विभावरी
वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज की अभिनेता इरफ़ान खान पर लिखी किताब ‘इरफ़ान : …और कुछ पन्ने कोरे रह गए’ पर बात शुरू करते हुए मैं उस चिट्ठी का ज़िक्र करना चाहूंगी जो इरफ़ान ने अजय जी को उस वक़्त लिखी थी जब अपने इलाज के दौरान वे लन्दन में थे.
यह चिट्ठी इस किताब का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है और उस दर्द को बयाँ करती है जो उस व्यक्ति पर तारी है जिसे यह पता चल चुका है कि उसे ज़िंदगी की ट्रेन से अब उतरना होगा.
वह व्यक्ति आगे जाना चाहता है…वहाँ, जहाँ उसकी तमाम क्षमताओं के नये क्षितिज हैं, जहाँ उसके चाहने वाले हैं…जहाँ उसकी संभावनाएँ हैं, लेकिन वह नहीं जा सकता क्योंकि उसके पास समय ही नहीं बचा इसके लिए. इरफ़ान इस दर्द को अपनी चिट्ठी में बयाँ करते हैं. वे लिखते हैं—
“अभी तक अपने सफ़र में मैं तेज़-मंद गति से चला जा रहा था, मेरे साथ मेरी योजनायें, आकांक्षाएँ, सपने और मंज़िलें थीं. मैं इनमें लीन बढ़ा जा रहा था कि अचानक टीसी ने पीठ पर टैप किया, ‘आपका स्टेशन आ रहा है, प्लीज़ उतर जाएं.’ मेरी समझ में नहीं आया, ना ना मेरा स्टेशन अभी नहीं आया है.
जवाब मिला, “अगले किसी भी स्टॉप पर उतरना होगा. आपका गंतव्य आ गया.”
न्यूज़ लॉन्ड्री पर प्रकाशित इस चिट्ठी को उस वक़्त भी पढ़ा था जब इरफ़ान थे और आज इस किताब में भी जब इरफ़ान नहीं हैं…लेकिन इन पंक्तियों का असर उस वक़्त भी उतना ही मार्मिक था जितना आज है.
अजय ब्रहमात्मज द्वारा इरफ़ान पर लिखी इस किताब की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह एक साथ व्यक्ति इरफ़ान और अभिनेता इरफ़ान को साधती है. साथ ही न सिर्फ़ व्यक्ति इरफ़ान के अभिनेता बनते जाने की कहानी कहती है बल्कि इस पूरी प्रक्रिया को हिंदी सिने-जगत की तमाम जद्दोजहद और जोड़-तोड़ के मार्फ़त अपने पाठकों को भी समझाती चलती है.
पंद्रह अध्यायों में विभाजित इस किताब में इरफ़ान से लिए गए औपचारिक साक्षात्कार हैं, तो उनके साथ हुई अनौपचारिक बातचीत भी है. इरफ़ान की कुछ फ़िल्मों के रिव्यूज़ हैं तो इरफ़ान के विषय में एक्टर्स, फिल्ममेकर्स की राय भी है. फ़िल्म, थियेटर और इन दोनों माध्यमों में अभिनय तकनीक पर इरफ़ान की राय है तो सुतपा और इरफ़ान की केमिस्ट्री, आपस में उनके दोस्त होने, कलाकार होने और जीवन के सहयात्री होने की आपसी समझ भी है.
इन सभी पहलुओं के साथ सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि इरफ़ान के जीवन के इन तमाम आयामों को पढ़ते हुए आप उनके और अजय ब्रह्मात्मज के बीच के व्यक्तिगत और पेशेवर रिश्ते से भी रु-ब-रु होते हैं.
इस किताब के आखीर में एक संदेश या कहूँ कॉल संकलित है जिसमें इरफ़ान अजय जी से कहते है—
“अजय भैया, नमस्ते, इरफ़ान बोल रहा हूँ. हाँ, आपसे बात करने का कई बार मन हुआ लेकिन मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति थोड़ी…थोड़ी नहीं बहुत ज़्यादा अस्थिर है. तो मेरी समझ में नहीं आया कि बात शुरू करूँगा तो बात पूरी हो पायेगी कि नहीं हो पायेगी? या किस तरफ़ चली जायेगी. उसको मैं बाद में जारी रख पाउँगा कि नहीं रख पाऊँगा? इसलिए बात नहीं कर पाया, लेकिन आपसे बात करने का मन होता रहा है मेरा. और मैं…मैं जब जब मौक़ा मिलेगा, मैं ज़रूर करूँगा बात”
अपने इलाज के दौरान वे लगातार अजय जी के संपर्क में रहे बावजूद इसके किसी व्यक्ति को अपने जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में इस तरह से याद करना जिसमें उस व्यक्ति विशेष से मिलने और बात करने की चाह झलके या कि ऐसा लगे कि आप उस व्यक्ति की आपके आसपास अनुपस्थिति को शिद्दत से महसूस कर रहे हैं तो यह बात निःसंदेह आपकी उस व्यक्ति से नज़दीकी को दर्शाती है.
इस क़रीबी रिश्ते के बावजूद इस किताब और इसमें संकलित साक्षात्कारों की ख़ूबी ये है कि एक फ़िल्म पत्रकार के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करते हुए अजय ब्रह्मात्मज इरफ़ान से कठिन सवाल पूछना नहीं छोड़ते. रोचक बात ये भी इन कठिन और ईमानदार सवालों के जवाब इरफ़ान अपनी शख्सियत के अनुरूप ही देते हैं और पूरी ईमानदारी से देते हैं. जैसे उदाहरण के तौर पर मेन स्ट्रीम हीरो का रोल करने पर इरफ़ान से पूछा गया सवाल ले सकते हैं-
“उस समय जो हीरो थे आमिर खान या सलमान खान, नाच-गाने वाले हीरो, उस तरह के रोल का कभी मन बनाया आपने?”
इस सवाल पर इरफ़ान कहते हैं-
“नहीं. नाच गाने वाले हीरो का रोल मिले, यह इच्छा कभी नहीं हुई मुझे. अच्छा रोल मिले यह मेरी इच्छा थी”
इस पर अजय जी फिर सवाल करते हैं
“क्यों? अपनी सीमाओं को देखते हुए या…”
इरफ़ान जवाब देते हैं-
“कभी डांस ने मुझे उस तरह से मुतास्सिर नहीं किया. डांस मुझे मुतास्सिर करता है लेकिन जिस तरह से जैसे अपनी फ़िल्मों में होता है उस तरह से नहीं करता. मैं करना चाहता हूँ डांस लेकिन बिल्कुल बेमतलब का तो नहीं…”
इस जवाब पर पुनः अजय जी अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए इरफ़ान से पूछ लेते हैं-
“नहीं. डांस से जुड़ा मेरा सवाल नहीं है. मेरा सवाल है कि मेन स्ट्रीम हीरो के जो किरदार हैं, वैसा करने की इच्छा”
ये सवाल पूछते हुए अजय जी किसी भी कलाकार के मन में बसी उस दबी-छिपी इच्छा की तरफ़ इशारा करते हैं जो लगभग हर कलाकार के मन में बसी होती है. बेशक इरफ़ान इस सवाल का ईमानदार जवाब देते हैं.
आजकल हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में नेपोटिज्म पर बहस ज़ोरों पर है. ज़ाहिर है इरफ़ान फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए न सिर्फ़ ‘बाहरी’ थे बल्कि उनका व्यक्तित्व भी हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में ‘हीरो’ के लिए तय और घोषित मानदंडों से बिल्कुल ही अलहदा था.
लेकिन इन मुद्दों से जुड़े सवालों के जवाब देते हुए हम इरफ़ान की शख्सियत के उस पहलू से परिचित होते हैं जो वीतरागी है. जो अपने जीवन के तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को थोड़ी दूरी पर जाकर तटस्थ नज़र से देख सकता है. अपनी तमाम सफलताओं के प्रति विराग से भरा हो सकता है…तब भी जब कि वह एक सामाजिक चेतना से लैस है. वह जानता है कि उसके इर्द-गिर्द एक ऐसी दुनिया रची जा रही है जिसका उद्देश्य कुछ ख़ास तबकों को फिर फिर हाशियाकृत कर देना है. और यह भी कि उसकी कला जीवन की इन विडंबनाओं और विसंगतियों से जूझने की कोशिश है. हर उस रूढ़ मानदंड को तोड़ने की भी जो समाज में परिवर्तन का विरोध करती है, जो प्रतिगामी है.
ऐसे ही एक सवाल का जवाब देते हुए इरफ़ान कहते हैं-
“असल में किसी भी नये आदमी के लिए रेज़िस्टेंस तो होता ही है इंडस्ट्री में. जो लोग ऑलरेडी सर्किल में होते हैं लोग उन्हीं को यूज़ करना चाहते हैं, नये का उनकी समझ में नहीं आता कि क्या करेंगे हम…उनको रिस्क लगता है…और क्योंकि इतना सोचने की आदत नहीं है उन्हें, बहुत ज़्यादा दिमाग़ पर ज़ोर डालते नहीं, इसलिए जो जैसा है उसे वैसा का वैसा इस्तेमाल कर लेते हैं लोग”.
इरफ़ान के जीवन और शख्सियत की ऐसी ही बहुत सी बातों से भरी यह किताब एक अभिनेता, एक स्टार के जीवन के उन तमाम पहलुओं से परिचित कराती है जो अक्सर उसके स्टारडम या कि फ़िल्म इंडस्ट्री की चमक-दमक के पीछे छिप जाती है.
भाषा ख़ासतौर पर हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में हिंदी की स्थिति पर उनकी समझ हो या कि बच्चों की शिक्षा को लेकर उनकी नवाचारी सोच हो या फिर अपने देश और समाज में राजनीतिक विषयों के बारे में उनकी समझदारी. ये सारी बातें इस किताब के अलग अलग खण्डों में इरफ़ान की ज़िंदगी के बंटे बिगड़ते पहलुओं की जानकारी देती हैं.
कुल मिलाकर कहूं तो इस किताब में इरफ़ान की ज़िंदगी के चमकते पन्ने शामिल हैं तो उनकी हताशाएँ भी हैं. उनके ठहाके हैं तो उनकी उदासियाँ भी हैं और कई बार तो आँसू भी.
थियेटर करने के दौरान एक्टिंग को लेकर उनका आत्मावलोकन और आत्मालोचना पढ़ कर ऐसा महसूस होता है कि देर से ही सही (हालाँकि इरफ़ान इसे बिल्कुल सही समय मानते हैं) इरफ़ान के अभिनेता-क़द के लगातार बढ़ते जाने के पीछे कहीं न कहीं अपनी क्षमताओं को लगातार परिष्कृत परिमार्जित करने के उनकी चाह और लगन भी शामिल रही होगी. शायद यही वजह है कि इरफ़ान, इरफ़ान हैं…और उन्हें समझने की राह में यह किताब ‘इरफ़ान…और कुछ पन्ने कोरे रह गए’ मददगार हो सकती है.
आख़िरी बात के रूप में यह ज़रूर कहना चाहूँगी कि चूँकि यह किताब नॉटनल से प्रकाशित है जो कि ई-बुक्स के क्षेत्र में लगातार बेहतरीन काम कर रहा एक प्लैटफॉर्म है तो इस किताब के साथ ई-बुक्स को पढ़ने से जुड़ी सुविधाएँ और दुश्वारियाँ भी जुड़ी हुई हैं.
एक महामारी के इस दौर में ई-बुक्स का बढ़ता प्रचलन पढ़ने वालों के लिए एक सुकून जैसा ही है. हालाँकि प्रूफ़ की कुछ गड़बड़ी और स्क्रीन पर पूरे एक पन्ने के ना आ पाने की दिक्क़त को यदि सुलझा लिया जाय तो इस किताब का सौन्दर्य बेशक बढ़ जाएगा.
‘इरफ़ान : …और कुछ पन्ने कोरे रह गए’ : अजय ब्रह्मात्मज, प्रकाशक : नॉटनल.कॉम। मू. 60 रुपये मात्र। आप इस पुस्तक को इस लिंक पर जा कर देख/खरीद सकते हैं।
विभावरी : जवाहर लाल नेहरू वि.वि. से ‘साहित्य और सिनेमा के मध्य स्त्री दृष्टि का अंतर’ विषय पर 2011 में Ph.D. उपाधि प्राप्त. FTII से 2016 में फ़िल्म अप्रीशिएशन कोर्स में सहभागिता. साहित्य और सिनेमा विषय पर विभिन्न साहित्यिक सामाजिक मंचों से सक्रिय जुड़ाव और लेखन.
गौतम बुद्ध वि.वि. ग्रेटर नोएडा में अध्यापन.