महेश जोशी
फ़ेसबुक पर मित्रता में कभी-कभार विचित्र अनुभव होते हैं : प्रियदर्शी ठाकुर को मित्र बनाने का प्रस्ताव उन्हें स्वर्गीय जनार्दन ठाकुर का पुत्र जानकर भेजा, किन्तु निकले वे उनके छोटे भाई। लगभग चालीस वर्ष पहले जनार्दन ठाकुर अंग्रेज़ी के जाने-माने पत्रकार व पोलिटिकल कमेंटेटर थे और हम ‘नई दुनिया’ में उनके आलेखों के हिंदी अनुवाद छापते थे। बहरहाल, प्रस्ताव सफल हुआ और जब हम मित्र हो गए, तो प्रियदर्शी जी ने लिखा – आप इंदौर यानी मालवा क्षेत्र के निवासी हैं, रानी रूपमती पर मेरा ऐतिहासिक उपन्यास अवश्य पढ़ें। मैंने लिखा– ज़रूर पढ़ूँगा; ऐमेज़ॅान से किताब मँगवाई किन्तु जिस बालक के मार्फ़त किताब आयी, वह उसके पन्ने पलटने लगा। जब उसने पढ़ ली तभी दी। मेरा कुतूहल जग गया– ऐसी क्या बात है पुस्तक में कि मँगवाई मेरे लिए और पढ़ने ख़ुद बैठ गया!
किताब हासिल होते ही मैं तुरंत पढ़ने लगा और निरन्तर पढ़ गया एक सप्ताह में। किताब इतनी अच्छी लगी कि मैंने कई बार अपने फ़ेसबुक पोस्टों में उसका उल्लेख किया। दरअसल यह समीक्षा उन्हीं टिप्पणियों का समेकित रूपांतर है। मानना होगा कि लेखक का पहला उपन्यास होने के बावजूद, इसी साल जनवरी में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ का यह उपन्यास “रानी रूपमती की आत्मकथा” एक अद्भुत पुस्तक है। कारण मेरी इस परिचर्चा में जगह जगह मिल जाएँगे।
रूपमती सोलहवीं सदी में मालवा अंचल में अंतिम स्वाधीन अफ़गान सुलतान बाज़ बहादुर की पटरानी थी, जिससे उसने गंधर्व-विवाह किया था। उसकी राजधानी विन्ध्याचल के सुरम्य पर्वतीय अंचल में मांडवगढ़ नामक स्थान पर थी, जो अब मध्य प्रदेश का एक प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है; राजा भोज वाले धार ज़िले में। मांडव यानी मांडू में खिलजी तथा अफ़गान शासकों द्वारा बनाई गई भव्य इमारतें बुलंदी के साथ खड़ी हैं, हालाँकि सदियों तक हवा-पानी की मार से अब वे जर्जर होने लगी हैं और उनकी रौनक़ फीकी पड़ चुकी है। फिर भी देश-विदेश के पर्यटक उनका अवलोकन करने आते हैं। वहाँ गरमी बहुत पड़ती है क्योंकि हरियाली विलुप्त हो चुकी है। अधिकतर पर्यटक वहाँ सर्दियों में जाना पसंद करते हैं, अथवा बारिशों में जब वादियों की गोद में बादल विचरण करते हैं। चार-पाँच सौ साल पहले मांडव निश्चय ही स्वर्ग का एक टुकड़ा रहा होगा, जैसा उपन्यास में एक स्त्री-पात्र कहती है। वैसे भी भारत की प्राकृतिक सुषमा आज़ादी के बाद नष्ट भ्रष्ट हुई है, इसमें संदेह नहीं।
मालवांचल में रूपमती और बाज़ बहादुर की प्रेमकथा भारतीय इतिहास के आख्यानों में दर्ज है। सन् १५९९ ई. में अहमद उल उमरी ने मालवा यात्रा के पश्चात इसका एक वृत्तान्त फ़ारसी में लिखा था और मुग़ल काल के अनेक चित्रकारों ने इस प्रेमी युगल के भावपूर्ण चित्र भी बनाए, जैसे राधाकृष्ण के बनाए जाते हैं। अंग्रेज़ रेज़िडेंट के सहायक तथा खोजी-इतिहासवेत्ता लेखक एल.एम्. क्रम्प ने लगभग सौ साल पहले (बीसवीं सदी के तीसरे दशक में) उमरी की पुस्तक का तर्जुमा अंग्रेज़ी में किया जो सन् १९२६ ई. में ‘लेडी ऑफ़ द लोटस’ शीर्षक से ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक तथा मालवा के राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास पर दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर यू.एन. डे का शोध लेखक के मुख्य स्रोत हैं। मध्यकालीन इतिहास के मूल-स्रोतों के संबंध में तो सर्वविदित है कि प्रणालीबद्ध इतिहास लेखन के मामले में हमारा रेकॉर्ड बहुत विश्वसनीय नहीं है। तत्कालीन इतिहासकारों ने अपने निहित स्वार्थों को दृष्टिगत रख कर चीज़ों और घटनाओं को बहुधा उन्हीं के अनुरूप प्रदर्शित किया है। समकालीन शासकों के सरोकारों और प्रपंचों की भी इसमें महती भूमिका रहा करती थी। लेकिन इसकी काट के लिए भी एक चीज़ सदैव मौजूद रही और वो थी, जनश्रुतियाँ। बहुप्रचलित जनश्रुतियों को अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय मानने की परिपाटी को हमने तरजीह दी है; फिर भी सुदूर अतीत की घटनाओं को सिलसिलेवार परखना और इतिहास तथा जनश्रुतियों के मध्य सही संतुलन की प्राप्ति एक दुष्कर कार्य है। रूपमती व बाज़ बहादुर की प्रेमकथा के सारे पात्रों के कृत्यों, संवादों, विचारों का कोई विस्तृत विवरण पा सकना दूर की कौड़ी है, इसलिए लेखक ने सर्वमान्य ऐतिहासिक तथ्यों की सीमा में रहते हुए अपने उपनाम को सार्थक किया है और ख़ूब ख़याली घोड़े दौड़ाए हैं, लेकिन अंततः इतिहास और किवदंतियों में यथासंभव तारतम्य स्थापित करके वह एक विश्वसनीय व पठनीय कृति की रचना करने में सफल रहा है। लेखक के कामकाजी जीवन का अधिकांश भाग राजस्थान में गुज़रा और वह चाहता तो किशनगढ़ की राधा बणी ठणी और नागरीदास की कथा पर अपेक्षाकृत अधिक आसानी से सामग्री जुटा कर अपनी क़लम चला सकता था, लेकिन रूपमती पर लिखना उसे ज़्यादा दिलचस्प लगा। अधिक चुनौती-पूर्ण कार्य के लिए आतुर रहना कुछ लेखकों की फ़ितरत होती है।
प्रियदर्शी ठाकुर युवावस्था में इतिहास के विद्यार्थी व लेक्चरर रह चुके हैं लेकिन सत्तर पार की उम्र में भी इस पुस्तक के लिए उन्होंने पर्याप्त होमवर्क किया, मांडू और धार-नगरी की ख़ाक भी छानी और रूपमती-बाज़ बहादुर की कथा से सम्बंधित टूटी हुई कड़ियों को एक विश्वसनीय श्रृंखला में पिरो कर ही दम लिया।
इतिहास में रानी रूपमती भी चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी के समान ही अनिंद्य सुंदरी के रूप में दर्ज हैं। बहुत मर्तबा असाधारण सौन्दर्य भी अभिशाप साबित होता है। सर्वविदित है कि अल्लाउद्दीन खिलजी की हवस से बचने के लिए पद्मिनी रानी जौहर की ज्वाला में कूद पड़ी थी – पद्मिनी अथवा पद्मावती के इसी जौहर की कथा पर अवधी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने बादशाह हुमायूँ के ज़माने में ‘पद्मावत’ नामक काव्य रचा था, जिस पर कुछ समय पहले एक बहु-विवादित फ़िल्म भी बनी थी। मांडव की रानी रूपमती ने भी अकबर के सिपहसालार अधम खान कोका की कामुक आकांक्षाओं से अपने आपको बचाने के लिए विष-पान करके प्राण दे दिए और चित्तौड़ के इतिहास को अपने ढंग से दोहराया। यह सन् १५६१ ई. की घटना है जब रूपमती महज़ इक्कीस साल की थी; उस वक़्त सारंगपुर में मुग़ल सेना से हार कर बाज़ बहादुर खानदेश भाग गया था जबकि रूपमती को सूचना यह मिली कि वह युद्ध में खेत हो गया।
रूपमती और बाज़ बहादुर का उत्कट प्रेम बमुश्किल सात साल चला। दोनों की उम्र का अन्तर भी लगभग सात साल का ही था। दोनों ‘गुणीजन’ की श्रेणी में थे अर्थात् साहित्य संगीत कला प्रवीण। गायन, वादन और कबित्त रचना में निष्णात। संजीदा, सुशील, समझदार, सौन्दर्यवान और समर्पित। ग्रेट बॉन्डिंग। ओपेन माइंडेड। साम्प्रदायिकता से मुक्त। बाज़ ने रूपमती का धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। उलटे उसके महल में राधाकृष्ण का मंदिर बनवा दिया। इस पुस्तक में एक स्थान पर वह अफ़सोस भी ज़ाहिर करता है कि धर्मों के बीच भी संगीत जैसी निरपेक्षता क्यों नहीं है ! हालाँकि मुल्ले मौलवी उसकी इस उदारचित्तता से मन ही मन ख़फ़ा थे जिसका ख़ामियाजा उसे भुगतना पड़ा। बाज़ बहादुर का जीवन काल सन् १५३३ से १५८२ ई. अनुमानित किया गया है और रूपमती का सन् १५४० से १५६१। रूपमती तोमर वंश की राजपुत्री थी किन्तु उसका बचपन अत्यंत विषम परिस्थितियों में गुज़रा। शिक्षा-दीक्षा में उसकी अटूट आस्था थी। बाज़ बहादुर की रानी बनने से पहले वह नर्मदा किनारे के एक गाँव धर्मपुरी में रहती थी। सारंगपुर में एक सरोवर के बीच उसकी समाधि बताई जाती है। जहाँ तक बाज़ का प्रश्न है, मुग़लों से पराजय के बाद उसके कुछ वर्ष गर्दिश में गुज़रे मगर अंततः उसे अकबर के दरबार में एक संगीत रत्न के रूप में जगह मिल गई।
यह तो है प्रियदर्शी ठाकुर के उपन्यास की आधारकथा, जितना यहाँ बताना मेरी समझ में उपयुक्त होगा। लगभग तिरसठ साल पहले इस कथा के आधार पर भी एक फ़िल्म बनी थी जिसमें निरूपा रॉय ने रूपमती और भारत भूषण ने बाज़ की भूमिकाएँ निभाई थीं और उस फ़िल्म का मुकेश-लता का एक दोगाना– ‘आ लौट के आ जा मेरे मीत तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’ बहुत मक़बूल हुआ था। लेकिन मैं नहीं सोचता कि आजकल के लोग, यहाँ तक कि मालवा और मध्य प्रदेश के वासी भी अब इस प्रेमकथा की ज़्यादा वाक़फ़ियत रखते हैं। वे मुंबई-आगरा मार्ग से गुज़रते हुए दूर से एक टेबल-नुमा पहाड़ी को देखते हुए बस एक दूसरे को बता भर देते हैं– वो रहा मांडव, रानी रूपमती और बाज़ बहादुर का स्थान ! यह किताब पढ़कर मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि बाज़ और रूप की आनंदविभोर कर देने वाली इस प्रेम-कहानी और उसमें आये उतार-चढ़ाव को जितना प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख़याल’ जितना जानते हैं उतना शायद अब कोई और नहीं जानता। उनका यह उपन्यास इक्कीसवीं सदी के हिन्दी साहित्य के पाठकों और लेखकों के लिए भी एक अनुपम भेंट है। इस पुस्तक को लिखने में जो परिश्रम उन्होंने किया है, वह स्तुत्य है। कितने साल और महीने उन्होंने दरअसल इसमें लगाए ये तो वही जानें, किन्तु यह प्रोजेक्ट उन्होंने बहुत दिल और दिमाग़ लगा कर किया है यह तो साफ़ दिखता है। इस किताब में सतही कुछ भी नहीं है; कौन जानता होगा कि संगीतज्ञ रूपमती ने राग भूप कल्याण की रचना की थी और बाज़ बहादुर ने बाज़-बानी ध्रुवपद सिरजा था। लेखक ने रूपमती की कविताओं का सरल हिंदी अनुवाद भी किया है। रूपमती की कबित्त, दोहे आदि अत्यंत गरिमामय और गेय हैं। रानी की रचनाएँ उसके जीवन-काल में भी गाई जाती थीं और अब भी कुछ संगीतज्ञों के ख़ज़ाने में शामिल होंगी।
उपन्यास का फॉर्मेट एकदम अलग है : यह आत्मकथा शैली में लिखी किताब का एक उत्कृष्ट उदहारण है। सामान्यतया आत्मकथा स्वयं की होती है, किसी और के द्वारा नहीं लिखी जाती। लेकिन इस उपन्यास में लेखक श्रुति-लेखक बनकर नायिका के समक्ष बैठता है और स्टेनोग्राफ़र की भूमिका निभाता है, वह भी स्वप्न में। रानी रूपमती को जब जो बात याद आती है, बोलती जाती है। मगर उसमें बौद्धिक तारतम्य है। नैरेशन में कहीं झोल नहीं है। कौतूहल बरक़रार रहता है, जो कि गल्प की प्रमुख विशेषता मानी जाती है। एक बार पढना शुरू करके आप यह पुस्तक अंत तक पढ़े बिना छोड़ नहीं सकते। शब्द-चित्रों का कारवाँ सामने से गुज़रता हुआ-सा लगता है। रम्य स्थल भी वर्णित हैं, मतलब प्रकृति-चित्रण। पढ़ते समय आपको फ़िल्म देखने जैसा आनंद आने लगे तो इसे आप पटकथा भी कह सकते हैं। बहुत सारी बातें हैं जो कि पाठक इस उपन्यास को पढ़कर जान सकते हैं। मैं तो गदगद हो गया। भाषा, शैली तथा शब्द-भंडार लाजवाब हैं। ज़माने भर के पात्रों का जमघट है। संस्कृत विद्वान्, गँवई-गँवार, हिन्दू-मुस्लिम, गड़ेरिये, मालवी-राजस्थानी, हब्शिन सब अपनी-अपनी भाषा बोलते हैं। इस गाथा को लिपिबद्ध करने के लिए लेखक ने अपनी सहजानुभूति का बेहतरीन इस्तेमाल किया है। उपन्यास के अधिकतर पात्र सहज और स्वाभाविक लगते हैं। मध्यकालीन नृशंस मार-धाड़, सर क़लम करके चौराहों पर लटकाए जाना, मुग़ल दरबार के मातहतों का बात-बात में बवाल के लिए उद्यत रहना, एक हक़ीक़त है।
दो विशिष्ट पात्रों के बारे में लेखक ने ख़ास तौर पर कैफ़ियत दी है। एक है अफ़्रीकी मूल की दासी नायला और दूसरे हैं मैथिल ब्राह्मण पंडीज्जू यानी ज्ञानी पंडित।
अफ़्रीकी दासी नायला की मौजूदगी के बारे में उनका कथन है कि मालवा के खिलजी सुल्तान गियासुद्दीन शाह (१४६९ -१५००) के दरबार में अफ़्रीका के अबिस्सिनिया की पाँच सौ औरतें मांडव में थीं। मांडव में अफ़्रीकी मूल के कुछ पेड़ भी पाये जाते हैं, जो अन्यत्र कहीं नहीं मिलते जिनमें एक विशेष प्रकार की इमली बहुत लोकप्रिय है। दिल्ली की रज़िया सुलतान का प्रेमी याक़ूत अफ़्रीका के उसी हिस्से का वासी था जहाँ की मूल निवासी होने का दावा इस उपन्यास में नायला करती है। पंडीज्जू का पात्र लेखक के अनुसार काल्पनिक पात्र है जिसका सृजन रूपमती की शिक्षित व सुसंस्कृत स्त्री वाले रूप के लिए आवश्यक था लेकिन उनके माध्यम से तत्कालीन माइग्रेशन पर भी रौशनी डाली गई है। वैसे तो, लेखक का दावा है कि इस पुस्तक में उन्होंने केवल वही सब लिखा है जो रानी रूपमती ने उनसे कहा। दो अन्य प्रमुख पात्र रेवादिया तथा भँवर हैं – पहला रूपमती को संगीत की शिक्षा तो देता है किन्तु उस पर बुरी नज़र भी रखता है; भँवर रूपमती से वास्तव में प्रेम करता है और उसके प्राण बचाने के लिए अंततः स्वयं अपना बलिदान दे देता है।
कुल मिला कर यही कहूँगा कि इस लेखक का अंदाज़-ए-बयाँ अलग ही है। मूलतः शायर होने नाते नुक्ते वाले शुद्ध उर्दू शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने किया है। अख़बारों की टकसाली भाषा में इतनी नफ़ासत मेरे जैसे पत्रकार के बूते की बात नहीं। एक भूल इस किताब में रह गई है जिसका संशोधन आवश्यक है: किसी स्टेज पर लेखक ने शायद कोई आवरण-चित्र श्री लंका के ग्राफिक्स कलाकार कौशिगन से बनवाया था जिसका उल्लेख भूमिका में रह गया है। रूपमती के सौन्दर्य के प्रतीक पुष्प कमल से सुसज्जित पुस्तक आवरण दरअसल पूजा आहूजा नाम की महिला ने बनाया है। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पूजा मेरे उन्हीं पूर्व सहकर्मी स्वर्गीय जनार्दन ठाकुर की बेटी हैं जिनका उल्लेख मैंने समीक्षा के प्रारम्भ में किया था। प्रूफ़ की कुछ अन्य त्रुटियाँ भी हैं। मस्लन परमार का परभार छप जाना बहुत अखरता है। गुरु को भी कहीं कहीं गुरू कर दिया है। किन्तु ये मामूली कमियाँ हैं जिनका निदान अगले संस्करण में हो जाएगा। इस पुस्तक के और संस्करण तो अवश्य प्रकाशित होंगे इसमें मुझे कोई संदेह नहीं।
रानी रूपमती की आत्मकथा : प्रियदर्शी ठाकुर ‘ख्याल’ [उपन्यास], राजकमल प्रकाशन, मू. 250 रुपये [पेपरबैक]। इस पुस्तक को आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर के मँगवा सकते हैं।
महेश जोशी : सेवानिवृत्त हिन्दी पत्रकार। जन्म तिथि ५ जुलाई १९४३ तदनुसार उम्र ७७ वर्ष। प्रमुखतः नई दुनिया, इंदौरऔर नवभारत टाइम्स जयपुर में सेवाएँ दीं। नई दुनिया में १९६५ से १९८४ तक। सब एडिटर के रूप में अखबार के प्रथम पेज का काम उस ज़माने में किया, जब अंग्रेज़ी समाचार एजेंसियाँ ही खबरों का माध्यम होती थीं। बाद में विचार पेज और साप्ताहिक मैगज़ीन सेक्शन भी सम्भाला। साथ-साथ सामयिक विषयों पर लेखन भी किया। मालवा क्षेत्र का निवासी होने के कारण रानी रूपमती और बाज़ बहादुर की किम्वदंतियों की अच्छी जानकारी है।