औरतों के जख्मों की डायरी

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विमल कुमार

क्या आपने कोई ऐसी डायरी पढ़ी है जिसमें शुरू से लेकर आखिर तक लगभग हर पन्ने पर औरतों के जख्म बिखरे पड़े हो, उन पन्नों पर उनकी चीख पुकार सुनाई दे रही हो और उनमें एक गहरा आर्तनाद छिपा हो?

हिंदी में आज तक सम्भवतः कोई ऐसी डायरी लिखी नहीं गई थी जिसमें औरतों पर हुए अत्याचारों, बलात्कार, दमन और उत्पीड़न, शोषण का दस्तावेज भी समाया हुआ हो। औरतों की अथाह पीड़ा और दुख भी शामिल हो, उनके दंश की टीस भी उसमे टपकती हो लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की हिंदी प्रोफेसर गरिमा श्रीवास्तव ने यह एक विलक्षण और संवेदनशील डायरी लिखी है जो हमारे समय में चल रहे सभ्यता विमर्श में सीधा हस्तक्षेप करती हो। हिंदी की दुनिया में नवजागरण अध्येता के रूप में मशहूर गरिमा जी की यह सार्थक डायरी स्त्री-विमर्श की एक जरुरी करवाई की तरह लगती है। अगर नवजागरण काल में स्त्री-विमर्श पर उनका काम अँग्रेजी में होता तो उनकी ख्याति विदेशों के विश्वविद्यालय तक होती। बहरहाल विनम्र विदुषी गरिमा श्रीवास्तव की यह डायरी पिछले दो साल से चर्चा में है। यह डायरी उनके ज़ग्रेब विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्ति के अनुभव की गाथा है। दिलचस्प बात है कि लेखिका ने 4 साल तक इसे छपवाया नही। “देह ही देश” नामक इस डायरी में दुनिया का एक बर्बर इतिहास छिपा हुआ है जिस पर अभी हिंदी समाज ने अपना ध्यान उस तरह नहीं दिया है जिस तरह ध्यान दिया जाना चाहिए था क्योंकि आमतौर पर हिंदी साहित्य में डायरी विधा को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता रहा है। यूं तो भारतेंदु काल मे राधाचरण गोस्वामी की भी डायरी छप चुकी थी लेकिन उसके बारे में आज हिंदी समाज अनभिज्ञ है।

प्रेमचन्द काल के लेखकों में केवल शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी की ही डायरियां अब उपलब्ध हो पाईं है। द्विवेदी जी प्रेमचन्द प्रसाद निराला पंत महादेवी आदि में से किसी ने डायरी नही लिखी।आजादी के बाद बच्चन, मोहन राकेश, श्रीकांत वर्मा मलयज जैसे कुछ लोगों ने डायरियां जरूर लिखीं। मुक्तिबोध की एक साहित्यिक की डायरी भी चर्चित है पर वह उस अर्थ में डायरी नही हैबल्कि वह उनकी टिप्पणियों नोबन्धों का ही एक संग्रह है लेकिन इन सभी डायरियों में लेखक का ‘आत्म भाव’, ‘स्व’ अधिक मुखर है लेकिन गरिमा जी की डायरी थोड़ी अलग है। वह यात्रा-संस्मरण और डायरी का एक संगुंफन है।

उनकी डायरी इस मायने में अलग है कि उसमें लेखिका को ‘आत्म’ की नही बल्कि सभ्यता के निर्माण को लेकर अब तक स्त्रियों के विडम्बनापूर्ण जीवन के बारे में चिंता अधिक है और उन्होंने इसे अपनी डायरी का एक महत्वपूर्ण एजेंडा बनाया है। किस तरह शासक वर्ग युद्ध और हिंसा में स्त्री देह का इस्तेमाल करता है चाहे वह विश्वयुद्ध हो या भारत-पाक विभाजन। विभाजन के समय करीब एक करोड़ बीस लाख लोगों का विस्थापन हुआ और 72 हज़ार महिलाएं यौन हिंसा तथा बलात्कार का शिकार हुई।

गरिमा ने एक गहरी पीड़ा से इस किताब को लिखा होगा। उन्होंने 18 पृष्ठों की लंबी भूमिका में नार्दन गार्डिमर के इस वाक्य का जिक्र भी किया है कि “लेखन एक तरहः का दुख है जो गहरे अकेलेपन और आत्मविश्लेषण की मांग करता है।”

हिंदी के कई लेखक पहले भी विदेश यात्रा करते रहे हैं और उन्होंने संस्मरण भी लिखे हैं।
पिछले दो एक वर्ष में भी हिंदी में विदेश यात्राओं के संस्मरण की कई किताबें भी आई जिनमें विनोद तिवारी और प्रत्यक्षा की यात्रा संस्मरण प्रमुख हैं लेकिन अब तक किसी लेखक ने अपने संस्मरणों में स्त्रियों की दुर्दशा और पीड़ाजनक स्थिति का खाका नही खींचा जिस तरह गरिमा जी ने किया है। गरिमा ने भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की यात्रा के दौरान स्त्रियों की दुर्दशा और उनकी दर्द भरी कहानी अपनी डायरी के माध्यम से काम किया है। यह एक तरह से यात्रा संस्मरण है जो डायरी के रूप में लिखा गया है। 191 पेज की यह डायरी पारंपरिक डायरी नहीं जिसमें दिन तारीख और समय दिया गया हो। यह एक गैर-पारंपरिक डायरी है जिसमें अपने अनुभवों के अलावा पत्र और कविताएँ भी दी गई हैं। इस डायरी के आरंभ में जगरेब के अधिकारी गरिमा जी से कहते है कि, “लोग तो पेरिस, इटली और जर्मनी घूमते है मजे करते है पर आप तो वॉर विक्टिम्स के पीछे पड़ी हैं।” यानी इन वार विक्टिम्स के लिए गरिमा जी की चिंता और सरोकार से वहां के अधिकारी भी वाकिफ हो गए।

गरिमा ने एक गहरी पीड़ा से इस किताब को लिखा होगा। उन्होंने 18 पृष्ठों की लंबी भूमिका में नार्दन गार्डिमर के इस वाक्य का जिक्र भी किया है कि “लेखन एक तरहः का दुख है जो गहरे अकेलेपन और आत्मविश्लेषण की मांग करता है।”

उन्होंने इस किताब में तान्या ,दुष्का लिलियाना जैसी अनेक महिलाओं के जीवन अनुभवों और उनकी राम कहानी सुनकर स्त्रियों पर हुए अत्याचार के दुखों को चित्रित किया है। उन्होंने भूमिका में लिखा है, “क्रोशिया, बोस्निया की युद्ध पीड़िताएं जिनसे में मिली वह अपने अतीत से बाहर निकल चुकी थीं। कुछ के लिए वर्तमान बन गया था और कुछ अतीत के साथ ही दफन हो चुकी थीं। उनके बारे में सुनकर उनसे मिलकर मेरे लिए सिर्फ साक्षी भर हो पाना संभव नहीं हो पाया। निर्विकार तटस्थता कहीं थी ही नहीं। लगा स्त्री होने के नाते अपने आप को नए सिरे से पहचान रही हूं।”
किताब की भूमिका में गरिमा ने यह भी लिखा है कि सिमोन की किताब ‘ए वेरी इजी डे थ’ का हिंदी और तर्जुमा करते-करते पूर्वी यूरोप की स्त्रियों के अनुभवों ने कब मेरी डायरी में अपनी ढेर सारी जगह बना ली, पता ही नहीं चला और यह भी कि जब-जब मैंने उनके दुख से खुद को अलग कर ना चाहा वह मूक छलछलाती भूरी बिल्लौरी आंखों से मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई हो। bosnia-herzegovina क्रोशिया की स्त्रियों के अनुभव मुझे सोते जागते कुरेदते रहे।” इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि गरिमा जी के लिए यह सिर्फ एक डायरी नही है जैसा कि अमूमन डायरियां होतीं है।

किताब के अनुसार “बोस्निया सरकार ने 50,000 स्त्रियों के यौन शोषण की रिपोर्ट दी वहीं जो ज्योनिर प्रोविच (जो युद्ध पीड़ितों के लिए काम करते हैं) ने यह संख्या 30 हजार मानी जबकि यूरोपियन यूनियन के जांच कमीशन ने लगभग 20,000 की संख्या प्रमाणिक मानी। अमेरिकी स्त्रीवादियों ने बोस्निया की स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा के तमाम आंकड़े इकट्ठे कर उनका विश्लेषण किया। विश्लेषण के अंतर्गत दिए गए आंकड़ों में मुझे दो बातें बुरी लगीं। पहली तो यह कि, जहां बोस्निया सरकार के आंकड़े बलात्कार के 50,000 मामले बताते हैं, जो कि वास्तव में इससे कहीं अधिक थे, वहीं अमेरिकी संस्थाएं इनकी संख्या लगभग 20,000 बताती हैं। दूसरी बात यह कि उनका मानना है कि जहां भी युद्ध होते हैं वहां बलात्कार और यौन हिंसा के मामले होना भी स्वाभाविक है।”

लेकिन चिंता की बात यह है कि अधिकांश स्त्रीवादियों का मानना था कि ऐसे हादसों को भूलना बेहतर है। गरिमा का कहना है कि यह जानने के बाद मैं भीतर ही भीतर आहत हूँ, क्योंकि मैं उन स्त्रियों और परिवारजनों से मिली हूं जिनकी जिंदगी युद्ध ने बदल दी। यौन हिंसा के शिकार हुई हजारों हजार औरतें कमोडिटी में तब्दील हो गई और उन्हें वे दर्द चुपचाप सहने पड़े। इतना तो तय है कि सामूहिक बलात्कार को युद्ध नीति के रूप में इस्तेमाल किया गया जिसके तीन लाभ थे। पहला तो आम जनता में भय का संचार करना, दूसरा नागरिक आबादी को विस्थापन के लिए विवश करना और तीसरा सैनिकों को बलात्कार की छूट देकर पुरस्कृत करना।”

गरिमा जी ने आगे भी लिखा है कि, “क्रोशिया की संसद में बाद में यह निर्णय लिया कि युद्ध के दौरान यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों को एकमुश्त 14504 डॉलर और हर महीने वहां की मुद्रा कुना में ढाई सौ कुना दिया जाएगा। इसके अलावा उन्हें आजीवन मुफ्त कानूनी एवं चिकित्सा सुविधा भी मुहैया करवाई जाएगी। यह तभी संभव हो पाया जब 2008 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने बलात्कार को युद्ध अपराधों की श्रेणी में शामिल कर दिया क्योंकि क्रोएशिया के पड़ोस में ही बोस्निया और फिर रवांडा में इस तरह के हजारों मामले सामने आए।”

गरिमा जी पुस्तक में एक जगह कहती हैं, “सोचती हूं कि उन सैकड़ों हजारों औरतों का क्या हुआ होगा जो आर्थिक मंदी और शारीरिक शोषण का शिकार हुई होंगी! क्या उन्होंने जीना छोड़ दिया होगा या किसी और रास्ते पर चलना चुना होगा!”

इससे पता चलता है कि हमारी सत्ता किस तरह स्त्री के खिलाफ युद्ध का इस्तेमाल करती है। ये घटनाएं मानवता के इतिहास में काले धब्बे की तरह हैं लेकिन बहुत ही कमलोग ऐसे होते हैं जिन्हें ये बाते बहुत ही परेशान करती हैं बहुत ही बेचैन करती हैं और उन्हें कुछ लिखने के लिए मजबूर करती हैं।

गरिमा जी ने इस डायरी में अपने प्रिय जनों को कुछ पत्र भी लिखे हैं और उन पत्रों के माध्यम से उसमें अपने अनुभव का भी स्वीकृत किया है। इससे इस डायरी में एक जान सी आ गई है औरइस से इस डायरी थोड़ी रचनात्मक भी झलकती है ।इसके साथ ही उन्होंने शिम्बोर्स्का से लेकर नवनीता देवसेन तथा कुमार अम्बुज और अंशु मालवीय की कविताओं को भी प्रसंग के अनुकूल उधृत किया है। इससे भी डायरी कुछ अधिक रचनात्मकता का स्वाद देने लगी है। उन्होंने अपनी डायरी में सिमोन के लेखन पर भी अपनी टिप्पणी की है और उनके कई उपन्यासों का भी जिक्र किया है जो वे उस दौरान पढ़ती रहीं हैं। यह डायरी कई नई सूचनाएं भी देती है। क्रोएशिया से रवीन्द्र नाथ टैगोर के रिश्ते का किस्सा बहुत दिलचस्प है। इस डायरी से यह भी पता चलता है कि टैगोर भी 1926 में ज़ग्रेब आये थे और तब उन्होंने ‘रिएका’ शहर का भी दौरा किया था। दार्शनिक पावओ बुक पावलोविच ने गीतांजलि का क्रोएशियन में अनुवाद भी किया था जो वहां के ‘दैनिक भोर का पत्ता’ में 1914 की जनवरी में धारावाहिक रूप से छपा था। बाद में पावाओ ने ‘चित्रा’, ‘मालिनी’ और ‘राजा’ का भी अनुवाद किया था। ‘चित्रा’ का मंचन वहां नेशनल थियेटर में 1915 में कई बार हुआ था। यहां के उदारवादी बुद्धिजीवी प्रथम विश्वयुद्ध उत्तर अवसान काल में टैगोर को आध्यात्मिक और शांति के प्रतीक के रूप में देखते थे।

गरिमा जी पुस्तक में एक जगह कहती हैं, “सोचती हूं कि उन सैकड़ों हजारों औरतों का क्या हुआ होगा जो आर्थिक मंदी और शारीरिक शोषण का शिकार हुई होंगी! क्या उन्होंने जीना छोड़ दिया होगा या किसी और रास्ते पर चलना चुना होगा!”

गरिमा जी की यह डायरी इतिहास में लोगों से यह सवाल बार-बार पूछती रहेंगी कि दुनिया के विकास के तमाम दावों के बीच सभ्यता के चेहरे से यह कलंक कभी नही मिट पायेगा कि पुरुषवादी सत्ता ने कितने बर्बर अत्याचार स्त्रियों पर किये है और इससे कोई देश अछूता नही है। अगर आप संवेदनशील हैं और आपके भीतर मनुष्यता बची हुई है तो आपको ये सवाल ताउम्र पीछा करते रहेंगे। गरिमा जी इस डायरी ने वाकई लोगों के चेहरे से नकाब उतार दिए हैं और हमारी आंखें खोल दी है। अगर आपके घर में यह डायरी रहेगी तो इसमें औरतों के छिपे ज़ख्म हमें कभी नही सोने देंगे।


देह ही देश (यात्रा-वृतांत) : गरिमा श्रीवास्तव, राजपाल एंड संज, मू. 285 रुपये। इस पुस्तक को आप अमेज़न से ऑनलाइन ऑर्डर कर के मँगवा सकते हैं।


विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com


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