स्त्री प्रश्न : हिंदी नवजागरण के अंतर्विरोध

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विमल कुमार

“स्त्री पुरुष में समानता है, ऐसा समझना भूल है। अपने देशवासियों को इससे बचना चाहिए पर यह ना समझना चाहिए कि मजदूरों को वोट का अधिकार देने का विरोधी हूं… स्त्रियों को गृह कार्य की शिक्षा दी जानी चाहिए पर ऐसी शिक्षा नहीं जो उन्हें गृह कार्य के धर्म कर्तव्यों से जरा भी विमुख करें। कुछ लोग स्त्रियों के लिए आंदोलन कर रहे हैं। उनका उद्देश्य तो अच्छा है पर उनके परिश्रम का फल निर्थक होगा। मानसिक और शारीरिक बातों में स्त्रियां पुरुषों से भिन्न रहेंगी। यह भेद  स्त्री पुरुष के लिए अच्छा है इन्हीं मतभेदों के कारण स्त्री पुरुष में चिर स्थायी अनुराग रहता है।”-लाला लाजपत राय  

“स्त्रियों को अपनी जीविका के लिए मजदूरी करना आवश्यक नहीं है जहां स्त्रियों को टाइपिस्ट बनना पड़ता है वहां समाज व्यवस्था भंग हो जाती है और जिस राष्ट्र ने ऐसी प्रणाली ग्रहण कर ली है उसका विनाश शुरू हो जाएगा उनमें सुधार का काम सरकार का नहीं हम सबका है” -महात्मा गांधी, 1919 मर्यादा

“जो शिक्षा स्त्रियों को मैंम बना दे या निर्लज्ज बना दे, यह शिक्षा नहीं वरन कुशिक्षा है। स्त्री शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है नरम, सहिष्णु और शांत बनाना, गृह कार्य में दक्ष करना, साथ ही उचित अनुचित का ज्ञान पैदा करना। जो शिक्षा निर्लज्ज बनाती है उसके हम विरोधी हैं।” -आचार्य रामचंद्र शुक्ल

यहां अपने देश के तीन बड़े महानायको की कुछ पंक्तियों को उद्धृत किया जा रहा है जिससे स्त्रियों के बारे में उनकी एक खास मांनासिकता का पता चलता है। यह पंक्तियां बीसवीं सदी के आरंभिक दूसरे दशक की हैं यानी आज से करीब 100 साल पहले की हैं जो स्त्रियों को लेकर भारतीय समाज में पुरुषों की मानसिकता को प्रदर्शित करती हैं। इनमें एक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के वक्तव्य है जिनकी ईमानदारी निष्ठा त्याग और समपर्ण तथा स्त्रियों के उत्थान कार्यों पर प्रश्न चिन्ह नही खड़ा किया जा सकता है। पर इन पंक्तियों को देखें तो यह पंक्तियां स्त्री विरोधी लगती है और आज कोई भी स्त्री इस से सहमत नही होगी और पुरुष भी अपनी सहमति जताना पसंद नही करेंगे लेकिन क्या हिंदी नवजागरण के दूसरे चरण में स्त्री विमर्श को केवल इस रूप में देखा जा सकता है या  स्त्री प्रश्न के संदर्भ में नवजागरण के अंतर्विरोधों की पड़ताल करते हुए उसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों पर हमें विचार करना हयोग तभी उस दौर का सम्यक मूल्यांकन होगा।

युवा स्त्री विमर्शकार सुनंदा पराशर की पुस्तक “हिंदी नवजागरण और स्त्री अस्मिता” में इन पंक्तियों को उद्धृत किया गया है। सुनंदा ने हर अध्य्याय के अंत मे या पुस्तक के अंत मे फुटनोट्स नही दिए हैं जिससे आम पाठक को पता चल सके कि ये पंक्तियां कहाँ से ली गई हैं। गांधी जी की पंक्तियों के संदर्भ उन्होंने जरूर दिया है। सुनंदा जेएनयू की छात्रा रही हैं और उन्होंने इस विषय पर पीएचडी की है। लिहाजा हम मान कर चलते हैं कि उन्होंने सही रूप में इन्हें उद्धृत किया होगा।

हिंदी की दुनिया मे कुछ सालों से स्त्री विमर्श पर चर्चा चल रही थी।पहले यह समकालीन सहित्य और वैचारिकी तक सीमित थी लेकिन अब नवजागरण काल में स्त्री प्रश्न का मूल्यांकन किया जा रहा है,उस समय के स्त्री विमर्श को रेखांकित किया जा रहा है। उससे देश के इतिहास पर एक नई रोशनी पड़ती है। इससे यह पता चलता है कि क्या पश्चिम जिस तरह का स्त्रीवादी आंदोलन हुआ उस से भारत में 19वीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी दूसरे तीसरे दशक में चला स्त्री विमर्श कितना भिन्न था और दोनो के स्वरूप में क्या अंतर था। भले ही उस विमर्श को पश्चिम के स्त्रीवादी आंदोलन की संज्ञा नही दी जा सकती पर उस दौर में स्त्रियों द्वारा किये गए लेखन को देखते हुए कहा जा सकता है कि स्त्रियों को जगाने में अपने अधिकारों के प्रति सजग करने में स्त्रियां आगे आ रही थी। उस दौर की पत्रिकाओं ने और कई लेखकों ने इस सवाल को बहुत ही तीखे ढंग से उठाया है। इसके बारे में अब गरिमा श्रीवास्तव, प्रज्ञा पाठक और रूपा गुप्ता के महत्वपूर्ण कार्यों ने नवजागरण की बहस में अब स्त्री को केंद्र में ला दिया है परंतु अभी तक विश्वविद्यालय की दुनिया में उन पर उस तरह से चर्चा नहीं हो रही है जिस तरह होनी चाहिए थी। यह सच है कि कुछेक  विश्वविद्यालयों में उसकी तरफ लोगों का ध्यान गया है। यह अलग बात है कि अभी राष्ट्रीय स्तर पर नवजागरण काल में स्त्री प्रश्न को लेकर उस तरह चर्चा नहीं हो रही है जिसकी यहां अपेक्षा थी। पर इन सभी लेखिकाओं के कार्यों को देखा जाए तो एक आधार भूमि बन गयी है जो इक्कीसवीं सदी के शुरू होने तक नही थी।

सुनंदा की यह किताब मुख्यता उस दौर की चार प्रमुख पत्रिकाओं ‘सरस्वती’, ‘मर्यादा’, ‘प्रभा’ और ‘चांद’ में स्त्री विषयों से जुड़े छपे लेखों के आधार पर आधारित है। उन्होंने अपनी पुस्तक में इन  पत्रिकाओं पर छपे लेखों के आधार पर उस दौर के स्त्री विमर्श को रेखांकित करने का काम किया है। ‘सरस्वती’ और ‘चांद’ पर पहले भी शोधपरक काम हुए हैं लेकिन स्त्री विमर्श के सवाल को उस तरह से केंद्रित नहीं किया गया था लेकिन सुनंदा ने अपनी पुस्तक में छह अध्यायों में इन सवालों पर चर्चा की है। पहला अध्याय ‘हिंदी नवजागरण का आरम्भ और स्त्री अस्मिता के सवाल’, दूसरा  अध्याय ’20वीं सदी के आरंभ में स्त्री की सामाजिक अस्मिता’, तीसरा अध्याय ‘साहित्यिक पत्रकारिता और स्त्री का अस्मिता बोध’, चौथा अध्याय ‘साहित्यिक पत्रकारिता और स्त्री लेखन’, पांचवा अध्याय ‘तत्कालीन स्त्री पत्रिकाएं एवं आकलन’ और छठा अध्याय ‘राजनीति और स्त्री’ है। सुनंदा ने अपनी किताब में ‘स्त्री दर्पण’ के लेखों का उल्लेख यदा-कदा किया है पर उसे मुख्य आधार नही बनाया है। शायद इसका कारण यह रहा हो कि ‘स्त्री दर्पण’ पर अलग से काम हो चुका है। उन्होंने और अन्य पत्रिकाओं को भी आधार नहीं बनाया है। अगर उस दौर की अन्य पत्रिकाओं को आधार बनाया जाता तो एक समग्र तस्वीर होती लेकिन सुनंदा ने आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया कि उन्होंने बीसवीं सदी के आरंभिक दो दशकों में चार पत्रिकाओं में छपे लेखों को ही अपने विमर्श का आधार बनाया है। अगर उस दौर की अन्य पत्रिकाओं ‘मतवाला’, ‘माधुरी’, ‘विशाल भारत’, ‘प्रताप’, ‘हंस’  आदि को भी शामिल कर लिया जाए और इस बात का पता लगाया जाए कि उस दौर में स्त्रियों के प्रश्नों को लेकर किस किस तरह के लेख इन पत्रिकाओं में लिखे गए और किन-किन नेताओं ने स्त्रियों के मुद्दे पर क्या क्या विचार व्यक्त किये, तो शोध का दायरा काफी बड़ा हो जाता लेकिन सुनंदा ने जितना काम किया है उस से नवजागरण के अंतर्विरोधों के बारे में जरूर पता चलता है।

यह सही है कि वह दौर राष्ट्रीय आंदोलन का था जिसका लक्ष्य देश को आजाद करना पहले था। इसके उभरते राष्ट्रवाद साम्प्रदायिकता हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी विवाद और जमींदारी प्रथा से हो रहे किसानों के शोषण का सवाल अधिक प्रमुख था। जाहिर स्त्री प्रश्न को प्रमुखता नहीं मिली लेकिन गांधीजी सरोजिनी नायडू संविधान सभा की महिला सदस्यों और अन्य नेताओं ने अपने स्तर पर इस सवाल को उठाने की कोशिश की। 


यह सही है कि वह दौर राष्ट्रीय आंदोलन का था जिसका लक्ष्य देश को आजाद करना पहले था। इसके उभरते राष्ट्रवाद साम्प्रदायिकता हिंदी-उर्दू-हिंदुस्तानी विवाद और जमींदारी प्रथा से हो रहे किसानों के शोषण का सवाल अधिक प्रमुख था। जाहिर स्त्री प्रश्न को प्रमुखता नहीं मिली लेकिन गांधीजी सरोजिनी नायडू संविधान सभा की महिला सदस्यों और अन्य नेताओं ने अपने स्तर पर इस सवाल को उठाने की कोशिश की। 


महात्मा गांधी हों या प्रेमचंद, निराला, शिवपूजन सहाय जैसे लेखकों ने स्त्रियों शिक्षित करने, बाल-विवाह रोकने और विधवा-विवाह के समर्थन तथा वेश्यावृत्ति उन्मूलन के पक्ष में लिखा पर सभी स्त्रियों को घर की चारदीवारी के भीतर चाहते थे। स्त्री पुरुष समानता की बात करते हुए भी स्त्री की गरिमा-लज्जा परम्परा की चर्चा अवश्य करते थे और मानते थे यह सारे गुण स्त्रियों के आभूषण हैं। शायद यही कारण है कि उस दौर की लेखिकाओं ने उसका बड़ा करारा जवाब दिया है। बंग महिला रामेश्वरी नेहरू, उमा नेहरू, हेमवादी देवी आदि की पंक्तियों भाषणों लेखों और टिप्पणियों के माध्यम से सुनंदा ने यह प्रमाणित कर दिया है कि इन स्त्रियों की सोच वह नही थी जो महानायक की थी। इन स्त्रियों ने पुरुषवादी मानसिकता का करारा जवाब दिया है। इसमें सरोजिनी नायडू जैसी महिला भी शामिल हैं जिन्होंने अपने लेखों और संपादकों में पुरुषवादी मानसिकता की तीखी आलोचना की थी।

सुनंदा ने अपनी किताब की भूमिका में यह स्पष्ट कर दिया है कि “महात्मा गांधी,  मदनमोहन मालवीय, महावीरप्रसाद द्विवेदी आदि महापुरुषों को हमेशा स्त्री-सुधारक स्त्री-शिक्षा और समानता के हिमायती कहकर महिमामंडित किया जाता रहा है पर उनका दृष्टिकोण किस तरह का था यह इन पत्रिकाओं में विभिन्न लेखों को देखने से पता चलता है।”

उन्होंने लिखा है कि “इस पुस्तक को लिखते समय पूरी कोशिश रही है कि स्त्री के प्रति इस भेदभाव पूर्ण व्यवहार को रेखांकित करूँ और इस रेखांकन में प्रयास में स्त्री विषयक पुरुषवादी दृष्टिकोण की आलोचना करना रहा है। किसी प्रकार का कोई आक्षेप  करने का उद्देश्य नहीं रहा है। “उन्होंने इस पुस्तक में इन पुरुषों के समानांतर बंग महिला कुसुम कुमारी, रामेश्वरी नेहरू, उमादेवी नेहरू, सावित्री देवी, ‘सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा आदि अनेक महिलाओं के लेखों में सुलझा दृष्टिकोण देखा जो समाज को चुनौती देता दिखाई देता है पर हमारे आज के लेखक आलोचक उस समय की पत्रिकाओं को पढ़ते हुए स्त्री नाम पढ़ कर उन लेखों पर डालने की जरूरत नही समझते।

सुनंदा बात को मानती हैं कि राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती आदि ने समाज में प्रचलित परंपराओं के नाम पर स्त्री के प्रति शोषण को समाप्त करने के लिए स्त्री सुधारों की शुरुआत की। उसे भारतेंदु ने आगे बढ़ाया ‘नर नारी नर’ की समानता का नारा देकर और स्त्री विषयक ‘बाला बोधिनी’ पत्रिका निकाल कर। उन सभी सुधारों से स्त्री में धीरे आत्मविश्वास बढ़ा। स्त्री ने शिक्षा ग्रहण की स्त्री संगठन का निर्माण हुआ।

अगर 1848 में सावित्रीबाई फुले द्वारा शुरू किए गए लड़कियों के स्कूल को प्रस्थान बिंदु माना जाए तो वहां से लेकर 1920 तक 70 वर्ष का इतिहास रहा है जिसमें स्त्रियों के सवाल पर गाहे-बगाहे चर्चा होती रही है लेकिन यह सच है कि इन प्रश्नों को वह प्रमुखता नहीं दी गई जिनकी वह हकदार थी। 18 57 की क्रांति और उसके बाद के काल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद और मजबूत हुआ लोगों पर  दमन और तेज हुआ उसकी रणनीति और राजनीति बदली। उसमें इन प्रश्नों के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी लेकिन अंग्रेजों ने हंटर कमीशन बनाया जिसके सामने भारतेंदु हरिश्चंद्र की पेशी हुई। सुनंदा ने भारतेंदु पंक्तियों को भी उद्धृत किया है जिससे पता चलता है कि भारतेंदु भी सीमित अर्थों में ही स्त्री शिक्षा को देने के समर्थक थे। असल में स्त्री नवजागरण के मूल प्रश्नों में स्त्री शिक्षा, बाल विवाह, विधवा विवाह और वेश्यावृत्ति उन्मूलन तथा वोट का अधिकार की प्रमुख रहा है। संपत्ति के अधिकार, तलाक अधिकार और घरेलू हिंसा जैसे अन्य मुद्दे अभी सामने नहीं आए थे और स्त्रियों को होने वाले अत्याचार तथा दमन की कथाएं सामने आने से पहले ही दफन हो जाती थी लेकिन लोक कलाओं, लोकगीतों, लोक नाटकों में स्त्री की वेदना दिखाई देती रही है। अगर उस दौर के लोक साहित्य का भी अध्ययन किया जाए तो बहुत सारी बातें सामने आ सकती हैं और उन्हें जोड़कर इसका एक बड़ा वितान स्त्री विमर्श का खड़ा किया जा सकता है। 19वीं सदी के आरंभ में 1828 में ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज जैसे संगठनों में भी हिंदू समाज में एक सुधारवादी आंदोलन की शुरुआत की थी भले ही वह आंदोलन आज की तरह बहुत आधुनिक और गैर-ब्राह्मणवादी न रहा हो लेकिन आमतौर पर इस बात पर एक सहमति वहां बनती थी कि विधवा विवाह होना चाहिए बाल विवाह की प्रथा को समाप्त करना चाहिए बहुविवाह नहीं होना चाहिए भ्रूण हत्या और सती प्रथा बंद होनी चाहिए और अंधविश्वास रूढ़िवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए लेकिन भारतीय समाज मे इन दुर्गुणों ने ऐसा जड़ जमा रखा है कि वे आज भी मौजूद हैं।

सुनंदा का कहना है कि “हिंदी पत्रकारिता में आरंभ से अब तक लेखिकाओं के प्रति न केवल  उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण रहा, विशेषता वह स्त्रियां जो वह उच्च घरों से नहीं जुड़ी थी उन्हें लेखन के कारण सामाजिक बहिष्कार भी झेलना पड़ा था क्योंकि उस समय सम्पादक लेखक तथा समाज सुधारक स्त्री-मुक्ति तथा शिक्षा आदि प्रश्नों पर बहस चर्चा करते थे परंतु अपनी सोच और सीमाओं के अंदर ही। उस सीमा के दायरे से बाहर स्त्री की स्वतंत्रता के घोर विरोधी थे। सीमा के दायरे से बाहर स्वतंत्रता की इच्छा करने वाली स्त्रियों की स्वतंत्रता निर्लजता की सीमा में आ जाती थी जो उन्हें यानी पुरुषों को पसंद नहीं था। यह सब उनकी संस्कारगत और सामंती सोच के दायरे में आती थी।”


सुनंदा का कहना है कि “हिंदी पत्रकारिता में आरंभ से अब तक लेखिकाओं के प्रति न केवल  उपेक्षापूर्ण दृष्टिकोण रहा, विशेषता वह स्त्रियां जो वह उच्च घरों से नहीं जुड़ी थी उन्हें लेखन के कारण सामाजिक बहिष्कार भी झेलना पड़ा था क्योंकि उस समय सम्पादक लेखक तथा समाज सुधारक स्त्री-मुक्ति तथा शिक्षा आदि प्रश्नों पर बहस चर्चा करते थे परंतु अपनी सोच और सीमाओं के अंदर ही। उस सीमा के दायरे से बाहर स्त्री की स्वतंत्रता के घोर विरोधी थे। सीमा के दायरे से बाहर स्वतंत्रता की इच्छा करने वाली स्त्रियों की स्वतंत्रता निर्लजता की सीमा में आ जाती थी जो उन्हें यानी पुरुषों को पसंद नहीं था। यह सब उनकी संस्कारगत और सामंती सोच के दायरे में आती थी।”


लेकिन हमें यह भी नही भूलना चाहिए कि भारतेंदु और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने युग की सीमाओं के भीतर रहकर स्त्री चेतना को जगाने का काम किया। अगर ऐसा नही होता तो 1918 में इंदौर में हिंदी साहित्य के सम्मेललन में 700 महिलाएं भाग नही लेती। अगर यह आंकड़ा सही है तो यह आश्चर्यजनक घटना है। सुनंदा ने अपनी किताब में फुटनोट्स बहुत कम दिए हैं संदर्भ श्रोत का जिक्र नही किया है।उनके इस आंकड़े को देखकर कहा जा सकता है कि आज सौ साल बाद भी इतनी संख्या में महिलाएं भाग नही लेती सहित्य या हिंदी के किसी जलसे में। जाहिर है उस दौर की पत्रिकाओं और गाँधीजी ने स्त्रियों में नयी चेतना फूंकी थी।

1904 में बंग महिला उर्फ राजनबाल घोष ने जब विद्रोही तेवर में लिखना शुरू किया और पुरुषवादी मानसिकता पर हमला किया तो बंग महिला के खिलाफ लेख भी लिखे गए।यह अलग बात है कि रामचन्द्र शुक्ल ने उनके कहानी संग्रह की भूमिका लिखी थी और हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका जिक्र किया पर उनपर चर्चा नही हुई और साहित्य की मुख्यधारा में केवल महादेवी को अधिक स्वीकृति मिली। फिर भी सुनंदा इस बात को मानती है कि स्त्री प्रश्न हिंदी क्षेत्र में सर्वप्रथम हमें पत्रिकाओं में दिखाई देता है।यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि उस समय की पत्रिकाएं केवल साहित्य चर्चा नही करती थी बल्कि स्त्री मुक्ति की भी बात करती थी। चाँद स्त्री दर्पण और मर्यादा की इसमे ऐतिहासिक भूमिका है। इन पत्रिकाओं में समाज सुधार के प्रयास हुए,  भारतीय नवजागरण से उनका घनिष्ठ संबंध रहा है। लेकिन नवजागरणकालीन पत्रिकाओं पर ज्यादातर जो शोध कार्य हुए उसमें इस दृष्टि से कम विचार किया गया। यही कारण है कि उस दौर में स्त्री जागरण को लेकर हुए प्रयासों का कोई प्रमाणिक और विस्तृत लेखा-जोखा या दस्तावेज हमारे सामने नहीं है इसलिए जिन शोधार्थियों को जैसी सामग्री हाथ लगी उसके आधार पर उन्होंने हिंदी नवजागरण की व्याख्या की। इसमें अधिकतर अंग्रेजी के लोग शामिल हैं इसलिए यह निसंकोच कहा जा सकता है कि अभी तक भारतीय नवजागरण की समग्र व्याख्या नहीं की जा सकी है। हिंदी नवजागरण के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण काम सामने आए हैं खासकर रामविलास शर्मा के बाद वीरभारत तलवार या रामनिरंजन परिमलेन्दु या कर्मेंदु शिशिर जैसे अध्येता सामने आए हैं। अब उस कड़ी में गरिमा श्रीवास्तव, रूपा गुप्ता और प्रज्ञा पाठक भी आई हैं। अगर इनमें से कोई हिंदी साहित्य की भूमिका की तरहः स्त्री नवजागरण की भूमिका या तीसरी परम्परा की खोज लिख दे तो यह हिंदी का उपकार होगा और धुंध साफ होगी। सारे बिखरे कामों को अब समेटकर एक नया फार्मूलेशन करने की जरूरत है।


हिन्दी नवजागरण और स्त्री अस्मिता : सुनन्दा पराशर [आलोचना], अनन्य प्रकाशन, दिल्ली। मू. 250 रुपये। इस पुस्तक को आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर के मँगवा सकते हैं।


विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com


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