डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’
समान्तरकोश में सौन्दर्य और शास्त्र दोनों शब्दों के पर्यायवाची मिलते हैं। सौन्दर्य का अर्थ हैंः कलापूर्णता, काव्यलंकार और सुन्दरता। कलापूर्णता के अर्थ हैंः अलंकारपूर्णता, रसपूर्णता, कलात्मकता। काव्यलंकार के अर्थ हैंः अलंकार, सौन्दर्य। सुन्दरता के अर्थ हैः सौन्दर्य, लालित्य। इसी तरह शास्त्र के अर्थ हैंः धर्मग्रन्थ, पुस्तक, विज्ञान, शास्त्र और सिद्धान्त। अतः सौन्दर्यशास्त्र अर्थात रसों/अलंकारों/कलाओं से सम्बन्धित शास्त्र या पुस्तक या सिद्धान्त। अर्थात इसके अन्तर्गत रस, अलंकार और सम्बन्धित कला का अध्ययन किया जाता है। लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह लघुकथा के उन सिद्धान्तों की व्याख्या करने वाला होगा जिससे लघुकथा का कलापक्ष प्रभावित होता है।
सौन्दर्य कला के विषय में विस्तृत विवेचन ‘ऐस्थेटिक्स’ के अन्तर्गत किये जाते हैं जिसे हिन्दी में ‘सौन्दर्यशास्त्र’ कहा जाता है। यह शब्द ग्रीक भाषा का है जिसका भौतिक अर्थ है ‘दर्शनीय’ (सेंस पर्सेप्शन)। ऐस्थेटिक’ शब्द से मूलतः ऐन्द्रीय अनुभूति का अर्थ लिया जाता था किन्तु 18वीं शती के जर्मन दार्शनिक बामगार्टन की व्याख्या से यह शब्द सीमित अर्थों में प्रयुक्त होने लगा। उसने ऐस्थेटिक्स को केवल सौन्दर्य की ऐन्द्री अनुभूति के अर्थों में प्रयोग किया और तभी से इसी सीमित अर्थों में उक्त शब्द का प्रचलन सर्वमान्य हो गया। आज ‘ऐस्थेटिक’ के अन्तर्गत ललित कलाओं के तत्वों का सैद्धान्तिक विवेचन किया जाता है और उन्हीं के आधार पर कलाकृतियों का मूल्यांकन।…आज ऐस्थेटिक्स अध्ययन की वह शाखा कहलाती है जिसके अन्तर्गत सौन्दर्य, उसके विविध रूपों, सिद्धान्तों एवं केन्द्रीय बोधों से प्राप्त सौन्दर्यानुभूतियों और उनसे प्राप्त आनन्द का विवेचन किया जाता है। सौन्दर्यानुभूति में चाक्षुष और श्रवण इन्द्रियों की प्रधानता रहती है। सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत प्रधानतः तीन प्रकार के सौन्दर्य पर विचार किया जाता हैः
1. रूप सौन्दर्य; 2. रंग सौन्दर्य; 3. अभिव्यक्ति का सौन्दर्य
सौन्दर्यशास्त्र ललित कलाओं का दर्शन है। इसके अन्तर्गत उनके माध्यम से अभिव्यक्त सौन्दर्य एवं उसके रसास्वादन की चर्चाएं होती हैं।
डॉ. रमेश कुन्तल मेघ ने ‘एस्थेटिक्स’ को सौन्दर्यबोधशास्त्र की संज्ञा से अभिहित किया है। इस शास्त्र के सीमा-विस्तार पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा है— ‘इस शास्त्र की कई सीमाएं और विस्तार हैं। इसे दर्शनशास्त्र, विज्ञान और संस्कृति आदि की शाखा माना जाता रहा है। इसके अन्तर्गत सौन्दर्य तथा कलाविषयक अनुभव एवं अभिरूचियां आती हैं जिन पर मनुष्य सैद्धान्तिक तथा व्यवस्थित ढंग से विचार करता है। यहां चार बुनियादी सवाल उठते हैं, 1. कलाकार की प्रतिभा की प्रकृति 2. सौन्दर्य वस्तु का सुपरिगठन 3. उसकी शक्ति के स्रोत तथा 4. प्रेक्षक (या सहृदय पर उसका प्रभाव)। इस प्रकार कलाकार – कला या सौन्दर्यवस्तु-प्रेक्षक के त्रित्य से सम्बन्धित नाना भांति के सवालों और समस्याओं का सैद्धन्तिक निदान खोजना सौन्दर्यबोध शास्त्र का लक्ष्य है। डॉ. मेघ के उक्त कथन के आधार पर मुख्यतः दो तथ्य प्रकट होते हैं- (1) ऐस्थेटिक्स दर्षन, विज्ञान एवं संस्कृति की एक शाखा है अर्थात इसकी सत्ता स्वायत्त नहीं है। (2) सौन्दर्यशास्त्र की परिधि कलामूलक सौन्दर्य के अध्ययन तक सीमित नहीं है, प्रत्युत उसमें कला के अतिरिक्त, कलाकृति एवं कला भोक्ता से सम्बन्धित समस्याओं का तात्विक विवेचन भी सम्मिलित किया जाता है।
किसी भी युग में विधा में किसी भी विधा का शास्त्र होना अत्यावश्यक है। शास्त्र से ही विधा की विशेषताएं स्पष्ट होती हैं। ये विशेषताएं ही विधा की पहचान हैं। बिना शास्त्र के विधा वैसे ही है जैसे बिना सांचे में ढला कोई पात्र, जो सांचागत न होने के कारण बेडौल आकृति का हो जाता है। सांचा ही वह शास्त्र है जो विधा पात्र को सम्पूर्ण बनाता है। पात्र की एकसमान गोलाई, मध्य का स्थान, उसका मुख आदि निर्धारित करने का दायित्व सांचे का होता है। यह दायित्व, सांचा अपने पूर्ण दायित्वबोध के साथ निर्वहन करता है तथा एक पात्र को उसका पूर्ण आकार प्रदान करता है। यही पात्र का सौन्दर्य है। तो पात्र का सौन्दर्य है उसकी एक समान गोलाई, उसके मध्य का स्पेस, उसका मुख, उसका तला आदि। और यह सौन्दर्य उसका सांचा निर्मित करता है।
विधा की बात करें तो विधा का सौन्दर्य होता है उसकी विशेषताएं, उसका उद्देश्य। यदि विधा का शास्त्र न होता तो उसकी विशेषताएं न होतीं। विधा विशेष को अन्य विशेषताओं से पृथक करके आंका नहीं जा सकेगा। कैसे आंका जा सकेगा जब उसमें भी वही गुण होंगे जो अन्य विधाओं में होंगे, उसका भी वही उद्देश्य होगा जो अन्य विधाओं का होगा? तो विधा विशेष कहां हुई और अन्यों से अलग किस प्रकार हुई?
विधा की बात करें तो विधा का सौन्दर्य होता है उसकी विशेषताएं, उसका उद्देश्य। यदि विधा का शास्त्र न होता तो उसकी विशेषताएं न होतीं। विधा विशेष को अन्य विशेषताओं से पृथक करके आंका नहीं जा सकेगा। कैसे आंका जा सकेगा जब उसमें भी वही गुण होंगे जो अन्य विधाओं में होंगे, उसका भी वही उद्देश्य होगा जो अन्य विधाओं का होगा? तो विधा विशेष कहां हुई और अन्यों से अलग किस प्रकार हुई?
इसी संदर्भ में यदि समकालीन लघुकथा की बात करें तो लघुकथा के सौन्दर्य में यह देखना होगा कि वे कौन-कौन से तत्व हैं जो लघुकथा को लघुकथा का रूप देते हैं। वे कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं जिनसे यह ज्ञात होता है कि यह लघुकथा है (कहानी नहीं है)। लघुकथा की संवेदना अन्य विधाओं की संवेदना से निश्चित रूप से अलग होती है। ये सब मौलिक गुण जो उसे लघुकथा बनाते हैं या उसे लघुकथा का रूप देते हैं। लघुकथा के सौन्दर्य का अध्ययन हम उसके सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत करते हैं।
अभी सौन्दर्यशास्त्र की स्वायत्ता की बात हो रही थी। ‘‘जहां तक सौन्दर्यशास्त्र की अस्वायत्ता का प्रष्न है, वह सर्वथा संगत नहीं है। यह सच है कि पश्चिम में अठारहवीं षती से पूर्व दर्शनशास्त्र के अन्तर्गत ही इसका अध्ययन होता रहा है। किन्तु आज इस शास्त्र ने अपनी स्वतन्त्र सत्ता अधिकृत कर ली है। थामस मुनरो ने सौन्दर्यशास्त्र के आधुनिक क्षेत्रों के विषय में ठीक ही लिखा है कि ‘आज एक विषय के रूप में इस शास्त्र ने अपनी स्वतंत्र हैसियत प्राप्त कर ली है जो (क) कलाकृति, (ख) कला के अनुभव तथा सृजन एवं (ग) कलाक्षेत्र के बाहर मानवीय उत्पादनों में और प्रकृति के पहलुओं का, खासकर जो रूप या ऐंन्द्रिक गुणों के आधार पर सुन्दर या असुन्दर माने जा सकते हैं, का अनुशीलन करता है। इस प्रकार सुनिश्चित है कि सौन्दर्यशास्त्र का कार्यक्षेत्र कला, कलाकार एवं कलाभोक्ता (सहृदय)- इस त्रिक से सम्बन्धित नाना समस्याओं के सैद्धान्तिक समाधानान्वेशणों तक प्रसृत है।
जहां तक अध्ययन का प्रश्न है, भारत में सौन्दर्यशास्त्र का उतना अध्ययन नहीं हुआ जितना कि पश्चिम में।
एक स्वतन्त्र शास्त्रीय पद्धति अथवा ज्ञान की स्वायत्त शाखा के रूप में सौन्दर्यशास्त्र का जैसा विधिवत् एवं व्यापक अध्ययन पश्चिम में हुआ है वैसा भारतवर्श में नहीं। इसीलिए सौन्दर्यशास्त्र के स्वरूप एवं विषय विस्तार आदि का विस्तृत विवेचन पश्चिमी देशों की अपेक्षा हमारे देश में कम ही मिलता है। फिर भी सौन्दर्य चिन्तन की एक पुष्ट परम्परा यहा ऋग्वेदकाल से लेकर अद्यावधि तक किसी न किसी रूप में निरन्तर प्रवाहमान रही है, जो पाश्चात्य चिन्तन के अवनुरूप होते हुए भी अपने मूल में अत्यन्त प्रौढ़, पुष्ट एवं प्रमाणिक है। भारतीय काव्यशास्त्रीय-चिन्तन का इतिवृत्त एवं विकास- इस तथ्य का साक्ष्य उपस्थित करता है कि वह पश्चिमी सौन्दर्य चिन्तन की तुलना में कदापि संकुचित, अप्रौढ़ एवं अप्रमाणिक नहीं है, प्रत्युत कहीं अधिक सूक्ष्म, गहन, व्यापक और स्वायत्त है।
प्रश्न उठता है कि भारतीय काव्यशास्त्र इस विषय में क्या कहता है? पंकज बिष्ट कहते हैं ‘‘चूंकि भारतीय काव्यशास्त्र के पुराने औजार उपलब्ध थे इसलिये हिन्दी में आलोचना का काम काव्य क्षेत्र में ही हुआ। गद्य विधाओं पर काम करने से कतराते रहे क्योंकि यह मेहनत का काम था।’’
प्रश्न उठता है कि भारतीय काव्यशास्त्र इस विषय में क्या कहता है? पंकज बिष्ट कहते हैं ‘‘चूंकि भारतीय काव्यशास्त्र के पुराने औजार उपलब्ध थे इसलिये हिन्दी में आलोचना का काम काव्य क्षेत्र में ही हुआ। गद्य विधाओं पर काम करने से कतराते रहे क्योंकि यह मेहनत का काम था।’’
तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय काव्यशास्त्र का पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र में कोई सम्बन्ध है?
भारतीय काव्य चिन्तन की परम्परा में काव्य के अन्तर्बाह्य सौन्दर्य की विवेचना तथा उसकी अनुभूति की शास्त्रीय मीमांसा काव्यशास्त्र के अन्तर्गत ही की जाती रही है। यद्यपि आचार्य वामन ने अलंकार को सौन्दर्य कहा है, तथापि उनकी यह मान्यता अलंकारशास्त्र के अन्तर्गत ही समझी गई है। सौन्दर्यशास्त्र से इसका कोई ऋजु सम्बन्ध नहीं रहा है। आज जिस सौन्दर्य को ‘‘एस्थेटिक्स’’ के अर्थ में ग्रहण किया जा रहा है उसे अलंकारशास्त्र का पर्याय नहीं मान सकते। इसे काव्यशास्त्र के अन्तर्गत मानना ही संगत है, क्योंकि यह केवल काव्य निबद्ध सौन्दर्य के विवेचन से सम्बद्ध शास्त्र है। काव्येत्तर कलाओं के सौन्दर्य के तात्विक अध्ययन से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय काव्यशास्त्र और पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र में आवश्यक एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है और इस सम्बन्ध को निरूपित करने वाली प्रमुख दो विचारधाराएं प्रचलित है।
पहली विचारधारा उन चिन्तकों की है, जो काव्यशास्त्र को सौन्दर्यशास्त्र का ही एक रूप मानते हैं। श्री के.एस. रामास्वामी का मत है कि सौन्दर्यशास्त्र केवल पाश्चात्य देशों में ही विकसित नहीं हुआ है, बल्कि भारत में भी उसकी स्पष्ट परम्परा है। इस सन्दर्भ में उक्त मत की व्याख्या करते हुए डॉ. कुमार विमल लिखते हैं-‘‘भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की प्रारम्भिक सीमा नाट्यशास्त्र है। इस प्रकार भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की विकासरेखा को निर्दिष्ट करते हुए यह कहा जा सकता है कि यहां सबसे पहले नाट्यशास्त्र का विकास हुआ, दूसरी दशा में काव्यशास्त्र (जिसमें नाट्यशास्त्र भी गतार्थ है) का और अन्त में इन विकास दशाओं के समीकरण से सौन्दर्यशास्त्र का अवतरण हुआ। तात्पर्य यह है कि सौन्दर्यशास्त्र पश्चिम की कोई नवीन परिकल्पना है, यह तथ्य सर्वथा संगत नहीं है, क्योंकि भारतीय दार्शनिक एवं काव्यशास्त्रीय चिन्तन में इसकी परम्परा का उल्लेख मिलता है। भारतीय काव्यशास्त्र में तो काव्यगत सौन्दर्य-तत्व के स्वरूप एवं उसकी अनुभूति आदि का गम्भीर विचार हुआ है। इस दृष्टि से पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र एवं भारतीय काव्यशास्त्र में पर्याप्त साम्य सिद्ध होता है।
अतः माना जा सकता है कि भारतीय संदर्भों में सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र का, तत्पश्चात्य काव्यशास्त्र का और अंत में सौन्दर्यशास्त्र का जन्म हुआ।
पहले सौन्दर्यशास्त्र और काव्यशास्त्र के बीच की कोई रेखा है जो इन्हें पृथक तो करती है किन्तु एक भी रखे रहती है।
कुमार विमल सौन्दर्यशास्त्र को काव्यशास्त्र का ही विकसित और कला चैतन्य से समन्वित रूप कहते हैं। पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र और भारतीय काव्यशास्त्र के साम्य का एक प्रमाण यह भी है कि पश्चिमी काव्यशास्त्र काव्य मे ‘‘ब्यूटी’’, सब्लाईम, एक्सलेन्स, आदि का अध्ययन प्रस्तुत करता है और इन्हीं कलातत्वों की मीमांसा सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत भी की जाती है। अगर कला के इन्हीं तत्वों को भारतीय काव्यशास्त्र के सन्दर्भ में देखा जाये,तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि काव्यसौन्दर्य, औदात्य, चारूत्व, लालित्य आदि का अध्ययन कोई और दूसरा अध्ययन नहीं है। प्रत्युत शब्दावली भेद से उक्त दोनों शास्त्र काव्य के समान तत्वों की ही विवेचना करते हैं। अतः जब भारतीय काव्यशास्त्र भी काव्य के उक्त तत्वों का विवेचन करता है तब फिर क्यों न भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन के विषय के रूप में स्वीकार कर लिया जाये? इस विवेचन से उक्त दोनों शास्त्रों की आंशिक एकरूपता पर प्रकाश पड़ता है। यहां यह भी ध्यात्व्य है कि पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र में सौन्दर्य तत्व की ही भांति कल्पना को भी कला के एक अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण तत्वरूप में माना गया है। भारतीय काव्यशास्त्र प्रतिभा के अर्थ में उक्त तत्व का विवेचन करता है।
लेकिन जिस तरह प्रकार प्रत्येक विचार या सिद्धान्त प्रत्येक को स्वीकार्य नहीं होते तथा उनके मत में भिन्नता होती है, उसी प्रकार की स्थिति यहां भी है।
भारतीय काव्यशास्त्र और पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र के सम्बन्ध में निरूपित करने वाली दूसरी विचारधारा उन विद्वानों की है, जो काव्यशास्त्र और सौन्दर्यशास्त्र में पर्याप्त वैषम्य स्वीकार करते हैं और सौन्दर्यशास्त्र की परिधि को काव्यशास्त्र की परिधि से अधिक व्यापक मानते हैं। इनकी दृष्टि में सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्र साहित्यशास्त्र के क्षेत्र से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है। साहित्यशास्त्र तो केवल चार षब्दों के माध्यम से निर्मित कला को ही द्योतित करता है, परन्तु सौन्दर्यशास्त्र ललितकलाओं जैसे भास्कर्य, चित्र, संगीत आदि में निर्दिष्ट चारूत्व को ही अपने क्षेत्र के अन्तर्गत मानता है। अतः दोनों का पार्थक्य मानना न्यायसंगत है। आचार्य बलदेव उपाध्याय के इस कथन से उक्त दोनों शास्त्रों के क्षेत्रमूलक अन्तर पर प्रभाव पड़ता है। जिससे यह स्पष्ट होता है कि काव्यशास्त्र अनुभूति की शाब्दिक अभिव्यक्ति-काव्यकला के अध्ययन से सम्बद्ध शास्त्र है, जबकि सौन्दर्यशास्त्र का सम्बन्ध काव्य एवं काव्येत्तर सभी ललित कलाओं के अध्ययन से है।
भारत में सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन दुर्लभ है। ‘‘हिन्दी आलोचना साहित्य में कविता के उक्त सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन का नितान्त अभाव है। कुछ छिटपुट निबन्धों, पुस्तकों और शोध प्रबन्धों में ऐसे अध्ययन का प्रयास किया गया है किन्तु वांछित सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टिकोण और तात्विक विश्लेषण के अभाव में वह प्रयास परिपूर्ण, सर्वांगीण और तत्वनिरूपक नहीं हो सका है। लेकिन यह प्रसन्नता का विषय है कि हिन्दी साहित्य में भी अब अनेक विचारक कविता के इस सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की आवश्यकता महसूस करने लगे हैं। डॉ. नगेन्द्र, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेई, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, महादेवी वर्मा, आचार्य नलिनविलोचन शर्मा प्रभृति विचारकों ने इस दिशा की ओर विशेष संकेत किया है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस बात पर बहुत बल दिया है कि कला की आंख से साहित्य और साहित्य की आंख से कला को देखना हमारे वर्तमान सांस्कृतिक युग की एक महती आवश्यकता है।
जहां तक लघुकथा के संदर्भ में सौन्दर्यशास्त्र को टटोलने का प्रश्न है, गौतम सान्याल साफगोई से कहते हैं- ‘‘लघुकथा के सौन्दर्यशास्त्र का पहला सूत्र यह है कि यह विरोध की कला है, प्रतिशोध का रचना कौशल है, विरूद्ध का कथ्य है, विद्रूप का कौशल है। यह असत्य और अशुभ पर कथात्मक प्रहार का संक्षिप्त नाद है। लघुकथाएं पतनषील और जर्जरित सामाजिक अधिरचना के विरूद्ध नवीन और जीवंत विवेक के संघर्श की दास्तान को लघुकलेवर में प्रस्तुत कराती हैं। जीवन एक संघर्शषील श्रम है और कलागत सृजन उसके मर्म का उद्घाटन है। लघुकथाएं उन मार्मिक उद्घाटनों का संक्षिप्त कथात्मक प्रकार है।’’
लघुकथा ही नहीं, किसी भी संदर्भ में देखें तो सौन्दर्यशास्त्र का अर्थ विधा के तत्वों को अवलोकन करना एवं उन्हें निर्धारित करना है। सौन्दर्यशास्त्र को भली-भांति समझना ही सौन्दर्यबोध है। लघुकथा के संदर्भ में यद्यपि लघुकथा मूलतः एक कथा विधा है, तथापि इसके सौन्दर्यशास्त्र को समझने के लिए समकालीन लघुकथा के तत्वों को अध्ययन करना होगा। यह अध्ययन बिम्ब और प्रतीकों के परिप्रेक्ष्य में भी होगा और रस, अलंकार आदि के परिप्रेक्ष्य में भी सम्पन्न होगा।
स्पष्ट है कि लघुकथा का सौन्दर्य देखने का समय अब आ गया है। यह शिवनारायण के इस कथन से भी उद्घाटित होता है- ‘‘लघुकथा की लोकप्रियता जिस तेजी से फैली है, उसे देखते हुए उसके मूल्यांकन के, आलोचना के औजार अभी विकसित नहीं हुए हैं। कहानी और उपन्यास की आलोचना के औजार से लघुकथा का मूल्यांकन सम्भव नहीं है। किसी एक विधा की आलोचना निष्कर्ष, दूसरी विधा की आलोचना का निष्कर्ष नहीं हो सकता। होना यह चाहिए कि किसी रचना के मूल्यांकन के लिए उसके भीतर से ही आलोचना के औजार निर्मित किये जायें। समाजशास्त्रीय आलोचना इस पद्धति की वकालत करती है। हिन्दी लघुकथा के मूल्यांकन में इस आलोचना-दृष्टि को विकसित नहीं किया गया है। प्रायः अन्य नई विधाओं की तरह लघुकथा मे भी संभ्रम की स्थिति है।’’
स्पष्ट है कि लघुकथा का सौन्दर्य देखने का समय अब आ गया है। यह शिवनारायण के इस कथन से भी उद्घाटित होता है- ‘‘लघुकथा की लोकप्रियता जिस तेजी से फैली है, उसे देखते हुए उसके मूल्यांकन के, आलोचना के औजार अभी विकसित नहीं हुए हैं। कहानी और उपन्यास की आलोचना के औजार से लघुकथा का मूल्यांकन सम्भव नहीं है। किसी एक विधा की आलोचना निष्कर्ष, दूसरी विधा की आलोचना का निष्कर्ष नहीं हो सकता।
हालांकि लघुकथा में काव्य के तत्वों को देखने की इच्छा बलराम जी ने अपने लघुकथा संग्रह ‘मृगजल’ में दिये गये अपने लघुकथा विषयक एक लेख में वर्ष 1990 में ही इन शब्दों में व्यक्त कर दी थीः
‘‘कहानी में कविता और कविता में कहानी के गुण आने चाहिये, यह मांग की जाती रही है और मैं तो हिन्दी लघुकथा में भी काव्य तत्वों का समावेश चाहता हॅूं ताकि हिन्दी लघुकथा कलात्मक परिणतियां और ऊॅंचाइयां हासिल करे, क्योंकि उसके एक सम्पूर्ण विधा कसौटी भी कुछ और कड़ी हो गयी है।’’ तब भी, प्रतीकों, अलंकारों के सुन्दर प्रयोगों के बाद भी, काव्यशास्त्र का सौन्दर्यशास्त्र से सीधा सम्बन्ध नहीं है क्योंकि काव्यशास्त्र व्याकरण से सम्बन्धित होता है जबकि सौन्दर्यशास्त्र व्याकरण से सीधे सम्बन्धित नहीं होता। यह सम्बन्ध सीधा तो नहीं होता किन्तु अप्रत्यक्ष होता है। काव्यशास्त्र के अंतर्गत रस, अलंकार आदि का अध्ययन किया जाता है। जबकि सौन्दर्यशास्त्र में सौन्दर्यशास्त्र के तत्वों का अध्ययन किया जाता है।
संदर्भ ग्रन्थः
1. सौन्दर्य/डॉ. राजेन्द्र वाजपेई
2. सौन्दर्य शास्त्र के तत्व/कुमार विमल
3. सौन्दर्यशास्त्र: स्वरूप एवं समस्याएं/डॉ. लक्ष्मण प्रसाद शर्मा
4. बातचीत आधारित लेख/पंकज बिष्ट/वर्तमान साहित्य/जुलाई 2002
5. पैंसठ हिन्दी लघुकथाएं/डॉ. अशोक भाटिया
6. गौतम सान्याल, लघुकथा: रूप, प्रविधि और भाषा-दरवाजा खुलता है
7. शिवनारायण/नई धारा/अप्रैल-मई 2009
(गत वर्ष प्रकाशित पुस्तक ‘समकालीन लघुकथा का सौन्दर्यशास्त्र और समाजशास्त्रीय सौन्दर्यबोध’ का एक अंश)
डॉ. जितेन्द्र ‘जीतू’ : व्यंग्य की चार और बाल कहानियों की पांच पुस्तकें प्रकाशित। लघुकथा के सौन्दर्यशास्त्र पर पीएच-डी, लघुनाटक, कहानी लेखन भी। सम्प्रति ग्रामीण बैंक में कार्यरत्। सम्पर्कः 8650567854