अभिषेक कश्यप
यह समझने में मुझे थोड़ा वक्त लगा कि राजेन्द्र जी की भक्त मंडली में शामिल मेरे दोस्त युवा/नवोदित लेखक-लेखिकाओं के बीच राजेन्द्र यादव उर्फ गॉडफादर पर कब्जे की होड़ मची है। ये भक्तगण ‘हंस’ कार्यालय से लेकर सार्वजनिक समारोहों तक गॉडफादर से चिपके रहते। वे उनकी हर बात में हुँकारी भरते, चक्कलस करते, उनके छोटे-मोटे काम करते हुए दूसरे भक्तों से ज्यादा नंबर हासिल करने की प्रतियोगिता में जीजान से जुटे रहते।
यही नहीं, वे गॉडफादर के सामने खुद को ‘सबसे काबिल’, उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी और दूसरों को जाहिल और अनुपयोगी साबित करने में भी पूरी ईमानदारी से जुटे रहते।
कई बार यह भी होता, उनका ‘परम भक्त युवा कथाकार’ दूसरे भक्तों से शाम के रसरंजन की महफिल में मिलता। मदिरापान के लंबे दौर के बाद अपने होशोहवास खो चुके भक्तों को गॉडफादर की निंदा के लिए उकसाता फिर ‘वे तमाम बातें’ नमक-मिर्च लगा कर गॉडफादर तक पहुँचा देता।
०००
एक दोपहर राजेन्द्र जी के साथ मैं और उनका यह ‘परम भक्त युवा कथाकार’ किसी से मिलने गये। पहले से तय था, वहाँ से लौट कर हम दोनों राजेन्द्र जी के साथ उनके घर जाएँगे, जहाँ रसरंजन की महफिल जमनी थी।
शाम को वापस लौटते हुए राजेन्द्र जी के घर पहुँचने से पहले हमने सागरोमीना के इंतजाम के लिए मयूर विहार मार्केट के पास गाड़ी रुकवायी तो राजेन्द्र जी ने कहा, ‘‘यार, एक पैकेट रेड क्लासिक ले लेना।’’
मयूर विहार के मॉडल शॉप से जब हम मदिरा खरीद कर गाड़ी की ओर बढ़ रहे थे तो मैंने गॉडफादर के परम भक्त युवा कथाकार को याद दिलाया, ‘‘राजेन्द्र जी के लिए सिगरेट लेकर आता हूँ।’’
उसने मुझे झिड़क दिया, ‘‘अरे छोड़ो यार, बुड्ढे से कह देंगे, आपके ब्रांडवाली सिगरेट नहीं मिली। ताऊ सठिया गया है। इसे हमेशा कुछ-न-कुछ चाहिए। वह भी मुफ्त की !’’
मैं दंग रह गया ! गॉडफादर के बारे में यह राय उस युवा कथाकार की थी, जो गॉडफादर के सामने उनकी मुसाहिबी की सारी इंतिहा पार करते हुए नतमस्तक रहा करता था। प्रतिदान में गॉडफादर ने भी अपने इस शिष्य को न केवल एक युवा कथाकार के रूप में स्थापित प्रतिष्ठित किया था बल्कि अपने प्रभाव से विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापकी का सिंहासन भी सौंपा था।
दरअसल यह एक खेल था। ‘परम भक्त युवा कथाकार’ की रणनीति यह थी कि गॉडफादर के पीठ पीछे … दूसरों के आगे वह ऐसा प्रदर्शित करे, मानो गॉडफादर को वह कुछ नहीं समझता। उसके इस प्रदर्शन के प्रभाव में दूसरे भक्त यह समझने लगें कि जब ‘परम भक्त’ ही गॉडफादर को कुछ नहीं समझता फिर हम क्यों समझें ! इस मनःस्थिति में वे गॉडफादर के आदेशों की अवहेलना करें और उनकी ‘गुडलिस्ट’ से धकिया दिये जाएँ।
‘परम भक्त’ की असल मंशा यही थी … भक्ति-प्रतियोगिता में रास्ते के काँटे निकल जाएँ, मैदान खाली हो जाए तो गॉडफादर के दरबार में उसका वर्चस्व बना रह सकता है।
०००
गॉडफ़ादर का फ़ेमिनिस्ट फ़ार्म’
खबरिया चैनलों पर केंद्रित ‘हंस’ के विशेषांक ने अच्छी-खासी धूम मचायी। शायद यह पहली बार हुआ था कि किसी साहित्यिक पत्रिका में खबरिया चैनलों के 50 से ज्यादा पत्रकारों ने अपना लेखकीय योगदान दिया था। इस अंक में प्रकाशित 29 कथाकारों में एक-दो टीवी पत्रकारों को छोड़ दें तो बाकी सभी ने पहली बार कहानी-लेखन में हाथ आजमाया था। या यूँ कहें, नवोदित कथाकार के रूप में उनकी पहली कहानी ‘हंस’ में छपी थी।
इस विशेषांक के जरिये ‘हंस’ ने एक नये पाठक समुदाय में पैठ बनाकर अपना दायरा बढ़ाया और भरपूर यश अर्जित किया। साथ ही पत्रिका को जबरदस्त आर्थिक लाभ भी हुआ। अपनी तमाम साहित्यिक-वैचारिक प्रतिष्ठा के बावजूद विज्ञापन के मामले में ‘हंस’ की झोली आम तौर पर खाली ही रहती थी। यह शायद पहली बार हुआ था कि ‘मीडिया विशेषांक’ के लिए ‘हंस’ को 4-5 लाख रुपये के विज्ञापन मिले थे।
इस विशेषांक के प्रकाशन से ठीक पहले लंबे अरसे तक ‘हंस’ से बतौर सहायक संपादक जुड़े रहे गौरीनाथ न केवल ‘हंस’ छोड़ गए थे बल्कि अलगाव से पहले अपने प्रॉविडेंट फंड के पैसों को लेकर जैसा आक्रामक रूख अपनाया था, उससे राजेन्द्र जी बहुत आहत और किंचित दुविधाग्रस्त थे। लेकिन ‘मीडिया विशेषांक’ की सफलता और आर्थिक लाभ ने तत्काल उनके घावों पर मरहम का काम किया। राजेन्द्र जी का जोश और आत्मविश्वास वापस लौट आया था।
एक सुबह अचानक उनका फोन आया, ‘‘पंडित, कहाँ मर गये?’’
मैंने कहा, ‘‘हमें कौन मार सकता है? हम न मरब मरिहैं संसारा!’’
राजेन्द्र जी ने ठहाका लगाया, ‘‘अरे, मार डाला।’’
कुछ पल की चुप्पी के बाद उन्होंने थोड़े गंभीर लहजे में पूछा, ‘‘दिल्ली में ही हो ना ?’’
‘‘जी, घर पर हूँ।’’
बोले, ‘‘घर आ जाओ, कुछ बात करनी थी।’’
मैं जब उनके घर गया तो वह सुबह की ‘दूसरी नींद’ पूरी कर दफ्तर जाने के लिए तैयार हो रहे थे।
राजेन्द्र जी की सुबह की यह ‘दूसरी नींद’ का अजब किस्सा था। वे अपनी दिनचर्या के बहुत पक्के थे। आधी रात को सोते, तब भी सुबह 4 बजे जग जाते। वही उनके लिखने-पढ़ने का ‘असल समय’ था। उसके बाद नित्यकर्म से निवृत्त होने, नाश्ता करने के बाद नौ बजे से दस-साढ़े दस बजे, एक-डेढ़ घंटे वे फिर सो लेते। फिर उठ कर तैयार होते। दफ्तर जाते। राजेन्द्र जी के नियमित संपर्क में रहा हर व्यक्ति उनकी इस ‘दूसरी नींद’ के बारे में जानता था, सो कोई भी इस अवधि में फोन करके उनकी नींद में खलल नहीं डालता था।
यह जानते हुए भी कि राजेन्द्र जी सो रहे होंगे, मैं कई बार सुबह नौ-साढ़े नौ बजे उनके घर पहुँच जाता। किसन दरवाजा खोलते हुए मुस्कुराता, ‘‘बाबूजी सो रहे हैं।’’
मैं राजेन्द्र जी के बेडरूम में उनके बिस्तर के पास लगी कुर्सी पर चुपचाप बैठ जाता। किसन चाय-नमकीन लाकर दे जाता। चाय पीते हुए मैं आसपास पड़ी कोई किताब उठा लेता। उनके जगने तक मेरा किताबें उलटने-पुलटने, पढ़ने का सिलसिला जारी रहता।
ताज्जुब कि इस बीच कोई फोन आ जाता तो राजेन्द्र जी फोन भी उठा लेते। कहते, ‘‘भई, एक घंटे के बाद फोन करना, अभी सो रहा हूँ।’’
यह कैसी विचित्र नींद?
एक दिन मैंने उनसे कहा, ‘‘सुबह आप जब सोने जाते हैं तो फोन साइलेंट पर क्यों नहीं कर देते ? बेकार आपकी नींद में खलल पड़ती है।’’
वे बोले, ‘‘अब आदत हो गयी है। फोन साइलेंट पर कर दूँ तो गड़गड़ हो जाएगी। फिर दिन भर ये साला साइलेंट ही रहेगा। उसे नार्मल मोड में डालना मुझे बिलकुल याद नहीं रहेगा और सारे कॉल ‘मिस’ होंगे।’’
खैर, उस दिन मैं देर से पहुँचा था। दफ्तर जाने के लिए तैयार हो चुकने के बाद, रोज इस्तेमाल किए जानेवाले अपने चमड़े के बैग से निकाल कर राजेन्द्र जी ने मुझे 10-12 पन्नों की एक हस्तलिखित रचना पकड़ायी। रचनाकार का नाम देखते ही मैं चौंक गया। वह सोनी सिंह की कहानी थी। कहानी का शीर्षक भी कम चौंकाऊँ नहीं था: ‘गॉडफादर का फेमिनिस्ट फॉर्म’।
सोनी सिंह। उससे मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई थी। जहाँ तक मुझे पता चला, वह मेरे गृहजिले धनबाद की ही थी। राजेन्द्र जी से परिचित धनबाद के एक स्थानीय लेखक की पैरवीवाली चिट्ठी लेकर वह राजेन्द्र जी से मिलने आयी थी। जैसाकि राजेन्द्र जी अपने संपर्क में आये हर शख्स को लिखने-पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे, उसे भी किया। फिर उसकी राजेन्द्र जी से अच्छी पटने लगी। लेकिन वह जितनी जल्दी राजेन्द्र जी के करीब आयी थी, उतनी ही जल्दी उनसे दूर या कहें ‘बहुत दूर’ चली गयी: फिर कभी वापस न लौट कर आने के लिए।
एक-डेढ महीने पहले एक दोपहर मैं ‘हंस’ कार्यालय पहुँचा तो देखा, राजेन्द्र जी पोस्टकार्ड पर किसीको पत्र लिख रहे थे।
पोस्टकार्ड लिख लेने के बाद उन्होंने वीना उनियाल को आवाज लगायी, ‘‘वीना, ओ वीना।’’
वीना जी शायद किसी से फोन पर बात कर रही थीं सो उन्होंने पोस्टकार्ड मुझे पकड़ा दिया, ‘‘वीना को दे दो। कहना, आज भिजवा दे।’’
यह पत्र राजेन्द्र जी ने सोनी सिंह के नाम लिखा था, उसके दिल्ली वाले पते पर।
पोस्टकार्ड वीना जी को देने की बजाय मैं राजेन्द्र जी के सामने ही पूरी ढिठाई से वह पत्र पढ़ने लगा, शायद इस आशा में कि इस कुकृत्य के लिए वे मुझे लानतें भेजें, चिढ़ कर दो-चार ‘श्लोक’ सुनाएँ। लेकिन राजेन्द्र जी ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। वे ‘हंस’ के लिए प्रकाशनार्थ आयी कोई दूसरी रचना पढ़ने में मशगूल हो गए।
वैसे तो वह एक औपचारिक-सा पत्र था, जिसमें राजेन्द्र जी ने सोनी ने अपनी किताबें जल्द-से-जल्द वापस कर देने का आग्रह किया था। लेकिन राजेन्द्र जी के साथ रहे मुझ जैसे महाप्रपंची ने आसानी से उसमें एक चोट खाये आशिक के क्षोभ के स्वर को पहचान लिया।
दो बार पढ़ लेने के बाद पूरी तसल्ली से मैंने वह पोस्टकार्ड वीना जी को सौंपा था।
और अब … सोनी सिंह की कहानी। कहानी से पहले सोनी सिंह का राजेन्द्र जी के नाम लिखा एक पत्र भी था, जिसमें अब मेरी कोई रूचि नहीं रह गयी थी।
राजेन्द्र जी बोले, ‘‘चाय आ रही है, तब तक इसे पढ़ डालो।’’
मैंने 15-20 मिनट में कहानी पढ़ डाली। बिंबों-प्रतीकों के जरिये स्त्री-विमर्श की विडंबनाओं को अभिव्यक्त करती, स्त्री-विमर्श के झंडाबरदार काल्पनिक गॉडफादर की कलई खोलती एक औसत कहानी। कहानी का शीर्षक ‘गॉडफादर का फेमिनिस्ट फॉर्म’ भी जार्ज ऑरवेल की विश्वप्रसिद्ध कथाकृति ‘एनीमल फॉर्म’ से प्रेरित था।
मैंने राजेन्द्र जी से कहा, ‘‘पढ़ ली। करना क्या है ?’’
राजेन्द्र जी ने सवाल का जवाब सवाल से ही दिया, ‘‘तुम बताओ, क्या करें ? ‘हंस’ में छाप सकते हैं ?’’
जाहिर है, ‘हंस’ में इस कहानी के छपते ही नये तरह के विवाद खड़े हो सकते थे। राजेन्द्र जी की मंशा भी संभवतः यही थी। जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूँ, ‘हंस’ को चर्चाओं और विवादों के केंद्र में बनाये रखने में राजेन्द्र जी उर्फ गॉडफादर का कोई सानी नहीं था।
मैंने दोटूक राय दी, ‘‘छप तो सकती है लेकिन बहुत अनगढ़ और बिखरी हुई-सी है। रि-राइट करनी पडे़गी।’’
‘‘हाँ, मुझे भी लगा। तुम कर दो रि-राइट।’’
थोड़ी देर चर्चा के बाद तय हुआ कि मैं कहानी रि-राइट करूँगा लेकिन चूँकि कहानी का कथ्य ऐसा है कि इसे राजेन्द्र जी (गॉडफादर) और युवा लेखिका के संबंधों से जोड़ कर देखा जाएगा इसलिए यह जरूरी है कि कहानी के साथ कोई टिप्पणी भी प्रकाशित हो।
मैंने सुझाव दिया, ‘‘कहानी मैं रि-राइट कर दूँगा, आप टिप्पणी लिख दें। टिप्पणी कहानी के साथ भी छप सकती है या आप अपने संपादकीय में भी कहानी की चर्चा करते हुए टिप्पणी लिख सकते हैं।’’
राजेन्द्र जी निर्णायक स्वर में बोले, ‘‘नहीं, मैं नहीं लिखूँगा। तुम लिखोगे।’’
अब बहस की कोई गुंजाइश नहीं थी। मैंने कहानी रि-राइट कर दी। टिप्पणी भी लिखी, जो कहानी के साथ ‘हंस’ के अगले ही अंक (फरवरी 2007) में छपी।
गॉडफ़ादर का ‘फ़ेमिनिस्ट फ़ार्म’: व्यक्ति और व्यवस्था का द्वंद्व
गॉडफ़ादर का ‘फ़ेमिनिस्ट फ़ार्म’: व्यक्ति और व्यवस्था का द्वंद्व
शीर्षक ही नहीं शिल्प की वजह से भी सोनी सिंह की यह कहानी जार्ज ऑरवेल की विश्वप्रसिद्ध कृति ‘एनीमल फ़ार्म’ की याद दिलाती है। गॉडफ़ादर और फे़मिनिस्ट फ़ार्म के बहाने कथा-लेखिका व्यवस्था के उस बुनियादी चरित्र की ओर इशारा करती है, जो दरअसल मनुष्य विरोधी है। यह तय है कि कोई भी ‘व्यवस्था व्यवस्था के लिए’ होती है, मनुष्य की बेहतरी के लिए नहीं। दी गयी व्यवस्था में अपने साथ हो रहे शोषण, अत्याचार, अनाचार और गैरबराबरी से त्रस्त वंचित और शोषित तबका एक नयी व्यवस्था में होने और जीने का स्वप्न देखता है। अक्सर यह नयी व्यवस्था वंचित तबकों को यह भ्रम देती है कि यहाँ पहुँचकर उनके सारे सपने पूरे हो जाएँगे, उनका सशक्तीकरण किया जाएगा, उन्हें ‘मजबूत पंख’ दिए जाएँगे, और वे ‘रोल मॉडल’ बन जाएँगे। लेकिन यह कड़वा सच है कि किसी भी व्यवस्था के पास व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की आदिम आकांक्षा के लिए ‘स्पेस’ नहीं होता। हर व्यवस्था के कुछ नियम-कानून होते हैं। उन्हीं नियम-कानूनों के जरिये वह एक समूह विशेष पर अपना आधिपत्य जमाती है और अपना नियंत्रण बरकरार रखती है। लेकिन व्यक्ति की निजी अस्मिता, स्वतंत्रता की चेतना व्यवस्था के नियमों का अतिक्रमण करती है और इस तरह व्यक्ति विशेष व्यवस्था के लिए खतरा बन जाता है। ऐसे में खुद को बचाए और बनाए रखने के लिए व्यवस्था उस व्यक्ति का ही संहार करती है, जिसकी बेहतरी के लिए वह (व्यवस्था) अस्तित्व में आयी थी। व्यवस्था के बचे और बने रहने के लिए यह जरूरी है। यही व्यक्ति और व्यवस्था का द्वंद्व है। शायद इसलिए ज्याँ पाल सार्त्र किसी भी तरह के इंस्टीट्यूशनलाइजेशन (संस्थानीकरण) के खिलाफ़ थे।–अभिषेक कश्यप
मैं हैरान रह गया, जब ‘हंस’ में छपने के बाद कहानी के साथ मेरी टिप्पणी की भी खासी चर्चा हुई। ‘हंस’ के पाठकीय पत्रों के स्तंभ ‘अपना मोर्चा’ में तो एक पाठक ने मुख्य रूप से टिप्पणी की ही चर्चा करते हुए लिखा, ‘अभिषेक कश्यप ने अपनी छोटी-सी टिप्पणी में ‘बड़ी-सी परिभाषा’ रच दी है।’
(अभिषेक कश्यप की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘गॉडफादर: यादों की एलबम में राजेन्द्र यादव’ का एक अंश। पुस्तक की कीमत: 150 रुपए, प्रकाशक: इंडिया टेलिंग)