वह एक और मन रहा राम का जो न थका

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वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय जी के जन्मदिन पर विशेष प्रस्तुति

डॉ. अर्चना त्रिपाठी

सुप्रसिद्ध आलोचक पाण्डेय जी एक व्यक्ति नहीं एक संस्था हैं । ज्ञान के जीते जागते इनसाइक्लोपिडिया । ऐसे अप्रितम महापुरुष जन्म से नहीं कर्म से बनते हैं । पाण्डेय जी ने  शिक्षण- संस्थाओं को सींचा है उसका उर्ध्वगामी विकास किया है । भाषा और  साहित्य के प्रोफेसर  होने के साथ – साथ वे पूरे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे हैं । उन्हें विश्वविद्यालय के दूसरे विभागों के लोग केवल जानते ही नहीं बल्कि उनके ज्ञान से खूब अच्छी  तरह से परिचित भी हैं । उनकी भाषण  कला के सभी कायल हैं । वे भाषण के कलावंत हैं । उनके भाषण में एक जादूई  शक्ति विद्यमान है वे जब मंच पर खड़े हो जाते हैं तो श्रोता चाहें वह  किसी भी विषय, आयु वर्ग  क्यों न हो उनके भाषण कला के सम्मोहन में बँधा महसूस करता है । मंच पर उनकी वाणी निर्भय साँच की आँच से तपकर निकलती दिखाई देती है जिसमें सत्ता की निर्भीक आलोचना और  जनता की विजय दुन्दुभी का स्वर सुनाई देता है । सर की वाणी मधुर मनोहर कतई नहीं है किंतु उस वाणी में एक ओज है , बातों  को तर्क के तरकश से निकालकर अभिव्यक्त  करने का हुनर है  और अभिव्यक्ति  के खतरे  उठाने का साहस भी ,इसी साहस  ने उन्हें  साहित्य  जगत का बेताज बादशाह बना  दिया है  । पाण्डेय जी  कर्म साधक हैं, शब्द साधक भी और  शब्द और कर्म के मर्म को पहचानने वाले सजग सर्जक भी | यह सर्जनात्मक चेतना उनकी आलोचना में मौजूद है ।

 निराला  की राम की शक्तिपूजा कविता की वह  पंक्ति मुझे  बरबस याद आ रही है –

                                       ‘ वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
                                       जो नहीं जानता दैन्य , नहीं जानता विनय’

         पाण्डेय जी भी  दीनता  और  विन्रमता में  विश्वास नहीं करते हैं  क्योंकि  दीनता मनुष्य को कमजोर बनाती है और अतिशय विन्रमता कायरता है । उन्होंने जो किया वह अपनी शर्तो पर किया। वे सामंजस्यवादी  हैं  समझौतावादी  नहीं और अवसरवादी तो कतई नहीं  । वे  उत्सवधर्मी  हैं  लोक जीवन में रसे  बसे  होने के कारण   वे  लोक  की उत्सवधर्मी  परंपरा  से गहरे जुड़े हुए हैं । वे धर्म के मर्म को जानते हैं समझते हैं लेकिन धर्म  के नाम पर किए  जाने-वाले  पाखंड और  भ्रष्ट आचरण के घोर  विरोधी  हैं । यदि  वे धर्म  के मर्म को नहीं जानते तो शायद भक्तिकालीन  साहित्य  के गहरे  अध्येता  नहीं होते । भक्तिकालीन  संतों  (कवियों) की जो निर्भीकता  और  सत्ता की आलोचना है  उससे पाण्डेय जी गहरे प्रभावित हैं । भक्तिकाल  में  इष्ट की आराधना तो श्रेष्ठ है उससे भी  बड़ा है मानुष धर्म । चंडीदास के शब्दों में  ‘सबार उपरे मानुष’  जायसी के शब्दों में कहूँ  तो ‘मानुष प्रेम भयो बैकुंठी’ वाला भाव है | यह अनायास नहीं है कि सूर के कृष्ण किसान जीवन में रसे बसे है और तुलसी के राम साधारण मनुष्य  हैं । यही कारण है कि पाण्डेय जी भक्तिकाल के गहरे आलोचक हैं और तुलसीदास उनके प्रिय कवि |

पाण्डेय जी अपने भीतर आज भी गाँव को जीते हैं । वे शहर में रहकर शहरी जीवन को आत्मसात करने वाले व्यक्ति नहीं हैं । यही कारण है कि  गंभीर आलोचक होने के बावजूद वे हँसमुख , खुशमिज़ाज,उत्सवधर्मी व सवांदधर्मी व्यक्ति हैं । वे जब  प्रसन्नचित मुद्रा में होते हैं तो ढेर सारे हास्य  मिश्रित किस्से सुनाते हैं । लोक जीवन से उनका गहरा जुड़ाव है । गाँव की मिट्टी की सोंधी गंध स्मृति गंध बनकर उनके भीतर की शुष्कता को सोख लेती है और सदैव उनके भीतर एक नमी बरकरार रहती है ।

पाण्डेय जी के भीतर एक कोमल और ईमानदार मित्र  ह्रदय बसा हुआ है । इसका अनुभव उनसे जुड़े लोगों को अवश्य हुआ होगा । लोकजीवन की जीवंत परंपरा ‘बतकही’ उनके भीतर रची बसी है। दरअसल वे गवई किस्सागोई  को अपने भीतर संभाले हुए हैं शायद उन्हें मालूम है कि यदि मनुष्य के भीतर से किस्सागोई खत्म हो जाए तो कितना नीरस और बेस्वाद हो जाएगी जिन्दगी ।

‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ की तरह दु: खों ,संघर्षों से उन्होंने हार नहीं माना , पराजित नहीं हुए परिस्थितियां चाहें जितनी भी विषम क्यों न हो वे अपनी दिनचर्या विशेषकर पढ़ने लिखने का काम को प्रभावित नहीं होने देते यही उनकी ताकत भी है और संदेश भी |

पाण्डेय जी अपने विद्यार्थियों के अतिशय प्रिय शिक्षक ऐसे ही नहीं हैं वे विद्यार्थियों के सहयोग के लिए सदैव तत्पर रहे हैं । यदि कभी भी कोई विद्यार्थी  कुछ पढ़ने समझने के लिए उनके पास जाता है तो उसे वैरन वापस नहीं आना पड़ा है हाँ लेकिन समय का ध्यान रखकर न जाने पर सर के कोप भाजन का शिकार भी होना पड़ा है | विद्यार्थियों के भीतर पाण्डेय जी के प्रति ‘भय बिनु हाथ न प्रीति’ वाला भाव सदैव रहा है । भय इतना की सवाल पूछने से पहले सौ बार सोचना पड़े और गलती पर डाँट ऐसी कि  शायद मरने पर भी  वह न भूले और भूलकर भी वह गलती दुबारा न दोहराए । उन्हें जो भी कहना सुनना है उसमें साफगोई  पसंद है । रहस्यवाद में की जाने वाली बातों से उन्हें बेहद चिढ़ है और तब वे खीझ जाते हैं | इस अनुभव से उनके प्रत्येक विद्यार्थी का वास्ता रहा है |

सर के मन में विद्यार्थियों के प्रति किसी किस्म का भेदभाव कभी नहीं रहा है  । उनका स्नेह सबके प्रति समान रहा है । स्पष्टता ,बेवाकी तार्किक , ठोस तथ्यात्मक बातों में विश्वास करते हैं और छात्रों को भी उन्होंने यही सिखायाहै  । साधारण से साफे पर एकाग्रचित्त मुद्रा में बैठे चारो तरफ किताबों पत्र पत्रिकाओं से घिरे पाण्डेय जी से जब भी कोई व्यक्ति मिलने जाता है तो उसे बैठने का इशारा करते हुए सबसे पहले वे अपना पाईप माचिस से जलाते हुए धुए के गुब्बार में सारी दुश्चिंताओं  को उड़ाते हुए विंदास व बेबाक होकर पूछते हैं  ‘तो बोलो क्या कम है’ ? बेकार बेकाम  के आजादी को वैसे भी ड्राइंग रूम तक आने की इजाज़त नहीं है । मिलने आने वाला व्यक्ति यदि सामाजिक ,सांस्कृतिक , साहित्यिक विषयों में रूचि रखने वाला है तो उसके साथ वे गहरे आत्मीय बातें करते हैं ढेर सारी चर्चाएँ अकादमिक जगत की समाज , साहित्य कला संस्कृति सबकी बीच- बीच में हास्य से भरे किस्सागों का रसास्वादनअद्भुत आनंद (रस ) से भर देता है | । ऐसे में उन्हें सुनना अपने भीतर के  खालीपन को भरने जैसा लगता है ।

‘मैं भी मुख में जबान रखता हूँ’ की आत्मस्वीकारोक्ति करने वाले मैनेजर पाण्डेय आज एक शिखर आलोचक के रूप में ख्यात हैं । हालांकि हिंदी समाज सदैव उन्हें नामवर सिंह  के बाद का आलोचक मानता है किंतु मेरा मानना है कि पाण्डेय जी नामवर के पहले या बाद के आलोचक न होकर नामवर के समानांतर चलने वाले आलोचक हैं और कुछ मामले में नामवर सिंह से आगे भी निकल चुके हैं ।

पाण्डेय जी ने  हिंदी आलोचना की जमीन को और अधिक उर्वर बनाया है । शास्त्रीय धारा के विरुद्ध समाजशास्त्रीय धारा को आगे बढ़ाया है । उन्होंने आलोचना में व्यापक लोकतंत्र की खोज की है तथा रचना को उसकी सामाजिक अस्मिता की पहचान दिलाई है । उनका मानना है कि कोई भी रचना समाज निरक्षेप नहीं होती उसका व्यापक सामाजिक सरोकार होता है तथा वह समाज से प्रभावित होती है और समाज  प्रभावित भी करती है । उन्होंने  अपनी आलोचना में रचना के दोनों परिप्रेक्ष्यों का मूल्यांकन किया है ।  पाण्डेय जी की जड़े जहाँ है हम वहाँ से जुड़े हैं । उस मिट्टी की उवर्रता उसकी नमी पाण्डेय जी के व्यक्तित्त्व का निमार्ण करती है ।

पाण्डेय जी वहाँ के रहने वाले हैं जहाँ आज भी जनता का बाजार लगता है ( जनता बाजार स्थान है ) जहाँ बाजार पर पूँजीवादी सत्ता पूरी तरह से काबिज नहीं हो पायी है । उस स्थान को देखकर उसके नामकरण के आधार पर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बड़े से लोकतांत्रिक देश में कभी बाजार जनता के द्वारा जनता के लिए हुआ करता था लेकिन आज बाजार से जनता को बेदखल करके सत्ता को संचालित करने वाले पूँजीपतियों का कब्जा कायम है । जनता के खून पसीने से सींची हुई फल सब्जियों आनाज उनसे कम दामों में खरीदकर पूँजीपतियों द्वारा बाजार में पँहुचायी जाती है  अब सीधे बाजार में आम किसान की पहुँच नहीं है | पाण्डेय जी उस रचना को महत्व देते हैं सत्ता के पक्ष में न होकर उसके प्रतिरोध में आम आदमी की कतार में उसकी ताकत बनकर खड़ी हो सके । रचना साधन  नहीं है साध्य है । रचना वह आग है जिससे जनता अपना चिलम सुलगा सकती है , जिससे मशाल  जला सकती है और जरूरत पड़ने पर जो सत्ता को झुलसा सकती है ।आज की रचना से धीरे – धीरे वह आग गायब होती जा रही है । 

विष्णु चन्द्र शर्मा ने हिंदी आलोचना के बारे में सटीक टिप्पणी करते हुए लिखा है कि – “हिंदी आलोचना के आधुनिक ,प्रगतिशील और वैज्ञानिक आदि शब्दों का प्रयोग प्राय: अलंकारों की तरह होता है |”

मैनेजर पाण्डेय की आलोचना भाषा न तो सुविधा की भाषा है न दुविधा की ,न अति सरल है न दुरूह, न तो दार्शनिक है और न मनोरंजनपूर्ण बल्कि वह आलोचना भाषा सहज बोध को जागृत करने वाली संवादधर्मी भाषा है | वह सवांद स्थापित करती है | पाण्डेय जी की आलोचना भाषा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैसा बोलते हैं वैसा लिखते हैं | अर्थात् एक साफगोई  स्पष्टता दिखाई देती है क्योंकि वे रचनाकार की आलोचना नहीं करते बल्कि रचनाकर की रचना में निहीत विशेषताओं तथा सामाजिक तत्वों की तलाश करते हुए उसकी रचनाधर्मिता पर बोलते और लिखते हैं|

वे दार्शनिक और रहस्यपूर्ण ढंग से आलोचना नहीं करते बल्कि कबीर की तरह डंके की चोट पर सच कहने का साहस रखते हैं | बिना दिखावटी शपथ लिए जो कहूँगा ,सच कहूँगा की प्रतिबद्धता के साथ लिखते हैं | उनकी एक आलोचनात्मक पुस्तक है ‘ अनभै सांचा’ बहुत ही सटीक नाम है बिल्कुल उनकी आलोचना भाषा सांच के आंच पर तपकर निर्भीक और निद्वंद्व  है |

वे जब अपना साक्षात्कार देते हैं तो इनकी भाषा इतनी आत्मीय और संवादधर्मी होती है कि वह सहज ‘बतकही’ जैसा लगता है  जो लोकजीवन का शब्द है और जिसका प्रयोग तुलसीदास ने रामचरितमानस में किया है | पाण्डेय जी को सहजता पसंद है वे बनावटी सजावटी जीवन शैली के व्यक्ति नहीं है इसलिए जब अपनी साक्षात्कारों को पुस्तकाकार रूप देते हैं तो  उसका नाम ‘बतकही’ रखते है |

‘बतकही’ हाल फ़िलहाल में प्रकाशित उनकी संवादधर्मी  पुस्तक है जिसपर अलग – अलग विषयों पर अलग – अलग समयों में अलग – अलग लोगों की बातचीत है | वे भाषा में बाह्य आडम्बर रचने वाले आलोचक नहीं हैं | दार्शनिक गुथ्थियों को भी सहज भाषा में समझा देने वाले आलोचक हैं | वे भाषिक बनावट को नहीं भाषा की विश्वसनीयता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं | वे भाषा की भावुकता को नहीं संवेदनशीलता को महत्व देते हैं |

पाण्डेय जी अपनी आलोचना में समय व समाज की नब्ज को पकड़ लेते हैं | धूमिल की कविताओं की आलोचना करते हुए एक जगह वे लिखते हैं – “ आजकल सरकारी जबान आदेश के साथ – साथ उपदेश की भाषा भी बोल रही है | समाचार के ठीक पहले या बाद में सुनाई पड़ता है जिसे जो काम मिला है उसे वह निष्ठापूर्वक करे ,यही सच्ची देश – सेवा और राष्ट्र प्रेम है |” आगे पाण्डेय जी लिखते हैं “ यह सर्वोदयी उपदेश ऊपर से जितना सहज , सात्विक और निरामिष लगता है ,भीतर से वैसा है नहीं |”   (हिदी कविता अतीत और वर्तमान – पृष्ठ  – 147)

यहाँ पाण्डेय जी की आलोचना दृष्टि भाषा की राजनीति और राजनीति की भाषा दोनों को समझाने में सफल है|

  

डॉ.अर्चना त्रिपाठी ने भारतीय भाषा केन्द्र Jnu से शोधकार्य किया है । दिल्ली विश्वविद्यालय के जीसस एंड मेरी कॉलेज में अध्यापन। जनसत्ता, हिंदुस्तान, समीक्षा, समयांतर, समकालीन भारतीय साहित्य में आलेख एवं पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित। कादंबिनी तथा अंतिम जन में कविताएँ प्रकाशित। इसी वर्ष काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के १०० वर्ष पूरे होने पर ‘काशिका’ पत्रिका में सुप्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय का साक्षात्कार भी लिया है जिसमें काशी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें हैं। लेखिका से इस ईमेल पते पर संपर्क किया जा सकता है।  ईमेल : jnuarchanatripathi@gmail.com


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