कल्लू

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हरजीत सिंह


5 जनवरी 1959 को देहरादून में जन्मे हरजीत का जीवन लगभग चालीस साल का रहा। 22 अप्रैल 1999 को दमे के अटैक ने हरजीत को हमसे दूर कर दिया परंतु अल्पायु जीवन में ही हरजीत इतना काम कर गया कि उसे भुलाया नहीं जा सकता। हरजीत बहुआयामी प्रतिभावान था। बेहतरीन ग़ज़लगो। उसके जीवन में ही दो ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके थे। कवि विष्णु खरे से प्रशंसा पा लेना आसान नहीं था। विष्णु खरे हरजीत के मुरीदों में से रहे। चौदह फ़रवरी 1998 को अपना संग्रह ‘सब की आवाज़ पर्दे में’ हरजीत को भेंट करते हुए विष्णु जी ने अपने संबोधन में लिखा कि “अपने सबसे प्रिय ग़ज़लगो को”। हरजीत ग़ज़ल तक ही सीमित नहीं था, बेहतरीन फ़ोटोग्राफ़र, बेहतरीन चित्रकार,  बेहतरीन ग़ज़लगो और सबसे बड़ी बात बेहतरीन इंसान और दोस्त।

हरजीत के विराट व्यक्तित्त्व की पुष्टि के लिये इससे बड़ा तथ्य क्या हो सकता है कि विदेशी सुविख्यात स्वीडी उपन्यासकार लार्स एंडरसन मसूरी आये तो हरजीत से उनकी मुलाक़ात हुई। यारों का यार होना हरजीत की खूबी थी। ज़ाहिर है कि लार्स एंडरसन से भी हरजीत की यारी हुई होगी। उस समय हरजीत से इस लेखक की कई मुलाकातें हुईं थीं। और वे हरजीत से क़िस्म क़िस्म की बातें किया करते थे। मसूरी से लौटने के बाद लार्स एंडरसन को कुछ याद रहा या नहीं किंतु ‘हरजीत’ उन्हें ज़रूर याद रहा, याद ही नहीं उनके हृदय में समा गया। लार्स एंडरसन ने अपने देश लौटने के बाद उपन्यास BERGET (पर्वत) लिखा। लार्स एंडरसन के दिलोदिमाग़ पर हरजीत किस कदर छा गया था कि यह उपन्यास कुछ हद तक हरजीत के जीवन से उत्प्रेरित है। इसके केंद्र में एक काष्ट-कलाकार है। दिल को छू देने वाली बात यह कि लार्स एंडरसन ने इस उपन्यास को अपने बच्चों के अलावा हरजीत को समर्पित किया है।

हरजीत को इस फ़ानी दुनिया से अलविदा हुए बीस बरस बीत चुके है। उसके दोनों ग़ज़ल संग्रह इस समय उपलब्ध नहीं है। एक ग़ज़ल संग्रह ‘ खेल’ अप्रकाशित है। दोस्तों को अपने पत्रों के ज़रिये ग़ज़लें व शे’र इधर उधर बिखरे पड़े है। हरजीत के काम को पुस्तक रूप में रेखाकिंत करने का बीड़ा स्वर्गीय वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने उठाया था और वह इस दिशा में सक्रिय थे परंतु दुर्भाग्य से मई 2020 में बरनवाल जी का निधन हो गया। बरनवाल जी द्वारा शुरू किये गये काम को कवि लेखक राजेंद्र शर्मा, जो हरजीत के दोस्त रहे है, ने आगे बढ़ाने का, पूरा करने का संकल्प लिया है। राजेंद्र शर्मा ने बताया कि अब यह काम कोई अकेले नहीं कर रहा है, हरजीत के तमाम दोस्त,  जो देहरादून,  चंडीगढ, दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, भोपाल, मुंबई तक फैले है। सब मिलकर कर रहे है। इसके तहत हरजीत के दोनों प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह का पुर्नप्रकाशन, अप्रकाशित संग्रह ‘खेल’ का प्रकाशन तथा इधर-उधर बिखरी पड़ी ग़ज़लों और शे’र की एक किताब का प्रकाशन कराये जाने के अतिरिक्त सहारनपुर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘शीतलवाणी’ का हरजीत पर केंद्रित अंक प्रकाशित करने की योजना है। इस योजना को मूर्त रूप देने के लिये फ़ेसबुक पर ‘हरजीत के दोस्त’ पेज बनाया है और इस नाम से एक व्हाटसअप ग्रुप भी बनाया गया है।

हरजीत की डायरी, उसके पत्रों से पता लगता है कि हरजीत के पिता की असामयिक मृत्यु और घर का बड़ा लडका होने के कारण घर की ज़िम्मेदारी हरजीत पर आ गयी थी। उस समय हरजीत ने लिखा है कि बहुत अकेलेपन में, असुरक्षा में रहा। इसी अकेलेपन में उसने लिखना शुरू किया और कहानियाँ लिखी। हांलाकि हरजीत की कोई कहानी कहीं छपी हो ऐसा कोई तथ्य अभी तक जानकारी में नहीं है। संभवत उसी दौर में हरजीत ने ‘कल्लू’ नामक कहानी लिखी। यह कहानी हरजीत की हस्तलिपि में प्रतिष्ठित कवियित्री तेजी ग्रोवर के पास मूल रूप में सुरक्षित है। पुस्तकनामा को यह अप्रकाशित कहानी राजेंद्र शर्मा ने उपलब्ध कराई है।

पुस्तकनामा के माध्यम से सभी सुधि पाठकों से आग्रह है कि यदि हरजीत से जुड़ी स्मृतियों आप में से किसी के पास हो तो राजेंद्र शर्मा के मोबाईल नंबर 9892062000 पर सम्पर्क करने की कृपा करें।


उसका रंग इतना काला नहीं था जैसा कि उसका नाम पड़ चुका था कल्लू। मुनसपैलटी की नौकरी के अलावा जिन दुकानदारों से उसका महीना बंधा था उनकी दुकानों में झाड़-पौछ और बाहर की सफ़ाई वो रोज़ सवेरे बिलानागा कर देता था। सड़क की सफ़ाई का नंबर तो तब आता जब किसी मंत्री ने दौरा करना हो।

लाला जी ने दुकान खोली तो कल्लू ने जग में भरा पानी छिड़कना शुरू कर दिया। आज लाला जी बड़ी सफ़ेद धोती पहन कर आये है, साथ में उनका मंझला लड़का भी है, कोई चक्कर ज़रूर है, यह सोचते हुए कल्लू दुकान की झाड़-पौछ करने लगा। कहीं हल्की-सी धूल लाला जी की धोती की तरफ़ उड़ कर आ गई। बस लाला जी बरस पड़े— ““सुसरो तुम लोग जहां हो वहीं रहोगे, अबे दूसरों के कपड़ों को भी देख लिया करो।”

कल्लू ने चुपचाप बात सुन ली, सोचा कि यह भी लाला के महीने के साथ बंधा हुआ है। दुकान के बाहर कूड़ा साफ़ किया तो सामने से मुन्नों बग़ल में झाड़ू दबाये आती दिखी। इशारे से बुला लिया, क़रीब आई तो पूछा– “चा पियेगी?”

मुन्नों ने कहा—”मंगा ले”

सामने चाय वाले को इशारा करके दोनों धड़े पर बैठ गये। कल्लू ने दो बीड़ियाँ सुलगा कर एक मुन्नो को देते हुये कहा—”आज दिखे लाला मंझले लड़के का रिश्ता करने जा रहा हैं।”

मुन्नो ने कहा—”अब तो लाला के बटोरने के दिन है, लौंडिया तो पिछले साल निबटा दी।”

थोड़ा धुँआ निकाल कर फिर बोली—”इसके मंझले का रंग बड़ा पक्का है, लाला के परिवार में और तो कोई ना है पक्के रंग वाला, ये मंझला किस पर गयी है।”

कल्लू ने तुरंत सोच कर जवाब दिया—”जाने किस पे गया है। ये लाला लोग तो आठ बजे सवेरे के निकले रात दस बजे घर जावें है, इनका तो बिना नौकरों के न दुकान का काम चलता है न घर का।”

मुन्नों हल्की से मुस्काई और चुप ही रही। चाय के साथ कल्लू और मुन्नो कुछ और क़िस्सा छेड बैठे। अब सारा दिन कोई काम तो था नहीं ।

लाला जी जैसे ही चलने को हुए कि पड़ौस के एक आढ़ती ने उनसे आकर कहा कि मंत्री जी आ रहे है। हमारी आढ़ती एशोसियेशन की तरफ़ से आपने भी उन्हें हार पहना कर उनका स्वागत करना है। हमने यहाँ पर दो मिनट कार रुकवाने के लिये दिल्ली फ़ोन कर बात कर ली है।

मंझले को दुकान की ज़रूरी बातें समझाकर लाला जी लड़की वालों के घर पहुँचे। चाय-पानी के बाद सीधे मतलब की बात शुरू हुई। लड़की वालों ने जो देना दिवाना था उसकी एक लिस्ट काग़ज़ पर लिखकर लाला जी को पढ़ने दे दी। टीके में लड़के की घड़ी, सोने की चैन और एक लाख रूपया। शगुन में दस हज़ार रूपये, फ़र्नीचर, टी.वी., फ्रिज…। लाला जी ने लिस्ट पढ़कर सिर्फ़ इतना कहा—”मंझले की बारात में खाने के इंतज़ाम में कमी न हो, बड़े लड़के की बारात में बरातियों से बस ये ही बात हमने बहुत सुनी, बैरे वग़ैरह सब सही होने चाहिये, ये आजकल सुसरे बैरे भी खाना खिलाते कम है ग़ायब ज़्यादा करते है।”

लड़की वालों की तरफ़ से एक सज्जन ने जवाब दिया—”आप चिंता न करें हम ये शिकायत नहीं आने देगें।”

लाला जी यह कहते हुये उठ खड़े हुए कि—”मंझले की बुआ और मामी लड़की को देखने कल शाम आवेंगी।”

लड़की को एक कमरा बंद करके बुआ, मामी और साथ में आई मौसी ने देखा। ये तीनों औरतें आपस में बात कर रही थी— वो अपने दीनदयाल जी है न, उनकी लड़की घर बैठी है शादी के छह महीने बाद।

उनमें से एक ने पूछा— क्या हुआ उसे?”

“पता नहीं कुछ ख़राबी बता रहे थे। पहले देख लेते तो ठीक रहता।”

थोड़ी देर बाद कमरा खुला लड़की तो झट अपने कपड़े सँभालती हुई दूसरे कमरे में जाकर लगभग रूआसी-सी पड़ गई। इन तीनों ने चाय के साथ बर्फ़ी का टुकड़ा चबाते हुए कुछ और शादी के ज़ेवरों की बात कर ली।

घोड़ी पर बैठे मंझले का पाउडर ज़्यादा ही चमक रहा था। शहर की बारात थी सो देर भी हुई। बच्चों ने दो-दो कोल्डड्रिंक पिये और बड़े बाराती आपाधापी में ही यू ही रह गये। अलबत्ता लड़की वालों ने बारातियों से बार बार कोल्डड्रिंक पूछने और ध्यान रखने का काम एक सज्जन को सौंप रखा था। उसने लाला जी को खुद अपने हाथ से एक ठंडी बोतल पेश करते हुये कहा—”देर हो चुकी है, बारातियों को खाने के लिये रूकना नहीं चाहिये।” लाला जी ने इशारा किया और कुछ उन सज्जन ने विनती की तो बराती सारे खाने के पंडाल की तरफ़ चल दिये। और सब को तो कुछ धक्कामुक्की के बाद खाने की प्लेटें हासिल करनी पड़ी मगर दूल्हे और लाला जी के साथ कुछ ख़ास रिश्तेदारों के लिये बैरे खुद प्लेटें सजाकर लाने लगे। सबके बाद लाला जी के लिये भी एक बैरा खाने की प्लेट सजा के लाया। लाला जी ने प्लेट पकड़ते हुए जैसे ही उस नीली टोपी वाले बैरे की शक्ल की ओर देखा, उनके हाथ से खाने की प्लेट गिर गई, वह कल्लू था।


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