पंकज मित्र
एक निम्न मध्यम वर्गीय आदमी का सपना होता है एक घर का। यह सपना वैसा नहीं है कि “इक घर बनाऊँगा तेरे घर के सामने”। यह घर कहीं भी बन सकता है खासतौर पर जब यह सपना कई पीढ़ियों से देखा जा रहा हो। घर बदर आदमी कुंदन दुबे के लिए यह सपना पूरी शिद्दत से देखना स्वाभाविक ही है क्योंकि उनकी नौकरी ऐसी है जिसमें घर चक्के पर धरा होता है यानी रेलवे के गार्ड की नौकरी। नौकरी से पहले जिस किराये के घर में कुंदन रहे वह घर उनकी माँ और बहनों के घर के रूप में जाना जाता था और बाद में उनकी पत्नी के घर के रूप में। दरअसल कई बहनों और दबंग माँ के घर के लड़के को जितना नरम होना चाहिए उतना है कुंदन उर्फ कुंदू। भले ही मुहल्ले वाले इसे दुबे जी की बाड़ी कहने लगे हों लेकिन घर पर नाम पट्टिका तो विष्णुप्रिया सदन का ही लगा है।
निम्न मध्यम वर्गीय आदमी कुंदू का सपना फैलकर पूरे वर्ग का सपना बन जाता है और इस निर्माण के बहाने एक लंबे कालखंड की संपूर्ण समाजार्थिक व्यवस्था की समीक्षा भी करता है यह उपन्यास। खूबसूरत बात जो इस उपन्यास के गुणसूत्रों में धँसी हुई है कि बात इतने मद्धम स्वर में कही गई है, बिना किसी सैद्धांतिक स्थापनाओं के कि लगता ही नहीं कि कोई महत्वपूर्ण बात हो। एक चरित्र, एक परिवार की कथा कब सभ्यता समीक्षा बन जाती है यह अहसास ही नहीं होता। समय की आहटों, फुसफुसाहटों को जिस गझिन संवेदना के साथ दर्ज करता चलता है उपन्यासकार कि समय को मोज़ैक की तरह अभिव्यक्ति देता है। छोटे छोटे टुकड़ों में बातें लेकिन एक बड़े डिजाइन का हिस्सा हो जैसे।
कुंदू के पूरे जीवन को आप देखेंगे तो नीरस कर्तव्यनिष्ठा से भरा जैसे एक आम निम्न मध्यम वर्गीय आदमी का जीवन होता है परिवार के लिए समर्पित-रोजगार की चिंता, बहनों की शादी, पारिवारिक घात प्रतिघातों को झेलता संघर्ष करता आदमी, साथ ही परिवार के आदर्श को भी बजाय रखने का उत्तरदायित्व-तेजी से बदलते समय से जद्दोजहद-सबकी बात उपन्यासकार अंडरटोन में करता है, न क्रांति कर देने का अतिरिक्त उत्साह है न ही यथास्थिति को बनाए रखने की चाहत।
स्त्री चरित्रों की मजबूत उपस्थिति इस उपन्यास के चक्कों में तेल डालती चलती है और कुंदू के जीवन चक्र को भी चलायमान रखती हैं। चरित्रों की बारीक बुनावट पाठक को हैरान करती हैं कि साधारण से असाधारण बात पैदा करने का हुनर है इनमें। समय के बदलाव के साथ बदलने वाले जीवन की महीन समझ को सामने लाता है उपन्यासकार और वह भी साधारण जीवन स्थितियों के चित्रों के जरिए।
घर तो बनता है लेकिन बहुत सारे घर टूटते हैं- कुंदू के मन में और बाहर भी। घरबदर ही रहता है वह जैसे होरी का सपना ही रह जाता है गोदान। एक रूपक की तरह भी पढ़ा जा सकता है कि एक घर की तामीर की इच्छा है जैसे एक देश बनाने की चाहत लेकिन बाद की पीढ़ी के प्रतिनिधि चरित्र हैं कुंदन दुबे के तीनों बेटे- एक कैरियरिस्ट है तो दूसरा परिवार की थोड़ी चिंता भी करनेवाला, तीसरा एक धर्मध्वजाधारी लुम्पेन के तौर पर आया है। तीनों प्रकार आप अभी के समाज में आइडेंटिफाय कर सकते हैं। पर सब का लक्ष्य है मकान को बेचकर अपनी योजनाएं पूरी करना और यही सच है आज का।
ऊपर से नीरस सी दिखने वाली इस कहानी में रंग भरती है- उत्सुकता बनाये रखने वाली किस्सागोई, व्यंगात्मक टोन की एक बारीक अंतर्धारा और सबसे बढ़कर एक अद्भुत निस्संगता जो किसी बड़ी रचना का गुण होता है, उसका पूरे उपन्यास में निर्वाह। उपन्यास में लंबे समय तक स्मृति में रह जानेवाली योग्यता है। सेतु प्रकाशन ने इसे छापा है।
घर बदर : संतोष दीक्षित [उपन्यास], सेतु प्रकाशन, मू. 250 [पेपरबैक]। आप इस किताब को अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर का सकते हैं।
पंकज मित्र : समकालीन कथा साहित्य में एक सशक्त उपस्थिति। चार कथा संग्रह—क्विजमास्टर, हुड़ुकलुल्लू, ज़िद्दी रेडियो, बाशिंदा@तीसरी दुनिया प्रकाशित। इंडिया टुडे का युवा लेखन पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद का युवा सम्मान, मीरा स्मृति सम्मान, वनमाली कथा सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान और बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान से सम्मानित। आप इनसे इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं—pankajmitro@gmail.com