हिंदी की दीप शिखा महादेवी क्या एक मुस्लिम से प्रेम करती थीं?

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विमल कुमार

(महादेवी की पुण्यतिथि पर)

क्या महादेवी वर्मा किसी मुस्लिम युवक से प्रेम करती थी और उससे वह उससे शादी करना चाहती थी? क्या इसके लिए उनके पिता ने धर्म परिवर्तन की बात कही थी? क्या इस घटना का असर महादेवी वर्मा के जीवन पर पड़ा था और उसकी गहरी पीड़ा उनकी कविता में वर्षों तक छाई रही? इस बारे में यहां बहुत कुछ निश्चित और दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है लेकिन हिंदी के प्रख्यात कथाकार आलोचक दूधनाथ सिंह ने सन 2009 में महादेवी वर्मा पर अपनी पुस्तक ‘महादेवी’ में इस बात के संकेत दिए हैं हालांकि उन्होंने भी इस घटना के बारे में कोई ठोस सबूत भी नहीं दिए हैं लेकिन हिंदी के चर्चित कवि राजेश जोशी के मामा के हवाले से इस बात की तरफ इशारा किया है। उन्होंने महादेवी वर्मा के पिता के एक पत्र का जिक्र किया है जिसमें उनके पिता ने धर्म परिवर्तन की बात कही थी। यह धर्म परिवर्तन किस के लिए। दूधनाथ जी ने लिखा है कि महादेवी के नरसिंहगढ़ में बीते दिनों के बारे में एक रहस्य है। उसके बारे में एक चुप्पी दिखाई देती है। इस बात की विस्तृत चर्चा न तो महादेवी के जीवन काल में कभी किसी ने की और उनके निधन के बाद भी।


क्या महादेवी के किसी मुसलमान युवक से प्रेम करने की कहानी लोगों को दूधनाथ सिंह की मनगढ़ंत कहानी लगती है या एक सनसनीखेज खुलासा-सा लगता है। दूधनाथ के सहपाठी नित्यनाद तिवारी को इस घटना में सनसनीखेज तत्व दिखता है और महादेवी वर्मा पर पुस्तक लिखनेवाले विजयबहादुर सिंह को भी दूधनाथ सिंह के इस रहस्योद्घटन पर विश्वास नही है। दरअसल महादेवी वर्मा पर आज तक कायदे से कोई जीवनी नहीं लिखी गई जिसके कारण उनके आरंभिक जीवन के बारे में बहुत सारी जानकारियों और तथ्यों का पता नहीं मिलता है। यूं तो गंगा प्रसाद पांडे ने भी महादेवी वर्मा पर एक पुस्तक साठ के दशक में लिखी थी और उन्होंने पहली बार महादेवी के लिए ‘महीयसी’ शब्द का प्रयोग किया था।


दूधनाथ सिंह की पुस्तक आने से पहले हिंदी साहित्य को इस बात की तनिक भी जानकारी नही थी और किताब आने के बाद भी इस बात पर इलाहाबाद के साहित्य समाज ने इसे गम्भीरता से नही लिया। शायद यह रहस्योघाटन लोगों को रास नही आया क्योंकि महादेवी जी की एक गरिमा थी। उन्हें राहुलजी, शिवपूजन जी, दिनकर, पंत, हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि से पहले ही पद्मभूषण मिल चुका था। इस से आप उनकी शख्सियत और प्रतिष्ठा का अनुमान लगा सकते हैं। इसके अलावा सम्भवतः एक कारण यह भी रहा हो कि दूधनाथ सिंह के विवादस्पद व्यक्तित्व के कारण एक लेखक के रूप में बाद में उनकी बहुत विश्वसनीयता नही रह गई थी जबकि वह अपने दौर के महत्वपूर्ण रचनाकार थे। उनमें आलोचकीय प्रतिभा भी भरपूर थी। वह केवल एक प्राध्यापक नही थे। उस किताब में दूधनाथ जी ने महादेवी का जन्म वर्ष 1902 प्रमाणित किया है जबकि अब तक 1907 ही प्रचलित था और उस बात को नामवर सिंह भी सही मानते थे। उन्होंने दूरदर्शन में एक चर्चा में उसका जिक्र भी किया था। यह महादेवी जी के जन्म को लेकर नया रहस्योद्घटन था। कुछ ऐसा ही रहस्योद्घटन उन्होंने महादेवी के प्रेम को लेकर करना चाहा था।

लेकिन क्या महादेवी के किसी मुसलमान युवक से प्रेम करने की कहानी लोगों को दूधनाथ सिंह की मनगढ़ंत कहानी लगती है या एक सनसनीखेज खुलासा-सा लगता है। दूधनाथ के सहपाठी नित्यानन्द तिवारी को इस घटना में सनसनीखेज तत्व दिखता है और महादेवी वर्मा पर पुस्तक लिखनेवाले विजयबहादुर सिंह को भी दूधनाथ सिंह के इस रहस्योद्घटन पर विश्वास नही है। दरअसल महादेवी वर्मा पर आज तक कायदे से कोई जीवनी नहीं लिखी गई जिसके कारण उनके आरंभिक जीवन के बारे में बहुत सारी जानकारियों और तथ्यों का पता नहीं मिलता है। यूं तो गंगा प्रसाद पांडे ने भी महादेवी वर्मा पर एक पुस्तक साठ के दशक में लिखी थी और उन्होंने पहली बार महादेवी के लिए ‘महीयसी’ शब्द का प्रयोग किया था। पाण्डेय जी ने निराला के लिए ‘महाप्राण’ निराला पहली बार प्रयोग किया था और रामविलास शर्मा से पहले निराला पर वह एक किताब लिख चुके थे जिसका नाम ही ‘महाप्राण निराला’ था। उस निराला जैसे कवि ने महादेवी पर कविता लिखी थी। इस से पहले उन्होंने केवल प्रसाद पर कविता लिखी थी लेकिन वह उनके निधन के बाद पर महादेवी के जीते जी उनपर कविता लिखी। यह कम महत्वपूर्ण बात नही है। इस से पता चलता है कि महादेवी का तब कितना सम्मान था। इस सम्मान भाव को देखते हुए महादेवी के मुस्लिम युवक से प्रेम की बात लोग नही करते थे और उसमे कुछ पता लगाने की दिलचस्पी भी नही रखते थे।

महादेवी के 60 साल होने पर छायावाद के प्रमुख कवि सुमित्रानंदन पंत ने महादेवीजी पर एक अभिनंदन ग्रंथ का संपादन किया था और उन्हें भेंट किया था। गंगा प्रसाद के पुत्र रामजी पांडे ने भी महादेवी पर संस्मरण की एक किताब संपादित की थी उसमे नेहरू जी का भी उनपर एक संस्मरण है। नेहरू जी ने शायद ही हिंदी के किसी लेखक पर कोई संस्मरण लिखा हो लेकिन अभी तक महादेवी वर्मा की कोई प्रमाणिक जीवनी नहीं लिखी गई जैसे कि निराला पर रामविलास शर्मा ने और प्रेमचंद पर अमृत राय ने तथा पंत  पर उनकी भगिनी शांति जोशी ने एक जीवनी लिखी थी जो बहुत चर्चित रही। यह देख कर थोड़ा सा आश्चर्य भी होता है कि महादेवी पर आखिर किसी लेखक ने उनकी कोई जीवनी उस जमाने में क्यों नहीं लिखी? क्या इसलिए कि वह एक महिला थी और पुरुष लेखकों ने केवल पुरुष साहित्यकारों की ही जीवनी लिखी। यहां तक कि सुभद्राकुमारी चौहान पर भी उनकी पुत्री सुधा चौहान ने ही एक किताब लिखी ‘मिला तेज से तेज’ लेकिन सुभद्रा जी ने जैसा जीवन जिया था और आजादी की लड़ाई में दो बार जेल में भी गई थीं और उनकी कविताओं ने जिस तरह राष्ट्रीय आंदोलन में अलख जगाई थी उसको देखते हुए सुभद्रा जी पर भी कोई बहुत अच्छी जीवनी आनी चाहिए थी पर आज तक वैसी जीवनी नहीं आ पाई।

अगर महादेवी पर कोई प्रमाणिक जीवनी होती तो शायद दूधनाथ सिंह ने जिन बातों की ओर संकेत दिया है, उसके बारे में हिंदी के पाठकों को विस्तृत जानकारी मिलती या उसका खंडन मंडन ही हुआ होता पर ऐसा हुआ नही। न तो विशेष रोशनी पड़ी और न ही ये बातें बेबुनियाद ही साबित हुईं। दूधनाथ जी की पुस्तक ‘महादेवी’ जीवनी आलोचना भेंटवार्ता और डायरी का मिलाजुला रूप है। इसलिए वह किताब न तो कायदे से आलोचना ही है और नहीं डायरी है और न हीं जीवनी लेकिन महादेवी के काव्य और जीवन को समझने के बारे में कुछ सूत्र जरूर मिलते हैं। महादेवी का भी विवाह हुआ और वह मात्र मात्र 14 वर्ष की आयु में परिणय सूत्र में बंध गई थी लेकिन उन्होंने विवाह के उपरांत ही ससुराल जाने से मना कर दिया और वह आजीवन पति के साथ नही रहीं। यह उनका विद्रोही स्वरूप था। क्या यह रूप इसलिए दिखाई देता है कि उन्हें एक मुस्लिम युवक मुल्ला अब्दुर कादिर से प्रेम था और वह उनसे विवाह करना चाहती थी।

हालांकि दूधनाथ जी ने यह नही लिखा कि महादेवी जी को उस मुस्लिम युवक से कब प्रेम हुआ। विवाह से पहले या विवाह के बाद। लेकिन उन्होंने युवक की उम्र 21 वर्ष बताई है। महादेवी जी 1919 में इलाहाबाद पढ़ने आ गई थी। उस समय उनकी उम्र 17 वर्ष थी। जाहिर है यह प्रेम 17 वर्ष से पहले का रहा होगा यानी नरसिंहगढ़ के दिनों का। वैसे आज कोई स्त्री 14 वर्ष की उम्र में विवाह नही करना चाहती पर उस दौर में सबका बाल विवाह हुआ था चाहे वह गांधी हों या नेहरू। अगर महादेवी के बाल विवाह के पीछे यह कारण रहा होगा कि उनके पिता के लिए अपनी पुत्री के विवाह के लिए धर्म परिवर्तन कराने की बजाय 14 साल की उम्र में विवाह कर देना अधिक उपयुक्त निर्णय रहा होगा तो इसके पीछे इस बात के संकेत मिलते हैं कि उस दौर में समाज में हिंदू मुस्लिम के बीच विवाह होना आसान नही रहा होगा और ऐसी घटनाएं भी कम दिखाई देती हैं।


प्रेमचंद युग के किसी लेखक के किसी मुस्लिम युवती से प्रेम की कोई चर्चा कहीं नहीं सुनाई पड़ती। ऐसे में एक स्त्री का एक मुस्लिम युवक से प्रेम करना समाज में अधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण मामला बनता है। महादेवीजी अपने परिवार में बार-बार इलाहाबाद में जाकर पढ़ने की जोर दे जोर देती रही। वह कुछ साल तक घर पर ही रह कर पढ़ती नहीं और दूधनाथ जी की किताब के अनुसार इलाहाबाद के क्राइस्टवर्थ स्कूल में पांचवी में 1919 में उनका दाखिला हुआ और वह वहां करीब 10 वर्षों तक रही। यहीं से उन्होंने मैट्रिक इंटर और बीए किया।


प्रेमचंद युग के किसी लेखक के किसी मुस्लिम युवती से प्रेम की कोई चर्चा कहीं नहीं सुनाई पड़ती। ऐसे में एक स्त्री का एक मुस्लिम युवक से प्रेम करना समाज में अधिक जटिल और चुनौतीपूर्ण मामला बनता है। महादेवीजी अपने परिवार में बार-बार इलाहाबाद में जाकर पढ़ने की जोर दे जोर देती रही। वह कुछ साल तक घर पर ही रह कर पढ़ती नहीं और दूधनाथ जी की किताब के अनुसार इलाहाबाद के क्राइस्टवर्थ स्कूल में पांचवी में 1919 में उनका दाखिला हुआ और वह वहां करीब 10 वर्षों तक रही। यहीं से उन्होंने मैट्रिक इंटर और बीए किया।

आठवीं कक्षा में महादेवीजी एक कविता पत्रिका में छपी थी जिसे पढ़कर मुंशी प्रेमचंद ने उन्हें पत्र लिखा था और महादेवीजी ने प्रेमचंद पर अपने संस्मरण में इसका जिक्र जिक्र भी किया है। जाहिर है महादेवी बचपन से ही पत्र-पत्रिकाओं में अपनी कविता भेजने लगी होंगी और उनकी कविताएं छपने भी लगी थी। ‘चांद’ के पहले अंके में भी महादेवी और सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता छपी थी और बकौल आशुतोष पार्थश्वर बाद में तो चांद मैं उनकी करीब पांच दर्जन कविताएँ समय-समय पर छपी और वह उसकी संपादक भी बनी। 1935 मैं उन्हें गांधी जी के हाथों सेकसरिया सम्मान भी मिला जो 21 00 का था। वो मंगला प्रसाद पारितोषिक सम्मान और देव पुरस्कार के बाद संभवत सबसे बड़ा पुरस्कार माना जाता था। उसकी अधिक प्रतिष्ठा थी। उसकी प्रतिष्ठा का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है खुद महात्मा गांधी ने 1935 में इंदौर के हिंदी साहित्य सम्मेलन में यह पुरस्कार महादेवीजी को दिया था। देश की आज़ादी के लिए बापू ने महादेवी जी से उस पुरस्कार की राशि ले ली थी और पुरस्कार में मिला चांदी का एक कटोरा भी उन्होंने ले लिया था लेकिन महादेवी ने बापू को एक शर्त पर वह पैसे और चांदी का कटोरा दिया था। शर्त यह थी कि बापू उस सम्मेलन में शाम में आयोजित पाठ में महादेवी की कविता सुनने आएं लेकिन बापू महादेवीजी कविता सुनने नहीं आए और तब महादेवी जी ने इस बात का प्रण लिया कि वह कभी भी मंच पर जाकर का पाठ नहीं करेंगी और कहा जाता है कि उन्होंने इस प्रतिज्ञा का जीवन भर पालन किया।

इन घटनाओं से यह पता चलता है कि महादेवी जी भीतर से विद्रोही स्वरूप की थी। दूधनाथ जी ने लिखा है कि महादेवी जिद्दी, दबंग और साहसी थी हालांकि हिंदी में उनकी छवि ‘नीर भरी दुख की बदली’ के रूप में पेश की गई। ‘नीर भरी दुख की बदली’ महादेवी की कविता की ही नही बल्कि उनके व्यक्तित्व का एक प्रतीक बन गई और उनकी छवि ऐसी गढ़ दी गई की महादेवी केवल केवल दुख की ही कवयित्री है। उनकी कविता में या उनके गद्य में कोई आंतरिक विद्रोह नहीं है। वह वेदना की नदी में डूबी हुई हैं। दरअसल छायावाद के दौर में महादेवी और सुभद्राकुमारी चौहान दोनों एक-दूसरे की पूरक भी है और दोनों को मिलाकर एक स्त्री की मुकम्मल छवि भी बनती है। यह एक संयोग भी है कि महादेवी और सुभद्रा जी दोनों न केवल साथ पढ़ती थी बल्कि गहरी मित्र भी थीं। सुभद्रा जी उनसे सीनियर थी। सुभद्रा जी और महादेवीजी की कविताओं में दो अलग-अलग छवियां दिखाई देती हैं।

सुभद्रा जी ने 1921 में ही अपनी पढ़ाई छोड़ दी और आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी लेकिन महादेवी की पढ़ाई जारी रही यदि वह भी क्रांतिकारियों को गुप्त पैकेट और पंपलेट पहुंचाने का काम करती रही। वह सुभद्रा जी की तरह सक्रिय भले नहीं थी और आजादी की लड़ाई में जेल नहीं गई पर उनके जीवन मूल्य गांधीवादी ही थे। शायद यह उनके व्यक्तित्व का एक पहलू रहा होगा कि वह थोड़ी अंतर्मुखी दी थी, उनका विद्रोह बहुत अधिक बहिर्मुखी नहीं था। वह उस तरह वक्त नहीं होता था लेकिन उस विद्रोह को उन्होंने अपनी वेदना में पिरोया था। जाहिर है वह किसी घटना या परिस्थिति से बहुत आहत होती होगी क्योंकि वह बहुत संवेदनशील थी और उनकी कविताएं इसकी गवाह हैं। शायद यही कारण है संवेदना के कारण ही उन्हें वेदना और पीड़ा का अत्यधिक एहसास होता रहा होगा जिसको उन्होंने अपनी कविताओं में लगातार व्यक्त किया आखिर यह पीड़ा और वेदना क्या थी? हिंदी के आलोचकों ने महादेवी वर्मा की कविताओं को रहस्यवाद से जोड़ कर देखा है लेकिन नामवर जी ने छायावाद किताब में उसकी थोड़ी अलग व्याख्या की है और उसे स्वाधीनता आंदोलन से भी जोड़ने की एक कोशिश की है।

रामचंद्र शुक्ल ने इस रहस्यवाद को दमित कामवासना से जोड़ा जो उनकी मर्दवादी सोच को दर्शाता हूं लेकिन महादेवी वर्मा के जीवन और उनके व्यक्तित्व देखते हुए लगता है कि उनके भीतर दमित या अतृप्त कामवासना ने कविता को जन्म नहीं दिया होगा बल्कि उनके भीतर की संवेदनशीलता साहस और विद्रोह ने कविता का शक्ल ले लिया होगा। आखिर उनका यह रहस्यवाद इतना गूढ़ क्यों है? क्या वह इस बात का संकेत है कि तत्कालीन समाज में पितृसत्तात्मक सोच अधिक हावी थी और स्त्री के लिए अपनी बात कहना खुद को अभिव्यक्त करना आवाज उठाना बहुत मुश्किल काम था इसलिए महादेवी जी संकेतों रहस्य में ही अपनी बात लगातार चली गई लेकिन बाद में अपने गद्य उन्होंने कुछ बातें खुलकर भी कहीं है। आखिर महादेवी वर्मा ने ‘रहस्यवाद’ का रास्ता क्यों चुना? उनका घनिष्ठ परिचय जयशंकर प्रसाद से था। लखनऊ में एक चित्र प्रदर्शनी में जब महादेवी जी के चित्रों की प्रदर्शनी लगी तो प्रसाद उसमे गए थे। वाराणसी से लखनऊ जाकर महादेवी के चित्रों को देखना एक गहरी आत्मीयता से ही सम्भव है। महादेवी जी के घर मे प्रसाद की तस्वीर लगी रहती थी। महादेवी का परिचय पंत प्रसाद निराला ही नही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे लोगों से भी था लेकिन उन्होंने अपनी कविता में वह रास्ता नहीं चुना जो उपरोक्त कवियों ने चुना।

दूधनाथ जी ने लिखा है प्रसाद और निराला आधुनिक पुरानपंथी थे जबकि महादेवी सेक्युलर थी। उनमें दार्शनिक उहापोह नही था और ईश्वर वाद की चेतना  भी नही थी जो प्रसाद और निराला में थी। महादेवी में अवसाद अकेलापन आत्मनिवेदन है पर नैराश्य भाव नही लेकिन उन्हें नीर भरी दुख की बदली के रूप में चित्रित किया गया। सबसे बड़ी बात है जिसकी तरफ दूधनाथ सिंह ने भी अपनी किताब में इशारा किया है कि महादेवी वर्मा पूरी तरह से प्रसाद की ‘कामायनी’ और निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ की धर्मिकता और सांस्कृतिक भारतीयता की छवियों से मुक्त थी। उन्होंने अपनी कविता में किसी ऐसे पौराणिक पात्रों और ऐतिहासिक चरित्रों को अपना पात्र नहीं बनाया है और वह पंत की तरह बार-बार अपनी विचारधारा को भी नहीं बदलती रही। वह शुरू से आखिर तक अपने ही रास्ते पर डटी रही और पंत प्रसाद तथा निराला से हटकर उन्होंने अपना एक नया का रास्ता एक मुहावरा बनाया। छायावाद के दौर की कविता को देखा जाए तो महादेवी जी भीतर पीड़ा सर्वाधिक सघन रूप में व्यक्त हुई है। जयशंकर प्रसाद के ‘आंसू’ संग्रह में भावुकता का अंश अधिक है लेकिन महादेवीजी कविता में शुरू में भावोच्छवास तो दिखाई देता है लेकिन बाद में धीरे-धीरे उसमे एक गांभीर्य भी नजर आता है। उसमें स्त्रियों के दुख और पीड़ा का स्वर है। उस समाज में स्त्रियों की पीड़ा बहुत गहरी थी और उसकी मुक्ति के लिए वह खुद को पूरी तरह अभिव्यक्त नही कर पाती थी।

गौर से देखा जाए तो उनकी कविताओं में लगातार एक नियंत्रित स्वर दिखाई देता है, उसमें निवेदन और अनुरोध या आकांक्षा भी है। वह यह भी कहती है “जो तुम आ जाते एक बार”। यह कौन, कौन है जो उनको मुक्ति दिला सकता है? उन्हें ‘तुम’ पर अधिक भरोसा है। वह ‘तुम’ उनका वास्तविक है या कोई काल्पनिक पात्र या नायक है। इसके बारे में फिलहाल कुछ नही कहा जा सकता लेकिन उनके जीवन को मिलाकर दिखा जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि ब उनके असफल प्रेम का ‘नायक’ उनकी कविताओं में बार-बार दिखाई देता है और महादेवीजी की कविताओं में उस नायक की खोज लगातार बनी रहती हैं। अब तक कोई ऐसा प्रामाणिक तथ्य सामने नही आ सका है जिस से उनके जीवन में आए किसी व्यक्ति विशेष से उनकी कविताओं के नायक को जोड़कर देखा जाए।

कम से कम फिलहाल नहीं कहा जा सकता है लेकिन इस बात की संभावना व्यक्त की जा सकती है कि महादेवी के जीवन में वास्तविक रूप से भले ही संभव ना हो लेकिन काल्पनिक रूप से उनके मानस में एक ‘नायक’ की कल्पना जरूर थी। इसलिए महादेवी के लिए कविता उनके जीवन के दुख को मुक्ति देने का माध्यम है साथ ही वह नायक राष्ट्रीय आंदोलन में देश की ‘मुक्ति’ के लिए संघर्ष करता हुआ भी एक नायक है। महादेवी के इस काल्पनिक ‘नायक’ में यह दोनों भाव मौजूद है। दूधनाथ जी किताब महादेवी को समझने के काफी सूत्र देती हैं। अगर उन सूत्रों के आधार पर महादेवी के व्यक्तित्व का विशद विश्लेषण किया जाए और उसकी व्याख्या की जाए तो उस के आलोक में उनकी कविताओं की नए सिरे से व्याख्या की जा सकती है लेकिन हमें महादेवी के स्त्री विमर्श को केवल कविताओं में नहीं बल्कि उनक गद्य के लेखन से भी जोड़कर देखना होगा। हालांकि दूधनाथ जी ने महादेवीजी बारे में लिखते हुए एक वाक्य यह भी लिखा है… ‘वह पहली ऐसी आधुनिक महिला है जिनके माथे पर एक आंचल भी है।’ हालांकि आज के स्त्री विमर्श कारों को यह बात आपत्तिजनक लग सकती है कि महादेवी इस देश की पहली मुक्त स्त्री हैं जिनके सर पर आंचल है अगर आंचल है तो वह मुक्त कैसे हो? क्या कोई स्त्री बिना आँचल के कहीं मुक्त हो सकती है? क्या स्त्री को मुक्त होने के लिए उसे अपने चेहरे से आंचल हटाना जरूरी है? लेकिन उसी दौर के आसपास मजाज तो यह लिखते हैं ‘तेरे माथे पे आंचल है तो बहुत खूब है, तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा होता।” यानी मजाज और महादेवीजी में थोड़ा फर्क है। मजाज़ महादेवी से एक कदम आगे हैं।


जाहिर है सन 2020 में हम महादेवी को उस तरहः समझ नहीं सकते या हम उनसे अधिक अपेक्षा भी नहीं कर सकते। हमें उस दौर में प्रचलित मान्यताओं के बीच उनके इस 3 वर्ष के अंधकार को खोजना पड़ेगा। यह कम बड़ी बात नहीं है कि उस दौर में जबरन बाल विवाह करा दी गई एक लड़की अपने ससुराल जाने से विद्रोह करती है और जीवन भर अपने पति के पास नहीं जाती है। यह विद्रोह आंचल रखने या न रखने के विद्रोह से कहीं अधिक बड़ा है। इसलिए महादेवीजी भी एक मुक्त स्त्री हैं जबकि कई महिलाएं अपना-आँचल न रखने के बाद भी घर के दायरे में उतनी मुक्त नहीं रह पाती हैं इसलिए महादेवी जी  के लिए मुक्ति केवल ‘आवरण’ हटाने के प्रतीक से  मुक्ति नहीं है बल्कि वह एक आंतरिक और बौद्धिक मुक्ति भी है और इस बात की पुष्टि उनके जीवन को देखने से भी होती है।


जाहिर है सन 2020 में हम महादेवी को उस तरहः समझ नहीं सकते या हम उनसे अधिक अपेक्षा भी नहीं कर सकते। हमें उस दौर में प्रचलित मान्यताओं के बीच उनके इस 3 वर्ष के अंधकार को खोजना पड़ेगा। यह कम बड़ी बात नहीं है कि उस दौर में जबरन बाल विवाह करा दी गई एक लड़की अपने ससुराल जाने से विद्रोह करती है और जीवन भर अपने पति के पास नहीं जाती है। यह विद्रोह आंचल रखने या न रखने के विद्रोह से कहीं अधिक बड़ा है। इसलिए महादेवीजी भी एक मुक्त स्त्री हैं जबकि कई महिलाएं अपना-आँचल न रखने के बाद भी घर के दायरे में उतनी मुक्त नहीं रह पाती हैं इसलिए महादेवी जी  के लिए मुक्ति केवल ‘आवरण’ हटाने के प्रतीक से  मुक्ति नहीं है बल्कि वह एक आंतरिक और बौद्धिक मुक्ति भी है और इस बात की पुष्टि उनके जीवन को देखने से भी होती है। किस तरह वह 1933 में महिला विद्यापीठ में नौकरी करती हैं और नौकरी करते हुए वह संस्थान की कुलपति बनती है फिर इलाहाबाद में वह साहित्यकार संसद की स्थापना भी करती हैं और कहा जाए तो उस समय के तत्कालीन सभी बड़े लेखकों की खातेदारी भी करती हैं और अपनी संगठनात्मक क्षमता का परिचय देती है जबकि निराला के व्यक्तित्व में एक अराजकता या अतिरेक भी था लेकिन महादेवी में यह नही है।

वह देश में पहली बार कवयित्रियों का अखिल भारतीय सम्मेलन आयोजित करती हैं। वह इंदिरा गांधी को भी आपातकाल में एक तरहः से प्रत्यक्ष चुनौती भी देती हैं, जब वह जयप्रकाश नारायण को अपने विद्यापीठ में एक समारोह आयोजित करने की अनुमति देती है। उनके स्वाभिमानी व्यक्तित्व का किस्सा यह भी है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल को 1 घंटे तक इंतजार करवा कर अपना बदला लिया जब उन्हें उनसे मिलने के लिए  इंतज़ार करना पड़ा था। इस तरह देखा जाए तो दूधनाथ जी की किताब महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व पर काफी रोशनी डालती है और यह बताती है कि महादेवी भीतर से काफी सख्त साहसी दबंग और स्वाभिमानी थी और हिंदी की रक्षा के लिए पंत की तरह उन्होंने पद्मभूषण भी लौटा दिया था। वह नीर भरी दुख की बदली नही बल्कि हिंदी की दीप शिखा थी।


विमल कुमार : वरिष्ठ कवि पत्रकार। कविता कहानी उपन्यास व्यंग्य विधा में 12 किताबें। गत 36 साल से पत्रकार। 20 साल से संसद कवर। चोरपुराण पर देश के कई शहरों में नाटक। ‘जंगल मे फिर आग लगी है’ और ‘आधी रात का जश्न’ जैसे दो नए कविता-संग्रह में बदलते भारत मे प्रतिरोध की कविता के लिए चर्चा में। आप लेखक से इस ईमेल पते पर संपर्क कर सकते हैं— arvindchorpuran@yahoo.com


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  1. Mohd moosa khan Ashant barabnkvi

    बहुत अच्छा लिखा शोधपरक लेख । बहुत जानकारी मिली

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