प्रशांत खत्री
गन आइलैंड से पहले जल-वायु परिवर्तन पर अमिताव घोष की पुस्तक द ग्रेट दीरेंज्मेंट: क्लाइमेट चेंज एंड द अन्थिकेबल में उन्होंने इस बात की चर्चा की है कि अमेरिका में जल-वायु परिवर्तन पर यदि किसी संस्था में सबसे ज्यादा शोध हो रहा है तो वह कोई शोध-संस्था नहीं बल्कि पेंटागन है जो कि मुख्यतः एक सैन्य संस्थान है. वहां इस बात को लेकर गंभीर चर्चा है कि जल-वायु परिवर्तन से बाढ़ और सूखा जैसी घटनाओं में वृद्धि होगी जिससे खाद्य सुरक्षा का संकट आएगा साथ ही हिंसा, सविनय अवज्ञा और विकासशील देशों से विकसित देशों की तरफ पलायन बढेगा जिसकी वजह से सीमा सुरक्षा एक महत्वपूरण मुद्दा बनेगा और बड़े स्तर पर पलायन एक मानव त्रासदी का रूप लेगा.
गन आइलैंड इसी मनुष्य-जन त्रासदी की कहानी है जो सबसे ज्यादा इस बात का बोध करती है कि मनुष्य का अस्तित्व सांझा है जो उसके अपने पर्यावरण से गहरे संबंधों पर टिका है. यह बोध होना इसलिए आवश्यक है क्यूंकि विज्ञान ने एक ऐसी तत्वमीमांसा को जन्म दिया है जिसमे हम अपने अलावा (वैज्ञानिक मनुष्य) सभी को (पर्यावरण, जनजातियाँ, लोक कथाएँ, भावनाएं, इत्यादि) ‘अन्य’ की श्रेणी में रखते हैं और यह मानते हैं कि यह विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टि एवं मनुष्य से कमतर हैं. अपने फायदे के लिए इनका दोहन करते हैं और इसी को विकास मानते हैं. जबकि इसके विपरीत एक ऐसी सम्बन्धात्मक तत्वमीमांसा भी है जो इस प्रकार की हैरार्की को नहीं मानती. परन्तु वैज्ञानिक मनुष्य इसको भावनात्मक और गैर-वैज्ञानिक मानकर नकार देता है. इसी द्वन्द की चर्चा अमिताव घोष अपनी पुस्तक में विभिन्न पात्रों के माध्यम से करते हैं.
इस उपन्यास का मुख्य पात्र दीनानाथ दत्ता (दीनू) है जो कि ब्रुकलिन में दुर्लभ पुस्तकों का व्यापार करता है और काम के सिलसिले में अक्सर कोलकाता आता-जाता रहता है जहाँ उसका अपना घर भी है. चौदहवीं शताब्दी में रचित एक बंगाली कविता पर दीनू ने पी.एच.डी. भी की है. कोलकाता आने पर वह अपने मित्र कानाई से मिलता है जो उसे अपनी रिश्तेदार नीलिमा बोस से मिलने को कहता है क्यूंकि नीलिमा दीनू को एक बंगाली लोक कथा के बारे में बताना चाहती है और चाहती है कि दीनू उस लोक कथा के बारे में और जानकारी लेकर आये. पहले तो दीनू यह काम करने में झिझकता है पर नीलिमा उसकी भेंट पिया रॉय से करती है जो उसको यह काम करने की प्रेरणा देती है. बाकी का उपन्यास एक अत्यंत रोमांचक कहानी है जो लोक कथा को वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक परिप्रेख्या से जोडती है.
इस उपन्यास का मुख्य पात्र दीनानाथ दत्ता (दीनू) है जो कि ब्रुकलिन में दुर्लभ पुस्तकों का व्यापार करता है और काम के सिलसिले में अक्सर कोलकाता आता-जाता रहता है जहाँ उसका अपना घर भी है. चौदहवीं शताब्दी में रचित एक बंगाली कविता पर दीनू ने पी.एच.डी. भी की है. कोलकाता आने पर वह अपने मित्र कानाई से मिलता है जो उसे अपनी रिश्तेदार नीलिमा बोस से मिलने को कहता है क्यूंकि नीलिमा दीनू को एक बंगाली लोक कथा के बारे में बताना चाहती है और चाहती है कि दीनू उस लोक कथा के बारे में और जानकारी लेकर आये. पहले तो दीनू यह काम करने में झिझकता है पर नीलिमा उसकी भेंट पिया रॉय से करती है जो उसको यह काम करने की प्रेरणा देती है. बाकी का उपन्यास एक अत्यंत रोमांचक कहानी है जो लोक कथा को वर्त्तमान सामाजिक-राजनैतिक परिप्रेख्या से जोडती है.
उपन्यास का एक अन्य महत्वपूर्ण किरदार है सिन्टा जो पेशे से इतिहास की प्रोफ़ेसर है और दीनू कि दोस्त. लोक-साहित्य और इतिहास पर इन दोनों के बीच की चर्चा अत्यंत रोचक है. जहाँ प्रारम्भ में दीनू के लिए लोक-कथा और प्राचीन साहित्य एक निर्जीव खंड या पुर्जे के सामान है जिसका मूल्य केवल इतना है कि उसके माध्यम से उसके लिखे जाने का समय, लेखक और स्थान का ज्ञान किया जा सकता है वहीं सिन्टा के लिए यह सब एक जीवित और अर्थ-पूर्ण दस्तावेज़ की तरह है जो न केवल इतिहास के बारे में बताते हैं बल्कि वर्त्तमान को भी इनके माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है. बातचीत के दौरान सिन्टा उसके इस भ्रम को भी तोडती है जिसमे दीनू यह समझता है कि पश्चिम में खासतौर पे यूरोप में केवल वैज्ञानिक तार्किकता का ही स्थान है. सिन्टा उदाहरण देती है कि दक्षिण इटली में लोग यह मानते हैं कि तरंतुला नामक जहरीली मकडी के काटने से शरीर में आत्मा का प्रवेश हो सकता है जिसका इलाज झाड-फूक से किया जाता है. तर्कवादी यह मानते हैं कि जिन कारणों को हम व्याख्यायित नहीं कर सकते उनका अस्तित्व भे नहीं होता परन्तु ऐसे विश्वास मौजूद हैं जिनको हम प्राकृतिक कारणों से व्याख्यायित नहीं कर सकते. जैसे किसी की मृत्यु के बाद भी उसके होने का एहसास करना. यह बात सुनकर दीनू को नीलिमा की बात याद आती है जिसमे वह भोला चक्रवात के बारे में बता रही है. 1970 के भोला चक्रवात में बहुत तबाही हुई परन्तु एक गाँव ऐसा भी था जहाँ नुक्सान नहीं हुआ. इस चमत्कार का कारण वहां के लोग मनसा देवी को बाताते हैं जो साँपों की देवी मानी जाती हैं और एक पुण्य स्थल की रक्षक भी मानी जाती हैं. यह पुण्य स्थल बंदूकी सौदागर का है.
लोक कथा के अनुसार बन्दूकी सौदागार एक अमीर व्यापारी था जिससे मनसा देवी नाराज़ थीं क्यूंकि वह उनका उपासक नहीं बन रहा था. उनके क्रोध, ज़हरीली साँपों, सूखे, अकाल, तूफ़ान, और अन्य आपदाओं से बचने के लिए उसने अपना देश छोड़ दिया और गन आइलैंड (बन्दूक द्वीप) में जाकर शरण ले ली जहाँ कोई सांप और जहरीला जीव नहीं था. परन्तु यहाँ पर भी वह मनसा देवी से बच नहीं पाया और एक दिन किताब के पन्नों से वह उसके सामने प्रकट हुईं. उनसे छुपने के लिए वह एक कमरे में छुपा जहाँ उसे एक ज़हरीले जीव ने काट लिया. किसी तरह से वह बच कर वह एक बड़े जहाज़ में उस द्वीप से भाग निकला. परन्तु यहाँ पर भी समुद्री लुटेरों ने उसे पकड़ लिया और उसको एक दुसरे द्वीप में बेचने निकल पड़े. मनसा देवी फिर से उसके सामने प्रकट हुईं. उन्होंने उससे वादा किया कि यदि वह उनका उपासक बनेगा और उनके लिए बंगाल में एक मंदिर बनवाएगा तो वह उसको आज़ाद कर देंगी और अमीर बना देंगी. वह मान गया. अपनी वापसी की यात्रा में उसने खूब धन कमाया और एक मंदिर का निर्माण भी किया जो बन्दूकी सौदागर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
यह लोक कथा कहीं एक जगह इस उपन्यास में पूरी लिखी गयी हो ऐसा नहीं है. यह मौखिक परंपरा के एक महत्वपूर्ण तथ्य को दर्शाता है. लिखे न जाने की वजह से इसका कोई एक स्वरुप हो ऐसा नहीं होता. इसमें समय-समय पर नई कहानियाँ और प्रसंग जुड़ते रहते हैं. इसलिए इसमें निरंतर बदलाव होता है.
यह लोक कथा कहीं एक जगह इस उपन्यास में पूरी लिखी गयी हो ऐसा नहीं है. यह मौखिक परंपरा के एक महत्वपूर्ण तथ्य को दर्शाता है. लिखे न जाने की वजह से इसका कोई एक स्वरुप हो ऐसा नहीं होता. इसमें समय-समय पर नई कहानियाँ और प्रसंग जुड़ते रहते हैं. इसलिए इसमें निरंतर बदलाव होता है.
इस पुण्य स्थल और इससे जुडी लोक कथा को संजो कर रखने का काम एक मुस्लिम परिवार के पास था. नीलिमा को इस बात से आश्चर्य होता है कि उस पुण्य स्थल के देख-रेख एक मुस्लिम व्यक्ति करता है. जबकि मनसा देवी एक हिन्दू देवी है. वह व्यक्ति बताता है कि इस धाम की पूजा सभी धर्मों के लोग करते हैं. मुस्लिम यह मानते हैं कि इस स्थान पे जिन्न रहते हैं और इसकी रक्षा एक मुस्लिम पीर करते हैं जिनका नाम इलियास है. इलियास इस कथा में कैप्टन इलियास के रूप में जुड़ते हैं जो बन्दूकी सौदागर को समुद्री लुटेरों से बचाते हैं. फिर साथ में दोनों कई द्वीपों का भ्रमण करते हैं और धन कमाते हैं और अंततः वे दोनों बन्दूक द्वीप पर पहुँचते हैं जहां मनसा देवी उनको मिलती हैं.
इस लोक कथा को दो सन्दर्भों में इस उपन्यास में देखा गया है- उसमे निहित तथ्यों की पड़ताल के सन्दर्भ में और उसमे निहित अर्थ को समझने के सन्दर्भ में. दोनों सन्दर्भों को समझने में सिन्टा दीनू की सहायता करती है और दीनू के आस-पास और उससे जुड़े लोगों के साथ ऐसी घटनाएँ घटती हैं जो इस लोक कथा के अर्थ को स्पष्ट करती हैं. लोस एंजिलिस की एक कोंफ्रेंस में, जिसमे सिन्टा के कहने पर दीनू भी भाग लेता है, एक इतिहासकार बताता है कि दुनिया भर में सत्रहवीं शताब्दी का समय लिटिल आइस एज के नाम से जाना जाता है. इसी समय दुनिया भर के कई हिस्से अकाल, सूखा और महामारी से ग्रस्त रहे. इस काल का सबसे बड़ा विरोधाभास यह रहा कि इसी समय प्रबोधन काल का उदय हुआ और यह शताब्दी होब्स, न्यूटन और देकार्ते जैसे विद्वानों की भी रही. इसी समय साहित्य, वास्तुशिल्प और कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट कृतियों का निर्माण भी हुआ. बन्दूकी सौदागर की कहानी के तत्त्व इसका समय लगभग इसी काल के आस-पास बताते हैं. दीनू यह प्रश्न करता है कि क्या यह संभव है कि इस काल की पीड़ा को दर्शाने के लिए ही इस कहानी का उदय हुआ?
मौखिक परंपरा गतिशील परंपरा होती है जिसमे न केवल भूत बल्कि वर्त्तमान को भी समझने का दर्शन छुपा होता है. वर्त्तमान में दुनिया भर में लोग अकाल, सोखे, हिंसा, बाढ़, और तानाशाह सरकारों से त्रस्त आकर यूरोप और अमेरिका की तरफ पलायन कर रहे हैं. उन्हें इस सफ़र के दौरान जान गवाना उन जगहों पर रहकर मरने से अधिक आसान लगता है. पलायन और मानवीय त्रासदी कि इस कहानी को घोष टीपू और रफ़ी के माध्यम से हमारे सामने रखते हैं. ये दोनों जवान लड़के हैं और आईला चक्रवात में अपना सब कुछ गवाने के बाद एक अच्छी ज़िंदगी के लिए यूरोप पलायन करते हैं. इस प्रक्रिया में वह विभिन्न मफ़िआओन और सिन्दिकेतों से होकर गुजरते हैं. दीनू भे अपने वेनिस प्रवास में यह देखकर चकित रह जाता है कि वेनिस में बड़ी संख्या में बंगाली और बांग्लादेशी लोग दिहाड़ी पर छोटे-मोटे काम करते हैं.
मनसा देवी के सन्दर्भ में दीनू एक बहुत महत्वपूर्ण बात करता है जब वह कहता है कि मनसा देवी और देवियों जैसी नहीं है. वह सर्व-शक्तिशाली नहीं लगती क्यूंकि अपनी बात मनवाने के लिए उसको बंदूके सौदागर के पीछे-पीछे जाना पड़ता है. इससे यह प्रतीत होता है कि मनसा देवी एक मध्यस्त के रूप में काम करती हैं जो मनुष्य, प्रकृति और जानवरों के बीच एक संवाद स्थापित करने का काम करती हैं. यह संवाद अत्यंत आवश्यक है क्यूंकि यदि सौदागर केवल लाभ कमाने के बारे में सोचेगा और मनसा देवी की सत्ता को नकार देगा तो इसका विपरीत प्रभाव धरती पर रहने वाले अन्य जीवों पर पड़ेगा. इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि मनसा देवी वास्तव में मनुष्य के भीतर की ही एक आवाज़ है जो मुनाफे, विज्ञान, और विकास से इतर उसको अपने पर्यावरण और अन्य जीवों के प्रति एक व्यापक दृष्टि प्रदान करती है. परन्तु उस आवाज़ को हम विज्ञान और विकास के शोर में नहीं सुन पाते हैं और उसको दकियानूसी और भावनात्मक कहकर नकार देते हैं. सिन्टा द्वारा कही हुई बातों को दीनू ने इसी सन्दर्भ में पहले नकार दिया था.
सिन्टा याद दिलाते है कि हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो कि एक औपचारिक तंत्र पर चल रही है. सभी को पता है कि यदि इस दुनिया को जीने लायक रहने देना है तो क्या करना होगा. परन्तु हम सभी अपने आप को शक्ति-विहीन महसूस करते हैं. हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ कुछ शक्तियों ने हमारी इच्छा-शक्ति को काबू में कर रखा है. एक ऐसा तंत्र है जो केवल मुनाफे की बात करता और सोचता है. यह तंत्र एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था पर टिका है जिसने मनुष्य को अपने आप से ही विरक्त कर दिया है. इस तंत्र के खिलाफ एक व्यापक जन-जागृति की आवश्यकता है. इस उपन्यास में ऐसी ही जागृति होती है जब सरकारों को लोगों के आगे झुकना पड़ता है और पलायन करते लोगों को शरण देनी पड़ती है.
जल-वायु परिवर्तन के संधर्भ में यह कहा जा सकता है कि उसमे एक प्रकार की रहस्तामायी मनहूसियत है जो मनुष्य द्वारा ऐतिहासिक रूप से विकसित संरचना से जुडी हुई है. मनुष्य ने एक विशेष प्रकार के पैटर्न को गढ़ा है जो उसको उसी के विनाश कि तरफ ले जा रहा है. यह पैटर्न उस अदृश्य भाग्य की तरह है जो ग्रीक त्रासदी में नायक को उसके निश्चित विनाश की तरफ ले जाता है.
जहाँ तक इस उपन्यास के शीर्षक का सम्बन्ध है, अपने आप में यह शीर्षक अत्यंत रोचक है और ऐतिहासिक जानकारियों से प्रेरित है. शीर्षक की प्रासंगिकता, वर्त्तमान के घटनाक्रम और मनसा देवी की लोक कथा आपस में गहरा सम्बन्ध रखते हैं और उपन्यास को रोचक और रोमांचक बनाते हैं. इसके बारे में इस समीक्षा में लिखकर मैं उस रोमांच को ख़तम नहीं करना चाहता.
गन आईलैंड : अमिताव घोष, पेंगुइन रैंडम हाउस, भारत; वर्ष-2019; मूल्य : 699 रुपये; (हार्डकवर). आप इस किताब को अमेज़न से ऑनलाइन सकते हैं।

प्रशांत खत्री : वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मानवविज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक के रूप में कार्यरत हैं. इन्होने दिल्ली विश्वविद्यालय से पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त की. पर्यावरणीय एवं चिकित्सकीय मानवविज्ञान में इनकी रूचि है. हाल में इन्होने कोगनिटिव जस्टिस और पोलिटिकल ओंतोलोजी (राजनैतिक तत्वमीमांसा) पेरादाइम पर लेखन प्रारम्भ किया है. राजकमल प्रकाशन से भारतीय डायस्पोरा पर इनके द्वारा सह-संपादित पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है. इनके द्वारा लिखे गए लेख विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं जैसे- इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, सेज, टेलर एंड फ्रांसिस इत्यादि. प्रशांत अंगरेजी एवं हिंदी दोनों भाषाओं में लेखन में रूचि रखते हैं. लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है— prashant_khattri2002@yahoo.co.in
Comments
बहुत अच्छी समीक्षा, साथ ही ब्लॉग भी पुस्तक प्रेमियों की अच्छी मदद करने वाला है.