दिया है, मैत्रेयी ने यह कहते हुए कि देहधर्म के आगे सारे धर्म निस्सार हैं। मैत्रेयी ने अपने उपन्यासों से यह सिद्ध किया कि अब पुराने जमाने की स्त्रियॉं नहीं रहीं जो सती सावित्री हों, वे बदल चुकी हैं सारंग के रूप में। उनकी इच्छाएं निरंकुश हो चुकी हैं। रोक सके तो यह समाज रोक ले। साहित्य समाज का ही तो दर्पण है। जो समाज में हो रहा है उसे ज्यों का त्यों रखते हुए मैत्रेयी ने बदलती हुई दुनिया की नई स्त्री को सामने रखा जहां शील, लज्जा, नैतिकता जैसे प्रतिमान मानवीय इच्छाओं के सम्मुख फीके पड़ जाते हैं। दुनिया कितनी तेजी से बदल रही थी। अपनी गंदगी को ढँके मुँदे समाज अपनी नैतिकता पर न्योछावर था किन्तु उस आवृत्त यथार्थ को अनावृत्त कर अचानक मैत्रेयी ने तूफान खड़ा कर दिया। बाहर के स्त्रीवादी चिंतन से बहुत पहले यह आंच उपन्यासों, कहानियों के माध्यम से धधक रही थी जो ‘मुझे चांद चाहिए’ की वर्षा वशिष्ठ तक आकर और अनावृत्त हो उठी थी। मैत्रेयी ने तो केवल उस आग की ओर इशारा भर किया था। इससे भी पूर्व मृदुला गर्ग के स्त्री चरित्र, खास कर ‘चित्तकोबरा’ की नायिका जिस तरह स्त्री सुलभ लज्जा का परित्याग कर अपनी वासनाओं का खुला इज़हार करती है, वह धर्मवीर भारती के इस कथन की याद दिलाता है कि ‘न हो यह वासना तो जिन्दगी की माप कैसे हो।’हम न भूलें कि देह पर अधिकार को लेकर स्त्रियों की चेतना का ही यह परिणाम है कि इक्कीसवी सदी में आकर हिंदी कथाकार शिवमूर्ति अपने उपन्यास ‘ कुच्ची का कानून’ में कोख पर स्त्री के बुनियादी अधिकार की हिमायत करते हैं और उनकी कहानियों में चित्रित दलित व पिछड़े वर्ग की स्त्रियां अपने अधिकारों को लेकर दृढता और सजगता से पेश आती हैं।
नासिरा शर्मा के स्त्री किरदार तनिक समावेशी दिखते हैं पर ‘शाल्मली’ में’ स्त्री की लाचारी देखते ही बनती है। जीवन के नरक को दिनोदिन झेलती, टूटती, मुस्कराने का जतन करती और पौरुषेय अहं का पोषण करती जिस तरह शाल्मली पति के चित्त के प्रक्षालन के लिए प्रतिश्रुत रहती है, वह नासिरा शर्मा के लेखक का बारीक कौशल है। शाल्मली का कथन जैसे नासिरा शर्मा का खुद का चिंतन प्रतीत होता है: ‘’फिर एक बार मैं बता दूँ कि मैं पुरुष विरोधी न होकर अत्या्चार विरोधी हूँ। अत्याचारी का कोई नाम और धर्म नहीं होता, तो भी समूह या इकाई में वह हमारे सामने होता है और उसी अत्याचारी से हमें जूझना है। ‘इन उपन्यासकार चिंतकों ने भी हिंदी में स्त्री विमर्श का एक नया माहौल पैदा किया। उसका असर हिंदी कविता पर पड़ना लाजिमी था। राजेंद्र यादव भी ‘हंस’ के पन्नों पर अंत:पुर से बाहर आती हुई नई स्त्री का एक नया खाका खींच रहे थे। उनके संपादकीयों ने भी स्त्रीचिंतन को खुलेपन से जोड़ा।
स्त्रीवादी वैचारिकी: प्रतिफल एवं प्रतिश्रुति
आज हम जिस स्त्रीवादी वैचारिकी का जो फल चख रहे हैं और स्त्रीचिंतन और स्त्री चेतना व स्त्री अधिकारों में जो बेहतरी आई है वह विशेषत: पश्चिम की देन है। वानपस्तिक विज्ञान की पारिभाषिकी के मुहावरे में रख कर कहें तो कह सकते हैं, यह दो संवाहिका ऊतकों– जाइलम और फोएलम का परिणाम है जिनमें से एक, जाइलम पौधे में पानी व खनिज पहुंचाने का काम करता है जिससे पौधे की कोशिकाएं उसे जीवंत बनाती हैं वहीं दूसरी तरफ फोएलम पौधे के शीर्ष से आधार तक भोजन की आपूर्ति करता है। इन्हीं दोनों संवाहिका ऊतकों के द्वारा पौधों को जल खनिज तथा भोजन मिलता है तथा उसके तने और शाखाएं मजबूत होती हैं। कुछ ऐसा ही काम पाश्चात्य स्त्रीवादी विचारकों एवं चिंतकों ने किया है जिन्होंने पूरी दुनिया में सताई जाने वाली स्त्रियों को अपने अध्ययन का विषय बनाया और हर स्तर पर स्त्री को दोयम दर्जे समझने वाली सत्ताओं को इस बात के लिए विवश किया कि उसे भी मनुष्य समझा जाए तथा संविधान और समाज में व्यावहारिक तौर पर उसी तरह ट्रीट किया जाए जैसा कि पुरुष को ट्रीट किया जाता है। स्त्री अधिकारों को लेकर मानवाधिकार संगठनों ने भी मूल्यवान भूमिका निभाई है। स्त्रीवादी विचारक किसी भी चीज को स्त्रीविवेक और पुरुष विवेक से देखे जाने वाले रूख का अध्ययन करते हैं। वे स्त्री विवेक पर पुरुष विवेक या पौरुषेय शक्तियों के आरोपण की आलोचना करते हैं तथा उसे स्त्री के स्वतंत्र विकास और चेतना के निर्माण में बाधक मानते हैं।
स्त्री संघर्ष का इतिहास बताता है कि उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के आरंभ में अनेक सक्रिय महिला आंदोलन हुए किन्तु उन गतिविधियों के वृत्तांत सहजता से उपलबध नहीं हैं। राधाकुमार लिखती हैं कि बीसवीं सदी के आरंभ में महिलाओं के स्वायत्त संगठन बनने शुरु हो गए तथा कुछ ही दशकों में मसलन तीस और चालीस के दशक तक नारी सक्रियता की एक विशेष श्रेणी का निर्माण हो गया। स्वाधीन भारत का संविधान लिंग समानता की गारंटी देता है अत: 70 तक नारीवादी कार्यकलापों में अपेक्षाकृत शांति रही किन्तु इसी दशक में जब लिंग समानता के संवैधानिक आश्वासन का पाखंड खुलने लगा तो महिला आंदोलनों में भी तेजी आई। समाज सुधारवादी आंदोलनो के अगुआ यह तो मानते थे कि पुरुष व स्त्री में भिन्नता है पर इसके कारण वह हेय समझी जाए, ऐसा न हो। उसकी इसी लैंगिक भिन्नता के कारण उसे मां के रूप में माना गया तथा उसकी देखभाल के लिए कुछ मार्गदर्शी नियम बनाए गए। स्त्रियां परंपरागत रूप से मां की भूमिका निभाने को लेकर बहुत संतुष्ट न थीं इसलिए उनके अपने आंदोलन भी खड़े हुए। जब लिंग के स्तर पर संविधान सबको समान मानता है तो लिंग आधारित असमानता या उत्पीड़न खत्म होना चाहिए। धीरे धीरे स्त्री मॉं की रूढ़ि छवि से बाहर निकली तथा उसे पुत्री या कामकाजी स्त्री के रूप में देखा जाने लगा। बेटियों को लेकर महसूस किये जाने वाली समस्याओं व सामाजिक संकीर्णताओं की परिधि तोड़ते हुए उसकी पीड़ा को लेखकों ने महसूस किया तथा उसे साहित्य में रेखांकित भी किया। यह वह समय था जब स्त्री की आर्थिक निर्भरता की बातें उठने लगीं। वे कामकाजी क्षेत्रों से जुड़ने लगीं। इस तरह स्त्री स्वातंत्रय के ढांचे में जो भी असंगतियां थीं वे विचार विमर्श का अंग बनीं। सामाजिक, पारिवारिक, वैधानिक स्तर पर व कानूनी अधिकारों को लेकर यानी हर स्तर पर समानता के सवाल उठने शुरु हुए। इस तरह दो सौ वर्षों के स्त्री आंदेालनों के फलस्वरूप नारीवादी आंदोलन के नए नए गवाक्ष खुलते गए। राधाकुमार का कहना है कि 70 के चिपको आंदोलन में महिलाएं भी जुड़ीं जो प्रकृति और पारिस्थितिकी को लेकर संघर्षरत थीं। शराब विरोधी मुहिम में भी वे जोर शोर से सक्रिय हुईं। इस तरह समाजसेवी संगठनों की सक्रियता के कारण धीरे धीरे शराब, दहेज, तथा स्त्री उत्पीड़न विरोधी माहौल बनता गया तथा इस अभियान से महिलाएं भी खासा संख्या में जुड़ीं। स्त्री अपनी पारंपरिक रूढियों से बाहर निकल रही थी। वह सामाजिक बुराइयों को दूर करने में सहयोगी बन रही थी। आजादी के पूर्व जहां उनकी लड़ाई एक तरफ औपनिवेशिकता के खिलाफ थी वहीं समाज व परिवार में पुरुषवादी मानसिकता के खिलाफ भी उनके भीतर असंतोष की ऑंच पैदा हो रही थी। स्त्री के बुनियादी अधिकारों की बहाली को लेकर सावित्रीबाई, रमाबाई, काशीबाई कानितकर, आनंदीबाई, मैरी भोरे, गोदावरी समस्कर, पार्वतीबाई, सरला देवी, भगिनी निवेदिता से लेकर भिकाजी कामा, कुमुदिनी मित्रा, लीलावती मित्रा जैसी स्त्रियों ने अनेक स्तरों पर संघर्ष किया। भारत में स्त्री का जो स्वरूप आज है बहुत हद तक अधिकारों को लेकर उसमें पुरुष व स्त्री में कोई विभेद नहीं रहा। सदियों संघर्ष यात्रा का परिणाम है आज की बौद्धिक एवं अधिकारसंपन्न स्त्री जो चूल्हे चौके व अंत:पुर से बाहर आ कर देश एवं समाज निर्माण के हर स्तर पर अपनी सहभागिता का अनुष्ठान रच रही है। उसके इस संघर्ष में जहां उसकी तालीम का हाथ रहा है वहीं लेखकों की कृतियों ने भी एक नई स्त्री का प्रतिबिम्ब खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई। चाहे स्त्रीवाद के वैश्विक स्वरूप का प्रतिफलन भारतीय समाज में उस रूप में संभव न हुआ हो किन्तु लिखने पढ़ने का माहौल बांग्ला जैसी दूसरी भाषाओं की तरह ही हिंदी में भी बन रहा था। जैसा कि कहा जा चुका है, उपन्यासों में स्त्री पात्र नया अवतार ले रहे थे। व्यापकपैमान में स्त्रियां कविताएं व कहानियां लिख रही थीं। कुछ अभिव्यक्ति के हक़ में अपने नाम से न लिख पाने की विवशता में छद्म नाम से भी लिख रही थीं कि उनकी सोच का उजाला समाज तक पहुंचे।
हिंदी नवजागरण और स्त्री विषयक पुस्तक में आवाजें जो सुनी नहीं गयीं लेख में हिंदी की सुपरिचित स्त्रीवादी लेखिका प्रो. गरिमा श्रीवास्तव लिखती हैं कि ”रेनेसां ने बहुत सी गीतकारों, कवयित्रियों और संवेदनशील कलाप्रेमियों को रचनात्मकता की अनुकूल मनोभूमि और प्रेरणा प्रदान की।यह समय स्पेंसर और शेक्सपीयर जैसे प्रतिभाशालियों का था,लेकिन इन्हीं के समानांतर स्त्रियाँ छंदबद्ध काव्य भी रच रही थीं,ठीक भारत की तरह जहाँ ब्रजभाषा समेत कई लोकभाषाओं में स्त्रियाँ पुरुषों की तर्ज़ पर छंदबद्ध रचनाएँ लिख रही थीं।” उन्होने अपने शोध से पाया कि उस दौर की स्त्रियां लोक संपृक्ति, आध्यात्मिकता, भक्ति और प्रेम, गृहस्थी और वैराग्य, राष्ट्रप्रेम, आत्मालोचन, व फुटकल प्रकृति की रचनाएं कर रही थीं। उन्होंने मुंशी देवीप्रसाद द्वारा 1904 में प्रकाशित ‘महिला मृदुवाणी’ की चर्चा की है जिसमें मीराबाईसहित 35 कवयित्रियों की रचनाएं संकलित की हैं जिनमें मीराबाई को छोड़ कर प्राय: लोग अन्य के नाम न जानते होंगे। इसी तरह उन्होंने 1931 में ज्योतिप्रसाद मिश्र ‘निर्मल’ संपादित ‘स्त्री कवि कौमुदी’ की चर्चा की है जिसमें मीराबाई, ताज, खगनिया, शेख, छत्रकुंवरी बाई, प्रवीणराय, दयाबाई, कविरानी, रसिकबिहारी, ब्रजदासी साईं, प्रतापकुंवरी बाई, सहजोबाई, झीमा, सुंदरकुंवरी बाई, चम्पादे, विरन्जीकुंवरी, रत्नकुंवरी बीबी, प्रतापबाला, बाघेली विष्णुप्रसाद कुंवरी, रतनकुंवरी बाई, चन्द्रकला बाई, जुगलप्रिया, रामप्रिया, रणछोड़ कुंवरी, गिरिराज कुंवरी सरीखी मध्यकालीन रचनाकारों से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर तक की हेमंतकुमारी चौधरानी, रघुवंशकुमारी, राजरानी देवी, सरस्वती देवी, बुन्देलाबाला, गोपालदेवी, रमादेवी, राज देवी, रामेश्वरी नेहरु, कीरति कुमारी, तोरन देवी शुक्ल ‘लली’,प्रियंवदा देवी और उसके बाद के दौर में भी रचनारत सुभद्राकुमारी चौहान,महादेवी वर्मा ,कुसुममाला सम्मिलित हैं। (हिंदी नवजागरण और स्त्री, ‘आवाजें जो सुनी नहीं गईं’ से) उन्होंने नव जागरण दौर में लिख रही स्त्री रचनाकारों के अलावा तारा पांडे, महादेवी वर्मा,रामेश्वरी देवी मिश्र ‘चकोरी ‘रामेश्वरी नेहरु ,विद्यावती कोकिल से लेकर सुभद्राकुमारी चौहान और होमवती देवी तक नवजागरण के दौर की अनेक कवयित्रियों की लम्बी सूची भी प्रस्तुत की है। यद्यपि साहित्यिक स्तर पर इनमें से कुछ को छोड़ कर प्राय: अन्य रचनाकारों की भले ही अनदेखी की गई हो पर इसके पीछे भी शायद पुरुष सत्तात्मक समाज की जड़ीभूत दृष्टि रही हो। आगे मैंने क्षेमचंद सुमन संपादित प्रेम कविताओं की चर्चा की है जिसमें उस दौर की शताधिक कवयित्रियों की कविताएं संकलित हैं। प्रो गरिमा श्रीवास्तव ने पाया है कि महिला रचनाकारों का उचित मूल्यांकन करने में न आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने न्याय किया,न नंद दुलारे वाजपेयी ने और न ही रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज आलोचक ने। यद्यपि यह उपेक्षा वैश्विक स्तर पर भी हुई जैसी कि भारत में। किन्तु स्त्री रचनाशीलता का यह तारतम्य औपनिवेशिक भारत से लेकर आज के आधुनिक भारत तक अटूट विद्यमान है।
स्त्रीवादी रुख और कविता
जहां तक स्त्रीवादी रूख और कविता का संबंध है, स्त्रीवादी चिंतन का प्रभाव निस्संदेह आज की कविता पर पड़ा है। जैसे जैसे पश्चिम के विचारकों की अवधारणाएं हमारे यहां पहुंची स्त्रियों में अपनी सामाजिक स्थिति को लेकर जागरूकता पैदा हुई। धर्म समाज और रूढ़ियों में जकड़ी स्त्रियों के लिए स्त्रीवादी वैचारिकी एक उपचार की तरह थी। तमाम स्तरों पर स्त्रियों के हालात, उन पर पौरुषेय शक्तियों के दबाव की तीखी प्रतिक्रियाएं बौद्धिक वर्ग की स्त्रियों में हुए। ऐसा नहीं कि केवल पश्चिमी स्त्रीवादी चिंतन के फलस्वरूप ही हमारे यहां स्त्रीवाद पनपा बल्कि सच कहें तो पश्चिम से ज्यादा हमारे यहां का भारतीय समाज स्त्रियों के मामले मे सड़ा गला रहा है। स्त्री अधीनताओं में पलने वाली वस्तु की तरह मानी जाती रही है। उन्हें तालीम नहीं दी जाती थी, उन पर आए दिन हिंसा होती थी, देहात कस्बों की स्त्रियॉं केवल पति और पुरुष सत्ता की अनुगामिनी थीं तो कुलीन समाज में भी एक स्त्री की कोई निर्णायक हैसियत नहीं रही । निम्न समाजों में तो वह अपने ही परिश्रम से पूरे परिवार को जिलाने वाली शक्ति रही है किन्तु अधिकार के नाम पर वह क्षीणबल थी। संपत्ति के अधिकार के साथ अन्य स्त्री अधिकारों की बहाली के कारण स्त्री की स्थिति कुछ मजबूत अवश्य हुई किन्तु भारत में स्त्रियों के अनेक वर्ग रहे हैं—इन वर्गों की स्त्रियों के हालात भी आपस में भिन्न रहे हैं। अनेक समाज सुधारों के साथ स्त्रियों में बेहतरी तो आई किन्तु आज भी हालात इतने स्वर्णिम नहीं हुए कि आज ‘स्त्रीवाद’ की कोई जरूरत न हो।
स्त्री की स्थिति पर विचारते हुए ही एक विचारक चेरिस क्रामरे ने यह पाया कि “नारीवाद एक चरम धारणा है कि महिलाएं इंसान हैं।” यही बात दूसरे लफ्जों में रेबेका वेस्ट ने लिखा है कि ‘मैं खुद कभी भी ठीक से यह नहीं जान पाई कि नारीवाद क्या है : मैं केवल यह जानती हूं कि जब भी मैं अपनी भावनाओं को व्यक्त करती हूं तो लोग मुझे एक नारीवादी कहते हैं जो मुझे एक डोरमैट से अलग करता है।” मशहूर स्त्री विचारक वर्जीनिया वुल्फ कहती है कि “जब तक वह एक पुरुष के बारे में सोचती है, कोई भी उस महिला की सोच पर आपत्ति नहीं करता है।” पर इस पर एक संतुलनवादी रुख अख्तियार करते हुए ग्लोरिया स्टेनम ने कहा कि ”एक सच्ची नारीवादी वह है जो महिलाओं और पुरुषों की समानता और पूर्ण मानवता को ध्यान में रखती है।” हालांकि यह दुनिया स्त्री-पुरुष के एकीकरण से बनी है। उसके सहकार से ही सृष्टि है, जीवन है, सारी व्यवस्था है; तथापि कहीं न कहीं पुरुष वह आजादी स्त्री को देना नही चाहता जिसका उपभोग वह करता या करता रहा है। चर्चित कृति ‘द फिमेल इनख’ की आस्ट्रेलिया लेखिका जर्मन ग्रियर ने औरत की यौनिक मुक्ति के लिए संघर्ष किया क्योंकि उनका मानना था कि औरत की व्यापक मुक्ति को संभव करने की चाभी यही है। आखिर क्या वजह है कि एक मशहूर और सुंदर लेखक टेड ह्यूज से प्रेम व ब्याह के बावजूद बाद के दिनों में संबंध विच्छेद से जन्मे अवसाद के कारण जानी मानी अमरीकी कवयित्री सिल्विया प्लाथ को आत्महत्या करनी पड़ी। उसकी कविताएं उनके मनोचित्त की ग्रंथिल परिस्थतियों की गवाह हैं—
मरना
एक कला है, जैसे बाकी सब.
मैं इसे बखूबी करती हूँ.
मैं इसे करती हूँ इसलिए यह नरक की तरह महसूस होता है.
मैं इसे करती हूँ इसलिए सच महसूस होता है
मेरा अंदाजा है तुम इसे मेरी प्रकृत नियति कहोगे.
……
श्रीमान ईश्वर, श्रीमान लूसिफर
खबरदार
खबरदार.
राख से
मैं अपने लाल केशों के साथ उठती हूँ
और मैं आदमियों को हवा की तरह खाती हूँ
उसकी कविता ‘ डैडी’ कविता की काव्य-नायिका कहती है:
हर महिला पूजती है एक फासिस्ट,
चेहरे पर बूट, निर्मम
निर्मम हृदय तुम्हारे जैसे किसी क्रूर का. .(मार्तंड प्रगल्भ के अनुवादों से)
अवसाद के कारण वर्जीनिया वुल्फ को भी जीवन खत्म करना पड़ा किन्तु उसके विचारों ने दुनिया भर के नारीवादी आंदोलनों को प्रेरित किया। उसकी कृति ‘ए रूम आफ वन्स ओन’ केवल साहित्य की ही नहीं, स्त्रीवादी चिंतन की एक महत्वपूर्ण कृति मानी गयी। उसका कहना था कि यदि स्त्री को उसका एकांत चाहिए। ए रूम आफ वन्स ओन। किसी शायर का कहा याद आता है : घर की तामीर चाहे जैसी हो, उसमें रोने की इक जगह रखना। आज स्त्रियों के लिए वह एकांत सुलभ नहीं है जहां वे अपने थके हुए अस्तित्व को विश्रांति दे सकें। हिंदी की जानी मानी कथाकार मधु कांकरिया पर वागर्थ में अनौपचारिक वृत्तांत ‘छोटी सी निज जिन्दगी में’ लिखते हुए मैंने एक शेर उद्धृत किया था: ‘मैं बहुत खुशरंग अरमानों की चादर थी मगर/मुझको मेरी जिन्दगी ने ओढ़ कर मैला किया।’ आज भी ऐसी बेरंग-बेनूर होती स्त्रियों की तादाद कम नहीं है।
आजादी के तमाम वर्षों बाद और दुनिया में आधुनिक विचारों की दुंदुभि के बावजूद आज स्त्रियॉं महफूज नहीं हैं,। किसी मानवीय सभ्यता पर किसी पूंजीवादी देश की गाज गिरती है तो सबसे पहले स्त्रियां और बच्चे शिकार होते हैं। इसका उदाहरण हाल के अनेक युद्धों में देखा जा सकता है। चाहे वह इराक पर अमरीकी सेनाओं का आक्रमण हो या अफगानिस्तान में हुई बर्बरताएं। अफगानिस्तान, इराक़, ईरान,सीरिया और फिलिस्तीन की भयावहता के निशान निशान अभी मिटे नहीं हैं। प्रो. गरिमा श्रीवास्तव ने ‘देह ही देश’ नामक अपनी प्रवास की डायरी में क्रोएशिया, बोस्निया की युद्ध पीड़िताओं से मिल कर उनकी यातनाओं का जो मार्मिक बयान किया है वह हमें विचलित कर देने के लिए पर्याप्त है। गरिमा ने लिखा है, “जिज्ञासा और वैश्विक स्त्रीवाद के पक्ष में खड़ी सीमोन द बोउवार की ‘ए वेरी इजी डेथ’ का हिंदी तर्जुमा करते करते पूर्वी यूरोप की स्त्रियों के अनुभवों ने कब मेरी डायरी में अपनी ढेर सारी जगह बना ली, पता ही नहीं चला।(देह ही देश, पृष्ठ 7 ) वे कहती हैं कि शोषण हिंसा और यातना की दास्तानें बताती हैं कि स्त्रियों की देह पर नियंत्रण करना युद्ध नीति का ही एक हिस्सा होता है। विकासशील देशों में नागरिक विस्थापन और असुरक्षा की समस्या के विश्लेषण में स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा हमें जेंडर, सेक्सुअलिटी, सामूहिक अस्मिता के निर्माण और स्वरूप के रग रेशों को समझने में मददगार हो सकती हैं। उन्होंने लिखा है, ” यातना शिविरों से मन-तन पर अनगिन घाव लेकर लौटे घर के मुखिया की जुबान और आंखें प्रश्नहीन रहा करतीं। पति की अनुपस्थिति में गर्भवती हुई स्त्रियों की कोख और बाद में जन्मी संतानें ही युद्ध का भयावह परिणाम बन कर सताती रहीं।” वे बताती हैं कि युद्ध अब एक उद्योग बन चुका है जिसके पीछे कितने ही आशय छिपे होते हैं जो राष्ट्रवाद की कोख में जमीदोज हो जाते हैं।
याद आता है अफ्रोएशियाई लेखन पर आए पांच खंडों की पुस्तक सीरीज में से एक में नासिरा शर्मा ने जेरूसलम की बच्चों की लेखिका नूरिट ज़ारची से बातचीत में पाया कि उनके पास एक कविता है जो पहला औरत के हक़ का बयान था जो यूनाइटेड स्टेट में छपा। पर्चे पर दर्ज कविता का शीर्षक था- गॉड सेव अमेरिका। नासिरा जी उस कविता से गुजरती हुई एक अंश रखती हुई पाती हैं कि कैसे स्त्री की मुक्ति को लेकर उनके और भारतीय महिला लेखकों के विचारों में समानता है —
खु़दा हर औरत के अधिकार की रक्षा करो
उसे दिखाओ सम्मोहित करने वाला पक्ष
औरत आजाद है
आजादी की आवाज़ को फैलने दो
नकाब को हटा दो एक किनारे
करो दीप्तिमान अभिवादन
मीठी स्वतंत्रता की। (एफ्रो-एशियाई नाटक एवं बुद्धिजीवियों से बातचीत, पृष्ठ 320)
एफ्रोएशियाई साहित्य की खूबियां बयान के बाहर हैं। यहां आंसुओं का सफर है तो जागती आंखों के ख्वाब भी। कश्मीरी शबनम एशाई की नज़्में दुख से भीगी हैं । सफ़रे ईजाद में वे कहती हैं, ” मैं मोर की मानिंद अपने पैरों को देख कर रोती हूं/ मेरे कदम मुझे वापस कर दो/इंतेकाल से पहले मैं अपना दिल कहीं बो देना चाहती हूँ।” एक लेबनानी कवयित्री रिश्तों को इस तरह परिभाषित करती है: ”मैं जानती हूँ मर्द के दो दिल होते हैं/ और मेरा दिल वचनबद्ध/ मर्द का आना एक हल्का सैलाब है और जाना सिर्फ मलबे का ढेर।” जैसा कि कहा एफ्रोएशियाई कविताओं में जलावतनी के ग़मों से तार तार हुई जिन्दगी की शायरी है तो युद्ध, कत्लेआम, तबाही और तानाशाही का मंजर भी। लिखने-बोलने की आजादी के लिए कलमकारों को कितनी जद्दोजेहद उठानी पड़ी है, शायरों के कलाम उनके गवाह हैं। तभी तो सीरिया पहुंच कर नासिरा शर्मा के होठों से यह बात बेसाख़्ता निकली थी कि ‘मैं यहां दुखों की खेती काटने आई हूँ।’ ऐसे में ऐसे मुल्कों में स्त्रियों की हालत होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
हमारे यहां स्त्रियों को पुरुष की इज्जत माना जाता है कि स्त्री की इज्जत लुटी कि पुरुष का स्वाभिमान लुढ़का। यही कारण है कि समाज में प्रचलित सारी गालियां औरतों के लिए ईजाद की गईं। इसीलिए आज भी न बलात्कार कम हुए हैं न छल न फरेब न प्रेम और पूंजी के जाल में आबद्ध कर स्त्री का भावनात्मक शोषण करने वाली ताकतें। हमारे यहां के सामंती ढांचे में स्त्री का कोई व्यक्तित्व न था। वे कहने को घर की लक्ष्मी थीं पर उनकी कोई हैसियत न थी। इसीलिए कविताओं में स्त्री कवियों ने न पिता को बख्शा है, न प्रेमी को, न लाभ और लोभ की लालच में वेश्यालयों में पहुंचा देने वाले नकली समव्यथियों को। स्त्री जीवन की हजार हजार समस्याओं पर तभी बातचीत की जा सकती थी जब वह स्त्रीवाद को भी एक राजनीतिक मुहिम का जामा पहनाए और कवयित्रियों, नारीवादी चिंतकों ने यही किया।
इस स्त्रीवाद के कारण साहित्य में अनेक स्तरों पर इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। ‘वीमेन लिबरेशन’ यानी स्त्री मुक्ति के अभियानों के फलस्वरूप में पनपे आंदोलनों का लाभ भी स्त्री को मिला। किन्तु आज भी स्त्री पर बलात्कार, हिंसा, गैरबराबरी, दाम्पत्य शोषण, दहेजदहन, पुत्र न जनने के कारण दुर्भाग्यशाली होने का कलंक माथे पर लिए फिरना, निस्संतान होने का दंश—हमारे यहां के लोकगीत स्त्रियों की बदहाली के गवाह हैं। क्योंकि स्त्री मूलत: करुणा, प्रेम, दया और वात्सतल्य व सख्य की प्रतिमूर्ति है, इसलिए एक दौर में उसकी कविताओं में ये तत्व ज्यादा घनीभूत रहे हैं। महादेवी वर्मा के समय की स्त्रियॉं विद्रोहिणी तो थीं किन्तु वे कुलटा कहे जाने के अपयश से बचती थीं और नीरभरी दुख की बदली कह कर संतोष पाती थीं। जिस दौर में स्त्रियों का घूँघट खोलना तक मना था, उस दौर में उनके लिखने पढ़ने की बात क्योंकर की जाती। स्त्रियां सच कहें तो तब लिखनेपढनेके लिए भी स्वतंत्र न थीं क्योंकि उनके परिवारों में पतियों को यह काम पसंद न था। एक बार क्षेमचंद्र सुमन ने ‘आधुनिक हिंदी कवयित्रियों के प्रेमगीत’ नामक पुस्तक साठ के आसपास निकाली थी। उसमें उन्होंने सैकड़ों कवयित्रियों के प्रेम गीत संकलित किए। पर बहुत अनुरोध के बावजूद एक कवयित्री ने सुमन जी को पत्र लिख कर बताया कि
“आपके कई पत्र मुझे मिले। उत्तर न देने की अपराधी अवश्य हूँ
किन्तु मेरे पतिदेव कविता और कल्पना लोक पसंद नहीं।
इस कारण मैं इस क्षेत्रसे बहुत पीछे हट आई हूँ।
अपनी रचनाएं मैंने नष्ट कर दी हैं और यह भूल गयी हूं
कि कभी मैंने भी कुछ लिखा था। इस तरह से भावनाओं का
गला घोंट कर मैंने अपने पति का मन तो जीत लिया
किन्तु आत्मसमर्पण में वेदना बहुत हुई।”
आगे और भी कुछ लिखते हुए अंत में लिखा कि आशा है कि आप मेरी इस उदासीनता को विवशता समझ कर क्षमा करेंगे और कवयित्रियों की सूची से मेरा नाम काट देंगे। ऐसे कितने ही पत्र सुमन जी को मिले जिनमें पति को पत्नी का कविता करना या इस क्षेत्र में ख्याति पाना पसंदन था। सरस्वती की कितनी वरदपुत्रियों के गले घोंटदिए गए। वे असमय एक कवयित्री के रूप में विलुप्त हो गयीं। सुमन जी के इस चयन में अमृता भारती, आशारानी व्होरा, इंदु जैन, कंचनलता सब्बरवाल, कीर्ति चौधरी, कुसुम कुमारी सिन्हा, गिरीश रस्तोगी, चंद्रकांता, चंद्रकांता सोनरिक्सा, चंद्रमुखी ओझा सुधा, तारा पांडे, तोरण देवी शुक्ल लली, दिनेश नंदिनी डालमिया, दीप्ति खंडेलवाल, दुर्गावती सिंह, प्रकाशवती, मणिका मोहिनी, मधुमालती चौकसी, मनमोहिनी, महादेवी वर्मा,मालती जोशी, रामेश्वरी देवी चकोरी, विद्यावती कोकिल, विद्यावती मिश्र, शकुंत माथुर, शांति मेहरोत्रा, शांति कुमारी सुमन, शुभा वर्मा, शैल रस्तोगी, स्नेहमयी चौधरी, स्नेहलता स्नेह, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, सावित्री डागा, सुभद्राकुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा, हर्षनंदिनी भाटिया, स्व.होमवती देवी, ज्ञान अस्थाना, ज्ञानवती सक्सेना आदि कवयित्रियों के गीत संकलित हैं। प्रेम के अनूठे गीतों से संपन्न यह चयन उस दौर का एक प्रातिनिधिक चयन है जहां हम देख सकते हैं कि लिखने पढ़ने की अपार बंदिशों के बावजूद हमारे समाज की स्त्रियॉं लिख रही थीं। उस वक्त कविताएं लिखना ही एक विद्रोह से कम नही था जबकि वे प्रेम कविताएं लिख रही थीं। मानवीय प्रेम, करुणा, जिजीविषा से भरी उनकी रचनाओं को देख कर लगता है कि आज भले हम स्त्री रचनाकारों में कुछ ही कवयित्रियों का ही अक्सर उल्लेख देखते हैं किन्तु स्त्री कविता को समृद्ध करने में सैकड़ो स्त्री रचनाकारों का योगदान रहा है।
स्त्रीवादी कविता का दौर
हिंदी कविता में स्त्री-चैतन्य की आमद महादेवी वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान जैसी कवियित्रियों और पंडिता रमाबाई, सावित्री बाई फुले जैसी जागरुक समाज-सुधारवादी स्त्रियों के जरिए हुई। पर पश्चिम के स्त्रीवाद के फलस्वरूप हिंदी में भी आधुनिकतावादी स्त्री वैचारिकी का आगम हुआ। सप्तक के बाद आने वाली कवयित्रियों में अकवितावाद की कवयित्रियों में कुछ उच्छृंखल यौन अभिव्यक्ति का उन्मेष हुआ किन्तु सच्चे अर्थों में स्त्री चैतन्य का विकास तेजी ग्रोवर व गगन गिल की कविताओं में देखा गया। तेजी ग्रोवर के संग्रह ‘यहां कुछ अंधेरी और तीखी है नदी’ और ‘जैसे परंपरा सजाते हुए’ 1983 के आसपास आए व 2000 तक दो संग्रह और। इस तरह उनकी कविताओं से स्त्री चेतना संपन्न स्त्री का दौर शुरु हुआ जो 1983 में आए गगन गिल के कविता संग्रह ‘एक दिन लौटेगी लड़की’ से और परिपुष्ट हुआ। इस बीच तेजी ग्रोवर के तीन और संग्रह आए जिनमें नवीनतम ‘दर्पण अभी कॉंच ही था’ है। पर तेजी ग्रोवर के कवि के यहां स्त्रीवाद का तल्ख स्वरूप नहीं मिलता। वह पौरुषेय सहकार को जीवन की अपरिहार्यता मानता है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए हम एक शाश्वत अनुराग से बंधे होते हैं जिन्हें पढ कर हम जीवन, कल्पना, विचार और संवेदना में रम जाते हैं। यहां सवाल पूछने जैसा उबाल नहीं मिलता जो गगन गिल के यहां कुछ कुछ मुखर लगता है। गगन गिल की कविताओं की स्त्री इच्छाओं और यातनाओं को आकार देने में उल्लेखनीय भूमिका रही है। ‘एक दिन लौटेगी ल़ड़की’ बलात्कार, यातना और पाश्चात्ताप से पीड़ित युवती का वृत्तांत है : ‘एक दिन लौटेगी लड़की / हथेली पर जीभ लेकर/ हाथ होगा उसका लहू से लथपथ, मुँह से टपका लहू कपड़ों में सूखा हुआ।’ गगन गिल ने स्त्री के दुखों के आवर्तों को झकझोरा तथा अन्य समकालीनों पर अपनी कविताई का प्रभाव भी छोड़ा। न सही गांव कस्बे की, शहर और महानगर की ही लड़कियों की पीड़ा के अनंत छोरों को उद्घाटित करने में गगन गिल ने पहल की। कवयित्रियों की झिझक तोड़ी। तेजी ग्रोवर के यहां स्त्री यद्यपि इस हद तक निराशा के आवर्त में न दीखती थी पर गगन गिल के बाद के परिदृश्य में पहले दो संग्रहों के साथ अनामिका का उद्भव हुआ। पर जिसे शुद्ध ‘स्त्रीवाद’ कहते हैं उसकी कोई बहुत ठोस जमीन अनामिका की इन कविताओं में न थी। वह ज़मीन पहली बार ठीक ठीक ‘खुरदुरी हथेलियां’ से उद्घाटित हुई जिसमें स्त्री अपने अंत:पुर से बाहर निकलती दिखाई देती है। इससे पहले सविता सिंह की कविता ‘मैं किसकी औरत हूँ’ परिदृश्य में आ चुकी थी। उस कविता ने पौरुषेय हल्के में एक आंदोलन-सा पैदा किया। कुछ आलोचकों की भृकुटियां भी तनीं कि ‘मैं किसकी औरत हूँ’ पूछने वाली आखिर क्या कहना चाहती है। इसमें दो मत थे। एक मत सुधीश पचौरी का था कि यह कविता स्त्री विमर्श के नए मुहावरे में बात करती है, दूसरी तरफ नामवर सिंह जैसे आलोचक ने बहुत हल्के से लेते हुए गतानुगतिक मान्यताओं को उद्धृत करते हुए कहा कि ऐसा सवाल तो कोई वेश्या ही पूछ सकती है। इस पर उस वक्त तीखी प्रतिक्रियाऍं हुई। किन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि यह कविता चर्चा में आई और हिंदी में उभर रहा स्त्रीवाद भी। हालांकि उनका पहला संग्रह ‘अपने जैसा जीवन’ 2001 में आया, निर्मला गर्ग के ‘यह हरा गलीचा’ (1992) और ‘कबाड़ी का तराजू’ (2000) के बाद। पर वे स्त्रीवादी कवयित्री के रूप में चर्चा में आ चुकी थीं। वे उस मानक को अधूरा पा रही थीं जिसमें यह माना जाता है कि स्वतंत्रचेता स्त्री के दुर्लभ अनुभव किसी पौरुषेय चेतना से हासिल किए जा सकते हैं। वे मानती हैं कि स्त्रीवादी कविताएं स्त्री अपनी स्त्री चेतना से ही संभव करती है तथा उसी कसौटी पर रख कर उसे परखा जाना चाहिए।
यह अकारण नहीं कि हिंदी के कविता परिदृश्य में 1983 के बाद कवयित्रियों की उपस्थिति आश्वस्ति देने वाली है। किन्तु स्त्री विमर्श के आग्रही व्यक्तियों का यह मानना है कि कविता में स्त्रियों की संवेदना-सत्ता कवियों से अधिक कवयित्रियों में प्रामाणिक ढंग से व्यक्त होती है या कि यह अहसास कि ऐसी कविता शायद एक स्त्री ही लिख सकती है। हिंदी में गगन गिल, कात्यायनी, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, अनामिका, निर्मला गर्ग और तेजी ग्रोवर का यही दौर है जो अलग-अलग तरीके से स्त्री संवेदना और स्त्री वैचारिकी का अपना-अपना पाठ रखती रही हैं। स्त्रियों को लेकर अनेक कवियों ने कविताएँ लिखी हैं पर जैसे वहाँ भी एक पुरुषवादी दृष्टि काम कर रही होती है, जो अक्सर एक तरह के भावातिरेक में डूब जाया करती है। कवयित्रियों के जीवनावलोकन से यह संभव हुआ कि हम स्त्री-संसार को कम से कम उनके अपने नज़रिये से अधिक विश्वसनीयता के साथ देख-पा सकें। यह सच है कि ज्यादातर कवयित्रियाँ जीवन भर केवल प्रेम कविताएँ ही लिखती रह जाती हैं, बाहर के जीवन-सरोंकारों से रू-ब-रू ही नहीं होतीं। अन्तर्मुखता में ही उनका कवित्व सिमट जाता है। इसके विपर्यस्त, कात्यायनी, निर्मला गर्ग, नीलेश रघुवंशी और सविता सिंह की कविताओं की दुनिया केवल प्रेम कविताओं तक सिमट कर नहीं रह गई है, बल्कि समाज की आरण्यक संस्कृति में स्त्रियों के बहुविध उत्पीड़नों को अपने अनुभव के भव में शामिल करती हैं।
स्त्रीवादी कवयित्री निर्मला गर्ग लिखती हैं: मुझे लगता है स्त्रियाँ संसार की सबसे अद्भुत सबसे कोमल वस्तु होती हैं। उनमें बहुता सा प्रेम होता है। डूब सकती है सारी सृष्टि। मंगलेश डबराल अपनी डायरी में लिखते हैं, स्त्रियों के भीतर अथाह जलराशि है,कई जंगलों की निविड़ता या वे हवाओं का घर हैं। एक समानांतर अनुभूति है यह। निर्मला गर्ग स्त्रियों के भीतर की निविड़ उदासियों का पता लगाती हैं, अपने ही भीतर घुमड़ती इच्छाओं के रंगों को स्त्री-इच्छा के आईने में उतारना, चश्मे के काँच में चौहत्तर वर्ष की बूढ़ी औरत के झुर्रीदार सपनों को टटोलना, डायना, वरुणा, कमला बलान, सितारा और मिसेज गुप्ता के जरिए भारतीय स्त्रियों के जीवन में घुस आए डार्क रूम की व्याख्या निर्मला की कविताओं में हम देख सकते हैं। अखबार के लिए स्त्रियों पर ही लिखवाने की पुरुषवादी प्रवृत्ति को चिह्नित करती हुई वे स्त्रीवाद के दायरे से अपने को बाहर खींच लाना चाहती हैं। यही वजह है कि वे स्त्री के चेहरे से एक टूटी-फूटी सड़क का रूपक बुनती हैं, उसके मन के डार्करूम में बनती तस्वीरों का ब्लू प्रिंट निकालती हैं और तस्वीरों की तरह धुलती उदासियों का ग्राफ तैयार करती हैं। पर अक्सर कवयित्रियों की राह यहीं तक आती है, स्त्री-संसार के बाहर वे कम ही कदम रखती हैं। निर्मला ने इस परिधि को किंचित लाँघने का साहस किया है। एकरूपता के विरुद्ध कविता के जरिये वे यूनीलेटरल कल्चर की संकीर्णताओं पर चिंता जताती हैं, धर्म के नाम पर चलाये जा रहे कारोबार की तफतीश करती हैं और बंजर दिमागों में हो रही धार्मिक उन्माद की खेती का जायज़ा लेती हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अपनी परिभाषा के साथ इस संस्कृतिबहुल देश में उभरते एक नए देश, जिसमें मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों की कोई जगह न हो, के प्रति वे अपनी चिंता का इज़हार करती हैं। उनका कविता का ग्राफ सीधा है–अभिधा का सधा हुआ इस्तेमाल। किन्तु वे कहती हैं, मेरी कविता इन दिनों नई नई पोशाकें छाँटने में व्यस्त है। नष्ट होते सांस्कृतिक अभिप्रायों,मूल्यों के प्रति कवयित्री सचेत है, ध्वस्त बंदरगाह, मानचित्र, नदी जो खो गई, स्मृति सभा में जैसी कविताएँ इस दृष्टि से पठनीय हैं। महानगर की धूल-धक्कड़ से आजिज एक सड़क की मानिंद वह एक लंबी छुट्टी पर जाना चाहती हैं जहाँ वह देख सके—पानी पर फैलते रंगों का विन्यास और आँखें खुलें सुबह पक्षियों के संगीत से।
सविता सिंह ने शुरु से ही अपने को स्त्रीवादी वैचारिकी के ढॉंचे में ढाला है तथा मानती हैं कि स्त्रीचेतना और स्त्री विवेक के बिना हम स्त्री के साथ न्यायिक रुख नहीं अपना सकते। उनकी कविताएं इसका प्रमाण हैं। जहां (अपने जैसा जीवन) में दूधिया रात में उदास करने वाली चाँद-सी पीली लौ के बिम्ब हैं तो मेपल की पत्तियों से झरती नामालूम उदासी भी, जिसके भीतर एक निजी कोने की तलाश है और अपने जैसा जीवन जीन की चाहत भी, जहाँ हवा, फूल, आसमान, रात और नींद भी अपने जैसी हो। जो अपने परिचय में पूछती है, कौन है वह/ जो है मुझमें मुझ-सी/ दुख में दुख की प्रतिच्छाया-सी। एक विस्थापित मन, विषण्ण ह्मदय,विकल उद्विग्नता और अवसाद के धूसर रंगों से रची इन कविताओं में स्त्री-जीवन की विडंबनाओं को लेकर यह जानने-समझने की सहज जिज्ञासा भरी है कि क्यों है हम जैसों का जीवन/ इतना उद्विग्न, इतना कठिन। एलेन की दोस्त, रुथ का सपना,सारा का सुंदर बदन, रोज़मरी एक अच्छी लड़की है, विमला की यात्रा, रोती है सुप्रिया, कुसुम का सत्याग्रह, सपने की औरत तथा लड़कियों-स्त्रियों पर आधारित अनेक कविताओं में उल्लास की बजाय उदासियों को खँगालने का प्रयत्न दिखता है। स्त्रियों के अँधेरे कोनों को कभी उनके नाम से, कभी अपने जैसे जीवन से जोड़कर देखते-व्यक्त करते हुए सविता सिंह ने स्त्री-मुक्ति और स्त्री-विमर्श की उल्लसित संवेदना का भी पुनर्भाष्य किया है। स्त्री अस्मिता और स्त्री मुक्ति के इन वर्षों में जब बचपन बचाओ, आजादी बचाओं जैसी मुहिम चौतरफा चल रही हो, स्त्रियों को स्वायत्तता और पूर्णता देने का पुरुष-विवेक आज भी कहीं कहीं अधिकारवादी रवैये से ही ग्रस्त है। संकीर्णताओं और अहंकार में डूबे समाज में स्त्रियाँ आज भी पण्य हैं, बल्कि उदारतावाद की आँधी ने स्त्रियों के आँचल और लड़कियों के दुपट्टे अवश्य उघाड़ दिए हैं, उन्हें सच्चे अर्थों में आजाद नहीं किया है। उनकी कविताएं इस उम्मीद से भरी है कि शायद स्त्री-जीवन में फिर हो रागिनियों का ऊधम, बहे प्रणय का अबाध प्रवाह, हवा लहराए अपनी छाती से दुपट्टा उतार। अन्तर्मुखता से होती हुई ये कविताएँ उत्तरोत्तर मुखर और प्रखर होती हैं तथा अपनी स्त्रीवादी वैचारिकी के साथ एक सर्वानुमति सी बनाती चलती हैं। उनके अन्य संग्रह ‘नींद थी और रात थी’ व ‘स्वप्न समय’ स्त्रीवाद की इसी वैचारिकी को पोसते हैं।
सविता सिंह की कविताओं में स्त्री अस्मिता को लेकर जो विषण्ण राग आद्यंत पसरा हुआ है, उसकी शिनाख्त उनकी कविताओं में की जा सकती है। वे उन आधुनिक स्त्रियों की नुमाइंदगी करती हैं जो अपने अवचेतन में व्याप्त स्त्रियों की दुनिया का एक रूपक गढ़ती हैं और उसे गहरे स्याह संवेदन और नीले रंग से रंगती हैं। इस संवेदना का रंग शहरी कवयित्रियों में कहीं ज्यादा प्रगाढता से मिलता है। आधुनिक सभ्यता के इस मोड़ पर भी स्त्रियॉं एक टीस के साथ जीवन बिता रही हैं, सोच कर दुख होता है। दुख होता है कि दुस्वप्न का यह राग स्त्रियॉं सदियों से गाती चली आ रही हैं। ये कविताऍं बताती हैं कि भौतिक संपन्नता और आधुनिकता की चेतना से लैस इस युग में भी स्त्री अपनी इच्छाओं से अनुकूलित नहीं है। वह जीवन को एक स्वप्न की तरह जीती है—और स्वप्न को जीवन की तरह—स्वप्न चाहे कितने ही मोहक हों, भोर होते ही स्मृतियों की हथेलियों से चू पड़ते हैं। ‘ नींद थी और रात थी’ और ‘स्वप्न समय’ को पढ़ना आधुनिक मध्यवर्ग की स्त्रियों के अलक्षित अंत:संसार से गुज़रना है। समालोचन की एक कविता ‘हवा संग रहूँगी’ में उनकी यह सोच कितनी स्वाभाविक है; पर यह भी क्या इस गृहस्थी के खटराग में संसार सें सुलभ है। स्त्रीवादी विचारणा को एक बड़ा आधार देने वाली उनकी कविता ‘मैं किसकी औरत हूँ’ अपने आप में सवाल और जवाब दोनों है।
मैं किसी की औरत नहीं हूँ
मैं अपनी औरत हूँ
मैं किसी की मार नहीं सहती
और मेरा परमेश्वर कोई नहीं
उन्मुक्त हूँ देखो,
और यह आसमान
समुद्र यह और इसकी लहरें,
हवा यह
और इसमें बसी प्रकृति की गंध सब मेरी हैं,
और मैं हूँ अपने पूर्वजों के शाप और अभिलाषाओं से दूर
पूर्णतया अपनी (अपने जैसा जीवन, पृष्ठ 40)
आजाद भारत में जहां एक नागरिक अपने को आजाद महसूस करता है वहां स्त्रियॉं किसी की खेती, किसी की जायदाद बताई गयी हैं । उन्हें उतनी आजादी भी नहीं जितनी किसी पशु को भी उपलब्ध है। अपने काव्यात्मक अंदाज में यह कविता आजादी के बाद की उन तमाम स्त्रियों पर सवाल और एक अघोषित कैद से रिहाई की राह सुझाती है जिनकी अस्मिता पर पहरे हैं जो आज भी ‘तुम हो यह पर्दा हिला कर बता दो’ की भूमिका में जीवन बिता रही हैं। जहां तक एक स्त्रीवादी कवयित्री के रूप में सविता सिंह का सवाल है, वे जहां कविताओं में स्वप्न, नीले रंग, राग के सांसारिक बोध, मुक्ति के प्रकृत अहसासों को और खास कर स्त्री मुक्ति के सवाल उठाते हुए हमारे बौद्धिक तंत्र को झकझोरती हैं वहीं वे स्त्री चिंतकों से संवादमयता का रिश्ता बनाती हैं–
सिल्विया प्लाथ आओ
मेरी आत्मा में बसो
निश्चिंतता महसूस करो
यहाँ दूर-दूर तक कोई पुरुष तुम्हें
इतना बेबस नहीं कर सकेगा अपनी क्रूरता से
कि तुम नष्ट हो जाओ
अपने प्रेम से नहीं मार सकेगा वह तुम्हें दोबारा
आओ अपनी बाकी कविताएँ लिखो (स्वप्न समय, पृष्ठ 21)
स्त्री होने की अपनी गहरी पहचान को न खोने वाली बल्कि कविताएं लिखते वक्त भी इस प्रतीति के साथ संलग्न रहने वाली सविता सिंह ने गए तीन दशकों में देश दुनिया भर के स्त्री आंदोलनों को समझने, स्त्रीवादी वैचारिकी के अध्ययन में बिताया है। जाहिर है कि स्त्री अस्मिता के सवाल उनकी कविताओं में बहुत बारीकी से घुस आते हैं जिन्हें उनकी कविताओं के बारीक अध्ययन से समझा जा सकता है।
1997 में आए अपने पहले संग्रह ‘घर निकासी’ से स्त्रीवाद की नींव, जिसे पीछे गगन गिल जैसी कवयित्री ने डाली थी, उसे नीलेश रघुवंशी और पुख्ता कर चुकी थीं। स्त्री विमर्श पर उनकी कविता कहती है :
मिल जानी चाहिए अब मुक्ति स्त्रियों को
आखिर कब तक विमर्श में रहेगी मुक्ति
बननी चाहिए एक सड़क, चलें जिस पर सिर्फ स्त्रियां ही
मेले और हाट-बाज़ार भी अलग
किताबें अलग, अलग हों गाथाएं
इतिहास तो पक्के तौर पर अलग
खिड़कियां हों अलग
झांके कभी स्त्री तो दिखे सिर्फ स्त्री ही
हो सके तो बारिश भी हो अलग
लेकिन…
यह ‘लेकिन’ जैसा अवरोधक ही है कि स्त्रीवाद बाद की कवयित्रियों के लिए एक कसौटी बनता गया। यह बात साफ होती गयी कि स्त्री के अधिकारों की बाद स्त्री ही उठा सकती है। उसकी पीड़ा उसकी मुक्ति की चाहना वही महसूस कर सकती है। नीलेश ने भारतीय संस्कृति की सनातन स्त्रियों के लिए व्यवस्थित सजावटी मुद्राओं पर सवाल उठाए और स्त्री सुबोधिनी जैसी सीख दी : ”मत आया करो तुम सम्मान समारोहों में/तश्तरी, शाल और श्रीफल लेकर /दीप प्रज्वलन के समय/खड़ी मत रहा करो माचिस और दीया-बाती के संग/मंच पर खड़े होकर मत बांचा करो अभिनंदन पत्र /उपस्थिति को अपनी सिर्फ मोहक और दर्शनीय मत बनने दिया करो/सुंदरियो,तुम ऐसा करके तो देखो बदल जाएगी ये दुनिया सारी!”
इसी के कुछ पूर्व कात्यायनी ‘सात भाइयों के बीच चंपा'(1994) व ‘इस पौरुषपूर्ण समय में'(1999) कविता संग्रहों के जरिए स्त्री मुक्ति की दिशा में मजबूत वैचारिक पहल कर चुकी थीं और मार्क्सवादी वैचारिकी को अग्रसर करते हुए स्त्री को केवल ‘द सेकंड सेक्स’ की नजर से नहीं; एक नागरिक के रूप में देखे जाने की मुहिम पर चल चुकी थीं। ‘सात भाइयों की चंपा’ पढ़ते हुए जैसे अदम गोंडवी की ‘चमारों की गली’ नज्म याद हो आती है। बहुत ही करुण कविता। कैसे चंपा का हदय विदारक अंत होता है, इस किंवदंती को कविता का आधार बना कर स्त्रीवादी नजरिये को सवालों में बदलने की कोशिश कात्यायनी जैसी कवयित्रियों ने की। कात्यायनी की कविताओं ने सिद्ध किया कि कविता सिर्फ निज के मनोभावों या स्त्री के कोमल मनोभावों या इच्छाओं का ही प्रतिफलन नही है वह राजनीतिक प्रक्रियाओं में वैसे ही हिस्सेदार है जैसे पुरुष। वह केवल चूल्हे चौके के लिए नहीं बनी है। राजनीतिक चेतना की कविताएं उस दौर की अनेक कवयित्रियों ने लिखी हैं– स्त्रीवादी राजनीति, लैंगिक राजनीति इत्यादि को लेकर किन्तु उसका गंभीर विस्फोट कात्यायनी की कविताओं में ही मिलता है।
अनामिका का स्वर कविता में शुरू से ही अपने समकालीनों से अलग रहा है। न तो उन्होंने स्त्री विमर्श की प्रचलित पगडंडी फर चल कर अपने स्वर को स्त्रीवादियों के अनुकूल गढ़ना चाहा है, न ही वे अपने ही अंतःपुर में एकांत में साधनारत दिखाई देती हैं। वे हिंदी कविता में अलग से दिखाई देने वाले कथ्य, संवेदन और भाषिक मुहावरे की जननी हैं। अपने संग्रह ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ में जीवन के घमासान में छितरे-बिखरे प्रसंगों को उठाते हुए वे इस बात को रेखांकित करती हैं कि उन्हें जिस रूप में समाज में देखा और समझा जाना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। वे प्रायः अवमूल्यन के हाशिए पर ढकेली गई हैं।
अनामिका के यहाँ स्त्री अंतःपुर से बाहर आती हुई तथा अपने दुख, अवसाद, अकेलेपन तथा संत्रास को भूल कर तमाम तरह के चरित्रों से बोलती बतियाती और उनके सुख-दुख में शामिल दिखाई देती है। बिहार में जन्मी, पली और बढ़ी अनामिका की अंतश्चेतना में गँवई और घरेलू चरित्र तथा उनकी बोली-बानी के चीन्हे-अचीन्हे संवाद भी उसी पुलक से समाए होते हैं, जिस विदग्धता से उनके बौद्धिक मानस में देश-विदेश की घटनाऍं हलचल मचाती हैं। सुविधा के लिए ‘खुरदुरी हथेलियाँ’ को उन्होंने बेशक अन्तःपुरम्, दुधकट्टू, कुछ अटपटी प्रेम कविताएं, आजादी, मुसलमान क़्या होते हैं अम्मा और तोस-भरोस जैसे खंडों मे बाँट रखा हो, पर इनमें परस्परता का ताना बाना नजर आता है।
धीरे-धीरे उन्नत और स्वतंत्रचेता होते समाज में स्त्रियों के हिस्से में भी आजादी की थोड़ी धूप और हवा आई है। वे पुरुष-पोषित वातावरण में रहते हुए भी आत्मनिर्भरता के अपने अवलंब भी तलाश रही हैं। वे करुणा और दया की नहीं, सहानुभूति और परस्परता की आकांक्षी हैं। उनमें प्रथम पुरुष का दर्प नहीं है, अन्य पुरुष का -सा सहज भाव है। किन्तु वे तुम हो यह फर्दा हिला कर बता दो वाली दमघोंटू फहचान से बाहर निकलने के लिए विकल हैं। अचरज नहीं कि अनामिका की कविता ‘स्त्रियाँ’ का स्वर अन्यान्य वाले अन्यायी भाव के विरुद्ध स्त्री का एक सबल हस्तक्षेप बन कर उभरा है जिसमें स्त्री चाहती है कि उन्हें दूर के रिश्तेदारों के दुख की तरह न देखा जाए, नौकरी के पहले विज्ञापन की तरह अहमियत के साथ पढ़ा जाए। ऐसे देखा जाए जैसे ठिठुरते हुए देखी जाती है बहुत दूर जलती हुई आग। अनहद की तरह उन्हें सुना और नई नई सीखी हुई भाषा की तरह समझा जाए—-यह सामाजिक परिदृश्य में उभरती हुई नई स्त्री की पुकार है। परंपरा के पाठ से यह जानते हुए भी कि लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं, उनका कोई घर नहीं होता, वह नहीं चाहती कि घर-बार, लोग-बाग तमाम सवाल और छूटती गई जगहों के असह्य विछोह के बाद उसकी नियति के इस दुखद परिच्छेद को कोई फिर से उठाए, उसकी समग्रता से व्याख्या करे। कवयित्री चाहती है कि सारे संदर्भों के पार उसे एक अधूरे अभंग की तरह समझा व पढा जाए।
सच कहें तो स्त्री जीवन विस्थापनों का ही पर्याय है। पिता के घर से पति के ठीहे तक पहुँच कर भी कभी कभी उसे गंतव्य नहीं मिलता। वह कंघी में फँस कर बाहर आए केशों-सी बुहार दी जाने वाली नियति को प्राप्त होती है, पर अपनी अस्मिता को थकने नहीं देती। एक संकल्प-भरे दिये की तरह उसकी इच्छा की लौ निष्कंप जगमगाती है—आँखों में बस कर मैं भी काजल हो जाती/ माथे पर चढ़ कर डिठौरा/ नहीं बसी, नहीं चढ़ी–नहीं सही / खुश हूँ मैं मोखे की दीवारों पर भी / जानती हूँ इतना—काल की दीठ में/ काजल की धार-सी सजूँगी मैं/ कभी न कभी। ——यह भरोसे का दिया अनामिका के पूरे कविता संसार में जगमगाता है। मौसियाँ, एक औरत का पहला राजकीय प्रवाह, पतिव्रता, ऊनी टोपी, यक्ष प्रश्न और वॄद्धाऍं धरती का नमक हैं–जैसी कविताओं में स्त्रियों के कोने-अँतरे खँगाले गए हैं। बारिश के बाद नम हो गई मिट्टी की तरह मुलायम मन वाली स्त्रियों की नगण्य ख्वाहिशों से होकर— बहुत प्यार करता है जो तुझको, किसका है , किसकी है तनी हुइ भवें और किसका है यह मुझ पर लहराता हुआ चाबुक—जैसे यक्ष प्रश्नों से गुजरती क्षमाप्रार्थी मुद्रा में अपने होने की निरर्थकता में जीती वॄद्धाओं तक अनामिका की कविताएं आँखों के कोरों को थोड़ा और नम कर जाती हैं।
ध्यान से देखें तो अनामिका की कविताओं की पृष्ठभूमि में परंपरा से विचलन नहीं, बल्कि उस पर पांव टिका कर आधुनिकता की ओर कदम बढ़ाने की कोशिश मिलती है। स्त्री चिंतन पर उनकी अनेक पुस्तकें आ चुकी हैं। उनके अनुभवों को प्रगाढ़ बनाने में दादी, नानी और मौसियों की पीढ़ी से लेकर बहनों-भाइयों और अपनी संतति से उपजे वात्सल्य तक का गहरा योगदान है। इसीलिए अनामिका स्त्री मुक़्ति के उन अभियानों का समर्थन नही करती दीखतीं जिनमें उसकी देह की मुक्ति और उस पर घात लगाए वर्चस्ववादी पुरुष और बाजार की निगाह है जहां वह किसी प्रोडक्ट की तरह इस्तेमाल में लाई जा रही है, जहां वह किसी उत्सवता में अपनी बुनियादी शख्सियत को खोती जा रही है। बाकी गैर बराबरी के हर बिन्दु पर अनामिका व सविता सिंह सहित इधर की कवयित्रियों में सुजाता, लवली गोस्वामी, बाबुशा कोहली, शैलजा पाठक, रंजना श्रीवास्तव, रश्मि भारद्वाज और वाजदा खान, उषा दशोरा, सोनी पांडेय, रंजना मिश्र, सुलोचना तथा दलित व आदिवासी कवयित्रियों में स्त्रीवाद की तेज आहट सुन पड़ती है। रंजना श्रीवास्तव की कविताएं भी काफी तीखी व पौरुषेय शक्तियों को आईना दिखाने वाली कविताएं हैं। सक्षम थीं लालटेनें सहित उनके कई संग्रह आ चुके हैं। अपर्णा मनोज में स्त्रीवादी कविता की बारीकियां नजर आती हैं। रश्मि भारद्वाज के भीतर एक नारीवादी कवयित्री पैठी हुई है जो कविताओं का रुख तय करने में मदद करती है। ‘मैंने अपनी मॉं को जन्म दिया है’ की कविताएं इसका साक्ष्य हैं। सामान्यत: रंजना जायसवाल की कविताओं की मनोभूमि (दु:ख-पतंग, जिंदगी के कागज पर) में भी प्रेम और विछोह वाले भावोच्छ्वास ही अधिक हैं, पर अपने नवीनतम संग्रह ‘जब मैं स्त्री हूँ’ में उनके तेवर में स्त्रीवादी चेतना प्रबल होकर प्रकट हुई है। आदिवासी कवयित्रियों में निर्मला पुतुल, ग्रेस कुजूर, जसिंता केरकेट्टा और दलित कविता में रजनी अनुरागी और अनीता भारती के यहां एक तरफ दलित समस्याएं हैं, दूसरी तरफ वर्णवादी विभेद। तीसरी बात यह कि दलित वर्ग में भी स्त्री का होना—यह एक फांस की तरह चुभती है। तत्वत: कविता की शर्तों पर सारी स्त्रीवादी कविताएं एक सी स्तरीय नहीं हैं –कुछ तो भावोच्छवास की परिधि लॉंघ नहीं पातीं पर नारीवादी चिंतन का लाभ यह अवश्य हुआ है कि बहुत-सी कवयित्रियां शुद्ध कविता के कारण नहीं, नारीवाद के एजेंडे पर होने के कारण पहचानी जा रही हैं।
विस्मृति के हाशिए पर
विस्मृति के हाशिए पर चली गयी कवयित्रियों में स्नेहमयी चौधरी के कई कविता संग्रह आए : एकाकी दोनो, पूरा गलत पाठ, हड़कंप, अपने खिलाफ, और चौतरफा लड़ाई। किन्तु विडंबना ही है कि एक बडे साहित्यिक परिवार से होते हुए भी स्नेहमयी चौधरी के कवि व्यक्तित्व का विकास तो हुआ पर उनके बारे में ज्यादा कुछ लिखा नहीं गया। उनके अवदान के बारे में हिंदी संसार जैसे मूक रहा। जब स्त्री विमर्श आक्रामक न था, स्त्रीवादी आहटें कम सुन पड़ती थीं तब भी उनकी कविताएं स्त्री दशा को लेकर क्रिटिकल थीं। घरेलू अवसाद बोध को छोड दें तो उनकी कई कविताओं में स्त्री का जो स्वरूप उभरता है वह हमें विचलित करता है। येवतुंश्को का कहना है कविता ही कवि की आत्मकथा है। एक कविता में वे लिखती हैं :मैं ही जलती हूँ मैं ही बुझती हूँ /कभी अगरबत्ती की सुगंध बन जाती हूँ /कभी धुँआ उगलती चिमनी/ अँधेरे में हो या उजाले में/ मैं ही तो हूँ और कोई नहीं/ कोई नहीं…(अंधेरी) वे जिस दौर में लिख रही थीं, वह दौर उस तरह से आक्रामक स्त्री विमर्श तो न था; पर उनके यहां केवल बहुत शांत व थिर आवेग की कविताएं ही नहीं मिलतीं , ऐसी कविता भी मिलती है जो स्त्री को विमर्श के नए आइने में भी देखती है। एक ऐसी ही कविता ‘जलती हुई स्त्री का वक्तव्य’ है। आज तो ऐसी बहुतेरी कविताएं मिलती हैं पर उस दौर में लिखी गयी यह कविता स्नेहमयी चौधरी की कविता की ताकत का अहसास कराती है—हिंदुस्तान में जो औरतें/बर्फ नहीं बन जातीं,/वे जलाई जाती हैं/या स्वयं ही जल जाती हैं। उनकी कविताओं से जैसे उनकी ही अंतश्चेतना की आवाज आती है। उनकी अपनी सफरिंग्स कविताओं में सांस लेती दिखती है जब वे कहती हैं:
मेरे अंदर की अबोध लड़की/चुपचाप खिसक गई/जाने कहाँ/कविताओं में अपने को अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ/फूट-फूट कर रो रही हूँ मैं यहाँ! (लड़की)
विमर्श की आहट नई नई ही थी कि उसी दौर में सुनीता बुद्धिराजा का संग्रह ‘आधी धूप’ (1995) आया था। नरम अहसासों वाली कविताएं। स्त्री जीवन के सजल प्रतिबिम्ब थे उसमें। कच्ची पक्की संवेदना के प्रतिरूप, प्रतीतियां जैसा प्राय: कवयित्रियों के यहां होता है। उसकी दो कविताएं मुझे बहुत अच्छी लगी थीं। एक थी: एक था मन। निपट गीतात्मक आवेग में रची। मन की तहें खोलती। दूसरी थी परछाईं और मेरे पॉंव। एक था मन लिखने वाली स्त्री का मन दूसरी कविता तक आकर कैसे प्रश्नों और आशंकाओं में बदल उठा था। यह एक और ही स्त्री थी जिसके पास पुरुष को लेकर शिकायतें थीं। प्रिय के इर्दगिर्द अपनी परछाईं देखने की लालसा रखने वाली स्त्री का कथन देखिए –मैंने अपनी परछाईं नहीं देखी/तभी तो वह भी नहीं देख पाई/कि तुम्हारे पैरों के पास/कितनी परछाइयां और हैं (आधी धूप) । बाद में उनका काव्य ‘प्रश्न पांचाली’ भी आया जिसके केंद्र में स्त्री अस्मिता के सवाल थे।
यहीं से नई सुनीता का जन्म शुरु होता है और वे ‘टीस का सफर’ के रेखाचित्र लिखते हुए स्त्री पीड़ा के उदगम स्रोतों तक पहुंच जाती हैं। कहां तो वर्जीनिया वुल्फ ने लिखा कि हर स्त्री का अपना एकांत होना चाहिए, एक कमरा होना चाहिए, कहां सुनीता का कहना था कि ज्यादातर स्त्रियां एक ही कमरे में बंद हैं उनसे कुछ कम हैं जो दो कमरें की स्त्रियां हैं, और वे स्त्रियां तो नगण्य हैं जो तीन कमरों में बसर करती हैं। एक कमरे वाली स्त्री की पूरी जिन्दगी रसोई में बसर होती है तो दो कमरे वाली स्त्री का जीवन क्रम रसोई और बिस्तर तक है। वे कहती हैं ऐसी स्त्रियां कम हैं जो रसोई और बिस्तर के बाद बैठके मे बैठती हैं तथा किसी चर्चा में सहभागी बनती हैं। सो पुरुष प्रधान समाज में अपना अलग अस्तित्व कितनी स्त्रियां बना पाती हैं? आज भी क्या सुनीता के ये प्रश्न अप्रासंगिक हैं। एक हद तक ऐसा समाज आज भी है। वर्जनाओं और पौरुषेय शक्तियों के बीच सांस लेती हुई स्त्री आज भी छली जा रही है।
ऐसी ही एक भूली बिसरी कवयित्री चंद्रकला त्रिपाठी हैं जिनका संग्रह ‘बसंत के चुपचाप गुजर जाने पर’ बहुत पहले आया और आंखों से ओझल हो गया। उनका दूसरा संग्रह ‘शायद किसी दिन’ भी आया किन्तु इधर उनकी चर्चा बिल्कुल नहीं है। ऐसी अनेक कवयित्रियां स्मृति-ओझल हैं जिन्होंने कभी स्त्री मन की सहज कविताएं लिखीं किन्तु किसी विमर्श या चर्चा में आने के बजाय केवल लिखने में यकीन करती रहीं। शायद इनकी भूमिका स्त्रीवाद की दृष्टि से कुछ कमतर हो किन्तु कविताओं में व्यक्त स्त्री संसार उपेक्षणीय नहीं। एक दौर में अकविता की लहर में आई मोना गुलाटी और मणिका मोहिनी की कविताएं भी चर्चा में रहीं पर शायद वे अकविता के अवसान के साथ ही चर्चा से ओझल हो गयीं। ‘स्त्रीवाद’ यह सुविधा देता है कि कविता में कविता भले न हो, स्त्री विमर्श जरूर हो। वे सवाल जरूर हों जो स्त्री को लेकर ज्वलंत हैं। इसीलिए सविता सिंह, अनामिका, तेजी ग्रोवर, गगन गिल, अनीता वर्मा व क्षमा कौल जैसी कुछ कवयित्रियों को छोड़ कर अन्य कवयित्रियों में स्त्री विमर्श की धार तो आवेगमयी है पर कविता का आयतन कुछ हल्का है।
स्त्री कवियों का राजनीतक बोध
किसी भी कविता का कोई परिप्रेक्ष्य इस बात से भी तय होता है कि उसका बौद्धिक स्तर क्या है, उसका राजनैतिक बोध क्या है। तभी कभी मुक्तिबोध ने पूछा था कि ‘पार्टनर तुम्हारी पालिटिक्स क्या है?’ वह स्त्री जो जन्म से ही पुरुषसत्तात्मक अधीनताओं में रहती आई है, दी हुई आजादी को बरतती आई है, उसके लिए सबसे पहली राजनीति अपने को इन चहारदीवारियों और बंदिशों से मुक्त करना था जिसमें कितने दशक लग गए। समाज की स्त्रियों का विकास जैसे-जैसे हुआ है, आधुनिकता ने जैसे जैसे पांव पसारे, तालीम ने जैसे जैसे उन्हें योग्य बनाया, वे अपने लैंगिक भेदभाव के लिए तो आगे आईं हीं, पुरुष वर्चस्व को चुनौती देने, अपने को नियामक की भूमिका में परखने, दैहिक और चैतन्य के स्तर पर स्वतंत्रता की चाह उनमें जगी। महिलाएं राजनीति में सक्रिय हुईं। सामाजिक आंदोलनों में शरीक हुईं। पर आम जीवन में पग पग पर राजनीति को महसूस करने वाली कवयित्रियां धीरे धीरे केवल आत्मस्थ चिंतन में नहीं डूबी रहीं तथा एक घरेलू किस्म में संवेदना के साथ जीवन गुजारने का प्रण ही नहीं किया बल्कि बाह्य संसार में हो रही मानवीय नाइंसाफी के विरुद्ध आवाज उठाने में वे शरीक हुईं।
इसलिए जिस तरह से आठवें दशक के कवियों का अपना राजनीतिक बोध रहा है, वैचारिक प्रतिबद्धताएं रहीं वैसे ही नवें दशक की कवयित्रियों में इस राजनीतिक चेतना का उभार गगन गिल के संग्रह ‘ एक दिन लौटेगी लड़की’ से ही दिखने लगा। फिर तो एक बृहत्तर राजनीतिक बोध के साथ कविता परिदृश्य में आई कात्यायनी की कविताओं ने केवल स्त्रीवाद को ही अपनी वैचारिकी के केंद्र में नही रखा बल्कि उन्होंने पूंजी के घटाटोप में बाजारवाद, कारपोरेट घरानों एवं पूंजी के गठजोड़ की तीखी कविताएं लिखीं। गाओ, गाने की पुनर्जाग्रत अदम्य ललक और दुर्निवार आवश्यकता के बोध के साथ गाओ, सदी के अंत में पूर्वजों का आवाहन, गुजरात 2002, वे अपना मृत्यु लेख लिखते हैं, गोयबल्स 1994, आदि अनेक कविताएं राजनीतिक प्रत्ययों के साथ लिखी गयीं। जो राजनीति से इतर भी हैं वे भी कहीं न कहीं मनुष्य, स्त्री, समाज की उस नियति से टकराती हैं जो राजनीति से बनती बिगड़ती है। सविता सिंह की कविताएं कुल मिला कर स्त्री की पीड़ा का सूक्ष्म दस्तावेज नजर आती हैं, वहॉं जहां मेरा देश था, मुश्ताक़ मियां की दौड़, जो भी कोई नेक इन्सान कहेगा, सहमत, कत्ल की रात कल ही गुज़री है, बीसवीं सदी पर सोच रही है धूप, आने वाले दिनों में एवं नया अँधेरा के माध्यम से वे राजनीतिक सवालों पर हस्तक्षेप भी करती हैं। उनके यहां राजनीति के मुखर प्रत्यय कम, सांकेतिक ज्यादा हैं। नीलेश रघुवंशी ने ‘खिड़की खुलने के बाद’ संग्रह में कारपोरेट घरानों की कुत्सित राजनीति को इस रूप में चुनौती पेश की —
कब तक छीनोगे हमसे हमारी जगह
नदी पर्वत नाले नहर बंजर जमीनें
सब तुम्हारी आंख की किरकिरी हैं
क्रेता-विक्रेता बन चुके तुम
क्या आकाश को भी बेदखल करोगे
उसकी जगह से? (खिडकी खुलने के बाद, पृष्ठ 33)
नीलेश की कविता में धीरे धीरे गार्हस्थ्य व प्रेम व करुणा के बिम्बों के साथ वे चीजें प्रवेश कर रही हैं जिन्हें आज की राजनीति ने रोने के लिए विवश कर दिया है। इन में भारतीय किसान का भी चेहरा है जिसकी फसलें बारिश में धरती पर पसर गयी हैं—
फोटो खींचने की जगह
खेत की आंखों में झॉंककर देखो
फसल की चौपट करती हुई बारिश में
किसान के संग खुद को गला कर देखो
आड़ी फसलों पर चमकती बूँदें
किसान के आंसू हैं (खिड़की खुलने के बाद, आड़ी फसल, पृष्ठ 75)
अचरज नहीं कि नीलेश के यहां लोकतंत्र का तानाशाह, हिकारत, विरोध में बारिश, जल की अपराधी जैसी कविताएं राजनीति के बोध से संपन्न है तथा लगता है एक कवि की आंख से वे हमारे समय के राजनीतिक परिदृश्य को भी देख रही हैं।
ज्योति चावला ने मुक्तिबोध के अंधेरे में कविता को केंद्र में रख कर अँधेरे में और उसके बाद –कविता लिख कर जैसे मुक्तिबोध की साखी पेश की है । वह अँधेरे में के बाद के दृश्य को बुनते हुए लिखती हैं —
फिर दृश्य बदलता है और
मैं भीड़ के बीच में जकड़ी खड़ी हूँ सड़क पर
कि तभी वहां इक ओर से सुनाई देते हैं
हँसी के ठहाके जिनमें कई चेहरे जाने पहचाने हैं
यह लोगों का वही जूलूस है जो तुम्हारी कविता की
अंधेरी सांप सी पसरी सड़क से निकल कर
दिन के उजाले में खुली सड़क पर चला आया है (जैसे कोई उदास लौट जाए दरवाजे से, पृष्ठ 97 )
कहना न होगा कि एक तरफ स्त्रीवाद, दूसरी तरफ भावुकता में स्थगित होती कवयित्रियों के संसार से अलग कुछ स्त्री कवियों ने राजनीतिक रूप से अपनी कविता को चौकस बनाया। इनमें निर्मला गर्ग, कात्यायनी, गगन गिल, सविता सिंह, नीलेश रघुवंशी, अनामिका, की अपनी भूमिका तो रही ही है, उनके बाद की पीढ़ी की बाबुषा कोहली, सुजाता, ज्योति चावला, रश्मि भारद्वाज, संवेदना रावत, लीना मल्होत्रा, रजनी अनुरागी, अनीता भारती, वर्तिका नंदा, सुधा उपाध्याय, जसिंता केरकेट्टा व ग्रेस कुजूर के यहां भी पर्याप्त राजनीतिक चैतन्य दिखता है हालांकि वह बहुत कुछ ‘स्त्रीवाद’ के इर्द-गिर्द उमड़ता घुमड़ता है। दलित कवयित्रियॉं दलित राजनीति के मुद्दों को भी अपनी कविताओं में केंद्र में रखती हैं जिसका लक्ष्य बुनियादी तौर पर मनुवादी वर्णवादी व्यवस्था व इसका पोषण करने वाली शक्तियों से मुठभेड़ करना रहा है।
स्त्री विमर्श जबसे प्रबल हुआ है, स्त्री जीवन की विसंगतियों से जुड़ा हर सवाल चाहे वह लैंगिक समानता हो, पुरुषसत्तात्मक चुनौतियां हो, उत्पीड़न का मामला हो, सब कुछ इस विमर्श के दायरे में है। जहां स्त्रियों का एक वर्ग घर, चूल्हे चौके और श्रृंगार, प्रेम व निजी मनोभावों को ही समर्पित रहा है, आज इस दौर की स्त्रियां फेमिनिज्म के आवेग में बह रही हैं और स्त्री अधिकारों व स्त्री उत्पीड़न के हर मुद्दे पर सचेत व संवेदनशील हुई हैं। तलाश की जाए तो जहां राजनीति प्रत्यक्ष रूप से नहीं भी प्रकट है वह जीवन के हर मुद्दे पर कहीं न कहीं शामिल है और वे मुद्दे कविताओं की रूह में बसे हैं। जहां आज छोटी बड़ी हर चीज राजनीति तय करती हो, साधारण से साधारण कविता भी राजनीति-निरपेक्ष नहीं हो सकती। सौभाग्य से स्त्रियां रोजमर्रा की समस्याओं, प्रेम, श्रृंगार, पारिवारिकता और जीवन जगत पर लिखते हुए भी राजनीति से एकदम विमुख नहीं हैं। जहां तक कविताओं में धुर फेमिनिस्ट पोजीशनिंग और अप्रोच की बात है वह कुछ हद तक सविता सिंह और अनामिका में मिलती है पर रेडिकल फेमिनिज्म का अनुगमन कम कवयित्रियों के यहां मिलता है। जेंडर बायस्ड समाज में स्त्रियों को लेकर आज भी बेफिक्री नहीं है । लिहाजा हर अन्याय के विरुद्ध स्त्रियों को अपनी आवाज उठानी पड़ती है—यह न केवल हिंदी में बल्कि अफ्रोएशियाई सहित दुनिया की तमाम भाषाओं की कविताओं में संभव हो रहा है।
लेखक डॉ ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक, कवि एवं भाषाविद हैं. इनकी शब्दों से गपशप, भाषा की खादी, शब्द सक्रिय हैं, खुली हथेली और तुलसीगंध, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई, समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, भाषा में बह आई फूल मालाऍं:युवा कविता के कुछ रूपाकार व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों ‘अन्वय’ एवं ‘अन्विति’ सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं. युवा कवियों पर लगातार लिखने का श्रेय उन्हें जाता है. हिंदी अकादमी के युवा कविता पुरस्कार, आलोचना के लिए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब के शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं. मोबाइल 9810042770, मेलः dromnishchal@gmail.com